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हमारी किसी भी चुक से उसकी मर्यादा का हनन होता है,तो यह बेदह शर्म और अफसोस की बात है।क्योंकि विचाधाराओं की लड़ाई अलग है और इस लड़ाई में अगर स्त्री का अधिकार मुद्दा बनता है,तो हमारे परिजनों में भी स्त्री हैं और हम जाने अनजाने फिर अपने ही परिजनों के असम्मान की स्थित बना चुके होते हैं।यह हम सबका सबसे बड़ा अपराध है कि सार्वजनिक और निजी जीवन में भी हमारी सारी गालियों में स्त्री का असम्मान है तो हमारे आपसी संवाद में भी जाने अनजाने उस स्त्री की ही मर्यादा दांव पर है।जीत के लिए स्त्री के चेहरे को जिस हद तक चाहे विकृत करने की सत्ता संस्कृति है और इससे शायद ही कोई बचा है।

Next: Patriarchy is Manusmriti.I would never stand with Patriarchy whatever may come! As far as Sumanta`s act,I am rather surprised and more shocked to see this happen to divert the basic and burning issues as Sandhya Navodita rightly said.Rather we should focus on the basic issues so that it is very important that we should not focus on a diversion and it would waste our time and energy. I am quite clear about my ultimate destination.The Humanity equipped with equality and justice.I always stand for the fight for equality and justice.For which we have to fight the Absolute Fascism and we may not afford to waste time for an ignorant.We are trapped in such artificial Free market issues we may not activate our resources as Hegemony wants us to continue such false discourse. Palash Biswas
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यह दरअसल स्त्री के बारे में सुमंत की सतीत्व कौमार्य समर्थक  की मनुस्मृति नैतिकता है जो दरअसल पितृसत्ता की जमीन है।इस जमीन पर हम खड़े नहीं हो सकते।संपादक बनने के बावजूद यह मनसिकता किसी पुरोहित या मौलवी की ही हो सकती है।


चंदन ने न जाने कोई सुमंत भट्टाचार्य लिखा है जो सरासर गलत है क्योंकि वह सामान्य मनुष्य होता तो बात आयी गयी हुई रहती क्योंकि पितृसत्ता में प्रगतिशील मनुष्यों के उच्च विचारों के मुताबिक भी  स्त्री की स्वतंत्रता निषिद्ध है और भद्र समाज नारी वादियों को वेश्या से कम नहीं मानता जैसे तसलिमा नसरीन के साथ आम तौर पर मनुष्यविरोधी सलूक होता है।


आम आदमी तो विशुद्ध शास्त्रसम्मत तरीके से वैदिकी कर्मकांड के तहत स्त्री के अस्तित्व को ही खत्म करने की मानसिकता के साथ जनमता है और स्त्री को मनुष्य समझने के लिए पढ़ा लिखा या संपादक होना भी काफी नहीं होता ,उसके लिए समाज,व्यवस्था और राष्ट्र के समूचे ताने बाने के बारे में जानकार होने के साथ सात पितृसत्ता से मुठभेड़ करने की कूवत भी होनी चाहिए।

पलाश विश्वास


Reference:



का सम्मान करेंगी कविता।

कविता जी, फ्री सेक्स का प्रदर्शन हम दोनों

इण्डिया गेट पर करें तो केसा रहेगा ?

भारत की शालीनता और नैतिकता की

चुप्पी को कमजोरी समझने की भूल

कतई ना करें कविता जी।

अनैतिक को अनैतिक जवाब

देना हमको भी आता है ।

ना हो तो आजमा लीजिए।


सिवाय सनातन और कोई विकल्प नहीं है।

फ्री सेक्स में हस्तक्षेप क्या किया

वामपंथी से लेकर दलित और मुल्ले तक

कोसने के लिए सनातन मूल्यों का ही

आश्रय ले रहे हेँ।

ब्रह्मांड हित में सनातन ही सर्वश्रेष्ठ है।

नैतिक अनैतिक की अंतिम परिभाषा

सनातन ही दे सका है।

सुमंत भट्टाचार्य जनसत्ता में हमारे सहकर्मी रहे हैं और प्रभाष जोशी,अमित प्रकाश सिंह और श्याम आचार्य के बहुत प्रिय रहे हैं।


हम लोगों की कोई हैसियत जनसत्ता में कभी थी नहीं।सुमंत और दिलीप मंडल दोनों एसपी सिंह के शिष्य काबिल पत्रकार है जो कारपोरेटमीडिया में बेहद कामयाब भी हैं।


सुमंत ने एक अत्यंत भद्र लड़की से विवाह किया,जो हर दृष्टि से प्रबुद्ध है और यह हमारे लिए हमेशा खुशी की बात रही है।


हमारी किसी भी चुक से उसकी मर्यादा का हनन होता है,तो यह बेदह शर्म और अफसोस की बात है।क्योंकि विचाधाराओं की लड़ाई अलग है और इस लड़ाई में अगर स्त्री का अधिकार मुद्दा बनता है,तो हमारे परिजनों में भी स्त्री हैं और हम जाने अनजाने फिर अपने ही परिजनों के असम्मान की स्थित बना चुके होते हैं।यह हम सबका सबसे बड़ा अपराध है कि सार्वजनिक और निजी जीवन में भी हमारी सारी गालियों में स्त्री का असम्मान है तो हमारे आपसी संवाद में भी जाने अनजाने उस स्त्री की ही मर्यादा दांव पर है।जीत के लिए स्त्री के चेहरे को जिस हद तक चाहे विकृत करने की सत्ता संस्कृति है और इससे शायद ही कोई बचा है।


मुझे गहरा अफसोस है कि मर्दों के इस विवाद में अगर किसी निरपेक्ष अत्यंत सम्मानीया स्त्री पर आंच आये और वह भी तब हमारी तथाकथित वैचारिक लड़ाई में उसका कोई पक्ष नहीं है।


सुमंत मेरा भाई है।लेकिन मैंने अपने पिता की सार्वजनिक  आलोचना से और विवादित मुद्दों पर कोई स्टैंड लेने से कभी परहेज नहीं है।कविता कृष्णन तो सार्वनिक जीवन में हैं,उने्हे स्त्री के हकहकूक और खास तौर पर पितृसत्ता में देहमुक्ति और यौन स्वतंत्रता के बारे में बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी और इसे मैं रोक नहीं सकता क्योंकि आप जब लड़ाई में होते हैं तो वार आप पर होते हैं।


महाभारत में यूं देखा जाये तो सत्ता की लड़ाई में  शतरंज की बाजी पर सजी द्रोपदी का कोई पक्ष नहीं है लेकिन सारे महाभारत में सत्ता और विचार की लड़ाई में वहीं है।


हम इस देश में जब सारी मर्दानगी स्त्री के असम्मान पर आधारित है, किसी वाद विवाद में स्त्री के असम्मान के प्रति थोड़ा संवेदनशील हो तो अने परिजनों की मर्यादा भी बचा सकेंगे वरना जाने अनजाने लपेडे में आखिरकार परिजन ही आ जाते हैं।


अपने भाई के विवाद में फंस जाने की वजह से मुझे स्टैंड मजबूरन लेना पड़ रहा है क्योंकि मैं स्त्री के पक्ष में हूं और सबसे पहले मुझे अपने ही परिवार की स्त्रियों के सम्मान असम्मान का ख्याल हो रहा है,जिसमें मेरी बेहद प्रिय और सममानीया सुमंत की पत्नी भी शामिल हैं।मेरे इस लेखन से उसके दिलो दिमाग में अगर छेस पहुंचती है तो इस विवाद में उलझने का यह मेरा निजी नुकसान है।


क्योंकि पितृसत्ता के महाभारत में शक्ति परीक्षण में हर बार स्त्री पर दांव हम चाहे या न चाहे,जाने या अनजाने लग जाता है और सड़क से लेकर संसद तक हमारे लिए हिसाब बराबर करने का सबसे बड़ा हथियार अंततः स्त्री ही होता है और इस पितृसत्ता में लोक संस्कृति और लोगजीवन में संवाद की भाषा में हमने स्त्री का सम्मान करना अपनी सनातन वैदिकी अवैदिकी संस्स्कृति की विविध बहुल परंपरांओं में सीखा भी नहीं है।


विवाद शुरु होते ही सबसे पहले मां बहन बेटी पत्नी उस विवाद में घसीट ली जाती है।इस विवाद में भी घर में बैठी निरपेक्ष स्त्रियों का चेहरा मुझे नजर आ रहा है,जिनका इस विवाद से कोई लेना देना नहीं है और वे अपने रोजमर्रे के कामकाज के प्रति इतना प्रतिबद्ध हैं और अपने कार्यभार और दायित्व के प्रति उनकी निष्ठा इतना प्रबल है कि उन्हें अपना या किसी विचारधारा या सत्ता पक्ष या विपक्ष का वर्चस्व साबित नहीं करना है।


मेरी टिप्पणी और मेरे लेखन में अगर ऐसी चूक हो जाती है तो संबद्ध स्त्री ही नहीं स्त्री पक्ष का ही मैं अपराधी हूं।मुझे अपने जीवन में स्त्रियों का जितना समर्थन और प्यार मिला है,उससे हमारे दिलो दिमाग में हिमालयऔर तराई की तमाम इजाएं और वैणियों का ही वर्चस्व है।


मेरे भाई सुमत ने इसका ख्याल रखा होता तो ऐसे अनावश्यक विवाद में उसके साथ मेरे बी फंस जाने की नौबत नहीं आती।यह बेहद तकलीफ देह है।


एक अत्यंत प्रबुद्ध सशक्त स्त्री  के पति होने और एकदा  जनसत्ता में रहने के बावजूद सुमंत ऐसी टिप्पणी कर सकते हैं ,मुझे यकीन नहीं आता।


स्त्री का सम्मान करने की तहजीब सुमंत को नहीं है,यह अगर सच है तो मुझे इसका गहरा अफसोस है।क्योंकि हम अपने परिवार में किसी स्त्री के सार्वजनिक नामोल्लेख से भी लहूलुहान होते हैं तो स्त्री के मुद्दे पर अनावश्यक विवाद में फंसने से हमें बचना चाहिए।मैं अब तक यही प्रयत्न ही कर रहा था.पक्ष विपक्ष में इतना बड़ा महाभारत चल रहा है और उसमें परिजन जैसी स्त्रियों का असम्मान हो रहा है,तो मुझे यह टिप्फणी करनी पड़ रही है।


मेरा पक्ष स्त्री पक्ष है और हर सूरत में स्त्री के पक्ष में खड़ा हो  रहा हूं।



पिछले दिनों सुमंत सुनते हैं कि जनसत्ता आये थे और फतवा दे गये थे कि जनसत्ता में बचे खुचे लोग किसी काबिल नहीं हैं और उसने हमलोगों को डफर कह दिया।


दफ्तर गया तो कई साथियों ने शिकायत की और हमने कहा कि उसके पैमाने पर हम किसी लायक नहीं है क्योंकि हम पच्चीस साल से एक ही पोस्ट पर रहने के बावजूद मौका देखकर जनसत्ता से भाग नहीं सके।


जो भागे और बेहदकामयाब भी है,हमें उनकी कामयाबी को सलाम भी करना चाहिए।नाकाम लोगों के बारे में कामयाब लोगों की किसी टिप्पणी का बुरा नहीं मानना चाहिए।


सुमंत इंडियन एक्सप्रेस के लिए रिपोर्टिंग भी की है तो हम संजय कुमार  जी की तरह यह भी नहीं मानते कि उसकी अंग्रेजी इतनी कमजोर है कि पितृसत्ता के विरोध के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के यौन संबंध की संवतंत्रता का क्या मतलब है।


ऐसा है तो बाकी मीडिया में उसने जहां जहां काम किया है,उसके बारे में हम कह नहीं सकते लेकिन मुझे यकीन है कि इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता में उसके इस मंतव्य का कम ही लोग समर्थन कर सकते हैं।लेकिन उसकी नासमझी से परेशां ज्यादा होंगे।


यह दरअसल स्त्री के बारे में सुमंत की सतीत्व कौमार्य समर्थक  की मनुस्मृति नैतिकता है जो दरअसल पितृसत्ता की जमीन है।इस जमीन पर हम खड़े नहीं हो सकते।संपादक बनने के बावजूद यह मनसिकता किसी पुरोहित या मौलवी की ही हो सकती है।


मान लेते हैं कि कविता कृष्णन जी जैसी सुलझी हुई सामाजिक कार्यक्रता अपनी बात कायदे से समझा नहीं सकी तो अस्पष्टता के संदर्भ में उनसे संवाद किया जा सकता है,असहमत हुआ जा सकता है या उनका विरोध भी करने की स्वतंत्रता असहमत लोगों को हो सकती है लेकिन संपादकी के स्टेटस से नत्थी किसी बेहद कामयाब पत्रकार के इस मंतव्य से हम जैसे मामूली सब एडीटर का दुःखी होना लाजिमी है।


वैसे कोलकाता में जबतक सुमंत और साम्या रहे,वे हमारे परिवार की तरह ही रहे और हमें उनसे कभी कोई शिकायत नहीं रही और न सुमंत से हमारा कोई विवाद रहा है।अब भी मानते हैं हम कि वह शुरु से बेहद हड़बड़िया रहा है,कोई धमाकेदार टिप्पणी से ध्यान खींचने की जुगत में उसने ऐसी गलती भयंकर कर दी है और उसकी इसतरह कविता कृष्णन या किसी स्त्रीका अपमान करने की मंशा नहीं रही है।अपने वक्तव्य के आसय से जो अनजान हो,ऐसे ज्ञानी के बेबाक बोल का नोटिस न लें तो बेहतर।


उसका जन्म उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के मुंश्यारी में  हुआ है और उसके पिाता मजिस्ट्रेट थे और इसके उलटहम शरणार्थी किसान अछूत परिवार से हैं।


फिरभी उसके अपनापे में कोई कमी नहीं दिखी और हिमालयी रिश्ते के लिहाज से अब तक हम उसे अपना भाई ही मानते रहे हैं।


हमने पहले तो इस टिप्पणी को उसकी नासमझी समझते हुए नजरअंदाज किया और जनसत्ता के किसी साथी के मंतव्य को तुल देकर विवाद बढ़ाने से बच रहा था।


सुमंत के लिए  न जाने कोई सुमंत भट्टाचार्य लिखना भी सरासर गलत है क्योंकि वह सामान्य मनुष्य होता तो बात आयी गयी हुई रहती क्योंकि पितृसत्ता में प्रगतिशील मनुष्यों के उच्च विचारों के मुताबिक भी  स्त्री की स्वतंत्रता निषिद्ध है और भद्र समाज नारी वादियों को वेश्या से कम नहीं मानता जैसे तसलिमा नसरीन के साथ आम तौर पर मनुष्यविरोधी सलूक होता है।


आम आदमी तो विशुद्ध शास्त्रसम्मत तरीके से वैदिकी कर्मकांड के तहत स्त्री के अस्तित्व को ही खत्म करने की मानसिकता के साथ जनमता है और स्त्री को मनुष्य समझने के लिए पढ़ा लिखा या संपादक होना भी काफी नहीं होता ,उसके लिए समाज,व्यवस्था और राष्ट्र के समूचे ताने बाने के बारे में जानकार होने के साथ सात पितृसत्ता से मुठभेड़ करने की कूवत भी होनी चाहिए।


संजय ने संस्कार की बात कही है तो वैदिकी संस्कृति में स्त्री के साथ जो आचरण के प्रावधान हैं या अन्यधर्ममत में जो स्त्रीविरोधी वैश्विक रंगभेद है,उसके मद्देनजर संस्कारबद्ध लोगों की दृष्टि ही उनके  अंध राष्ट्रवाद की तरह इतनी स्त्रीविरोधी हो सकती है कि भाषा,माध्यम और विधा भी लज्जित हो जाये।


सुमंत का असल नजरिया क्या है और नैतिकता की उसकी अवधारणा कौमार्य और सतीत्व से कितना पृथक है,संवादहीनता के कारण हम नहीं जानते।


खास तौर पर यह समझना चाहिए कि इस दुस्समय में बेहद सही लोगों की भाषा भी बिगड़ रही है तो सुमंत के कहे का इतना बुरा मानकर और उसके मंतव्य को तुल देकर हम दरअसल उसीका पक्ष ही मजबूत बनाते हैं क्योंकि निदा और विरोध से बाजार आइकन बनाता है और यह मुक्तबाजार का व्याकरण है।


कविता जी बेहद सक्षम हैं और किसी भी मंतव्य का वे जवाब दे सकती हैं और हमें उनके जवाब का इंतजार करना चाहिए और वे इस मंतव्य को जवाब देने लायक भी नहीं समझतीं तो यह उनका अधिकार है। 


हम बेवजह सुमंत को नायक या खलनायक न बनायें तो पितृसत्ता की भाषा के प्रत्युत्तर में  हमारी चुप्पी ज्यादा मायनेखेज जवाब है।


मुझे सुमंत भाई माफ करें कि बेहद दुःखी होकर हमें उनके बारे में यह सब लिखना पड़ रहा है।




एक हैं सुमंत भट्टाचार्य। इलाहाबाद के जन्तु हैं। आत्मा में कूड़े की दुर्गंध व्याप्त है। इनके लिए 'फ्री-सेक्स' का मतलब है किसी का सार्वजनिक यौन उत्पीड़न। बजबजाती लंपट कुंठा की बानगी देखिये कि किसी महिला को सार्वजनिक स्थल पर सेक्स के लिए बुला रहे हैं और नैतिकता बूक रहे हैं। ऐसे ही दिमाग समाज में रेप-कल्चर के लिए खाद-पानी बनाते हैं।

Kavita जी ने कहा, उसका साफ मतलब था- बिना दोनों पक्षों की सहमति के, बिना आजादी के बने या बनाए गए संबंध अत्याचार हैं, उत्पीड़न है। जैसे जीवन के हर क्षेत्र में मुक्ति की जरूरत है, वैसे ही सेक्स के क्षेत्र में भी। जीवन के तमाम क्षेत्रों की तरह ही यहाँ भी सदियों से पुरुष सत्ता ने स्त्री को गुलाम बना कर रखा है। बंधुवा या गुलाम या उत्पीड़क या हत्यारा या आततायी या वर्चस्ववादी सेक्स नहीं, फ्री-सेक्स। लेकिन गर आप जिंदगी भर सेक्स का मतलब जबर्दस्ती या पुरुष की निर्बाध इच्छा भर समझते रहे हों, तो आपके दिमाग के सड़े हिस्से को जर्राही की जरूरत है। असल में आप वैवाहिक बलात्कार जैसे अन्यायों के पुरस्कर्ता हैं।

असल बात यह है कि किसी महिला की बराबरी या आजादी, हर रूप में, इन खापिस्ट भाईयों को अपच हो जाती है। यही दिमाग हैं, जो किसी भी महिला के आगे बढ्ने, समाज में दिखने, आजाद होने पर चरित्र-हनन का अमोघ अस्त्र (?) चलाते हैं।

जो भी साथी इन्हें जानते हों, कृपया जर्राही करवाने में इनकी मदद करें।




जो बात सार्वजनिक पटल पर की जाती है

वो अनैतिक कैसे हो सकती है ?

गुनाह हमेशा अँधेरे में होता है

उजाले में तो विमर्श होता है।

-
अब फिर एक बात कहता हूँ
यौन क्रीड़ा सनातन भारत में
सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा रही है।
यौन क्रीड़ा योगाभ्यास है।
इनकी 64 कलाओं को कोई
योग साधक ही कर सकता है।
यह साधारण मानव के वश की बात नहीं।
फिर एक साधक को अपनी साधना के
सार्वजनिक प्रदर्शन से संकोच क्यों हो ?
तभी मैं फ्री सेक्स का भारतीयकरण करने
और लोककल्याण हेतु
इण्डिया गेट पर सार्वजनिक प्रदर्शन के पक्ष में हूँ।
फिर भी आपकी आस्था कहीं आहत
हो रही हो तो बता दें।
सनातन ही है जो संशोधन को सम्मान देता है।



दुनिया की तमाम संस्कृतियों में सनातन ही है

जो "कोख पर नारी" के अधिकार को

धर्म और आस्था में सम्मानित जगह देता है।

आचरण में कमिया जरूर हो सकती है

लेकिन सैद्धान्तिकी में सनातन का जोड़ नहीं।
इससे बड़ी लकीर खींचने की औकात किसी
में हे तो सामने आए।

आज जो "फ्री सेक्स" से "लैंगिक भेदभाव"
खत्म करना चाहते हेँ वो कोख पर नारी
के अधिकार से बड़ी रेखा खींच कर दिखाएँ।
लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे
क्योंकि इस्लाम इस पर विरिध करेगा
और इनका छिपा मकसद सिर्फ भारत को तोड़ना भर है।


सनातन की हल्की सी चपत क्या लगी

फ्री सेक्स हरावल दस्ते की "नायिका" से

मोहतरमा "पीड़ित याचक" बन बैठी।

गुहार लगा कर "समर्थन" मांग रही हैं।


दरअसल, जाति और मजहब के आधार पर
"महिला आरक्षण बिल" रोकने वालों के साथ
खड़ी ये नायिका अब फ्री सेक्स की बात कर
"लैंगिक विभेद' खत्म करने का परचम लहरा रही हैं।
दुस्साहस तो देखिए, महिला को जाति और मजहब
की तराजु पर तौलने वाले भारत को
नारी सम्मान सिखा रहे हेँ ?
गजब
सन् 1947 में भारत को मजहब से तोडा गया।
सन् 1990 में भारत की जाति से तोडा गया।
फिर भी ना टूटा भारत तो अब
"नारी" के खिलाफ "मादा" को खड़ा किया जा रहा है।
फ्री सेक्स की ओट में परिवार को तोड़ने की साजिश है।
लेकिन अब सनातन जाग चुका है।
हम नारी को पूजते हेँ
मादा की नाक काटते हैं।
अनैतिक का जवाब अब अनैतिक से देंगे हम।
कल यही बात पोस्ट में भी लिखी थी।
अनैतिक का जवाब अनैतिक से दे रहा हूँ।
लेकिन समझ का फेर है भाई लोगो में।
जो बात में खुद कह रहा हूँ, वही बात
कमबख्त मुझे समझा रहे हेँ।
तो कुंठित कौन ?
चटक सुतिया कौन ?
लंपट कौन ?
मादाखोर कौन?



सनातन का एक थप्पड़ क्या पड़ा

सुश्री कविता कृष्णन 'फ्री सेक्स" के

हरावल दस्ते की "नेता"की बजाय

"याचक' की भाव मुद्रा में आ गईं।

पोस्ट लगाकर मुझसे बचने की "फ्री सलाह" दे रही हेँ।

यदि फ्री सेक्स 'लैंगिक विभेद" है तो भी
कविता जी आप उन्हीं में से एक हेँ जो
महिला आरक्षण बिल के खिलाफ
जातिवादी ताकतों के साथ खड़ी हेँ।
दरअसल आप उन्हीं में से एक हेँ जो
महिला को हिन्दू और मुसलमान देखती
और उसी हिसाब से सियासत में तौलती हेँ।
क्या गजब है
महिला को जाति और मजहब के चश्में से
नापने-जोखन वाले आज
फ्री सेक्स की वकालत कर रहे हैं ?
बहरहाल, प्रस्ताव पर आपकी
हाँ और ना का अभी भी इंतजार है।
साहस दिखाइए ना।

भगवा प्रणाम


রাজনৈতিক লড়াই-এ মতাদর্শগত বিরোধ থাকেই.. কিন্তু যাদের মতাদর্শই নেই.. ?? তারা যুক্তি দিয়ে বিরোধিতা করে না, করে খিস্তি দিয়ে.. patriarchal society এর সর্বগুন সম্পন্ন উন্নত মানের product এই নর্দমা কীটগুলো (কীট রাও better).. আর সে জন্যই patriarchal ভোটবাজ party গুলোর খুবই গুরুত্বপূর্ণ সদস্য এরা.. এদের নোংরামো ভাঙিয়ে খিস্তি ভাঙিয়ে বীর্য ভাঙিয়ে লাম্পট্য ভাঙিয়ে খুনি-রক্তমাখা হাতের উপর দাঁড়িয়ে সুখে বাঁচে ওপর মহল আর মাঝে মধ্যেই ঢাকাই জামদানী স্যুট বুট গটগটিয়ে "শালীনতা" ,"নিরাপত্তার" কেতাদূরস্ত ভাষণ খাইয়ে দিয়ে যায়.. মুখে বললেও আদ্যপান্ত patriarchal এই পার্টিগুলো দেবে নিরাপত্তা ?? তাদের কারোর স্পর্ধা আছে তাদেরই পালন করা আয়তুতু লালুভুলুদের দল থেকে ঘাড় ধরে বার করে দেওয়ার বা পরিস্কার জানিয়ে দেওয়ার যে এরকম supporters তাদের চাইনা???? না নেই.. এই লম্পট গুলো না থাকলে ভোট আদায় করে দেবে কে ?? অনমনীয় শিড়দাড়া ভাঙতে পরিবার পরিজনের উপর হামলা বা রেপ করবে কে??সহজলব্ধ "sex toy" (নারী) রা দুস্প্রাপ্য মানবী হয়ে উঠলে, অধিকার বুঝে নিতে শিখে গেলে অ্যাসিড ঢেলে ঠান্ডা করবে কে ?? এদেরই বিরুদ্ধে step নিতে হলে এত খরচা করে এদের আর পোষা কেন বাপু??
এই লম্পটগুলো মাথায় রক্ত উঠলে বিরুদ্ধ মত খুন করবে আর মাথায় sex উঠলে বিরোধী (নিজের দল বাদ যায় কিনা doubt আছে) মেয়েদের "কমরেন্ডি ","বেশ্যা" বলবে মলেস্ট করবে রেপ করবে এতে অবাক হওয়ার কি আছে???
যাদের মস্তিস্কটাই আস্ত যৌনাঙ্গ তারা কি বুঝবে মানবী কাকে বলে?? তারা হাজারবার জন্মালেও হাজারটা দলের পতাকা চিবোলেও বুঝবেনা কমরেড কাকে বলে...
তাদের ঘৃণ্য চিন্তনের দ্রুত মৃত্যু কামনা করি...





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