रवींद्र का दलित विमर्श-22
गोदान की धनिया,सद्गति की झुरिया और रवींद्र की चंडालिका भारतीय स्त्री अस्मिता का यथार्थ!
देहमुक्ति के विमर्श में विषमता के रंगभेदी नस्ली विमर्श शामिल नहीं है और इसीलिए बलात्कार सुनामी मुक्तबाजार का धर्म कर्म है।सद्गति का सिलसिला थमा नहीं है।नरसंहार संस्कृति में सद्गति तो मुफ्त उपहार है।
महिमामंडन और चरित्रहनन के शिकार रवींद्रनाथ!
नोबेल पुरस्कार से पहले अछूत ब्रह्मसमाजी रवींद्र को बांग्ला भद्रलोक सवर्ण समाज कवि साहित्यकार मानने को तैयार नहीं था तो नोबेल पुरस्कार मिल जाने के बाद उन्होंने रवींद्र को वैदिकी धर्म और बांग्ला ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद का प्रतीक बना डाला।अछूत रवींद्र की जगह जमींदार रवींद्रनाथ ने ले ली और भद्रलोक रवींद्र विमर्श में रवींद्र लंपट जमींदार के सिवाय कुछ नहीं है।
पलाश विश्वास
सवर्ण भद्रलोक विद्वतजनों ने नोबेल पुरस्कार पाने के बाद से लेकर अबतक रवींद्र के महिमामंडन के बहाने रवींद्र का लगातार चरित्र हनन किया है।रवींद्र साहित्य पर चर्चा अब रवींद्र के प्रेमसंंबंधों तक सीमाबद्ध हो गया है जैसे उनके लिखे साहित्य को वैदिकी धर्म के आध्यात्म और सत्तावर्ग के प्रेम रोमांस के नजरिये से ही देखने समझने का चलन है।कादंबरी देवी,विक्टोरिया ओकैम्पो से लेकर लेडी रानू मुखर्जी तक के साथ प्रेमसंबंधों के किस्सों पर लगातार लिखा जा रहा है।
दूसरी तरफ, बहुजनों, मुसलमानों, स्त्रियों, किसानों, मेहनतकशों और अछूतों के लिए उनकी रचनाधर्मिता में समानत और न्याय की गुहार या सत्ता वर्ग वर्ण के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के खिलाफ उनके प्रतिरोध की चर्चा कहीं नहीं होती।
इसके विपरीत,भारत में स्त्री अस्मिता का सच प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की धनिया,उन्हींकी कहानी सद्गति की झुरिया और रवींद्र की चंडालिका के सामाजिक यथार्थ हैं।सामाजिक विषमता,नस्ली वर्चस्व, पितृसत्ता, अन्याय, असमानता, बहिस्कार, अत्याचार उत्पीड़न की सामंती महाजनी मनुस्मृति व्यवस्था में धार्मिक सांस्कृतिक पाखंड के हिसाब से सवर्ण स्त्री देवी है लेकिन पितृसत्ता की मनुस्मृति के विधान के तहत स्त्री आज भी शूद्र दासी है।
धर्म कर्म समाज राष्ट्र राजनीति और अर्थव्यवस्था के हिसाब से स्त्री उपभोक्ता वस्तु है और उसकी मनुष्यता की कोई पहचान नहीं है।
शूद्र,अछूत और आदिवासी स्त्री का मौजूदा सामाजिक यथार्थ तो गोदान,सद्गति और चंडालिका से भी भयंकर है।
मुक्तबाजार में एक तरफ देवी की पूजा का उत्सव और बाजार है तो दूसरी तरफ घर और बाहर सर्वत्र देवी की देह का आखेट है और अछूत आदिवासी स्त्रियों पर अन्याय,अत्याचार और उत्पीड़न की बलात्कार सुनामी ही आज का नस्ली राष्ट्रवाद है,जिसपर कानून का कोई अंकुश नहीं है।
चंडालिका इसी उत्पीड़ित स्त्री का विद्रोह है तो यही भारत में स्त्री अस्मिता का सच है लेकिन सवर्ण स्त्री विमर्श में चंडालिका,धनिया और झुरिया के लिए कोई जगह उसी तरह नहीं है जैसे साहित्य,संस्कृति और इतिहास में कृषि और किसानों,अछूतों और आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है।
देहमुक्ति के विमर्श में विषमता के रंगभेदी नस्ली विमर्श शामिल नहीं है और इसीलिए बलात्कार सुनामी मुक्तबाजार का धर्म कर्म है।तो दूसरी तरफ सद्गति का सिलसिला थमा नहीं है।नरसंहार संस्कृति में सद्गति तो मुफ्त उपहार है।
सत्ता वर्ण और वर्ग के लिए नोबेल पुरस्कार की वजह से रवींद्र नाथ को निगलना और उगलना हमेशा मुश्किल रहा है।
आधुनिक बांग्ला साहित्य के महामंडलेश्वर सुनील गंगोपाध्याय का दावा है कि विश्वभर में इने गिने लोग रवींद्रनाथ का नाम जानते हैं और जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला तब पूर्व के बारे में पश्चिम को कुछ भी मालूम नहीं था और इसीलिए तब रवींद्र की इतनी चर्चा हुई।कुल मिलाकर मान्यता यही है कि रवींद्र के सामाजिक यथार्थ के दलित विमर्श का कोई वजूद नहीं है और वैदिकी धर्म और आध्यात्म के बारे में पश्चिम की अज्ञानता के कारण ही रवींद्र को नोबेल मिला।राष्ट्रवादियों के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत की दलाल करने की वजह से रवींद्र को नोबेल पुरस्कार मिला।
हाल में रवींद्र साहित्य के खिलाफ राष्ट्रवादियों के फतवे से बांग्ला राष्ट्रवाद को धक्का लगा है और बंगाल में इस फतवे के खिलाफ आवाजें भी उठने लगी है।जैसे एकबार खुशवंत के रवींद्र को पवित्र गाय कह देने पर बंगाली भावनाओं को भारी सदमा लगा था।लेकिन सच यह है कि नोबेल पुरस्कार से पहले अछूत ब्रह्मसमाजी रवींद्र को बांग्ला भद्रलोक सवर्ण समाज कवि साहित्यकार मानने को तैयार नहीं था तो नोबेल पुरस्कार मिल जाने के बाद उन्होंने रवींद्र को वैदिकी धर्म और बांग्ला ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद का प्रतीक बना डाला।अछूत रवींद्र की जगह जमींदार रवींद्रनाथ ने ले ली और भद्रलोक रवींद्र विमर्श में रवींद्र लंपट जमींदार के सिवाय कुछ नहीं है।
फासीवादी राष्ट्रवाद के निशाने पर रवींद्र नाथ शुरु से हैं और 1916 में ही उनपर अमेरिका और चीन में हमले हुए।1941 में उनके अवसान के बाद रवींद्र विरासत को खारिज करने के लिए उनपर हमलों का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं हुआ।
मई, 2014 से बहुत पहले 17 सितंबर,2003 में बंगाल की गौरवशाली देश पत्रिका में एक पाठक सुजीत चौधरी,करीमगंज ने रवींद्र के चरित्रहनन के विरोध में लिखाःसांप्रतिक काल में देश पत्रिका में रवींद्रनाथ के संबंध में अनेक निबंध और पत्र प्रकाशित हुए हैं।जिन्हें पढ़कर आम पाठक की हैसियत से मुझे कुछ धारणाएं मिलीं,जो इसप्रकार हैंःएक-रवींद्रनाथ सांप्रदायिक थे।इसलिए अपने मुसलिम बहुल जमींदारी इलाके में नहीं,हिंदूबहुल वीरभूम में उन्होंने विश्वविद्यालय की स्थापना की।दो- वे कापुरुष थे और उनका देशप्रेम नकली था।तीन-उनकी कथनी और करनी में कोई सामजस्य नहीं था।कथनी में वे विधवा विवाह के समर्थक थे और असली वक्त पर खुद बाधा खड़ी कर देते थे।चार-वे जाति प्रथा के समर्थक थे।पांच-वे प्रणय संबंधों में निरंकुश थे।आठ साल के शिशु से लेकर अपनी भाभी तक किसी को उन्होंने नहीं बख्शा। छह-अपनी बालिकावधु पर उन्होंने प्रकांतर से अनेक अत्याचार किये।सात- कविता वविता कुछभी नहीं,कुछ गीतों के लिए वे जिंदा हैं।इसके विपरीत उम्मीद की बात यह है कि बांग्लाभाषी दूसरे सारे आलोचक,गवेषक,कवि,साहित्यकार,पत्रलेखक सभी आदर्सवादी,प्रगतिशील एवं निर्मल चरित्र के हैं।शुक्र है,वरना रवींद्र नाथ ने तो लगभग पूरे देश का ध्वंस कर दिया होता।(संदर्भःकी खाराप लोक छिलेन रवींद्रनाथ!देश,17 सितंबर,2003)
पत्र लेखक ने जिन बिंदुओं पर रवींद्र के चरित्र हनन की बात की है,वे सारे भद्रलोक रवींद्र विमर्श के तत्व हैं।आज भी रवींद्र विमर्श रवींद्र के प्रेमसंबंधों पर शोध का अनंत सिलसिला है।कम से कम हिंदी में ऐसे चरित्रहनन की नजीर नहीं है।
गौरतलब है कि देश के संपादक सागरमय घोष के निधन के बाद इस पत्रिका की भूमिका सुनील गंगोपाध्याय के नेतृत्व में बदल गयी जो रवींद्र को दौ कौड़ी का साहित्यकार नहीं मानते।उन्होंने इसी देश पत्रिका में समय को सूत्रधार मानकर तीन उपन्यासों की एक ट्रिलाजी प्रकाशित की,एई समय,पूर्व पश्चिम और भोरेर आलो और बांग्ला विद्वत समाज इसे नवजागरण,स्वतंत्रता संग्राम,भारत विभाजन,बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम,नक्सलबाड़ी आंदोलन,शरणार्थी समस्या और आधुनिक भारत का समग्र इतिहास बताते हैं।
इस इतिहास में बंगाल के नमोशूद्र सुनील गंगोपाध्याय के मुताबिक हिंदू कभी नहीं थे,दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में इन अछूतों को भी सवर्णों को हिंदू मान लेने की मजबूरी थी।
इस इतिहास में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसान जनविद्रोहों के लिए कोई स्थान नहीं है और मां काली को उन्होंने भोरेर आलो में लैंग्टा संथाल मागी याऩी नंगी संथाल औरत बताया है।
इस इतिहास में विभाजन पीड़ित शरणार्थियों की दंडकारण्य कथा है लेकिन मरीचझांपी नरसंहार नहीं है और शरणार्थी जीवन यंत्रणा को आपराधिक गतिविधियों से जोड़ते हुए शरणार्थियों को बंगाल की सारी समस्याओं की जड़ बताया गया है।
सुनील गंगोपाध्याय ने नवजागरण के राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे चरित्रों को अपने हिसाब से गढ़ा है तो रवींद्र कादंबरी प्रेम प्रसंग भी इस ट्रिलाजी का आख्यान है।
गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। यह महाजनी सभ्यता अब मुक्तबाार के कारपोरेटएकाधिकार में बदल गया है और एक नहीं,लाखों होरियों की मर्यादा की लड़ाई का अंतिम विकल्प अब आत्महत्या है।
आजादी से पहले किसान आदिवासी शूद्र अछूत मुसलमान समूचा बहुजन समाज जल जंगल जमीन के हकूक के लिए लगातार हजारोंहजार साल से लड़ता रहा है और आजादी के बाद में किसान आंदोलन सवर्ण सत्ता की राजनीतिक मनुस्मृति का शिकार है तो मुक्तबाजारी फासीवादी सैन्य राष्ट्रवाद में बेदखली की यह महाजनी सभ्यता निरंकुश नरसंहार संस्कृति है।
गोदान का नायक होरी एक किसान है जो किसान वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद है। 'आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष के बावजूद उसकी एक गाय की आकांक्षा पूर्ण नहीं हो पाती'। गोदान भारतीय कृषक जीवन के संत्रासमय संघर्ष की कहानी है।
अब होरी सिरे से दो बीघा जमीन की तरह लापता है और कोई शोकसंदेश नहीं है।
गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष जनपदीय लोक संस्कृति की साझा विरासत को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुबास भरी है।कृषि और किसानों की बेदखली और उनके वध उत्सव के इस दुःसमय में गोदान की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है।
गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन - उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता ओर बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता- का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है। उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसे सहलाता, क्लेश और वेदना को झुठलाता, 'मरजाद' की झूठी भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर आगे बढ़ता, भारतीय समाज का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।
गोदान के कथानक में नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, पत्रसंपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं, गोदान में ये सभी तत्व नखदर्पण के समान प्रत्यक्ष हो गए हैं।
यही आज का सच है और नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद में बहुजनों की सद्गति का सिलसिला जारी है।इस कहानी को दोबारा पढ़ें और हो सके तो इस कहानी पर बनी सत्यजीत रे की फिल्म को देखते हुए समकालीन डिजिटल इंडिया की नरसंहारी संस्कृति और समय के सच का सामना करें।
सद्गति -प्रेमचंद
दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, 'तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायँ।'
दुखी –'हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज़ पर ?'
झुरिया –'क़हीं से खटिया न मिल जायगी ? ठकुराने से माँग लाना।'
दुखी –'तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुरानेवाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जायँ। ले अपनी खटोली धोकर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जायगी।'
झुरिया –'वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।'
दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा, 'हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाय। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।'
झुरिया –'पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ ?'
दुखी –'क़हीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाय और थाली भी फूटे ! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी विरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज
तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत।'
झूरी –'गोंड़ की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीज़ें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़
की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जायगा।'
इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। ख़ाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या
था। उसे ख़ाली देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते। पं. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की
गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी। आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका हृदय
श्रृद्धा से परिपूर्ण हो गया ! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आँखें। रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले – 'आज कैसे चला रे दुखिया ?'
दुखी –'ने सिर झुकाकर कहा, बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी ?'
घासी –'आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ साँझ तक आ जाऊँगा।'
दुखी –'नहीं महराज, जल्दी मर्जी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ ?
घासी –'इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।'
दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी भोजन करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी ज़ोर की भूख लगी; पर वहाँ
खाने को क्या धारा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाय, तो पंडितजी बिगड़ जायँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना ज़ोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाज़ार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।
उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का पूरा है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ ज़रूर चिलम-तमाखू होगी। तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सुफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा, आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीज़ें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला, 'मालिक, रचिके आग मिल जाय, तो चिलम पी लें।'
पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा, 'यह कौन आदमी आग माँग रहा है ?'
पंडित –'अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा, है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।'
पंडिताइन ने भॅवें चढ़ाकर कहा, 'तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रो के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाय, नहीं तो इस लुआठे से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं।'
पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा, 'भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो
कम-से-कम चार आने लेता।'
पंडिताइन ने गरजकर कहा, 'वह घर में आया क्यों !'
पंडित ने हारकर कहा, 'ससुरे का अभाग था और क्या !'
पंडिताइन--'अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।'
दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान
है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर ज़मीन पर माथा टेकता हुआ बोला, 'पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते।'
पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी। जल्दी से पीछे हटकर सिर के झोटे देने लगा। उसने मन में कहा, यह एक पवित्तर बाह्मन के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं बाह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले ! घर भर का सत्यानाश हो जाय, पाँव गल-गलकर गिरने लगे। बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजें आने लगीं। उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं –'इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।'
पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा, 'रोटियाँ हैं ?'
पंडिताइन –'दो-चार बच जायँगी।'
पंडित –'दो-चार रोटियों में क्या होगा ? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जायगा।'
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं, 'अरे बाप रे ! सेर भर ! तो फिर रहने दो।'
पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा, 'क़ुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जायगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।'
पंडिताइन ने कहा, 'अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।'
दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आधा घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया। इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला, 'क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।'
दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा, 'अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई !'
गोंड़ –'क़ुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं ?'
दुखी –'क़ैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी !'
गोंड़ –'पचने को पच जायगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। ज़मींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।'
दुखी –'धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाय।'
यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आधा घंटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाय।'
दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक-न-एक चीज़ घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता। चलूँ जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा। उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलांग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जल्द खत्म हो जाता; फि र झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। ज़ोर से बोले –'अरे, दुखिया तू सो रहा है ? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या
रहा ? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना ! इसी से कहा, है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली।'
दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धॉसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना ही पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाय। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर
खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे हाँ, मार कसके, और मार क़सके मार अबे ज़ोर से मार तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है हाँ बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में ! दुखी अपने होश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमज़ोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आधा घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।
पंडितजी ने पुकारा, 'उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जायँ। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले ! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा –'अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी, चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न ? दुखी फिर भी न उठा।'
अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे और पंडिताइन से बोले, 'दुखिया तो जैसे मर गया।'
पंडिताइन हकबकाकर बोलीं—'वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न ?'
पंडित –'हाँ लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा ?'
पंडिताइन ने शान्त होकर कहा, 'होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो मुर्दा उठा ले जायँ।'
एक क्षण में गाँव भर में खबर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएं का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाय ! चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाय। एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा, अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं ? कोई गाँव में पानी पीयेगा या नहीं। इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे। इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ, हाँ दुखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करती वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पण्डितजी ने चमारों को बहुत धामकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आखिर निराश होकर लौट आये।
आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ? कहीं कोई दिखा दे। पंडिताइन ने झुँझलाकर कहा, 'इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं पकता। पंडित ने कहा, रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।'
पंडिताइन –'चमार का रोना मनहूस है।'
पंडित –'हाँ, बहुत मनहूस।'
पंडिताइन –'अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।'
पंडित –'चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।'
पंडिताइन –'इन सबों को घिन भी नहीं लगती।'
पंडित—'भ्रष्ट हैं सब।'
रात तो किसी तरह कटी; मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गन्ध कुछ-कुछ फैलने लगी। पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।
उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।