आदिवासियों का व्यापक भगवाकरण सबसे ज्यादा खतरनाक है
पलाश विश्वास
आदिवासी दुनियाभर में सबसे ज्यादा सामाजिक है।इस लिहाज से अगर सामाजिक होना मनुष्यता है तो असल में आदिवासी ही मनुष्य हैं,जिन्हें सत्ता वर्ग की पवित्र पुस्तकों में राक्षस, दानव, दैत्य, असुर,दस्यु,वानर,किन्नर न जाने क्या क्या लिखा कहा गया है। हमारा सारा मिथकीय इतिहास,साहित्य और धर्मग्रंथ आदिवासियों के विरुद्ध उऩके कत्लेआम के पक्ष में हैं।
बंगालभर में आदिवासी इलाकों में झाड़ग्राम,पुरुलिया,पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर,उत्तर बंगाल में भाजपा को बची हुई सीटों में ज्यादातर मिली हैं और कई जिलों में तो पंचायत समितियों में विपक्ष का पूरा सफाया होने के बावजूद भाजपा को सीटें मिली हैं और आदिवासी जिलों में ऐसा ज्यादा हुआ है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी राज्यों का भगवाकरण पहले ही संपन्न है।
ब्रिटिश मिलिट्री हिस्ट्री में संथाल विद्रोह,भील विद्रोह,चुआड़ विद्रोह का सिलसिलेवार ब्यौरा अंग्रेज सेनापतियों ने लिखा है।जिसमें आखिरी आदमी या औरत के जिंदा बचे रहने तक किसी आदििवासी के मोर्चा नहीं छोड़ने की घटनाओं का मार्मिक विवरण है।
भारत में पलाशी के युद्ध के बाद से जितने किसान विद्रोह हुए हैं,उनमें आगे बढ़कर कुर्बानी देने में आदिवासी सबसे आगे रहे हैं।
चार साल तक झारखंडा का चप्पा चप्पा छानते रहने के बाद पूर्वोत्तर और मध्यभारत समेत समूचे आदिवासी भूगोल में भटकते रहने की वजह से मेरी धारणा रही है कि आदिवासी दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की तरह अपने को न असुरक्षित महसूस करते हैं और न अपनी खाल बचाने के लिए या किसी दूसरे फायदे के लिए मौकापरस्त होते हैं।
हम पठानों मुगलों के खिलाफ लगातार युद्ध लड़ने वाले जिन राजपूतों की बात करते हैं और गर्व से फूले नहीं समाते,वे भी आदिवासी हैं,जिनका हिंदुत्वकरण बाकी अनार्यों की तरह हुआ है।
कर्नाटक में जो सत्ता का खेल चल रहा है,वह भारतीय लोकतंत्र का सच है और यही भारतीय राजनीति है,जिसका जनता से कोई नाता नहीं है।
अरबपति कुलीन सत्तावर्ग के इस खेल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है और लोकतंत्र,संविधान की हत्या का मातम मनाने वाले लोगों की तलवारबाजी से भी मुझे कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि व्यवस्था बदलने के लिए,समता और न्याय पर आधारित समाज बनाने के लिए वे अपने वर्गीय जाति हित या दृष्टिकोण छोड़कर जमीन पर आम जनता के साथ किसी भी बिंदू पर न खड़े हैं और न खड़े हो सकते हैं।
वे सभी ज्यादा पढ़े लिखे कुलीन सत्तावर्ग के ही राजनीतिक जनप्रतिनिधियों की तर्ज पर सम्मानित,प्रतिष्ठित,पुरस्कृत चैंबरदार कुर्सीवाले लोग हैं और बिना कोई जोखिम उठाये,बिना कुछ खोये अपनी विद्वता के मुताबिक अपना अपना पक्ष पेश कर रहे हैं और न हालात बदलने के लिए वे गंभीर हैं और न वे ऐसा कर सकते हैं।
क्योंकि वे ही नहीं,हम तमाम लोग उपभोक्ता ज्यादा हैं और नागरिक कतई नहीं।
हम राजनीतिक भले हों,सामाजिक तो कतई नहीं हैं और हमारा कोी सामुदायिक जीवन वातानुकूलित च्रचा परिचर्चा के दायरे से बाहर कतई नहीं है।
इसीलिए हमारी सारी दिलचस्पी राजनीति में है क्योंकि वह सीधे नकद भुगतान की व्यवस्था है।
समाज और सामाजिक आंदोलन में सक्रियता का मतलब सिर्फ खोना है,पाने की कोई उम्मीद नहीं है और ऐसा नुकसानवाला सौदा शेयरबाजार की मुक्तबाजार बिरादरी कर सकती है,तो करके दिखायें।
आदिवासी दुनियाभर में सबसे ज्यादा सामाजिक है।इस लिहाज से अगर सामाजिक होना मनुष्यता है तो असल में आदिवासी ही मनुष्य हैं,जिन्हें सत्ता वर्ग की पवित्र पुस्तकों में राक्षस, दानव, दैत्य, असुर,दस्यु,वानर,किन्नर न जाने क्या क्या लिखा कहा गया है। हमारा सारा मिथकीय इतिहास,साहित्य और धर्मग्रंथ आदिवासियों के विरुद्ध उऩके कत्लेआम के पक्ष में हैं।
आदिवासियों का समूचा जीवनचक्र सामुदायिक हैं जो समानता और न्याय पर आधारित है और उनके वहां स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है।
बंगाल में वाम और कांग्रेस के सफाये के बाद अभूतपूर्व हिंसा के मध्य तीस प्रतिशत सीटें निर्विरोध जीत लेने के बाद नब्वे प्रतिशत सीटों पर सत्तादल के कब्जे और बाकी बची सीटों पर संघ परिवार के वर्चस्व की ताजा घटना भी मेरे लिए हैरतअंगेज नहीं है।
मुझे बल्कि ताज्जुब यही हुआ कि बंगालभर में आदिवासी इलाकों में झाड़ग्राम,पुरुलिया,पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर,उत्तर बंगाल में भाजपा को बची हुई सीटों में ज्यादातर मिली हैं और कई जिलों में तो पंचायत समितियों में विपक्ष का पूरा सफाया होने के बावजूद भाजपा को सीटें मिली हैं और आदिवासी जिलों में ऐसा ज्यादा हुआ है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी राज्यों का भगवाकरण पहले ही संपन्न है।
दस साल तक अंबेडकरी आंदोलन के तहत बामसेफ के मंच पर देशभर में मैं यही शिकायत करता रहा कि कि संघ परिवार और माओवादियों को छोड़कर आदिवासी इलाकों में कोई नहीं जाता और अंबेडकरी तो कतई नहीं जाते।
अंबेडकरी लोग भी हमसे परहेज करते हैं क्योंकि हम जाति को मजबूत करने के बजाये जाति विनाश को ही बाबासाहेब का मिशन मानते हैं और सर्वहारा वर्ग के वर्गीय ध्रूवीकरण को अनिवार्य मानते हैं।
जल जंगल जमीन के हकहकूक के सवाल पर आदिवासियों के खिलाफ कारपोरेट राष्ट्रशक्ति के नरसंहार अभियान के खिलाफ लोकतंत्र और राजनीति दोनों खामोश हैं।गैरआदिवासी बहुसंख्य जनता हिंदू सिख बौद्ध ईसाई या मुसलमान किसी को आदिवासियों से कुछ लेना देना नहीं है।
अभी पिछले दिनों एससी एसटी कानून के खिलाफ आयोजित भारत बंद का देशे के तमाम आदिवासी इलाकों में व्यापक असर हुआ था और इस बंद की सफलता में आदिवासियों की नेतृत्वकारी भूमिका भी थी।
मीडिया ने अपनी रपटों में आदिवासियों का कहीं जिक्र नहीं किया और इसे सिरे से दलितों का आंदोलन बता दिया तो दलित नेताओं ने भी भूलकर आदिवासियों का जक्र नहीं किया।
कहने को बहुजन में आदिवासी भी शामिल हैं लेकिन आदिवासी को सत्तावर्ग की तरह गैरआदिवासी जनता भी अलग थलग करती है।
याद करें कि गुजरात के दंगों में कत्लेआम के बाद लूटपाट में आदिवासियों के शामिल होने की खबर आयी थी।
सामंती और साम्राज्यवादी ताकतें सैन्य जीत से पहले शत्रुओं की भाषा और संस्कृति को खत्म करती है। इस देश में विजेताओं ने हजारों साल से यह सिलसिला जारी रखा है और मोहनजोदोड़ो हड़प्पा सभ्यता की कोई विरासत,उनकी भाषा,उनकी लिपि,उनका साहित्यऔर उनका इतिहास बचा नहीं है।नष्ट कर दिया गया है।
भारत का सिलसिलेवार कोई इतिहास सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि विजेताओं ने पराजितों का इतिहास भूगोल,संस्कृति भाषा,विरासत सबकुछ नष्ट कर दिया और अपने इतिहास और साहित्य में मौजूदा भारत में आदिवासियों के कत्लेआम की तरह इसे न्यायोचित साबित किया है।
दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का भगवाकरण होने की वजह से ही भारत अब हिंदू राष्ट्र है और यहां राजकाज मनुस्मृति का है,सत्ता का रंग बेमतलब है क्योंकि यह सीधे तौर पर वर्ग जाति एकाधिकार है।
इस एकाधिकार को तोड़कर बदलाव के लिए जाति के विनाश और वंचितों के वर्गीय ध्रूवीकरण में इसी व्यवस्था के पराजीवी पढ़े लिखे सुविधा संपन्न क्रयशक्तिसंपन्न वर्ग की जाति धर्म निर्विशेष कोई दिलचस्पी नहीं है।
आजादी के बाद दलितों और पिछड़ों,अल्पसंख्यकों की तरह आदिवासियों में भी पढ़े लिखे लोगों का एक बड़ा नया तबका पैदा हो गया है और आदिवासियों के भगवेकरण में इसी तबके का हाथ सबसे ज्यादा है।
झारखंड आंदोलन के दौरान इसी पढ़े लिखे तबके के कारण झारखंड का पूरीतरह भगवाकरण हो गया तो यही किस्सा छत्तीसगढ़ का और बाकी आदिवासी भूगोल का भी है।
संघ परिवार ने जिस तेजी के साथ दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, मुसलमानों, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों का भगवाकरण किया है,उतनी ही तेजी से हिंदुत्व की राजनीति के सामने प्रतिरोध की संभावनाएं खत्म होती गयी हैं।
हम पढ़े लिखे प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग इस भगवेकरण की ही संस्कृति में शामिल हैं और खुद को राजनीतिक तौर पर ईमानदार साबित करने के लिए हिंदुत्व का एजंडे का विरोध करते हैं।यह अकादमिक शुद्धतावाद है जो धार्मिक शुद्धतावाद का ही पर्याय है।
आदिवासियों के इसी बिरादरी में शामिल होने के बाद किसी प्रतिरोध की कोई संभावना मुझे नजर नहीं आती चाहे आप पवित्र धर्मग्रंथ की तरह संविधान और लोकतंत्र का मंत्रोच्चार करें, वैचारिक संवाद करें या सीधे तौर पर अपना अपना राजनीतिक सत्ता समीकरण तैयार करके हालात बदलने का दावा करें।