Quantcast
Channel: বাংলা শুধুই বাংলা
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1191

शैलेश, हिन्दी साहित्य के भंडार को भर कर चले गये. पर्वतीय अंचल के जनजीवन के अभावों, सुख­दुख, संघर्षों, और जिजीविषा को जीवन्त रूप में उभार कर चले गये. पर हमने, हमारी व्यवस्था ने उनके नाम से एक दो पुरस्कार घोषित कर जैसे छुट्टी पाली. ताराचंद्र त्रिपाठी

Next: खेती की तरह आईटी सेक्टर में भी खुदकशी का मौसम गोरक्षा समय में पहले करोड़ नौकरियां पैदा करने के सुनहले दिनों के ख्वाब दिखाये गये और अब जीएसटी के जरिये रोजगार सृजन की बात की जा रही है।सुनहले दिनों के ख्वाब में युवाओं का न रोजगार है और न कोई भविष्य।जीवन साथी चुनना भी मुश्किल है।फर्जी तकनीकी शिक्षा के दुश्चक्र में परंपरागत शिक्षा से वंचित इस युवा पीढ़ी के हिस्से में अंधेरा ही अंधेरा
$
0
0
शैलेश, हिन्दी साहित्य के भंडार को भर कर चले गये. पर्वतीय अंचल के जनजीवन के अभावों, सुख­दुख, संघर्षों, और जिजीविषा को जीवन्त रूप में उभार कर चले गये. पर हमने, हमारी व्यवस्था ने उनके नाम से एक दो पुरस्कार घोषित कर जैसे छुट्टी पाली. 
ताराचंद्र त्रिपाठी

शैलेश मटियानी पर गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने अपने फेस बुक वाल पर यह बेहद प्रासंगिक,मार्मिक और वैचारिक आलेख पोस्ट किया है।पहाड़ में बटरोही के अलावा बाकी किसी साहित्यकार ने अबतक शैलेश जी के कृतित्व पर कोई खास टिप्पणी नहीं की है।

हम जब जीआईसी में गुरुजी के छात्र थे,तभी उन्होंने हमें शैलेश जी की कहानियों और उपन्यासों के जरिये पहाड़ के सामाजिक यथार्थ को समझने के लिए कहा था।लेकिन अब तक उनका शैलेश जी पर लिखा कोई आलेख देखने को नहीं मिला,जबकि वे हमेशा शैलेश जी के जीवन संघर्ष,उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को बहुत महत्व दिया करते थे।उन्हींके सान्निध्य में कपिलेश भोज और मुझे सबसे पहले शैलेश मटियानी की रचनाओं के मार्फत पहाड़ और बाकी दुनिया को समझने की दृष्टि मिली थी।
यह आलेख शैलेश जी के अवसान के बाद उनकी समाज और सत्ता की ओर से घोर उपेक्षा और उनकी स्मृति अवशेष के निरादर पर यह बेहद विचारोत्तेजक टिप्पणी है।बेटे की मृत्यु के बाद आजीवन प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लड़ने वाले मटियानी जी में थोड़ा वैचारिक परिवर्तन आया,जिस अपराध में हिंदी के प्रगतिशील तत्वों ने उन्हे और उनके योगदान को सिरे सेखारिज कर दिया।लेकिन देखनेवाली बात यह है कि जो सामाजिक यथार्थ और उससे जुड़े अस्पृश्यता के दंश से लहूलुहान पहाड़ और बाकी देश का साक्षी है उनका रचनासमग्र ,वह कुलमिलाकर नस्ली फासिज्म की विचारधारा के खिलाफ ही है ,जिसका इस्तेमाल अन्याय और असमता की मनुस्मृति व्यवस्था के हित में कतई नहीं हो सकता और न सत्ता की राजनीति में शैलेश जी का दुरुपयोग संभव है।
नतीजतन वामपक्ष की तरह दक्षिणपंथी हिंदुत्ववाजियों ने भी शैलेश जी की कोई सुधि नहीं ली,जिनके साथ शैलेशजी को नत्थी कर देने की कोशिशें लगातार हो ती रही है।
शैलेश मटियानी और उनके कृतित्व को समझने के लिए हमारे हिसाब से हिंदी और भारतीय साहित्य के हर पाठक को ताराचंद्र त्रिपाठी का यह आलेख अवश्य पढ़ना चाहिए।
हम चूंकि साहित्यिक बिरादरी में नहीं हैं,इसलिए कवियों,साहित्यकारों और संपादकों और आलोचकों के लिए मेरा यह बयान नहीं है।मेरे हिमालय के लोग और मरे बारत के आम लोग शैलेश जी की भूमिका के बारे में तनिक विवेचना करें,इसके लिए गुरुजी की यह टिपप्णी शेयर कर रहा हूं।
पलाश विश्वास

आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के फेसबुक वाल से 

विधाता. जब किसी को भरपूर प्रतिभा देता है तो उसके साथ ऐसी विसंगतियाँ भी जोड़ देता है कि उसके लिए जीना दूभर हो जाता है. इस विसंगति के चक्रव्यूह से वही निकल पाते हैं जिनमें संघर्ष करने की अपार क्षमता होती है. इसी को चाल्र्स डार्विन ने प्राकृतिक चयन या योग्यतम की उत्तरजीविता की प्रकृतिक प्रक्रिया कहा है.
शैलेश मटियानी का जीवन भी इसका एक जीता­जागता नमूना है. वे आजादी से सोलह साल पहले एक पिछड़ेे पर्वतीय गाँव के बेहद गरीब परिवार में जन्मे और बारह वर्ष की अवस्था में अनाथ हो गये. दो जून रोटी के लिए न केवल अपने चाचा की मांस की दूकान में काम करना पड़ा, अपितु कलम संभालते ही अपने गरीब और पिछड़ेे परिवेश से उठने के प्रयास में एक बोचड़ की दूकान में काम करने वाला छोकरा इलाचन्द जोशी और सुमित्रानन्दन पन्त से टक्कर लेना चाहता है. जैसे व्यंग बाण भी सहे.
उनको तपा­तपा कर सोना बनाने की प्रक्रिया में काल भी जैसे क्रूरता की हदें पार कर गया. अपने पापी पेट की भूख को शान्त करने के लिए होटल में जूठे बरतन माँजने से लेकर अनेक छोटे­मोटे काम करने पडे. दिल्ली, मुजफ्फर नगर, फिर कुछ दिन अल्मोड़ा, और अन्ततः इलाहाबाद आ गये. इतनी भटकन और अभावों से उनके जीवन पथ को कंटकाकीर्ण बनाने के बाद भी जैसे काल संतुष्ट नहीं हुआ, और उनके मासूम छोटे पुत्र की हत्या के प्रहार ने उन्हें बुरी तरह तोड दिया. मौत भी ऐसी दी कि क्रूर से क्रूर व्यक्ति को रोना आ जाय.
इतने कठिन जीवन संघर्ष के बीच उन्होंने न केवल हिन्दी साहित्य को दर्जनों अमर कृतियों की सौगात दी अपितु अपने अंचल के जीवन को भी अपनी रचनाओं में जीवन्त रूप से उभारा. सच पूछें तो कुमाऊँ की पृष्ठभूमि, उसके सुख दुख, अभावों और संघर्ष के बीच भी जनजीवन के मुस्कुराने के पल दो पल खोजने के प्रयासों को भी उनके अलावा पर्वतीय अंचल का कोई अन्य कथाकार उतनी शिद्दत के साथ नहीं उभर पाया है.
उन्होंने अनेक उपन्यास लिखे, दर्जनों कहनियाँ लिखीं, 'पितुआ पोस्टमैन'के सामान्य धरातल से उठ कर वे 'प्रेतमुक्ति'के जाति, वर्ग, सामाजिक विडंबनाओं से मुक्त मानवत्व की महान ऊँचाइयों पर पहुँचे. जब कि उनका सहारा लेकर उठे, और लक्ष्मी के वरद्पुत्र बने तथाकथित रचनाकार समाज में सामन्ती युग के प्रेतों को जगाने में लगे हुए हैं.
शैलेश, हिन्दी साहित्य के भंडार को भर कर चले गये. पर्वतीय अंचल के जनजीवन के अभावों, सुख­दुख, संघर्षों, और जिजीविषा को जीवन्त रूप में उभार कर चले गये. पर हमने, हमारी व्यवस्था ने उनके नाम से एक दो पुरस्कार घोषित कर जैसे छुट्टी पाली. हल्द्वानी में उनके आवास को जाने वाले मार्ग का नामकरण 'शैलेश मटियानी मार्ग, का शिला पट्ट लगाकर, जैसे उन पर एहसान कर दिया. उस शिला पट्ट की हालत यह है कि, उस पर परत­दर­परत कितने व्यावसायिक विज्ञापन चिपकते जा रहे हैं इस पर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है.
उनका आवास जीर्ण­शीर्ण हो चुका है, टपकते घर के बीच उनका परिवार जैसे­तैसे दिन काट रहा है, अपने पिता की थात को फिर से लोगों के सामने लाने के लिए उनके ज्येष्ठ पुत्र राकेश, रात­दिन अकेले लगे हुए हैं. सत्ता और पद के मद में आकंठ निमग्न, जुगाड़­धर्मी अन्धी व्यवस्था में ही नहीं अपने आप को रचनाधर्मी कहने वाले हम लोगों में भी मौखिक सहानुभूति के अलावा उनकी स्मृति को सुरक्षित करने और नयी पीढी को अभावों से लोहा लेते हुए अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने की प्रेरणा देने के लिए कोई विचार नहीं है.
कितने कृतघ्न हैं हम लोग! यह इस देश में नहीं पता चलता, विदेशों में जाने पर पता चलता है. मुझे 2011 तथा 2013 में छः मास लन्दन में बिताने का अवसर मिला. अपनी यायावरी की आदत से लाचार मैंने लन्दन का कोना­कोना छान मारा. वैभव और उपलब्धियों से भरे इस महानगर में सबसे ध्यानाकर्षक बात लगी 'अपने कृती पुरखों के याद को बनाये रखने की प्रवृत्ति. अकेले लन्दन में कीट्स, सेमुअल जोन्सन, चाल्र्स डिकिंस, चाल्र्स डार्विन, जैसे उनसठ रचनाधर्मियों के आवासों को उनके कृतित्व का संग्रहालय बना दिया गया है. इस श्रद्धापर्व में उनके अपने लोग ही शामिल नहीं है. नाजी जर्मनी के उत्पीड़न से बचने के लिए लन्दन में शरण लेने वाले फ्रायड जैसे अनेक विदेशी मूल के कृती भी विद्यमान हैं. यही नहीं आज के रसेल स्क्वायर के जिस आवास में चाल्र्स डिकिन्स आठ वर्ष रहे और अपने कृतित्व को उभारा, आज पाँच सितारा होटल में रूपान्तरित होने पर भी, उसके मालिक अपनी दीवार पर यह लिखना नहीं भूले कि इस आवास में चाल्र्स डिकिंस आठ वर्ष रहे थे. ब्रिटिश पुस्तकालय के प्रांगण में आइजेक न्यूटन आज भी अपना परकार (कंपास) लेकर अन्वेषण में लगे हुए हैं. बैंक आफ इंग्लैंड वाले मार्ग पर 1808 मे जेलों में सुधार करने के लिए संघर्ष करने वाली महिला ऐलिजाबेथ के आवास पर, जो आज एक विशाल भवन में रूपान्तरित हो चुका है, उनके नाम और कृतित्व को सूचित करने वाली पट्टिका लगी हुई है. किसी भी सड़क पर चले जाइये, आपको अपने पूर्वजों के कृतित्व के प्रति आभार व्यक्त करने वाली पट्टिकाएँ मिल जायेंगी. और हमने अपने लोक जीवन को साहित्य के शिखर पर उत्कीर्ण करने वाले कथाकार के नाम पर एक मार्ग पट्टिका लगाई भी तो उसे अंट­शंट विज्ञापनों के तले पाताल में दफना दिया.
दो सौ साल जिनकी गुलामी में रहे, जिनकी भाषा, वेश­भूषा, बाहरी ताम­झाम को, अपनी परंपराओं को दुत्कारते हुए हमने अंगीकार किया, उनके आन्तरिक गुणों और अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता बोध को हम ग्रहण नहीं कर सके. आज भी हम वहीं पर हैं. पंजाब से आये लोगों की कर्मठता को अंगीकार करने के स्थान पर हम उनके नव धनिक वर्ग के तमाशों और तड़क­भड़क के सामने अपनी हजारों वर्ष के अन्तराल में विकसित सरल और प्राकृ्तिक रूप से अनुकूलित परंपराओं को ठुकराते जा रहे हैं.
तब और भी दुख होता है कि जहाँ प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर उनके ही जनपद का व्यक्ति आसीन है, उनके पुत्र को अपने कृती पिता की स्मृति को धूमिल होने और अपने बीमार घर को धराशायी होने से बचाने के लिए दर­दर भटकना पड रहा है.
-- 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1191


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>