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खैरलांजी कत्लेआम पर आनंद तेलतुंबड़े की किताब परसिस्टेंस ऑफ कास्ट के बारे में जानी मानी लेखिका अरुंधति रॉय का कहना है:‘इक्कीसवीं सदी में एक दलित परिवार का सरेआम, एक अनुष्ठान की तरह किया गया कत्लेआम हमारे समाज के सड़े हुए भीतरी हिस्से को दिखाता है...यह अवशेष के रूप में सामंतवाद के आखिरी दिनों के बारे में एक किताब नहीं है, बल्कि इसके बारे में है कि भारत में आधुनिकता का क्या मतलब है.’ यह बात सिर्फ उक्त किताबके बारे में ही नहीं, तेलतुंबड़े के पूरे लेखन के बारे में भी सही है. तेलतुंबड़े का लेखन भारत में एक आधुनिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुखौटे में छिपे सामंती, ब्राह्मणवादी चेहरे को उजागर करता है. वे दिखाते हैं कि कैसे भारत में अमल में लाई जा रही लोकतंत्र जैसी आधुनिक प्रणाली असल में ब्राह्मणवाद और साम्राज्यवाद द्वारा एक साथ मिल कर भारतीय अवाम के सबसे बदहाल हिस्सों के शोषण और उत्पीड़न के औजार के रूप में काम करती है. तेलतुंबड़े इस शोषण के खिलाफ विकसित हुई वैचारिकियों और आंदोलनों की समस्याओं पर भी आलोचनात्मक निगाह डालते हैं. वे एक तरफ जहां मार्क्सवादियों द्वारा भारतीय समाज में जाति और वर्ग के

Next: किलों पर जितनी चाहे उतनी निजी सेना तैनात कर लें हुक्मरान। बाजू भी बहुत हैं तो सर भी बहुत हैं! हिंसा और नरसंहार के खिलाफ जाग रहा है भारत का जनमानस अग्निपाखी! मुंबई में सिंह गर्जना से जाहिर है कि दिल्ली और नागपुर के लठैतों की चलेगी नहीं।और तो और,संघ के मुख्यालय नागपुर की दीक्षाभूमि से एक बहुत बड़ा मोर्चा संघ मुख्यालय तक गया और वहां ऐसा निरंतर होने वाला है। बुद्धं शरणमं गच्छामि कोई हिंदुत्व की तरह राजनीतिक धर्म नहीं है।यह भारत के इतिहास की गूंज है।यह गूंज देशभर में तेज होने जा रही हैं । हिंसा ,घृणा और नरसंहार उत्सव के खिलाफ नागपुर और कोलकाता में ही नहीं, देशभर में अमन चैन के लिए शांति मार्च निकलने को है। रोहित वेमला अब कोई चेहरा नहीं है। रोहित वेमुला अब कोई अस्मिता भी नहीं है।न जात न मजहब। यह चेहराफासिज्म के राजकाज के खिलाफ जनता के हक हकूक की लड़ाई का बवंडर है जो सत्तर साल से ठहरा हुआ था,अब शुरु हुआ है।
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Desh Nirmohi
खैरलांजी कत्लेआम पर आनंद तेलतुंबड़े की किताब परसिस्टेंस ऑफ कास्ट के बारे में जानी मानी लेखिका अरुंधति रॉय का कहना है:'इक्कीसवीं सदी में एक दलित परिवार का सरेआम, एक अनुष्ठान की तरह किया गया कत्लेआम हमारे समाज के सड़े हुए भीतरी हिस्से को दिखाता है...यह अवशेष के रूप में सामंतवाद के आखिरी दिनों के बारे में एक किताब नहीं है, बल्कि इसके बारे में है कि भारत में आधुनिकता का क्या मतलब है.'
यह बात सिर्फ उक्त किताबके बारे में ही नहीं, तेलतुंबड़े के पूरे लेखन के बारे में भी सही है. तेलतुंबड़े का लेखन भारत में एक आधुनिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुखौटे में छिपे सामंती, ब्राह्मणवादी चेहरे को उजागर करता है. वे दिखाते हैं कि कैसे भारत में अमल में लाई जा रही लोकतंत्र जैसी आधुनिक प्रणाली असल में ब्राह्मणवाद और साम्राज्यवाद द्वारा एक साथ मिल कर भारतीय अवाम के सबसे बदहाल हिस्सों के शोषण और उत्पीड़न के औजार के रूप में काम करती है. 
तेलतुंबड़े इस शोषण के खिलाफ विकसित हुई वैचारिकियों और आंदोलनों की समस्याओं पर भी आलोचनात्मक निगाह डालते हैं. वे एक तरफ जहां मार्क्सवादियों द्वारा भारतीय समाज में जाति और वर्ग के दो अलग अलग दायरे बना कर उन्हें एक दूसरे में समोने की कोशिशों की समस्याओं को रेखांकित करते हैं, वहीं दूसरी तरफ जाति विरोधी आंदोलनों द्वारा साम्राज्यवादी शोषण और आर्थिक मुद्दों की अनदेखी किए जाने के बुरे नतीजों पर भी विचार करते हैं. साथ ही, उनकी कोशिश आरक्षण के जटिल और नाजुक मुद्दे पर एक बारीक और सही समझ तक पहुंचने की है. तेलतुंबड़े ने मार्क्सवाद और आंबेडकरी वैचारिक नजरिए,दोनों की ही सीमाओं का विस्तार करते हुए, बाबासाहेब आंबेडकर को देखने का एक सही नजरिया विकसित करने की कोशिश करते हैं.
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