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मूर्तियों के तिलिस्म से रिहाई के बिना मुक्ति की कोई दिशा नहीं है। केसरिया सुनामी में विचारधारा और प्रतिबद्धता उसीतरह बहने लगी है जैसे बंगाल की रचनाधर्मिता,विचारधारा और प्रतिबद्धता की मुख्यधारा सत्ता में निष्णात हुई है। भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान रवींद्रनाथ हैं,तो यह महज संजोग नहीं है।साझा चूल्हा और साझे इतिहास की वैज्ञानिक रचनादृष्टि की वजह से रवींद्र सार्वभौम हैं।ल

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मूर्तियों के तिलिस्म से रिहाई के बिना मुक्ति की कोई दिशा नहीं है।


केसरिया सुनामी में विचारधारा और प्रतिबद्धता उसीतरह बहने लगी है जैसे बंगाल की रचनाधर्मिता,विचारधारा और प्रतिबद्धता की मुख्यधारा सत्ता में निष्णात हुई है।


भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान रवींद्रनाथ हैं,तो यह महज संजोग नहीं है।साझा चूल्हा और साझे  इतिहास की वैज्ञानिक रचनादृष्टि की वजह से रवींद्र सार्वभौम हैं।लेकिन निरीश्वर वाद के बुद्धं शरणं गच्छामि के महाकवि को हमने उसी तरह मूर्ति में तब्दील कर दिया है,जैसे समता,न्याय,प्रेम,सत्य और अहिंसा के महानायक गौतम बुद्ध को हमने ईश्वर बना दिया है और आज भी हम रोज रोज मूर्तियां गढ़ रहे हैं और उन्ही मूर्तियों को विसर्जित करने का महोत्सव जी रहे हैं।


अब रचनाधर्मिता का मकसद मनुष्य की मुक्ति नहीं है,हमारी रचनाधर्मिता अब सत्ता सान्निध्य का पर्याय है जो क्रयक्षमता का सृजन है।सबसे खतरनाक बात जो है ,वह पाश बेहत साफ साफ लिख गये हैं,सबसे खतरनाक है ख्वाबों का मर जाना और हमारे माध्यमों और विधायों में किसी ख्वाब की लाश की भी अब कोई जगह नहीं है और हम सिर्फ मूर्ति बना और तोड़ रहे हैं।


मर्यादा पुरुषोत्तम की यह नियति है कि उनके नाम का जयघोष करते हुए हत्यारी फौजें गोमाता और गंगा की सौगंध खाकर दसों दिशाओं में मनुष्यता और प्रकृति को रौंद रही हैं।


गांधी की नियति मूर्ति बनने की रही हैं तो उनकी वे मूर्तियां टूटनी ही थी। उन्हीं के हत्यारों की मूर्तियां अब प्रचलन में हैं।

अब अंबेडकर की बारी है।


न जाने किस किसकी बारी है।



पलाश विश्वास

कल भारत और बांग्लादेश में चंद्रमा के हिसाब से जो बांग्ला कैलेंडर अब भी प्रचलित है,उसके मुताबिक श्रावण महीने की बाइस तारीख थी,जो बंगाल में रवींद्रनाथ की पुण्यतिथि की वजह से बाइसे श्रावण पर्व में तब्दील है।बाइसे श्रावण मृणाल सेन निर्देशित बहुचर्चित फिल्म भी है।


दुनियाभर में जहां भी बांग्लाभाषी जनता है,शरणार्थी,प्रवासी,भद्रजन और बहुजन,अछूत,उन सबने फिर रवींद्रनाथ को फिर याद किया।भारत तीर्थ में सभी नस्लों राष्ट्रीयताओं के विलय के इतिहासबोध पर भारतीय राष्ट्रीयता के जनक अगर कोई हैं तो वंदेमातरम के हिंदुत्व के ऋषि बंकिम नहीं,रवींद्रनाथ हैं।


बाकी भारत में भी उनकी प्रासंगिकता बहुलता विविधता और धम्म पंचशील आधारित विश्वबंधुत्व के समता और न्याय केंद्रित बाउल फकीर संत परंपरा की उनकी कविता दृष्टि की वजह से आज विघटनकारी हत्यारी धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रीयता के मुक्तबाजार के प्रतिरोध में सबसे अहम है।


आज सुबह बांग्ला के सबसे लोकप्रिय अखबार आनंदबाजार पत्रिका में महाश्वेता देवी की बहन  सोमा मुखोपाध्याय का बयान पढ़ने के बाद मन भारी हो गया है।


महाश्वेता दी की स्मृति में 28 जुलाई को गोल्फ ग्रीन के उदय सदन में उनके परिजनों ने एक शोकसभा का आयोजन किया जिसमें राज्य सरकार के तमाम मंत्री, सिने कलाकार और सत्तादल के नेता तो उपस्थित हुए लेकिन एक भी लेखक हाजिर न था।


सोमा की शिकायत है कि महाश्वेता दी की अस्वस्थता,उनकी मृत्यु और उनकी अंत्येष्टि के वक्त भी कोई लेखक कवि उनके साथ नहीं था।हम तो अपराद बोध में जी रहे थे कि परिवर्तन के बाद उनसे सारा संपर्क सूत्र टूट गया और इसी वजह से नवारुण दा के साथ भी छूट गया।


फिरभी नवारुण दा के अंतिम समय में उनके सारे साथी और लेखक कलाकार लोग हाजिर थे क्योंकि वहां सत्ता का कोई हतस्तक्षेप नहीं था।


महाश्वेता दी की चिकित्सा और अंत्येष्टि राजकीय हो गयी तो अब उनकी स्मृति भी राजकीय है,जिसमें आम जनता,उनके साथियों और लेखक कलाकारों की कोई भागेदारी नहीं है।


गनीमत है कि महाश्वेता दी सिर्फ बंगाली लेखिका नहीं रही हैं और भारत और भारत भर की उत्पीड़ित वंचित शोषित जनता की मुक्ति की लड़ाई उनकी कथा,व्यथा और प्रतिबद्धता है।गनीमत है कि सत्ता उनके इस अखिल भारतीय कृतित्व व्यकित्व को निगल नहीं सकी।


सोमा जी ने एक और गंभीर शिकायत की है उनके बारे में,जिन्होंने महाश्वेता दी को सीढ़ी बनाकर कामयाबी और हैसियत हासिल की,वे लोग आखिरकार उनके साथ नहीं थे और उन्हीं की वजह से जो उनके संघर्ष में दशकों से उनके साथी रहे हैं,उनका साथ छूट गया और उन्होंने कामयाबी और हैसियत मिलते ही दीदी का साथ छोड़ दिया।हिंदी में भी ऐसे विचित्र किस्म के लोग हैं,जिनका नाम बताये बिना उनकी पहचान साफ है और इनमें से कई ने तो दीदी से अंतरंगता के लिए हम जैसे नाचीज की मित्रता का दोहन किया और अब वे हमें तो क्या खाख पहचानेंगे,वे मठाधीस बनने के बाद महाश्वेता दीदी का नाम भी नहीं लेते।


साहित्य में गिरोहबंदी और मौकापरस्ती का यह अद्भुत परिदृश्य है।महाश्वेता दी अपनी प्रखर प्रतिबद्धता के बावजूद इस दुश्चक्र से बच नहीं सकीं और अंततः अकेली रह गयी,इतनी अकेली कि हम भी चाहकर उनके साथ खड़े होने की हालत में नहीं थे क्योंकि उनतक पहुंचने से पहले सत्ता से तार बांधने की जरुरत आन पड़ी और किसी को अंतिम प्रणाम करने का भी मौका नहीं मिला चाकचौबंद राजकीय बाडा़बंदी की वजह से।नामदेव धसाल का हश्र हम जानते हैं और शैलेश मटियानी का हश्र भी ।


पुराना वह दर्द फिर समुंदर बनकर दिलोदिमाग को लहूलुहान करने लगा है।


हम गोरख पांडेय की आत्महत्या और पाश की हत्या देखने के बाद यह नरक जीने को जिंदा हैं।बेहदबे।शर्म बन चुके हैं हम और बहुत मुशकिल है इस वेवफा फिजां में हरजाई जमाने में किसी से वफा की उम्मीद भी।


सतह के नीचे से उठकर एकदम जमीन की भीतरी परतों से जिनकी रचनाधर्मिता आम लोगों के हक हकूक की आग बनने ही लगी थी कि वे इसी दुश्चक्र के शिकार हो गये।हम उस आग की विरासत से क्रमशः बेदखल होने लगे हैं और आजाद देश के हम गुलामों की गुलामी की कोई इंतंहा उसीतरह नहीं है जैसे जुल्मोसितम की कोई इंतहा नहीं है और बिकने लगी है सरफरोशी की तमन्ना भी।हर महान छवि के साथ सेल पर बिकाउ होने का टैग लग गया है।आगे पीछे सारी महानताए बाजार में बिकने लगी हैं और हम भी बिकाऊ हैं।ब्लैंकचेक के साथ खरीददार बाजार में उपयोगी माल खरीदने को कारबद्ध कतारबद्ध हैं,हवा हवाई उड़ान पर हैं विचारधाराएं,प्रतिबद्धताएं और अब कौन नहीं बिकेगा,कहना मुश्किल है।


अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रतिबद्ध लोगों के साथ जब ऐसा हादसा होता है तो उनकी मजबूरी किसी शैलेश मटियानी की मजबूरी होती है,ऐसा भी नहीं है।केसरिया सुनामी में विचारधारा और प्रतिबद्धता उसीतरह बहने लगी हैं जैसे बंगाल की रचनाधर्मिता,विचारधारा और प्रतिबद्धता की मुख्यधारा सत्ता में निष्णात हुई हैं।नदियां सारी की सारी भले बंध गयी है लेकिन विचारधारा अबाध पूंजी प्रवाह की तरह अब प्रवाहमान हैं।


प्रेमचंद और मुक्तिबोध से लेकर नवारुण भट्टाचार्य सिर्फ रचनाधर्मिता में ही प्रासंगिक नहीं हैं,उऩकी सामाजिक सक्रियता कभी सत्तावर्ग के हितों से नत्थी होकर जनविरोधी नहीं हुई है,जैसा कि हम आज बड़े पैमाने पर होते देख रहे हैं।प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष संस्कृतिकर्म के एक के बाद एक स्तंभ जिस बेशर्मी से धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी के झंडेवरदार बनते जा रहे हैं विचारधारा और प्रतिबद्धता को तिलांजलि देकर,उनके लिए महाश्वेता देवी,नामदेव धसाल और शैलेश मटियानी जैसे हमारे जिगर और वजूद के हिस्से की नियति नियत है,जो अपरिहार्य है।


इससे बड़ी बात यह है कि भारत में लोकभाषा और बोलियों में जो साहित्य रचा गया है,वास्तव में सामाजिक यथार्थ और बदलाव और प्रतिरोध की जीवनदृष्टि के नजरिये से देखा जाये तो आधुनिक भाषाओं के क्रांतिकारी उत्सवधर्मी साहित्यके मुकाबले आज भी वह भारतीय आत्मा के अंतःस्थल,हजारों पीढ़ियों की अक्लांत मुक्ति संघर्ष,सामंतवाद और साम्राज्यवाद के प्रतिरोध,इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ साथ साझे चूल्हे की तपिश,विविधता और बहुलता का सही और वास्तविक प्रतिनिधित्व करती है।


कबीर दास,सूरदास,तुलसीदास,गुरु नानक,दादु,लालन फकीर,सूरदास,रसखान,मीराबाई जैसे हजारों पुरखों ने सत्ता से बाकायदा मुठभेड़ अपनी खालिस रचनाधर्मिता के बूते की है और असल भारतीय राष्ट्रीयता का मुख्य स्वर उसी लोक साहित्य में हैं,लोकभाषा में है,बोलियों में है,बनावटी आधुनिक भाषा,विशुध वर्तनी व्याकरण सौंदर्यबोध और आयातित आंदोलन के साहित्य में वह धारा कहीं नहीं है।हम उस विरासत से जड़े नहीं हैं।इसीलिए मातृभाषा की मृत्यु अनिवार्य है और लोक और बोलियों की महामारी है।विज्ञापन भाषा है।


रवींद्र साहित्य उसी धारा में रचा बसा है।भानुसिंह की पदावली में रवींद्र ने भक्त कवियों के स्थाई भाव और जीवन दृष्टि,भाषा शैली छंद का अनूठा प्रयोग किया तो गीतांजलि हिंदुत्व के वैदिकी आध्यात्म के बजाय गौतम बुद्ध के धम्म और चार्वाक दर्शन में रमे भारतीय संत फकीर बाउल की धर्मनिरपेक्षता, विविधता, बहुलता, सहिष्णुता, भ्रातृत्व, प्रेम,सत्य,अहिंसा और निरीश्वरवाद का गीत संकलन है जिसका स्वर वैदिकी नहीं,विशुद्ध लोक संसार है।


इसे समझे बिना हम चंडालिका,विसर्जन,रक्तकबरी,चित्रांगदा के कवि और गीतकार संगीतकार चित्रकार ब्रह्मसमाजी अछूत म्लेच्छ रवींद्रनाथ का मर्म समझ नहीं सकते।


भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान रवींद्रनाथ हैं,तो यह महज संजोग नहीं है।साझा चूल्हा और साझे  इतिहास की वैज्ञानिक रचनादृष्टि की वजह से रवींद्र सार्वभौम हैं।लेकिन निरीश्वर वाद के बुद्धं शरणं गच्छामि के महाकवि को हमने उसीतरह मूर्ति में तब्दील कर दिया है,जैसे समता,न्याय,प्रेम,सत्य और अहिंसा के महानायक गौतम बुद्ध को हमने ईश्वर बना दिया है और आज भी हम रोज रोज मूर्तियां गढ़ रहे हैं और उन्ही मूर्तियों को विसर्जित करने का महोत्सव जी रहे हैं।


आजादी के बाद हम पिछले दशकों में गांधी की मूर्ति गढ़ते रहे हैं।आज हम उस गांधी मूर्ति को खंडित करने की सुनामी की पैदल फौजे हैं और देश के चप्पे चप्पे में हम गांधी के हत्यारों की मूर्तियां गढ़ रहे हैं।


यही नहीं,न्याय और समता का आंदोलन कर हे लोग इतनी हड़बड़ी में हैं कि वे जीते जी अपनी मूर्तियां गढ़ने से बाज नहीं आ रहे हैं।


तैतीस करोड़ देव देवी कम पड़ गये तो हम अवतारों की मूर्तियां बनाने लगे और आजादी के बाद हम महामानवों और महामानवियों की मूर्ति गढ़ने लगे हैं।


मूर्ति पूजा की इस भास्कर्य और विसर्जन और उन्हीं मूर्तियों के उपासना स्थलों के कर्मकांड तक सीमाबद्ध रह गया है हमारा जीवन,धर्म,समाज,राजनीति और बाजार भी।


मूर्तिपूजा का सबसे आधुनिक कर्मकर्म कांड ब्रांडिंग है,जिसपर समूचा मुक्तबाजार का तिलिस्म है।


हम इन मूर्तियों के तंत्र मंत्र यंत्र में ऐसे कैद हैं कि इस तिलिस्म का आधार,राजकाज कटकटेला अंधकार अमावस्या है,जिसकी कोई सुबह होती नहीं है और इस तिलिस्म से मुक्ति है नहीं।


विज्ञान और तकनीक ने हमारी क्रयक्षमता का क्रांतिकारी विकास किया है और हमने भोग के सारे साधन मनुष्यता और प्रकृति की कीमत पर युद्ध,गृहयुद्ध दंगा फसाद हिेंसा,घृणा,जाति वर्ण वर्चस्व रंगभेद के माध्यमों और विधाओं से हासिल कर लिया है।


अब रचनाधर्मिता का मकसद मनुष्य की मुक्ति नहीं है,हमारी रचनाधर्मिता अब सत्ता सान्निध्य का पर्याय है तो क्रयक्षमता का सृजन है।सबसे खतरनाक बात जो है ,वह पाश बेहत साफ साफ लिख गये हैं,सबसे खतरनाक है ख्वाबो का मर जाना और हमारे माध्यमों और विधायों में किसी ख्वाब की लााश के लिए भी कोई जगह नहीं है और हम सिर्फ मूर्ति बना और तोड़ रहे हैं।खुद अपनी मूर्ति बनाने की फिराक में।आत्मध्वंस का महोत्सव है।


मर्यादा पुरुषोत्तम की यह नियति है कि उनके नाम का जयघोष करते हुए हत्यारी फौजें गोमाता और गंगा की सौगंध खाकर दसों दिशाओं में मनुष्यता और प्रकृति को रौंद रही हैं।


गांधी की नियति मूर्ति बनेन की रही हैं तो उनकी वे मूर्तियां टूटनी ही थी।

अब अंबेडकर की बारी है।


न जाने किस किसकी बारी है।


महानता की यह नियति है तो हम भयानक तम दुःस्वप्न में भी महान बनने से परहेज करना चाहेंगे ताकि कोई हमारी मूर्ति कभी बनाने की सोचे भी नहीं और न हमारी मर्तियां तोड़ने की कभी नौबत आये।


वैदिकी साहित्य में आस्था प्रकृति का सान्निध्य के उत्कर्ष में रही है और मोक्ष पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद जीवनचक्र से प्रकृति के अनंत में समाहित होना रहा है।उपासना भी प्राकृतिक शक्तियों की रही है।


देवमंडल का सृजन हमने अपने अपने हितों के लिए,संसाधनों पर दखल के लिए किया है और हम लोग बुनियादी तौर पर सामंत हैं,जो बन सके हैं वे सत्ता में हैं और जो नहीं बन सकें,वे उस हैसियत को हासिल करने के लिए अपनी सुविधा के मुताबिक रोज रोज नये नये देव,नई नई देवियां,नये नये अवतार और ब्रांड बना रहे हैं।


ओलंपिक में दीपा कर्मकार की उपलब्धि के समाने सच यही है कि अब भी हम मदारी,सांप और जादूगरों का देश हैं।


विज्ञान और तकनीक,क्रयक्षमता और बाजार के विकास में हम लगातार मध्ययुग की गहराई में पैठते जा रहे हैं।यही राजधर्म राजकाज राजकरण धर्मोन्मादी जिहादी फासीवाद है,जिस हम महिमामंडित कर रहे हैं।

महिमामंडन की यह निरंतरता माध्यमों और विधाओं का बाजार जो है, सो है वही अब संस्कृतिकर्म है।


मूर्तियों के तिलिस्म से रिहाई के बिना मुक्ति की कोई दिशा नहीं है।



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