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क्लासिक साहित्य जनपक्षधर होता तो हिंदी में अज्ञेय से बड़ा जनपक्षधर कोई नहीं होता। संघी विचारधारा और एजंडे के लिए काम करनेवाले शाखाओं में निक्कर पहनकर प्रशिक्षित हों,यह जरुरी नहीं।आयातित हाइब्रिड जल जगंल जमीन से कटी प्रजाति के साहित्यकार बुद्धि्जीवी शाखाओं में गये बिना ही मुक्तबाजारी हिंदुत्व एजंडे के तहत साहित्य संस्कृति पर सवर्ण एकाधिकार वर्चस्व बनाये हुए हैं।ये लोग ही स

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क्लासिक साहित्य जनपक्षधर होता तो हिंदी में अज्ञेय से बड़ा जनपक्षधर कोई नहीं होता।

संघी विचारधारा और एजंडे के लिए काम करनेवाले शाखाओं में निक्कर पहनकर प्रशिक्षित हों,यह जरुरी नहीं।आयातित हाइब्रिड जल जगंल जमीन से कटी प्रजाति के साहित्यकार बुद्धि्जीवी शाखाओं में गये बिना ही मुक्तबाजारी हिंदुत्व एजंडे के तहत साहित्य संस्कृति पर सवर्ण एकाधिकार वर्चस्व बनाये हुए हैं।ये लोग ही संघ परिवार के केसरिया अश्वमेध के गुप्त, घातक सिपाहसालार हैं। जो राजनेताओं से ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि ये ब्रेनवाशिंग रंगरेज हैं।


पलाश विश्वास

संदर्भः


  


Anil Janvijay

July 17 at 3:26am





तारा बाबू का कुछ पढ़ा हो किसी ने तब तो कुछ कहेंगे। पलाश विश्वास ने बिना पढ़े ही सबको संघी घोषित कर दिया, इसीलिए मैंने इनके इस लेख पर कोई जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा। इन्होंने गुरुदत्त को भी नहीं पढ़ा है। बस, नाम लिख दिया है

कर्मेंदु शिशिर बंकिम चंद्र के आनंदमठ का हिंदुत्व से कुछ लेना देना नहीं मानते और वे ताराशंकर को क्सालिक मानते हैं और उनके सामंती मूल्यों पर चर्चा से उन्हें आपत्ति हैं।कर्मेंदु एक जमाने में हिंदी के सशक्त प्रतिबद्ध कथाकार माने जाते रहे हैं।इधर के उनके मंतव्यों को देख लें तो समझ में आ जायेगा कि कैसे हमारे तमाम प्रिय लोगों का पक्ष प्रतिपक्ष बदल गया है।मानुषी का स्त्रीपक्ष भी बदल गया है।हम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस कायाकल्प की बात कर रहे थे।

मीडिया के केसरियाकरण पर आम सहमति के बावजूद साहित्य और संस्कृति के केशरिया आधार,गढ़ों,किलों और मठों पर कोई विमर्श क्यों नहीं है,मेरा मुद्दा दरअसल यही है।अपवादों की हम चर्चा नहीं कर रहे,राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता की बात बी हम नहीं कर रहे।समता,न्याय और सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर जनपक्षधर साहित्य की बात हम कर रहे हैं।हमारे लिए शाखा या संघ संस्थानों से जुड़ाव भी कोई कसौटी नहीं है।मनुस्मृति बहाली के सवाल पर साहित्य में संघ परिवार के एजंडा के मुताबिक साहित्य सांस्कृतिक अखिल भारतीय परिदृश्य के अलावा हम इस उपमाद्वीप के जिओ सोशियो इकानामिक पोलिटिक्स के नजरिये से हमेशा अपनी बात रखते आये हैं।

असहमति हो सकती है।आप हमारे तर्कों को सिरे से खारिज कर सकते हैं।इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हम सम्मान करते हैं।हिंदुत्ववादियों के गाली गलौज का भी हम खास बुरा नहीं मानते।जगदीश्वर जी शायद मुझे कोलकाता में होने की वजह से थोड़ा बहुत जानते हैं,जिनके फेसबुक मतव्य पर हमने मंतव्य किया है औय यह मंतव्य कोई शोध पत्र नहीं है कि संदर्भ प्रसंग सहित प्रमाण फेसबुक पर पेश किया जाये।

जनविजय जी ने कह दिया कि मैंने तारा बाबू या गुरुदत्त को पढ़ा ही नहीं है।यानी उनके मुताबिक मैं अपढ़ और लापरहवा दोनों हूं।हम पलटकर यह नहीं कहेंगे कि उ्नहोंने ताराशंकर को पढ़ा नहीं है।विद्वतजन हम जैसे लोगों को अपढ़,अछूत और अयोग्य मानते हैं।जीवन में इसका नतीजा हमें हमेशा भुगतना पढ़ा है।मेरे लिखे का हिंदी जगत या बंग्ला या इंग्लिश इलिट भद्रलोक समुदाय ने कोई नोटिस नहीं लिया है और मुझे अफसोस नहीं है।

चूंकि यह बहस पब्लिक डोमैन पर हो रही है तो मुझे जनविजय जी के इस मंतव्य पर थोड़ा स्पष्टीकरण देना है।कर्मेंदु शिशिर ने यह नहीं लिखा है कि मैंने ताराबाबू को नहीं पढ़ा है,तो इस पर मुझे कुछ नहीं कहना है।जगदीश्वर जी असहमत हैं।

जनविजयजी जिस तरह हिंदी वालों का जन्मदिन याद रखते हैं,इससे लगता है कि वे हिंदी वालों को बहुत खूब जानते हैं।मैं चूंक नोटिस लेने लायक नहीं हूं ,वे मुझे नहीं जानते होंगे और जाहिर है कि मुझे कभी पढ़ा भी नहीं होगा।क्योंकि प्रिंट में मुझे कोई छापता भी नहीं है और न मैं पुस्तकें छपवाने में यकीन रखता हूं,तो यह उनका दोष भी नहीं है।

मैंने थोड़ बहुत पढ़ाई बचपन से लेकर अब तक की है।जनविजय जी को मालूम होना चाहिए कि बंगाली परिवारों में सत्तर के दशक तक रवींद्र नजरुल माइकेल विद्यासागर शरत ताराशंकर का पाठ अनिवार्य दिनचर्या रही है।सत्तर के दशक तक हमने भक्तिभाव से वह सारा साहित्यआत्मसात किया है बंगाली संस्कृति के मुताबिक।यह मेरा कृत्तित्व नहीं है।सामुदायिक,सामाजिक जीवन का अभ्यास है।बाकी सत्तर के दशक में जीवन दृष्टि सिरे से बदल जाने से वह भक्तिभाव नहीं है जो रामचरित मानस,गीता भागवत, पुराण,उपनिषद पाठ का होता है।

यही मेरा अपराध है।

जनविजय जी,क्लासिक साहित्य जनपक्षधर होता तो हिंदी में अज्ञेय से बड़ा जनपक्षधर कोई नहीं होता।मुक्तिबोध ने कहा है कि सरल होने का मतलब जनता का साहित्य नहीं होता।कबीर दास की रचनाओं को हम सरल नहीं कह सकते क्योंकि उसका दर्शन बेहद जटिल है।लेकिन उनका पक्ष जनता का पक्ष है,यह कहने में दिक्कत नहीं है।रामचरित रचने वाले गोस्वामी तुलसी दास का रामायण क्लासिक लोकसाहित्य है लेकिन उनका मर्यादा पुरुषोत्तम हिंदू राष्ट्र का अधिनायक और मनुस्मृति अनुसासन लागू करने वाला है।उनका राम स्त्री विरोधी है।इस सच का सामना करने का मतलब यह कतई नही है कि हम संतों के सामंत विरोधी आंदोलन को खारिज कर रहे हैं।

बहुत कुछ महत्वपूर्ण और क्लासिक लिखा जा रहा है।हमारे समय के दौरान उदय प्रकाश और संजीव ने बहुत कुछ रचा है।संजीव के रचनास्रोतों और उनकी पृष्ठभूमि से मैं परिचित हूं और उदयप्रकाश की रचनाओं की खूब सराहना होने के बावजूद मैंने उसे जनपक्षधर नहीं बताया है।इसी के साथ संजीव को बी मैंने बदलाव का साहित्यकार नहीं माना है।

बांग्ला में अस्सी के दशक के बाद जो कोलकाता केंद्रित साहित्य लिखा जा रहा है,उसके मुकबले हमने हमेशा बांग्लादेश के जनपद केंद्रित या असम,त्रिपुरा,बिहार में लिखे जा रहे बांग्ला साहित्य को बेहतर माना है।इसलिए सुनील गंगोपाध्याय समूह के लेखकों और कवियों के पक्ष में मैं कभी नहीं रहा हूं।

बांग्ला में माणिक बंद्योपाध्याय,महाश्वेता या नवारुण दा को भद्रलोक समाज क्लासिक नहीं मानता और वह ताराशंकर के बाद सीधे सुनील संप्रदाय का महिमामंन करता है जैसे आज भी धर्मवीर भारती अज्ञेय के वंशज हिंदी में मठों के मालिकान हैं।

सत्तर के दशक में हिंदी, बांग्ला,मराठी,पंजाबी साहित्य का जो जनप्रतिबद्ध कृषि क्रांति समर्थक धारा है,वह मुक्तबाजार में किसतरह कारपोरेटमीडिया की तर्ज पर कारपोरेट हिंदुत्व के मूल्यों के अबाध पूंजी प्रवाह में तब्दील है,मेरी मुख्य चिंता इस सांस्कृतिक सामाजिक कायाक्लप की है,जिसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति निरंकुश रंगभेदी मनुस्मृति सत्ता है और जिसका धारक वाहक संघ परिवार है।

जरुरी नहीं है कि साहित्य और संस्कृति की यह धारा सीधे तौर पर गुरु गोलवलर और सावरकर विचारधारा से प्रेरित है।सरकारी खरीद,सरकारी अनुदान और पाठ्यक्रम के मुताबिक प्रकाशन तंत्र की वजह से हिंदी में राजबाषा होने की वजह से भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा पूंजी खपने की वजह से एक अदृश्य सर्वशक्तिमान सवर्ण जातिवादी माफिया तंत्र हैं,जिसमें प्रकाशक,आलोचक और संपादक वर्ग समाहित है।पाठ्यक्रम में किताबों की खरीद तय करने वाले प्राध्यापकों का एक शक्तिशाली तबका भी हिंदी पर कंडली मारे हुए है।लघु पत्रिका आंदोलन के अवसान के बाद इसलिए सरकारी पूंजी से हिंदी में केसरियाकरण या केसरिया कायाकल्प निःशब्द रक्तहीन क्रांति है और इस सच का सामना विद्वतजन करना  नहीं चाहते।

जगदीश्वरजी ने संघ की विचारधारा से जुड़ी रचनाधर्मिता पर सवाल उठाया है,क्लासिक साहित्य पर नहीं।लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति के मुताबिक गोस्वामी तुलसीदास बेजोड़ हैं,लेकिन उनका राम स्त्रीविरोधी,अनार्यसभ्यताविरोधी,द्रविड़ विरोध,अस्पृश्यता का समर्थक और हिंदू राष्ट्र की नस्ली विचारधारा का मूल स्रोत है,यह लिखने से आप कहेंगे कि हमने रामायण भी  है


संघी विचारधारा और एजंडे के लिए काम करनेवाले शाखाओं में निक्कर पहनकर प्रशिक्षित हों,यह जरुरी नहीं।आयातित हाइब्रिड जल जगंल जमीन से कटी प्रजाति के साहित्यकार बुद्धि्जीवी शाखाओं में गये बिना ही मुक्तबाजारी हिंदुत्व एजंडे के तहत साहित्य संस्कृति पर सवर्ण एकाधिकार वर्चस्व बनाये हुए हैं।ये लोग ही संघ परिवार के केसरिया अश्वमेध के गुप्त, घातक सिपाहसालार हैं। जो राजनेताओं से ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि ये ब्रेनवाशिंग रंगरेज हैं।



जनविजय जी,आप हमें साहित्य का आदमी नहीं मानते।आपको मालूम होना चाहिए कि मैंने ताराशंकर बंद्योपाध्याय का लिखा हर उपन्यास पढ़ा है और उन पर बनी फिल्में भीि देखी हैं।मैने बहुत पहले अंग्रेजी में एक लेख तारासंकर के रचनासमग्र पर लिखा था,human documentation of hatred:

http://palashbiswaslive.blogspot.in/2008/07/human-documentation-of-hatred.html

ताराशंकर की रचनाएं बंगाल में जमींदार तबके के संकट और औद्योगीकरण की वजह से उत्पादन प्रणाली में जमींदारी और जातिव्यवस्था के टूटन के विरुद्ध है।उनके सबसे मशहूर उपन्यास गणदेवता का चंडीमंडप का चौपाल मनुस्मृति व्यवस्था को बनाये रखने की कथा है क्योंकि जाति अनुशासन तोड़कर गांव के लोग शहरो में जाकर अपना पेशा बदल रहे थे।सत्यजीत राय की फिल्म जलसाघर आपने देखी होगी,जिसमें जमींदारी के पतन का विषाद मुख्यथीम है।गौरतलब है कि बंगाल में स्वराज आंदोलन जमींदारों के पतन और स्थाई बंदोबस्त के टूटने के कारण शुरु हुआ क्योंकि तब तक बंगाल में आदिवासी किसान विद्रोहों और मतुआ आंदोलन की वजह से बहुजन आईंदोलन सवर्ण वर्चस्व को तोड़ने लगा था और तीनों अंतरिम सरकारें गैर सवर्ण दलित मुस्लिम नेतृत्व में थी।

भाषा,शिल्प के मुताबिक ताराशंकर मेरे भी प्रिय कथाकार हैं।उनकी रचनाओं में चरित्रों और परिस्थितियों का जो ब्यौरेवार विश्लेषण चित्रण है,उसका मुकाबला भारतीय साहित्य मे शायद किसी के साथ नहीं हो सकता।बंगाल में सामाजिक यथार्थ उपन्यास में उन्होने ही सबसे पहले पेश किया है।उनकी रचनाएं क्लासिक है,इसमें कोई दो राय नहीं है।

हम उनके पक्ष की बात कर रहे हैं।वे गांधीवादी थे और गांधी की तरह वर्ण व्यवस्था के कट्टर समर्थक थे।उनका मानवतावाद मनुस्मृति का मानवतावाद है जो रामकृष्ण मिशन का मानवता वाद है जो भारत सेवाश्रम से हिंदुत्व से अलग है।

कहने को दर्शन नर नारायण है और आचरण अस्पृश्यता है।

रामकृष्ण मिशन के मानवतावादी हिंदुत्व और कांग्रेस की नर्म हिंदुत्व की राजनीति एक सी है,जिसे किसी भी सूरत में गुरु गोलवलकर या सावरकर की विचारधारा से जोड़ा नहीं जा सकता।यहीं उदार दर्शनीय मानवतावाद और नर्म सनातन हिंदुत्व मनुस्मृति व्यवस्था के लिए संजीवनी है,जो बंगाल के नवजागरण और ब्रह्मसमाजे के बाद रामकृष्ण और विवेकानंद के स्रवेश्वरवाद की वजह से सहनीय हो गया है।इसलिए बंगाल में वैज्ञानिक ब्राह्मणतंत्र के एकाधिकार वर्चस्व के खिलाफ बहुजनों में किसा तरह का कोई विद्रोह आजादी के बाद नहीं हुआ है।यह उत्तरभारत और दक्षिण भाऱत के दलित उत्पीड़न की प्रतिक्रिया में हो रहे दलित आंदोलन के समूचे परिप्रेक्ष्य को बंगाल में अप्रासंगिक बना देता है क्योंकि इस उदार मानवता वाद की वजह से अस्पृश्यता और बेदभाव के अन्याय और असमता के तंत्र पर किसी की नजर जाती नहीं है।यह दलित उत्पीड़न से ज्यादा खतरनाक स्थिति है।

हम आज हिंदुत्व के पुनरूत्थान के लिए गुरु गोलवलकर और सावरकर की तुलना में कांग्रेस की वंशवादी,जमींदारी,रियासती,ब्राह्मणवादी हिंदुत्व को ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं।कांग्रेस की यह विचारधारा सबसे ज्यादा बारतीय साहित्य में ताराशंकर के रचनाकर्म में अभिव्यक्त हुई है।जिसका महिमामंडन करने में हिंदी के विद्वतजन भी पीछे नहीं है।यह हिंदुत्वकरण की वैज्ञानिक पद्धति है।जिसकी ज़ड़ें बंगाल में हैं।

यह सच है कि माणिक बंद्योपाध्याय के पुतुल नाचेर इतिकथा और पद्मा नदीर मांझी में अंत्यज जीवन के ब्यौरे की तुलना में ताराशंकर के देहात,जनपद और अंत्यज जीवन के ब्यौरे ज्यादा प्रामाणिक हैं।

इसीतरह महाश्वेता देवी के उपन्यासों की आदिवासी दुनिया के मुकाबले ताराशंकर के आदिवासी ज्यादा असल लगते हैं।लेकिन माणिक और महाश्वेता दोनों सामंती और साम्राज्यवादी मूिल्यों के विरुद्ध थे और किसान आदिवासियों के संघर्ष की कथा तो ताराशंकर के उपन्यासों में है ही नहीं।

ताराशंकर के रचनासमग्र में  सबकुछ जमींदारी प्रथा की शोकगाथा है या मनुस्मृति अनुशासन टूटने का विलाप है।

इसी तरह शरत हर हाल में स्त्री अस्मिता का पक्षधर है लेकिन उनका हर नायक ब्राह्मण है और वे ब्रह्म समाज के कट्टर विरोधी भी थे।इसके विपरीत  किसानों , आदिवासियों के सामाजिक जीवन संघर्ष के साथ उनका साहित्य नहीं है।

इसी वजह से हम उन्हें रवींद्र नाथ और प्रेमचंद के साथ नहीं रखते हैं।

कवि ताराशंकर का  बेहद लोकप्रिय उपन्यास है,जिसपर फिल्म भी बनी है।कवि जाति से डोम है।कवि नायक हैं।लोकसंस्कृति कविगान की पृष्ठभूमि में लिखे इस उपन्यास की पंक्ति दर पंक्ति दर सारी कथा भद्रलोक सवर्ण दृष्टि से है और दलितों ,अछूतों की जीवनशैली के प्रति अटूट घृणा है।

इसीतरह हांसुली बांकेर उपकथा और नागिनी कन्यार काहिनी में वे आदिवासी जीवन का सघन ब्यौरे पेश करते हैं।लेकिन औद्योगीकरण,शहरीकरण और उत्पादन प्रणाली में बदलाव की वजह से आदिवासियों की मुख्यधारा से जुड़ने के वे खिलाफ हैं और उनके पक्षधर हैं।वहां टोटेम आधारित जीवनपद्धति और परंपरागत पेशा में बने रहने पर सारा जोर है।

मजा यह है कि ताराशंकर का समूचा रचना संसार राढ़ बांग्ला की लाल माटी में रचा बसा है और जनपद का इतना प्रामाणिक साहित्य भारतीय भाषाओं में दुर्लभ है,जिसे क्लासिक माना जाता है।हिंदी के लोग भी उन्हें क्लासिक मानते हैं।वे लोग अंग्रेजी के वेसेक्स क्षेत्र केंद्रित उपन्यासों को क्लासिक मानते हैं।लेकिल शैलेश मटियानी या फणीश्वरनाथ रेणु या शानी उनके लिए सिर्फ आंचलिक उपन्यासकार हैं।यह दोहरा मानदंड बी अजब गजब का है।

क्लासिक साहित्य जनपक्षधर हो,यह कोई जरुरी नहीं है।

पूंजीवाद और मुक्तबाजार के पक्ष में क्लासिक साहित्य लिखा गया है।

जार्ज बर्नार्ड शा का एप्पल कार्ट तो सीधे तौर पर लोकतंत्र के खिलाफ राजतंत्र के पक्ष में लिखा गया नाटक है और वे भी क्लासिक हैं।शोलोखोव भी क्लासिक हैं और बोरिस पास्तरनाक भी क्लासिक है।हम गोर्की,दास्तावस्की या तालस्ताय की श्रेणी में शोलोखोव और पास्तरनाक को कहां रखेंगे,काफ्का या यूगो के मुकाबले कामू को कहां रखेंगे,मुद्दा यही है।

अज्ञेय की भाषा अद्भुत है,लेकिन उन्हें हम प्रेमचंद की श्रेणी में नहीं रखते या मुक्तिबोध के समकक्ष नहीं समझते।मोहन राकेश राजेंद्र यादव कमलेश्वर को क्या हम प्रेमचंद के साथ खड़ा पाते हैं,सवाल यही है।

सामाजिक यथार्थ के उपन्यासकार माणिक बंद्योपाध्याय या महाश्वेता देवी की रचनाओं के मुकाबले ताराशंकर ज्यादा पठनीय हैं,ज्यादा शास्त्रीय है,लेकिन वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के विरुद्ध उनके आरोग्य निकेतन का विमर्श प्रतिगामी है,यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है।

साठ के दशक में हमने गुरुदत्त के तमाम उपन्यास पढ़े हैं।भारत विभाजन की कथा से

लेकर आर्यसमाज की विचारधारा पर केंद्रित उपन्यास और कम्युनिस्ट,गांधी नेहरु विरोधी उपन्यास भी।

इसी तरह नरेंद्र कोहली और आचार्य चतुरसेन को भी हमने खूब पढ़ा है।

कोहली और चतुरसेन की रचनाएं साहित्यिक दृष्टि से ज्यादा समृद्ध थीं और आम जनता पर उसका कोई खास असर नहीं रहा है।गुरुदत्त लेकिन काफी असरदार थे।

क्योंकि आर्यसमाज की हिंदुत्व के पुनरूत्थान में वही भूमिका है जो बंगाल में रामकृष्ण मिशन की है या यूपी में पतंजलि योगाभ्यास की है।

उत्तर भारत के शहरों मे संघ परिवार की शाखा प्रशाखा का विस्तार सरस्वती सिशु मंदिर के साथ साथ आर्यसमाज आंदोलन के साथ हुआ है।गुरुदत्त के तमाम उपन्यासों में गांधी नेहरु की विचारधारा और कम्युनिस्टों के उग्र विरोध के साथ भारत विभा्जन से लिए मुसलमानों और गांधी को जिम्मेदार ठहराया गया है।जो साहित्य में भले ही उपेक्षित रहा हो,लेकिन हिंदी के हिंदुत्ववादी,आर्यसमाजी पाठकों में उसका असर अमिट है।शरणार्थी परिवार से होनेकी वजह से जूनियर कक्षाओं में ये उपन्यास पढ़ते हुए  हम भी कापी विचलित रहे हैं।

आपको शायद हैरत होगी कि हम पिछले चार दशकों से हिंदी,बांग्ला और दूसरी भारतीयभाषाओं के साहित्य का अध्ययन करता रहा हूं।अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने के बावजूद मैंने रूसी,फ्रांसीसी और यूरोपीय भाषाओं का साहित्य ज्यादा पढ़ा है।


मीडिया की तरह साहित्य और संस्कृति के केसरियाकरण जो हो रहा है,अध्यापक प्राध्यापक केंद्रित साहित्य और विमर्श का जो मनुस्मृति बोध है,वह आरएसएस की विचारधारा के मुताबिक है।

मैंने बंगाल के अलावा बांग्लादेश के साहित्य पर भी लगातार अध्ययन किया है ,जो जनपद केंद्रित हैं,बोलियों में लिखा गया है।

हर किसी को आलोचकों,संपादकों और प्रकाशकों के हितों के मुताबिक या खेमाबंदी के तहत महान कह देने वाला मैं नहीं हूं।हालांकि आप सही है कि मेरे लिखे पर आप जैसे विद्वतजन कोई महत्व देना जरुरी नहीं समझते।



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