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अलविदा आम आदमी पार्टी बल्ली सिंह चीमा ।

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अलविदा आम आदमी पार्टी
बल्ली सिंह चीमा ।
(फेसबुक वाल से)
अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ईमानदार सच्चे और अच्छे व्यक्ति होने के बावजूद पार्टी में आंतरिक लोकतन्त्र
को जिन्दा नहीं रख पाये । उत्तराखण्ड में दिल्ली से आये अब्जर्वरों की जियादितियों सह प्रभारी की संविधान विरोधी कार्यशैली और ताना शाही रवैये के खिलाफ उठी कार्यकर्तायों की जायज आवाज़ को भी दिल्ली नेतृत्व ने अनसुना कर दिया परिणाम स्वरूप उत्तराखण्ड में सैकड़ों 
कार्यकर्ता पार्टी छोड़ चुके हैं सैकड़ों पार्टी छोड़ने के बारे में 
सोच रहे हैं। बहुत सारे लोग वेट ए
ंड वाच की स्थिति में घर
पर बैठे हुए हैं।
जिन विचारों व् मूल्यों को लेकर आप बनी थी
उन पर कायम रहते हुए संविधान के अनुसार अपने अंदर लोकतन्त्र को बहाल रखते हुए अगर आप पार्टी काम करती है
तो मैं भविषय में पार्टी का समर्थक बना रहूंगा क्योंकि मेरा मानना है कि बहुत सारी गलतियां करने के बावजूद आप पार्टी आज भी भाजपा और कांग्रेस जैसी से बेहतर है परन्तु जो मानदण्ड आप पार्टी ने स्वंम अपने लिए बनाये या तय किये थे उन पर पार्टी खरी नहीं उतर पा रही है इस लिए मैं आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता छोड़ रहा हूँ ।
अनुशासन समिति के अध्यक्ष पद को और प्रदेश कार्यकारिणी की सदस्यता को मैं मई माह में पहले ही छोड़
चूका हूँ ।
इसे कहकर बड़ी तकलीफ झेली है मगर सोचो
मेरे अंदर अगर सच मर गया होता तो क्या होता।

শ্রী বসন্ত কুমার মণ্ডল রচিত “অ আ ক খয় অচ্ছুত কথা”

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শ্রী বসন্ত কুমার মণ্ডল রচিত “অ আ ক খয় অচ্ছুত কথা” বইটি আমার হাতে আসে ছেলেবেলায় । সম্ভবত ১৯৯৪ সাল । আমি তখন ক্লাস সিক্সে পড়ি । সেই থেকে বইটি আমি যত্ন করে রেখে দিয়েছি । বইটি আমার খুবই ভালো লেগেছিল । প্রকাশক “বাংলা দলিত সাহিত্য সংস্থা” । কবি বসন্ত কুমার মণ্ডলকে এই বইটি লেখার জন্য ধন্যবাদ জানাই । আমি এই বইটি থেকে অনেক কিছু শিখেছি । চলুন আজ থেকে আমরা সকলে মিলে কবি বসন্ত কুমার মণ্ডল রচিত “অ আ ক খয় অচ্ছুত কথা” –র মাধ্যমে বাংলা স্বরবর্ণ ও ব্যঞ্জনবর্ণ শিখি । বলো “অ” -

Pilibhite udbastura nikhilbharater patakatale sangathito hochhe.

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Pilibhite udbastura nikhilbharater patakatale sangathito hochhe.
Subodh Biswas's photo.
Subodh Biswas's photo.
Subodh Biswas's photo.
Subodh Biswas's photo.
Subodh Biswas's photo.

ভারতের ভলতেয়ার, যুক্তিবাদী, Self-Respect Movement এর কারিগর Erode Venkata Ramasamy পেরিয়ারের জন্ম দিনে

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Saradindu Uddipan
আজ ১৭ই সেপ্টেম্বর। ভারতের ভলতেয়ার, যুক্তিবাদী, Self-Respect Movement এর কারিগর Erode Venkata Ramasamy পেরিয়ারের জন্ম দিনে দলিত-বহুজন স্বাধিকার আন্দোলনের পক্ষ থেকে বিনম্র অভিবাদন জানাই।
পেরিয়ার ১৮৭৯ সালের ১৭ই সেপ্টেম্বর মাদ্রাসের এক সম্ভ্রান্ত পরিবারে জন্ম গ্রহণ করেন। যুবক বয়সেই তিনি মাদ্রাসে জাতপাত এবং লিঙ্গ বৈষম্যের নানা ঘটনা প্রত্যক্ষ করেন। ১৯২৫ সালে তিনি জাতীয় কংগ্রেস ছেড়ে জাস্টিস পার্টি গঠন করেন। তিনি ঘোষণা করেন যে কংগ্রেস পার্টি শুধু ব্রাহ্মণদের সেবা করার জন্য গঠিত হয়েছে। ১৯৪৪ সালে তিনি গঠন করেন ডিএমকে পার্টি।
তিনি জাত ব্যবস্থাকে ধ্বংস করার জন্য যুক্তিবাদী আন্দোলন, আত্তমর্যাদা রক্ষার আন্দোলন এবং লিঙ্গ বৈষম্য দূর করার আন্দোলন শুরু করেন।
রামস্বামী ঘোষণা করেছিলেন "যদি উত্তর ভারতের লোকের রাবন, কুম্ভকর্ণ এবং মেঘনাদকে পোড়ানোর অধিকার থাকে তবে আমাদেরো রাম লক্ষ্মণকে পোড়ানোর আধিকার আছে। যুক্তিবাদী আন্দোলনের অংশ হিসেবে তিনি হিন্দু ধর্মের দেবদেবীর মূর্তি তৈরি করে লরিতে তুলে শোভাযাত্রা করেন। এই মাটির মূর্তিগুলিকে জুতো এবং ঝাঁটা মেরে প্রমান করেন যে এদের মধ্যে কোন শক্তি নেই। ব্রাহ্মণেরা এই মূর্তিগুলিকে সামনে রেখে বৃথা ভয় দেখিয়ে ধর্ম ব্যবসা করে।
UNESCO ইভি রামস্বামীকে "The prophet of the new age", "The Socrates of South East Asia", "Father of social reform movement"হিসেবে স্বীকৃতি দেন।
রামসবামীর বিখ্যাত উক্তিঃ
" Those who believe in god are uncivilized".
তিনি আরো ব্লেন যে, “If god is the root cause for our degradation destroy that god. If it is religion destroy it. If it is Manu Darma, Gita, or any other Mythology (Purana), burn them to ashes. If it is temple, tank, or festival, boycott them. Finally if it is our politics, come forward to declare it openly.”

দেখেছেন কখোনো, কিছুই না পাওয়া,বঞ্চিত, নীপিড়িত মানুষের মুখ? স্বামী, সন্তান হারা মায়েদের চোখেরপাতা গুলো?

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Hiranmay Sarkar wrote
দেখেছেন কখোনো, কিছুই না পাওয়া,বঞ্চিত, নীপিড়িত মানুষের মুখ? স্বামী, সন্তান হারা মায়েদের চোখেরপাতা গুলো?
এদের ভুল একটাই, ভুলটা সরাসরি করেনি, বংশানুক্রম এ বয়ে নিয়ে যেতে হচ্ছে, হিন্দুর ঘরে জন্ম নেওয়া।
যার কারনে বারবার হতে হচ্ছে অত্যাচারিত, নির্যাতিত, সর্বশেষ এ উদ্বাস্ত।
১৯৯২ সালে বাংলাদেশ থেকে প্রান হাতে নিয়ে,সমস্তকিছু হারিয়ে এদেশে এসেছেন লক্ষ লক্ষ মানুষ। কিন্তুু বাচতে গেলে চাই অন্ন বস্ত্র বাসস্থান। অন্নের জন্য গভীর সমুদ্রে মাছ ধরতে গিয়ে অনেকেই আর ফিরে আসেনা,নির্মম পরিণতি সব সময়েই অপেক্ষা করে থাকে।আর বাসস্থান?? দেখলুম রাস্তার দুধারে তাবুর ছাউনি। ২৪ বৎসর বসবাস করলেও এখনো কোনো সরকারি সাহায্য এদের কপালে জোটেনি।৭০% মানুষ রেশনব্যবস্থার অন্তর্গত হয়নি। ভোটবাস্কে কোনো প্রভাব ফেলতে যাতে না পারে, সেজন্য আধার কার্ড, ভোটার কার্ড ও হয়নি।সমুদ্র থেকে নিখোজ হলেও কোনো সরকারি সাহায্য এদের জন্য বরাদ্দ হয় না। কিছু হলেও এই সমস্ত মানুষের কাছে তা পৌছয় না।
আজ আমাদের দিদি মিনতি গোলদার ও শ্রদ্ধেয় বীরেন বাবুর ঐকান্তিক প্রচেষ্টায়,নারায়ণ বাবুর সহযোগীতায় কুলতলিতে কয়েকশত মানুষের উপস্থিতিতে কিছু স্বজনহারা,দুস্থ মায়েদের হাতে শাড়ী তুলে দিয়ছেন নিখিল ভারত বাঙালি উদ্বাস্ত সমন্বয় সমিতির নির্ভীক যোদ্ধারা।

भारतीय रेल के लाइफ लाइन वजूद पर सवालिया निशान पलाश विश्वास

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भारतीय रेल के लाइफ लाइन वजूद पर सवालिया निशान

पलाश विश्वास

indian railway के लिए चित्र परिणाम

रेल बजट का अवसान नवउदारवादी अर्थशास्त्री विवेक देवराय की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति की सिफारिश के मुताबिक हुआ है।देवराय नीति आयोग के सदस्य हैं।वे सिंगुर नंदीग्राम प्रकरण में वाम सरकार के खास सलाहकार थे,जिन्होंने डा.अशोक मित्र के सामाजिक अर्थशास्त्र से वामदलों के संबंध तड़ने में बड़ी भूमिका निभाई और बाकी इतिहास सबको मालूम है।हालांकि मीडिया के मुताबिक यह अर्थ व्यवस्था में सुधार की दिशा में  बहुत बड़ी छलांग है।


होगाो,इसमें दो राय नहीं।ब्रिटिश हुकूमत के बाद आजाद भारत में भी भारतीय रेल की देश की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान रहा है और अर्थव्वस्था का समारा ढांचा ही भारतीय रेल से नत्थी रहा है।उसे तोड़कर कार्पोरेट अर्थव्यवस्था किसी राकेट की तरह हो सकता है कि हमें मंगल या शनिग्रह में बसा दें। लेकिन इसका कुल मतलब यह हुआ कि रेल अब सार्वजनिक परिवहन या देश की लाइफ लाइन या अर्थ व्यवस्था का बुनियादी ढांचा जैसा कोई वजूद भारतीय रेल का बिल्कुल नहीं रहने वाला है।


शिक्षा, चिकित्सा, ऊर्जा, बैंकिंग, बीमा,भोजन,पेयजल,आपूर्ति,सार्वजनिक निर्माण के निजीकरण के बाद भारतीय रेलवे के निजीकरण की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।


गौरतलब है कि 1923 में ब्रिटिश हुकूमत के अंतर्गत रेल बोर्ड के नये सिरे से गठन के साथ अलग रेल बजट की सिफारिश विलियम मिशेल ऐकओवार्थ कमिटी ने की थी। जिसके तहत 1924 से बजट के अलावा अलग रेल बजट का सिलसिला शुरु हुआ जो बहुत अरसे से मूल बजट से कहीं बड़ा हुआ करता था।


आजाद भारत में बजट भारी बना शुरु हुआ और बेतहाशा बढ़ते रक्षा खर्च,सड़क परिवहन, ईंधन व्यय और संरचना व्यय के मुकाबले भारतीय रेल के लिए अब बजट का कुल चार प्रतिशत ही खर्च हो पाता है।जबकि शुरुआत में भारतीय अर्थव्यवस्था भारतयी रेल को केंद्रित रही है और लंबे अरसे तक बजट का 75 से 80 फीसद भारतीय रेलवे पर खर्च होता रहा है,जो अब चार फीसद तक सिमट गया है।


अब भारतीय अर्थव्यवस्था कमसकम रेलवे पर निर्भर नहीं है।कच्चे माल की ढुलाई और सार्वजनिक परिवहने के सड़क परिवहन के विकल्प का हाईवे संस्कृति में बहुत विकास होता रहा है तो आम जनता की आवाजाही की,उनके रोजमर्रे की जिंदगी और आजीविका के सिलसिले में रेलवे की भूमिका 1991 से लगातार खत्म होती जा रही है और सार्वजनिक उपक्रम की बजाय रेलवे अब किसी कारपोरेट कंपनी की तरह मुनाफा वसूली का उपक्रम बनता रहा है। जिसका लोक कल्याण या देश की लाइफ लाइन के कोई नाता नहीं रह गया है।उसके नाभि नाल का संबंध भारतीय जनगण से नहीं, बल्कि शेचर बाजार में दांव पर रखे कारिपोरेट हितों के साथ है।


वैसे भी भारतीय संसद की नीति निर्माण में कोई निर्णायक भूमिका  रह नहीं गयी है और नवउदारवाद की वातानुकूलित संतानें कारपोरेट हितों के मुताबिक विशेषज्ञ कमिटियों के मार्फत नीतियां तय कर देती हैं और भारत सरकार सीधे उसे लागू कर देती है,जिसमें संसद की कोई भूमिका होती नहीं है।


रेल बजट के खात्मे के साथ सुधार का संबंध यही है कि रेलवे को सीधे बाजार के कारपोरेट हितों से जोड़ दिया जाये और मनाफावसूली भी किसी कारपोरेट कंपनी की तरह हो।रेलवे पर जनता के सारे हक हकूक एक झटके से खत्म कर दिये जायें।


रेल सेवाओं के लगातार हो रहे अप्रत्यक्ष निजीकरण की वजह से इस मुनाफ वसूली में कारपोरेट हिस्सेदारी बहुत बड़ी है।रेलवे के उस मुनाफे से देश की आम जनता को कोई लेना देना उसी तरह नहीं होने वाला है,जैसे मौजूदा भारतीय रेल का आम जनता के हितों से उतना ही लेना देना है,जितना किसी नागरिक की क्रय क्षमता से है।आम जनता की आवाजाही या देश जोड़ने के लिए नहीं,जो जितना खर्च कर सके,भारतीय रेल की सेवा आम जनता के लिए उतनी तक सीमित होती जा रही है।


जाहिर है कि भारतीय रेल में गरीबों के लिए अब कोई जगह उसी तरह नहीं बची है जैसे आम जनता के लिए चमकदार वातानुकूलित तेज गति की ट्रेनों में उनके लिए जनरल डब्बे भी नहीं होते।कुल मिलाकर,गरीबों के लिए रेलवे हवाी यात्रा की जैसी मुश्किल और खर्चीली होती जा रही है।अब संसद से भी रेल का नाता टूट गया है।


इस देश की गरीब आम जनता की लाइफ लाइन बतौर जिसतरह भारतीय रेल का इतिहास रहा है,वह सारा किस्सा खत्म है।अब भारतीय रेल स्मार्ट, बुलेट, राजधानी, दुरंतो, शताब्दी या पैलेस आन व्हील जैसा कुछ है,जो लोहारदगा रेलगाड़ी,कोंकन रेलवे जैसी मीठी यादों कोसिरे से दफन करने लगी है।


कारपोरेट बंदोबस्त करते हुए रेलवे के अभूतपूर्व  व्तार और विकास के मुकाबले रेल कर्मचारियों की संख्या सत्रह लाख से घटते घटते बहुत तेजी से दस लाख तक सिमट जाने वाली है और इसे अंततः चार लाख तक कर देने की योजना है।रेलबजट के बहाने भारतीय संसद में जो भारतीय रेल की दशा दिशा पर बहसें होती रही हैं और कुछ हद तक जनसुनवाई जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिये कमोबेश होती  रही है,वह सिलसिला जाहिर है कि अब बंद है।


भारतीय रेल पर रेल बजट के अवसान के बाद संसद में या सड़क पर किसी सार्वजनिक बहस की फिर कोई गुंजाइश रही नहीं है।


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जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य पलाश विश्वास

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जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य

पलाश विश्वास

भारतीय गण नाट्य आंदोलन ने इस देश में सांस्कृतिक क्रांति की जमीन तैयार की थी, हम कभी उस जमीन पर खड़े हो नहीं सके।लेकिन इप्टा का असर सिर्फ रंग कर्म तक सीमाबद्ध नहीं है। भारतीय सिनेमा के अलावा विभिन्न कला माध्यमों में उसका गहरा अर हुआ है।सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद जैसे यथार्थवादी चित्रकारों से लेकर,देवव्रत विश्वास जैसे रवींद्र संगीत गायक,सलिल चौधरी और भूपेन हजारिका जैसे संगीतकार, माणिक बंदोपाध्याय से लेकर महाश्वेता देवी तक जनप्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के मोर्चे पर लामबंदी का सिलसिला उसी इप्टा की विरासत है।

यह भारतीय रंगकर्म और भारतीय सिनेमा में संगीतबद्ध लोक के स्थाई भाव का सर्वव्यापी सौंदर्यबोध है, जो एकमुश्त भारतीय सिनेमा के साथ भारतीय रंगकर्म, भारतीय साहित्य और संस्कृति की जमीन और लोक की जड़ों का रचनासंसार भी है।


बिजन भट्टाचार्य की जन्मशताब्दी के मौके पर पटना के रंगकर्मियों के आयोजन का न्यौता मिला है। लेकिन हम वहां जा नहीं पा रहे हैं।नवारुण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के साथ दशकों के संवाद के जरिये बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म के अनेक अंतरंग आयाम से उसी तरह आमना सामना हुआ है,जिस तरह ऋत्विक घटक की फिल्मों मेघे ढाका तारा,कोमल गांधार और सुवर्णरेखा के मार्फत रंग कर्म आंदोलन के विस्तार का साक्षात्कार हुआ है।


नवान्न के लेखक,अभिनेता बतौर रवींद्र की नृत्य नाटिकाओं से लेकर ऋत्विक घटक की रचना संसार तक इप्टा के रंगकर्म का जो विशाल विस्तार है,इस मौके पर उसकी चर्चा करना चाहुंगा।यह आलेख थोड़ा लंबा हो जाये,तो पाठक माफ करेंगे।हम नहीं जानते कि इस आयोजन में कितने लोगों तक यह आलेख पूरा का पूरा पहुंच सकेगा,लेकिन हिंदी में भारतीय पाठकों को अपनी परखौती की इस विरासत को शेयर करने के लिए इस हम अपने ब्लागों पर भी साझा कर रहे हैं।हमारा भी नैनीताल में युगमंच और गिरदा के जरिये,फिर शिवराम जैसे नुक्कड़ रंगकर्मी के जरिये सत्तर के दशक में रंगकर्म से थोडा़ नाता रहा है तो कोलकाता में नांदीकार के साथ भी थोड़ा रिश्ता रहा है तो बिजन भट्टाचार्य के परिजनों को भी दशकों से बहुत नजदीक से जानना हुआ है।हम चाहेंगे कि रंगकर्म और साहित्य संस्कृति से जड़ि पत्रिकाएं इस पूरे आलेख को पाठकों तक पहुंचाने में हमारी मदद करें ताकि बिजन भट्टाचार्य के बहाने हम भारतीय रंग कर्म और कलामाध्यमों का एक संपूर्ण छवि नई पीढ़ियों के समाने पेश कर सकें।

पहले इस तथ्य पर गौर करें कि भारतीय रंगकर्म की मौजूदा संरचना और उसी शैली, कथानक, सामाजिक यथार्थ में विभिन्न कलाओं के विन्यास की जो संगीबद्धता है,उसकी शुरुआत नौटंकी और पारसी थिएटर की देशज विधाओं की नींव पर नाट्यशास्त्र और संस्कृत नाटकों की शास्त्रीय विशुद्ध नाट्य परंपरा के विपरीत रवींद्र नाथ के भारततीर्थ की विविधता और बहुलता वाली राष्ट्रीयता में रची बसी उनकी नृत्य नाटिकाओं से शुरु है।भारतीय नाटकों में संस्कृत और देशज नाटकों में नृत्यगीत बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं,लेकिन रवींद्र नाथ ने नाटक की समूची संरचना और कथानक का विन्यास नृत्य गीत के माध्यम से किया है।बिजन भट्टाचार्य के लिखे नाटक नवान्न ने नृत्यगीत की उस शास्त्रीय तत्सम धारा को अपभ्रंश की लोक जमीन में तोड़कर अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम बतौर नाटक की जमीन तैयार की।जिसमें इप्टा आंदोलन के मंच से चित्रकला, साहित्य की विभिन्न धाराओं का समायोजन हुआ है और आधुनिक रंगकर्म में उन सभी धाराओं को हम एकमुश्त मंच पर बहते हुए देख सकते हैं।

रवींद्र नृत्य नाटिकाओं में चंडालिका,विसर्जन,चित्रांगदा,रक्करबी आधुनिक रंगकर्म के लिए तत्सम संस्कृत के वर्चस्व के बावजूद उसीतरह सामाजिक यथार्थ को सोंबोधित है जैसे मुक्तिबोध की भाषा और शिल्प,निराला के छायावाद की नींव पर आधुनिक हिंदी साहित्य के जनप्रतिबद्ध यथार्थवाद का विस्तार हुआ है।रवींद्र के इन चारों नृत्यनाटिकाओं में नृत्य के ताल में छंदबद्ध कविताओं के मार्फत स्त्री अस्मिता, अस्पृश्यता के खिलाफ बुद्धमं सरणमं गच्छामि और पराधीन भारत की स्वतंत्रतता की मुक्ति आकांक्षा का जयघोष है।चंडालिका,चित्रांगदा और नंदिनी तीनों मुक्ति संग्राम में नेतृत्वकारी भूमिका में है।

इसी सिलसिले में तत्सम से अपभ्रंश की लोक जमीन पर इप्टा आंदोलन के तहत भारतीय थियेटर का सामाजिक यथार्थ पर केंद्रित भारतीय रंगकर्म और संस्कृति कर्म का नया सौंदर्यबोध बना है, जिसे मार्क्सवादी सौंदर्यबोध से जोड़कर हम अपने लोक जीवन की मेहनतकश दुनिया के कला अनुभवों को ही नजरअंदाज करते हैं।बिजन भट्टाचार्य से वह शुरुआत हुई जब भारतीय रंगकर्मियों ने लोक जीवन को रंगकर्म का मुख्य विन्यास,संरचना और माध्यम बनाने में निरंतर काम किया है। भारतीय कला माध्यमों की समग्र समझ  के साथ भारतीय रंगकर्म को देखने परखने के लिए बिजन भट्टाचार्य को जानना इसलिए बेहद जरुरी है।

नया रंगकर्म और रंगकर्म के नये प्रयोगों के लिए बिजन भट्टाचार्य का पाठ महाश्वेता देवी और नवारुण भट्टाचार्य के पाठ से ज्यादा जरुरी है।बिजन के बाद उनके ग्रुप थिएटर का निर्देशन करने वाले उनके बेटे नवारुण दा की मृत्यु उपत्यका में फिर वही नवान्न की भुखमरी की चीखें हैं तो अरबन लेखक नवारुण के उपन्यासों में फिर अंडरक्लास, अछूत, असभ्य, जातिहीन,अंत्यज सर्वहारा फैताड़ु या हर्बर्ट का धमाका गुलिल्ला युद्ध शब्द दर शब्द है।नवारुण दा और महाश्वेता दी के लेखन में वही फर्क है,जो ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों में है।यह रंगकर्म के अनुभव का फर्क है जो नीलाभ या मंगलेश डबराल,वीरेन डंगवाल या गिरदा को दूसरे कवियों से अलग खड़ा कर देता है।

नवान्न के बिजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक की युगलबंदी से सामाजिक यथार्थ की संगीदबद्ध सिनेमा का भी विकास हुआ जो दो बीघा जमीन  की कथा से अलहदा है।लोक को रंगकर्म का आधार बनाने का मुख्य काम बिजन भट्टाचार्य के नवान्न से ही शुरु हुआ जो गिरदा के नाट्य प्रयोगों में कुमांयूनी और गढ़वाली लोक जीवन है तो हबीब तनवीर के नया थिएटर में फिर वही छत्तीसगढ़ी नाचा गम्मत के साथ तीखा परसाईधर्मी व्यंग्य है तो मणिपुर में इस धारा में मणिपुरी नृत्य और संगीत के साथ साथ मार्शल आर्ट का समावेश है।शिवराम से लेकर सफदर हाशमी की नुक्कड़ यात्रा में भी वही लोक जमीन ही रंगकर्म की पहचान है।

बिजन भट्टाचार्य की पत्नी महाश्वेता देवी थीं।महाश्वेता देवी के चाचा थे ऋत्विक घटक और महाश्वेता देवी के साथ बिजन भट्टाचार्य का विवाह टूट गया तो महाश्वेता देवी ने दूसरा विवाह कर लिया। नवारुण अपनी मां के साथ नहीं थे और वह अपने रंगकर्मी पिता के साथ थे।नवारुणदा ने मेघे ठाका तारा से लेकर सुवर्ण रेखा तक भारत विभाजन की त्रासदी को बिजन और ऋत्विक के साथ जिया है लेकिन अपने रचनाकर्म में छायावादी भावुकता के बजाय चिकित्सकीय चीरफाड़ नवारुणदा की खासियत है और बिजन और ऋत्विक की संगीतबद्धता की बजाय ठोस वस्तुनिष्ठ गद्य उनका हथियार है, लेकिन शुरु से लेकर आखिर तक नवारुणदा उसी नवान्न की जमीन पर खड़े हैं और भद्र सभ्य उपभोक्ता नागरिकों के साथ नहीं,मेहनतकश दुनिया के हक हकूक के साथ वे खड़े हैं लगातार लगातार शब्द शब्द युद्ध रचते हुए तो नवान्न में साझेदार महाश्वेता दी की रचनाओं में शहरी सीमेंट के जंगल के बजाय तमाम जंगल के दावेदार हैं,आदिवासी किसान विद्रोह का सारा इतिहास है और वह हजार चौरसवीं की मां से लेकर महाअरण्य की मां या सिंगुर नंदीग्राम जंगलमहल लोधा शबर की मां भी है।महाश्वेता दी रचनाकर्मी जितनी बड़ी हैं उससे बड़ी सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता है और वे विचारधारा के पाखंड को तोड़कर भी आखिरतक जंगल की गंध से अपनी वफा तोड़ती नहीं हैं।

सविताजी और मुझे उन्हीं महाश्वेता देवी के एकांत में उनके कंठ से दशकों बाद नवान्न के वे ही गीत सुनने को मिले हैं। पारिवारिक संबंध जैसे भी रहे हों,मेहनतकशों के हक हकूक की लड़ाई में नवान्न का रंगकर्म उनका हमेशा साझा रहा है।यही इप्टा को लेकर कोमल गांधार के विवाद और रंगकर्म पर नेतृत्व के हस्तक्षेप के खिलाफ ऋत्विक, देवव्रत विश्वास,सोमनाथ होड़ वगैरह की बगवात की कथा व्यथा भी है।यह कथा यात्रा भी सर्वभारतीय है,जिसमें भारतीय सिनेमा और उसके बलराज साहनी,एके हंगल जैसे तमाम चमकदार चेहरे भी शामिल हैं।

नवान्न बिजन भट्टाचार्य ने लिखा और 1944 में भारतीय गण नाट्य संघ(इप्टा) ने किंवदंती रंगकर्मी शंभू मित्र के निर्देशन में इस नाटक कामंचन भुखमरी के भूगोलको संबोधित करते हुए लिखा है।बाग्ला ग्रुप थिएटर आंदोलन की कथा जैसे शंभू मित्र के बिना पूरी नहीं होती तो बिजन की चर्च के बिना वह कहानी  फिर अधूरी है।इन्हीं शंभू मित्र ने फिर राजकपूर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म जागते रहो का निर्देशन किया।वहा भी मैं क्या झूठ बोल्या की गूंज राजकपूर और नर्गिस के करिश्मा से बढ़कर है और यह फिल्म इसीलिए महान है।भुखमरी के इसी भूगोल से सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद की चित्रकला जुड़ी है तो देवव्रत विश्वास के रवींद्र संगीत में भी भूख का वही भूगोल है जो माणिक बंद्योपाध्या का समूचा कथासंसार है।जो दरअसल रवींद्र की चंडालिका, रक्तकरबी और चित्रांगदा का भाव विस्तार है तो नया थिएटर से लेकर मणिपुरी थिएटर का बीज है और इसी परंपरा में मराठी रंगकर्म में तमाशा जैसे लोक विधा का समायोजन है तो दक्षिण भारतीय रंगकर्म में शास्त्रीय नृत्य भारत नाट्यम और कथाकलि विशुध लोक के साथ एकाकार हैं।

1944 में शंभू मित्र के निर्देशन में गणनाट्य संघ की प्रस्तुति के बाद 1948 में आजाद भारत में शंभू मित्र के ग्रुप थिएटर बहुरुपीके मच से कुमार राय के निर्देशन में फिर नवान्न का मंचन हुआ।ब्रिटिश भारत के बंगाल में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक भी मृत्यु बमवर्षा से न होकर लाखों लोग खामोशी से भुकमरी के शिकार हो गये।1943  की बंगाल की उस भुखमरी के शिकार लोगों की मदद के लिए इप्टा ने वायस आप बेंगल उत्सव के जरिये देशभर में एक लाख रुपये से बड़ी रकम इकट्ठा की थी। नवान्न सिर्फ नाटक का मंचन नहीं था,वह सामाजिक यथार्थ का कला के लिए कला जैसा कला कौशल भी नहीं था,भुखमरी के शिकार लोगों के लिए देशव्यापी राहत सहायता अभियान भी था वह ,जो इप्टा का सामाजिक क्रांति उपक्रम था,जिसमें सारे कला माध्यमों का संगठनात्मक ताना बाना था,जो पराधीन भारत में बना लेकिन भारत के आजाद होते ही टूटकर बिखर गया।इप्टा से नवान्न का बहुरुपी के मंच तक स्थानांतरण इसी विघटन का प्रतीक है।


बिजन भट्टा चार्य जितने बड़े लेखक थे,उससे कहीं ज्यादा सशक्त वे थिएटर और सिनेमा दोनों विधायों के अभिनेता थे।बांग्ला थिएटर आंदोलन में गिरीश चंद्र भादुडी़ के बाद त्रासदी जिनके नाम का पर्याय है,वे बिजन भट्टाचार्य है,जिन्होंने मेघे ढाका तारा में नीता के पिता की भूमिका अदा किया है तो विभाजन की त्रासदी को नाटक दर नाटक, फिल्म दर फिल्म भुखमरी की नर्क यंत्रणा के साथ जिया है,नवारुण दा ने उस पिता का हाथ कभी नहीं छोड़ा और यही उनकी आजीवन त्रासदी का सुखांत कहा जा सकता है।

विजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक हमारी तरह ही पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ित विस्थापित थे, जिन्हें उनकी सक्रिय रचनाधर्मिता और भारतीय संस्कृति,रंगकर्म और सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के बावजूद  बंगाली भद्रलोक समाज ने कभी मंजूर नहीं किया।

ऋत्विक को बाकायदा बंगाल के इतिहास भूगोल से पूर्वी बंगाल से आये बंगाली विभाजनपीड़ितों की तरह  खदेड़ दिया गया और बिजन भट्टाचार्य लगभग गुमनाम मौत मरे और बंगाल के सांस्कृतिक जगत में उनकी जन्मशताब्दी को लेकर वह हलचल नहीं है, जो बंगाल के किसी भी क्षेत्र में कुछ भी करने वाले किसी की भी जन्मशताब्दी को लेकर दिखती है।बल्कि यूं कहे कि बंगाली भद्रसमाज को भूख के भूगोल के इस महान शरणार्थी कलाकार की कोई याद नहीं आती वैसे ही जैसे उन्हें ऋत्विक घटक कभी रास नहीं आये।


हमारे पुरखे जैशोर जिले में रहते थे जो मधुमति नदी के किनारे नड़ाइल थाना इलाके के वाशिंदा थे और वे हरिचंदा ठाकुर के मतुआ आंदोलन से लेकर तेभागा तक के सिपाही थे।वह नड़ाइल अब अलग जिला है।मधुमति नदी भी सूख सी गयी है ,बताते हैं।उसी मधुमति नदी के उस पार फरीदपुर जिले के खानखानापुर में 1906 को बिजन भट्टाचार्य का जन्म हुआ था।उनके पिता क्षीरोद बिहारी स्कूल शिक्षक थे।पेशे के लिहाज से बदली होते रहने के कारण बंगाल भर में पिता के साथ सफर करते रहने की वजह से बंगाल के विबिन्ऩ इलाकों के लोकत में उनकी इतनी गहरी पैठ बनी।उनके लिखे में इसलिए भद्रलोक तत्सम भाषा के बजाय बोलियों के अपभ्रंश ज्यादा हैं,जिन्हें उन्होंने नवान्न मार्फत भारतीय रंगकर्म का सौंदर्यशास्त्र बना दिया।


नवान्न के बारे में बिजन भट्टाचार्य ने खुद कहा है,आवेग न हो तो कविता का जन्म नहीं होता-संवेदना न हो,जीवन यंत्रणा न हो तो शायद कोई रचना संभव नहीं है।


इसतरह गणनाट्य आंदोलन भी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ पर हिटलर के हमले की वजह से शुरु फासीवादविरोधी आंदोलन के तहत फासीवाद विरोधी लेखक संसकृतिकर्म संगठन से लेकर इप्टा तक का सफर रहा है।1943 की भुखमरी के मुश्किल हालात के मुकाबले समस्त कला माध्यमों के समन्वय से ही इस आंदोलनका इतना व्यापक असर भारतीय विधाओं और कला माध्यमों पर हुआ,जिसके लिए नवान्न का मंचन प्रस्थानबिंदू रहा है।







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Thus, RAFALE deal struck!Thanks to Kashmir! Palash Biswas

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Thus, RAFALE deal struck!Thanks to Kashmir!

Palash Biswas

It is unprecedented war campaign making in public opinion at home as well as worldwide for yet another Indo Pak clash in the border. It reminds the pattern of war campaign launched by Bush War Machine activated in United States of America as the corporate media worldwide campaign to build up a false resistance against so called weapons of mass destruction in Iraq to launch the war against the middle east to capture oilfields and resultant in Taliban to ISIS which made entire middle East And Africa subjected to American Spring.

Having signed nuclear deal with India,Bush injected the American Spring in Indian psyche to make Indian ocean peace zone a burning oil field for the survival of US War Economy in turmoil with the burns of wars since Vietnam and which have to be continued at any cost to bring home the dead soldiers and marines or those live dead humanity inflicted with personality disorder.

This war cry is being presented as a consumer product with strategic marketing in media and social media as the offspring of neoliberal reforms divested the unity and integrity of Indian nation, its democracy, its natural and human resources along with everything public including defence and internal security just to serve the interests of the desi videsi companies selling the weapons of mass destruction and we have been subjected to radioactive environment as nuclear plants have become viral in our veins so dangerously.This blind nationalism happens to be most antinational in this sense.

This war cry all on the name of false patriotism is nothing but simple business interests with huge stakes by those praivate companies around the world in the wide open Indian Weapon market.

Unfortunately,Indian people,specifically the people in Kashmir vally,a different demography with majority Muslim population  have to be the victims as well as those human beings across the borders who would be sacrificed in border clash which might well be resolved with diplomatic bilateral exercise.

Those vomiting venom against humanity and nature have not to pay anything,the taxpayers have to pay the bill of commission to be paid as it has been the story of all defence purchase.Millions of people around this geopolitics have to be desettled yet again as the partition holocaust continues. Specifically those,who have to lose their sons converted into martyrs.

No conscience seems to relevant as it was not there anywhere to skip the war in the oilfields and the media misled the humanity.


Media reports:

Rafale fighters are 4.5 generation jets and with the deal for 36 aircraft being signed today, the Indian Air Force's (IAF) combat power will be enhanced significantly. The Rafale fighter jet is equipped to carry out both air-to-ground strikes, as well as air-to-air attacks and interceptions during the same sortie. 


Rafale is an "omni-role" aircraft, with a full-range of advanced weapons such as Meteor Beyond-Visual-Range (BVR) missile, SCALP long-range missile, helmet mount system, AESA (Active Electronically Scanned Array) radar and latest warfare systems.


Dassault Aviation says that the aircraft has the ability to track targets and generate real time three-dimensional maps. It has a wing span of 10.90m; length of 15.30m; and a height of 5.30m.


The digital 'Fly-by-Wire' Flight Control System is aimed at providing longitudinal stability. But, more than anything else, it is the missiles that are integrated on the Rafale that add to the IAF's firepower.



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हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर! पलाश विश्वास

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हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर!

पलाश विश्वास

पहलीबार टीवी पर युद्ध का सीधा प्रसारण खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया ने किया अमेरिका के उस युद्ध को अमन चैन के लिए  इराक के खिलाफ पूरी दुनिया का युद्ध साबित करने के लिए।दुनियाभर का मीडिया उसीके मुताबिक विश्व जनमत तैयार करता रहा और तेल कुंओं की आग में तब से लेकर अबतक सारी दुनिया सुलग रही है।

नतीजतन आधी दुनिया अब शरणार्थी सैलाब से उसीतरह लहूलुहान है,जैसे हम इस महादेश के चप्पे चप्पे पर सन सैंतालीस के बाद से लगातार लहूलुहान होने को अभिशप्त हैं।अमेरिका के उस युद्ध की निरंतरता से महान सोवियत संघ का विखंडन हो गया और सारा विश्व ग्लोब में तब्दील होकर अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील है।सारी सरकारें और अर्थव्यवस्थाएं अब वाशिंगटन की गुलाम हैं और उसीके हित साध रही हैं।

मनुष्यता अब पिता की हाथों से बिछुड़कर समुंदर में तैरती लाश है और फिंजा सरहदों के आर पार कयामत है।

सरकारी आधिकारिक बयान के अलावा अब तक किसी सच को सच मानने का रिवाज नहीं है और वाशिंगटन का झूठ ही सच मानती रही है दुनिया।दो दशक बाद उस सच के पर्दाफाश के पर्दाफाश के बावजूद  दहशतगर्दी और अविराम युद्धोन्माद, विश्वव्यापी शरणार्थी सैलाब,गृहयुद्धों और प्राकृतिक संसाधनों के लूटखसोट पर केंद्रित नरसंहारी मुक्तबाजार में कैद मनुष्यता की रिहाई के सारे दरवाजे खिड़किया बंद हैं और हम पुशत दर पुश्त हिरोशिमा और नागाशाकी,भोपराल गैस त्रासदी,सिख नरसंहार, असम त्रिपुरा के नरसंहार,आदिवासी भूगोल में सलवा जुड़ुम और बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात प्रयोग की निरंतरता के मुक्तबाजार के तेल कुंओं में झलसते रहेंगे।मेहनतकशों के हाथ पांव कटते रहेंगे,युवाओं के सपनों का कत्लगाह बनता रहेगा देश,स्त्री दासी बनी रहेगी,बच्चे शरणार्थी होते रहेंगे और किसान खुदकशी करते रहेंगे।दलितों,आदिवासियों और आम जनता पर जुल्मोसिताम का सिलसिला जारी रहेगा।

इसलिए सर्जिकल स्ट्राइक के सच झूठ के मल्टी मीडिया फोर जी ब्लिट्ज और ब्लास्ट पर मुझे फिलहाल कुछ कहना नहीं है।मोबाइल पर धधकते युद्धोन्माद पर कुछ कहना बेमायने है।राष्ट्रद्रोह तो मान ही लिया जायेगा यह।

हम अमेरिकी उपनिवेश हैं और अमेरिकी नागरिकों की तरह वियतनाम युद्ध और खाड़ी युद्ध के विरोध की तर्ज पर किसी आंदोलन की बात रही दूर,विमर्श,संवाद और अभिव्यक्ति के लिए भी हम आजाद नहीं है क्योंकि यह युद्धोन्माद भी उपभोक्ता सामग्री की तरह कारपोरेट उपज है और हम जाने अनजाने उसके उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता को कोई विवेक होता नहीं है।सम्यक ज्ञान और सम्याक प्रज्ञा की कोई संभावना कही नहीं है और न इस अनंत युद्धोन्माद से कोई रिहाई है।धम्म लापता है।

हम लोग ग्लोबीकरण की अवधारणा के तहत इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने की तकनीक के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं।यह वह दुनिया है जिसके पोर पोर से खून चूं रहा है।हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर हैं।जिसमें हमारे अपनों का खून भी पल दर पल शामिल होता जा रहा है।अपनी मुट्ठी में कैद इस दुनिया की हलचल से लेकिन हम बेखबर हैं।खबरें इतनी बेहया हो गयी हैं कि उनमें विज्ञापन के जिंगल के अलावा जिंदगी की कोई धड़कन नहीं है।सच का नामोनिशां बाकी नहीं है।

1991 के बाद,पहले खाड़ी युद्ध के तुरंत बाद से पिछले पच्चीस सालों से हम अमेरिकी उपनिवेश हैं।हमें इसका कोई अहसास नहीं है।सूचना क्रांति के तिलिस्म में हम दरअसल कैद हैं और प्रायोजित पाठ के अलावा हमारा कोई अध्ययन, शोध, शिक्षा, माध्यम,विधा,लोक,लोकायत,परंपरा ,संस्कृति या साहित्य नहीं है।सबकुछ मीडिया है।

हालांकि उपनिवेश हम कोई पहलीबार नहीं बने हैं।फर्क यह है कि करीब दो सौ साल के ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बनकर इस महादेश का एकीकरण हो गया। अब अमेरिकी उपनिवेश बन जाने की वजह से गंगा उल्टी बहने लगी है।भारत विभाजन के बाद बचा खुचा भूगोल और इतिहास लहूलुहान होने लगा है और किसानों ,मेहनतकशों की दुनिया में नरसंहारी अश्वमेधी सेनाएं दौड़ रही हैं।साझा इतिहास भूगोल समाज और संस्कृति का ताना बाना बिखरने लगा है।उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हो गयी है और औद्योगीकीकरण से जो वर्गीय ध्रूवीकरण की प्रक्रिया शुरु हो गयी थी,जो जाति व्यवस्था नये उत्पादन संबंधों की वजह से खत्म होने लगी थी,मनुस्मृति अनुशासन के बदले जो कानून का राज बहाल होने लगा था और बहुजन समाज वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत आकार लेने लगा था,वह सबकुछ इस अमेरिकी उपनिवेश में अब खत्म है या खत्म होने को है।

ब्राह्मण धर्म जो तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति से खत्म होकर उदार हिंदुत्व में तब्दील होकर ढाई हजार साल तक इस महादेश की विविधता और बहुलता को आत्मसात करते रहा है,फिर मुक्तबाजार का ब्राह्मणधर्म है,जो भारतीय संविधान की बजाय फिर मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है।धम्म फिर सिरे से गायब है।

एकीकरण की बजाय अब युद्धोन्माद का यह मुक्तबाजार हिंदुत्व का ब्राह्मणधर्म है और हमारी राष्ट्रीयता कारपोरेट युद्धोन्माद है।महज सत्तर साल पहले अलग हो गये इस महादेश के अलग अलग राजनितिक हिस्से परमाणु युद्ध और उससे भी भयंकर जलयुद्ध के लिए निजी देशी विदेशी कंपनियों की कारपोरेट फासिज्म के तहत एक दूसरे को खत्म करने पर आमादा हैं जबकि विभाजन के सत्तर साल के बाद भी इन तमाम हिस्सों में संपूर्ण कोई ऐसा जनसंख्या स्थानांतरण हुआ नहीं है कि इस युद्ध में सीमाओं के आरपार बहने वाली खून की नदियों में हमारा वजूद लहूलुहान हो।अकेले बांग्लादेश में दो करोड हिंदू है तो भारत में मुसलमानों की दुनियाभर में सबसे बड़ी आबादी है और कुलस मिलाकर यह महादेश कुलमिलाकर अब भी एक सांस्कृतिक अविभाज्य ईकाई है,जिसे हम तमाम लोग सिरे से नजर्ंदाज कर रहे हैं।

कलिंग युद्ध से पहले,सम्राट अशोक के बुद्धमं शरणं गच्छामि उच्चारण से पहले सारा देश कुरुक्षेत्र का महाभारत बना हुआ था।सत्ता की आम्रपाली पर कब्जा के लिए हमारे गणराज्य खंड खंड राष्ट्रवाद से लहूलुहान हो रहे थे। दो हजार साल का सफर तय करने के बाद हमने बरतानिया के उपनिवेश से रिहा होकर अखंड भारत न सही,उसी परंपरा में नया भारतवर्ष  साझा विरासत की नींव पर बना लिया है।अबभी हमारा राष्ट्रवाद अंध खंडित राष्ट्रवाद युद्धोन्मादी है।धम्म नहीं है कहीं भी।

हमारी विकास यात्रा सिर्फ तकनीकी विकास यात्रा नहीं है और न यह कोई अंतरिक्ष अभियान है।हम इतिहास के रेशम पथ पर सिंधु घाटी से लेकर अबतक लगातार इस महादेश को अमन चैन का भूगोल बनाने की कवायद में लगे रहे हैं। तथागत गौतम बुद्ध ने जो सत्य अहिंसा के धम्म के तहत इस महादेश को एक सूत्र में बांधने का उपक्रम शुरु किया था,वह सारा इतिहास अब धर्मोन्मादी युद्धोन्माद है।

आज मुक्त बाजार का कारपोरेट तंत्र मंत्र यंत्र फिर उसी युद्धोन्माद का आवाहन करके हमें चंडाशोक में तब्दील कर रहा है और हम सबके हाथों में नंगी तलवारें सौंप रहा है कि हम एक दूसरे का गला काट दें।

ब्रिटिश राज के दरम्यान अफगानिस्तान से लेकर म्यांमर,सिंगापुर,श्रीलंका से लेकर नेपाल तक हमारा भूगोल और इतिहास की साझा विरासत हमने सहेज ली। सामंती उत्पादन प्रणाली के नर्क से निकलकर हम औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में शामिल हुए।ब्रिटिश हुक्मरान ने देश के बहुजनों को कमोबेश वे सारे अधिकार दे दिये, जिनसे मनुस्मृति की वजह से वे वंचित रहे हैं।मनुस्मृति अनुशासन के बदले कानून का राज बहाल हुआ तो नई उत्पादन प्रणाली के तहत जनमजात पेशे की मनुस्मृति अनिवार्यता खत्म हुई और शिक्षा का अधिकार सार्वजनिक हुआ।

शूद्र दासी स्त्री की मुक्ति की खिड़कियां खुल गयीं।अछूतों को सेना और पुलिस में भर्ती करके उन्हें निषिद्ध शस्त्र धारण का अधिकार मिला।तो संपत्ति और वाणिज्य के अधिकार भी मिले।मुक्तबाजार अब फिर हमसे वे सारे हकहकूक छीन रहा है।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के मार्फत नये उत्पादन संबंधों के जरिये मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण एक तरफ जाति व्यवस्था के शिकंजे से भारतीय समाज को मुक्त करने लगा तो वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते देश भऱ में,बल्कि पूरे महादेश में बहुजन समाज का एकीकरण होने लगा और सत्ता में भागेदारी का सिलसिला शुरु हो गया।जो अब भी जारी है।जिसे खत्म करने की हर चंद कोशिश इस युद्धोन्मादी हिंदुत्व का असल एजंडा है।

आदिवासी और किसान विद्रोह के अविराम सिलसिला जारी रहने पर जल जंगल जमीन और आजीविका के मुद्दे,शिक्षा और स्त्री मुक्ति,बुनियादी जरुरतों के तमाम मसले अनिवार्य विमर्श में शामिल हुए,जिसकी अभिव्यक्ति भारत की स्वतंत्रतता के लिए पूरे महादेश के आवाम की एकताबद्ध लड़ाई है,आजाद हिंद फौज है।सामाजिक क्रांति की दिशा में संतों के सुधार आंदोलन का सिलसिला जारी रहा तो नवजागरण के तहत सामंतवाद पर कुठाराघात होते रहे और किसान आंदोलनों के तहत मेहनतकश बहुजनों का राजनीतिक उत्थान होने लगा।

यह साझा इतिहास अब हमारी मुट्ठी में बंद सात समंदर का खून है।

हमारे दिलो दिमाग में अब मुक्तबाजार का युद्धोन्माद है।

हम आत्मध्वंस के कार्निवाल में शामिल हम कबंध नागरिक हैं और इस युद्धोन्माद के खिलाफ अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता एक दूसरे को भी देने को तैयार नहीं है।फासिज्म की पैदल सेना में तब्दील हमारी देशभक्ति का यही युद्धोन्माद है।



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निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है। नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है! यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है! पलाश विश्वास

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कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।

नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है!

यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है!

पलाश विश्वास

ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज के खिलाफ पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की हार के बाद लार्ड क्लाइव के भारत भाग्यविधाता बन जाने के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा होती रही है।लेकिन 1757 से बंगाल बिहार और मध्य भारत के जंगल महल में चुआड़ विद्रोह से पहले शुरु आदिवासी किसान विद्रोह के अनंत सिलसिले के बारे में हम बहुत कम जानते हैं।हम चुआड़ विद्रोह के बारे में भी खास कुछ नहीं जानते और कंपनी राज के खिलाफ साधु, संत, पीर, बाउल फकीरों की अगवाई में बिहार और नेपाल से लेकर समूचे बंगाल में हुए हिंदू मुसलमान बौद्ध आदिवासी किसानों के आंदोलन को हम ऋषि बंकिम चंद्र के आनंदमठ और वंदे मातरम के मार्फत सन्यासी विद्रोह कहकर भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्र को इसकी विविधता और बहुलता को सिरे से खारिज करते हुए हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र का निर्माण करते हुए बहुसंख्य जनता के हक हकूक खत्म करने पर आमादा हैं।

बौद्धमय भारत के धम्म के बदले हम वैदिकी कबाइली युद्धोन्माद का अपना राष्ट्रवाद मान रहे हैं।जिसका नतीजा परमाणु युद्ध, जल युद्ध जो भी हो,सीमा के आर पार हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के नगर अवशेषों  की जगह अंसख्य हिरोशिमा और नागासाकी का निर्माण होगा और करोड़ों लोग इस परमाणु युद्ध में शहीद होंगे तो जलयुद्ध के नतीजतन इस महादेश में फिर बंगाल और चीन की भुखमरी का आलम होगा।भारत विभाजन के आधे अधूरे जनसंख्या स्थानांतरण की हिंसा की निरतंरता से बड़ा संकट हम मुक्त बाजार के विदेशी हित में रचने लगे हैं। सीमाओं के आर पार ज्यादातर आबादी शरणार्थी होगी और हमारी अगली तमाम पीढिंया न सिर्फ विकलांग होंगी,बल्कि उन्हें एक बूंद दूध या एक दाना अनाज का नसीब नहीं होगा।अभी से बढ़ गयी बेतहाशा महंगाई और लाल निशान पर घूम फिर रहे अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतों को नजर अंदाज करके कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक आत्म ध्वंस परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।

गौरतलब है कि किसान आदिवासी आंदोलनों के हिंदुत्वकरण की तरह जैसे उन्हें हम ब्राह्मणवादी समाजशास्त्रियों के आयातित विमर्श के तहत सबअल्टर्न कहकर उसे मुख्यधारा मानेन से इंकार करते हुए सत्तावर्ग का एकाधिकार हर क्षेत्र में स्थापित करने की साजिश में जाने अनजाने शामिल है,उसीतरह  बंगाल के नवजागरण को हम यूरोप के नवजागरण का सबअल्टर्न विमर्श में तबादील करने से नहीं चुकते और नवजागरण के पीछे कवि जयदेव के बाउल दर्शन,चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन के साथ साथ संत कबीर दास के साथ शुरु सामंतवाद और दिव्यता के विरुद्ध मनुष्यता की धर्मनरपेक्ष चेतना और इन सबमें तथागत गौतम बु्द्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता के इतिहास बोध से हम एकदम अलग हटकर इस वैदिकी और ब्राह्मणी कर्मकांड के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन को पश्चिम की जुगाली साबित करने से चुकते नहीं है।

इसी तरह मतुआ आंदोलन की पृष्ठभूमि 1857 की क्रांति से पहले कंपनी राज के खिलाफ किसानों के ऐतिहासिक विद्रोह नील विद्रोह से तैयार हुई और इस आंदोलन के नेता हरिचांद ठाकुर नें बंगाल बिहार में हुए मुंडा विद्रोह के महानायक बिरसा मुंडा की तर्ज पर सत्ता वर्ग के धर्म कर्म का जो मतुआ विकल्प प्रस्तुत किया,उसके बारे में हम अभी संवाद शुरु ही नहीं कर सके हैं।यह तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को बंगाल में तेरहवीं सदी से आयातित ब्राह्मणधर्म के खिलाफ फिर बौद्धमय बगाल बनाने के उपक्रम बतौर हमने अभीतक देखा नहीं  है और विद्वतजन इस भी सबअल्टर्न घोषित कर चुके हैं और मुख्यधारा से बंगाल के जाति धर्म निर्विशेष बहुसंख्य आम जनता, किसानों और आदिवासियों को अस्पृश्यता की हद तक काट दिया है और इसी साजिस के तहत बंगाली दलित शरणार्थियों को बंगाल से खदेड़कर उन्हें विदेशी तक करार देनें में बंगाल की राजनीति में सर्वदलीय सहमति है।

बंगाल में मतुआ आंदोलन भारत और बंगाल में ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के विरुद्ध समता और न्याय की तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता रही हैऔर जैसे गौतम बुद्ध को आत्मसात करने के लिए विष्णु का आविस्कार हुआ वैसे ही हरिचांद ठाकुर को भी विष्ण का अवतार मैथिली ब्राह्मण बाकी बहुसंख्य जनता की अस्पृश्यता बहाल रखने की गहरी साजिश है जिसके तहत मतुआ आंदोलन अब महज सत्ता वर्ग का खिलौना वोट बंके में तब्दील है।यह महसूस न कर पाने की वजह से हम मतुआ आंदोलन का ब्राह्मणीकरण रोक नहीं सके हैं और इसी तरह दक्षिण भारत में सामाजिक क्रांति की पहल जो लिंगायत आंदोलन ने की,ब्राह्मणधर्म विरोधी सामंतवाद विरोधी अस्पृश्यता विरोधी उस आंदोलन का हिंदुत्वकरण भी हम रोक नहीं सके हैं।

इसीलिए बंगाल में मतुआ आंदोलन के हाशिये पर चले जाने के बाद कर्नाटक में भी जीवन के हर क्षेत्र में लिंगायत अनुयायियों का वर्चस्व होने के बावजूद वहां केसरिया एजंडा गुजरात की तरह धूम धड़के से लागू हो रहा है।वहीं,महात्मा ज्योतिबा फूले और अंबेडकर की कर्मभूमि में शिवशक्ति और भीमशक्ति का महागठबंधन वहां के बहुजनों का केसरियाकरण करके उनका काम तमाम करने लगा है और बहुजनों के तमाम राम अब हनुमान है तो अश्वमेधी नरसंहार अभियान में बहुजन उनकी वानरसेना है।

दक्षिण भारत में पेरियार और नारायण गुरु ,अय्यंकाली सिनेमाई ग्लेमर में निष्णात है और उसकी कोई गूंज न वहां है और न बाकी भारत में।पंजाब में सिखों के सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलन भी हिंदुत्व की पिछलग्गू राजनीति के शिकंजे में है और अस्सी के दशक में हिंदुत्व के झंडेवरदारों ने उनका जो कत्लेआम किया,उसके मुकाबले गुजरात नरसंहार की भी तुलना नहीं हो सकती।लेकिन सिखों को अपने जख्म चाटते रहने की नियति से निकलने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में बतायी दिशा नजर नहीं आ रही है।तमिल द्रविड़ विरासत से अलगाव,सिंधु सभ्यता के विभाजन के ये चमत्कार हैं।

सिंधु घाटी के नगरों में पांच हजार साल पहले बंगाल बिहार की विवाहित स्त्रियों की तरह स्त्रियां शंख के गहने का इस्तेमाल करती थींं,हड़प्पा और मोहंजोदोड़़ो के पुरात्तव अवशेष में वे गहने भी शामिल हैं।लेकिन गौतम बुद्ध के बाद अवैदिकी विष्णु को वैदिकी कर्मकांड का अधिष्ठाता बनाकर तथागत गौतम बुद्ध को उनका अवतार बनाने का जैसे उपक्रम हुआ,वैसे ही भारत में बौद्धकाल और उससे पहले मिली मूर्तियों को,यहां तक की गौतम बुद्ध की मूर्तियों को भी विष्णु की मूर्ति बताने में पुरतत्व और इतिहास के विशेषज्ञों को शर्म नहीं आती।

सिंधु सभ्यता का अवसान भारत में वैदिकी युग का आरंभ है तो बुद्धमय भारत में वैदिकी काल का अवसान है।फिर बौद्धमय भारत का अवसान आजादी के सत्तर साल बाद भी खंडित अखंड भारत में मनुस्मृति के सामांती बर्बर असभ्य फासिस्ट रंगभेदी मनुष्यता विरोधी नरसंहारी राजनीति राजकाज है।मुक्तबाजार है।युद्धोन्माद यही है।

इस बीच आर्यावर्त की राजनीति पूरे भारत के भूगोल पर कब्जा करने के लिए फासिस्ट सत्तावर्ग यहूदियों की तरह अनार्य जनसमूहों आज के बंगाली, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, तिब्बती, भूटिया,आदिवासी, तमिल शरणार्थियों की तरह भारतभर में बहुजनों का सफाया आखेट अभियान जारी है।क्योकि वे अपनी पितृभूमि से उखाड़ दिये गये बेनागरिक खानाबदोश जमात में तब्दील हैं। जिनके कोई नागरिक और मानवाधिकार नहीं हैं तो जल जंगल जमीन आजीविकता के हरक हकूक भी नहीं हैं।मातृभाषा के अधिकार से भी वे वंचित हैं।भारत विभाजन का असल एजंडा इसी नरसंहार को अंजाम देने का रहा है,जिससे आजादी या जम्हूरियता का कोई नाता नहीं है। सत्ता वर्ग की सारी कोशिशें उन्हें एकसाथ होकर वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते मोर्चबंद होने से रोकने की है और इसीलिये यह मिथ्या राष्ट्रवाद है,अखंड धर्मोन्मादी युद्ध परिस्थितियां हैं।

भारत से बाहर रेशम पथ के स्वर्णकाल से भी पहले सिंधु सभय्ता के समय से करीब पांच हजार साल पहले मध्यएशिया के शक आर्य खानाबदोश साम्राज्यों के आर पार हमारी संस्कृति और रक्तधाराएं डेन मार्क,फिनलैंड,स्वीडन से लेकर सोवियात संघ और पूर्वी एशिया के स्लाव जनसमूहों के साथ घुल मिल गयी हैं और वहीं प्रक्रिया करीब पांच हजार साल तक भारत में जारी रही हैं।जो विविधता और बहुलता का आधार है,जिससे भारत भारततीर्थ है।यही असल में भारतीयता का वैश्वीकरण की मुख्यधारा है और फासिज्म का राजकाज इस इतिहास और भूगोल को खत्म करने पर तुला है।

पांच हजार साल से भारतीय साझा संस्कृति और विरासत का जो वैश्वीकरण होता रहा है,उसे सिरे से खारिज करके युद्धोन्मादी सत्तावर्ग बहुसंख्य जनता का नामोनिशान मिटाने पर तुला ब्राह्णधर्म की मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है और व्यापक पैमाने पर युद्ध और विध्वंस उनका एजंडा है, उनका अखंड भारत के विभाजन का एजंडा भी रहा है ताकि सत्ता,जल जंगल जमीन के दावेदारों का सफाया किय जा सकें, और अब उनका एजंडा यही है कि मुक्तबाजार में हम अपने लिए सैकड़ों हिरोशिमा और नागासाकी इस फर्जी नवउदारवाद,फर्जी वैश्वीकरण के भारत विरोधी हिंदू विरोधी,धम्म विरोधी,मनुष्यता और प्रकृति विरोधी अमेरिकी उपनिवेश में सत्ता वर्ग के अपराजेय आधिपात्य के लिए अंध राष्ट्रवाद के तहत परमाणु विध्वंस चुन लें।यही राजनीति है।यही राजकाज है और यही राजनय भी है।यह युद्धोन्माद दरअसल राजसूय यज्ञ का आयोजन है और अश्वमेधी घोड़े सीमाओं के आर पार जनपदों को रौंदते चले जा रहे हैं।हम कारपोरेट आंखों से वह नजारा देख कर भी देख नहीं सकते।

मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी के शंख के गहने अब बंगाल बिहार और पूर्वी भारत की स्त्रियां पहनती हैं।पश्चिम भारत और उत्तर भारत की स्त्रियां नहीं। इसीतरह सिंधु सभ्यता में अनिवार्य कालचक्र इस देश के आदिवासी भूगोल में हम घर में उपलब्ध है।हम इतिहास और भूगोल में सिंधु सभ्यता की इस निरंतरता को जैसे नजरअंदाज करते हैं वैसे ही धर्म और संस्कृति में एकीकरण और विलय के मार्फत मनुष्यता की विविध बहुल धाराओं की एकता और अखंड़ता को नामंजूर करके भारतीय राष्ट्रवाद को सत्ता वर्ग का राष्ट्रवाद बनाये हुए हैं और भारत राष्ट्र में बहुजनों का कोई हिस्सा मंजूर करने को तैयार नहीं है।इसलिए संविधान को खारिज करके मनुस्मृति को लागू करने का यह युद्ध और युद्धोन्माद है।

इसीतरह सिंदु सभ्यता से लेकर भारत में साधु,संत,पीर,फकीर ,बाउल, आदिवासी, किसान विरासत की जमीन पर शुरु नवजागरण को हम देशज सामंतवाद विरोधी,दैवीसत्ता धर्मसत्ताविरोधी,पुरोहित तंत्र विरोधी  मनुष्यता के हक हकूक के लिए सामाजिक क्रांति के बतौर देखने को अभ्यस्त नहीं है। मतुआ, लिंगायत, सिख, बौद्ध, जैन आंदोलनों की तरह यह नवजागरण सामंती मनुस्मृति व्यवस्था,वैदिकी कर्म कांड और पुरोहित तंत्र के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ महाविद्रोह है,जिसने भारत में असभ्य बर्बर अमानवीय सतीदाह,बाल विवाह,बेमेल विवाह जैसी कुप्रथाओं का अंत ही नहीं किया,निरीश्वरवाद की चार्वाकीय लोकायत और नास्तिक दर्शन को सामाजिक क्रांति का दर्शन बना दिया।जिसकी जमीन फिर वेदांत और सर्वेश्वरवाद है।या सीधे ब्रह्मसमाज का निरीश्वरवाद।वहीं रवींद्रकाव्य का दर्शन है।

नवजागरण के तहत शूद्र दासी देवदासी देह दासी  स्त्री को अंदर महल की कैद से मुक्ति मिली तो विधवाओं के उत्पीड़न का सिलसिला बंद होकर खुली हवा में सांस लेने की उन्हें आजादी मिली।सिर्फ साड़ी में लिपटी भारतीय स्त्री के ब्लाउज से लेकर समूचे अंतर्वस्त्र का प्रचलन ब्रह्मसमाज आंदोलन का केंद्र बने रवींद्र नाथ की ठाकुर बाड़ी से शुरु हुआ तो नवजागरण के समसामयिक मतुआ आंदोलन का मुख्य विमर्श ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध का धम्म प्रवर्तन था तो इसीके साथ नवजागरण,मतुआ आंदोलन,लिंगायत आंदोलन से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले के शिक्षा आंदोलन का सबसे अहम एजंडा शिक्षा आंदोलन के तहत स्त्री मुक्ति का रहा है।

मतुआ आंदोलन का ज्यादा मह्तव यह है कि इसके संस्थापक हरिचांद ठाकुर न सिर्फ नील विद्रोह में किसानों का नेतृत्व कर रहे थे,बल्कि उनके मतुआ आंदोलन का सबसे अहम एजंडा भूमि सुधार का था।जो फजलुल हक की प्रजा समाज पार्टी का मुख्य एजंडा रहा है और फजलुल हक को हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर और उनके अनुयायियों जोगेंद्र नाथ मंडल  का पूरी समर्थन था।इसी भूमि सुधार एजंडे के तहत बंगाल में 35  साल तक वाम शासन था और 1901 में ढाका में मुस्लिम लीग बन जाने के बावजूद मुस्लिम लाग और हिंदू महासभा के ब्राह्मण धर्म का बंगाल में कोई जमीन या कोई समर्थन नहीं मिला।इन्हीं जोगेंद्र नाथ मंडल ने भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का संविधान लिखा तो विभाजन से पहले बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक के साथ बंगाल से अंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाया।बाद में 1977 का चुनाव जीत कर बंगाल में वाममोर्चा ने भूमि सुधार लागू करने की पहल की।बहुजन समाज की इस भारतव्यापी मोर्चे को तोड़ने के लिए ही बार बार विभाजन और युद्ध के उपक्रम हैं।

ऐसा पश्चिमी नवजागरण में नहीं हुआ। नवजागरण के नतीजतन फ्रांसीसी क्रांति,इंग्लैंड की क्रांति या अमेरिका की क्रांति में स्त्री अस्मिता या स्त्री मुक्ति का सवाल कहीं नहीं था और न ही भूमि सुधार कोई मुद्दा था।भारत के स्वतंत्रता संग्राम में किसानों और आदिवासियों के आंदोलन की विचारधारा और दर्शन के स्तर पर जर्मनी और इंग्लैंड से लेकर समूचे यूरोप में धर्म सत्ता और राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह से हालांकि तुलना की जा सकती है,जो अभी तक हम कर नहीं पाये हैं।

इसलिए नवजागरण की सामाजिक क्रांति के धम्म के बदले राजसत्ता और धर्मसत्ता में एकाकार ब्राह्मण धर्म के हम शिकंजे में फंस रहे है।इससे बच निकलने की हर दिशा अब बंद है।रोशनदान भी कोई खुला नजर नहीं आ रहा है।

नवजागरण आंदोलन और भारतीय साहित्य में माइकेल मधुसूदन ने जो मेघनाथ वध लिखकर लोकप्रिय आस्था के विरुद्ध राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ वध काव्य लिखा और आर्यावर्त के रंगभेदी वर्चस्व के मिथक को चकनाचूर कर दिया, नवजागरण के सिलसिले में उनकी कोई चर्चा नहीं होती और अंबेडकर से बहुत पहले वैदिकी,महाकाव्यीय मनुस्मृति समर्थक मिथकों को तोड़ने में उनकी क्रांतिकारी भूमिका के बारे में बाकी भारत तो अनजान है है,बंगाल में भी उनकी कोई खास चर्चा छंदबद्धता तोड़क मुक्तक में कविता लिखने की शुरुआत करने के अलावा होती नही है।

हम अपने अगले आलेख में उन्हीं माइकेल मधुसूदन दत्त और उनके मेघनाथ वध पर विस्तार से चर्चा करेंगे।अभी नई दिहाड़ी मिली नहीं है,तो इस मोहलत में हम भूले बिसरे पुरखों की यादें ताजा कर सकते हैं।तब तक कृपया इंतजार करें।



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আবারও উদ্বাস্তু দের নাগরিকত্বের দাবীর বিরোধিতা করল সিপিএম। কিন্তু এদের শাস্তি দেওয়ার উপায় নেই।কারন একটি বিলুপ্ত রাজনৈতিক দলকে আপনি কিভাবে শাস্তি দেবেন? কংগ্রেসও গতকাল উদ্বাস্তু দের নাগরিকত্বের বিরোধিতা করেছে। তাই উদ্বাস্তু দের অধিকার নিজেদের ই বুঝে নিতে হবে!

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আবারও উদ্বাস্তু দের নাগরিকত্বের দাবীর বিরোধিতা করল সিপিএম। কিন্তু এদের শাস্তি দেওয়ার উপায় নেই।কারন একটি বিলুপ্ত রাজনৈতিক দলকে আপনি কিভাবে শাস্তি দেবেন? কংগ্রেসও গতকাল উদ্বাস্তু দের নাগরিকত্বের বিরোধিতা করেছে। তাই উদ্বাস্তু দের অধিকার নিজেদের ই বুঝে নিতে হবে!

Violence against dalit Protest gathering at jessore organized by district dalit parishad

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Bikash Das's photo.
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Emanul Haque চিকিত্সার নামে ডাকাতির প্রতিবাদে মিথ্যা ভুয়ো বিলের প্রতিবাদে অসীম ঘোষের অচিকিত্সার প্রতিবাদে 3 অক্টোবর বিকেল 4 টায় অ্যাপোলো হাসপাতালের সামনে বি ক্ষো ভ ।। ভাষা ও চেতনা সমিতি

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Emanul Haque চিকিত্সার নামে ডাকাতির প্রতিবাদে 
মিথ্যা ভুয়ো বিলের প্রতিবাদে 
অসীম ঘোষের অচিকিত্সার প্রতিবাদে 

3 অক্টোবর বিকেল 4 টায় 

অ্যাপোলো হাসপাতালের সামনে
বি ক্ষো ভ ।। 
ভাষা ও চেতনা সমিতি



7 ঘন্টা পার। টাকা না দিলে দেহ দেবে না বলছে
মানুষ মারা ডাকাতি।
অসীম ঘোষ । নিজের সামান্য রোজগার । তবু 50 ছেলে মেয়ে র পড়াতে সে। বিবেকানন্দের নামে স্কুল খুলেছিল । রাতে খাইয়ে বাড়ি পাঠাতে ছেলে মেয়েদের।
কাল রাতে শ্রীভূমি বাসস্টপে তাঁর দুটি পায়ের উপর দিয়ে বাস চলে যায় । নিয়ে যায় অ্যাপোলেতে । সম্পূর্ণ জ্ঞান ছিল ।
সব মিলিয়ে 5 ঘন্টা ছিল।

রোগীকে বাঁচাতে পারেনি । বিল করেছে 5 ঘন্টায় এক লাখ । রক্ত দেয় নি। দু বোতল রক্তের দাম 8320 টাকা ধরেছে। পেসমেকার বসায়নি। বসানোর চার্জ 4000 টাকা ।
আই সি ইউতে যায় নি। বিল 9500 টাকা। অ্যাঞ্জিওগ্রাম হয়নি। ক্যাথ ল্যাব চার্জ 5010 টাকা ।
সিটি স্ক্যান চার্জ মোট 28690 টাকা। মানুষ মেরে ডাকাতির করছে । গরিব পরিবার। মৃতদেহ দিচ্ছে না। অন্যায় টাকা দাবি করছে। প্রতিবাদ হচ্ছে । 

পিতৃতর্পণ না করে, নিজের কাজের মধ্য দিয়ে পিতৃপুরুষের গৌরব ইহলোকে জীইয়ে রাখাই কাজের কাজ। আমরা বড্ড পরলোকের চিন্তা করতে করতে ইহলোককে নরক বানিয়ে ছাড়ি।

Next: প্রিয় বন্ধু,......সারা দেশে ভীটেহারা উত্বাস্ত আন্দলোনকারী দুঃখি মানুষের পাসে এসে দারালেন , মহামানব গোপাল মহারাজ ও সকল ভক্তদের অভয় বানী এবং আশীর্বাদ দিয়ে, নিখিল ভারতের মঞে দীপ্তকন্টে এই যুদ্ধে সামিল হতে বলেন,আরো বলেন "পতিতের বন্ধু হরিগুরুচাঁদের স্বপ্ন পুরনে জীবন গেলেও দিল্লী চলো অভিজানে আমি যাব ও সকল ভক্তভক্তাদের সামিল হতে বলবো,,। 23sep. দীনেশপুরের নিখিল ভারত বাঙালী উত্বাস্ত...... সমিতির মঞে হাজার হাজার মানুষ দারিয়ে করতালি দিয়ে সাধুবাদ জানায় এবং রাষ্ট্রীয় কবি অসীম সরকার মহানত্বের পুজারী বলে ধন্যবাদ জানায় ।এই মহামঞে যাহাদের অবদান ও যোগদান ছিল তাদের জন্য. গোপাল মহারাজ,ও বিবেকানন্দ মহারাজ মঈল. প্রার্থনা করেন ।
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পিতৃতর্পণ না করে, নিজের কাজের মধ্য দিয়ে পিতৃপুরুষের গৌরব ইহলোকে জীইয়ে রাখাই কাজের কাজ। আমরা বড্ড পরলোকের চিন্তা করতে করতে ইহলোককে নরক বানিয়ে ছাড়ি।

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मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे? पलाश विश्वास

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महिषासुर को लेकर इतना हंगामा,राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे?

पलाश विश्वास

Meghnad Badh Kabya | Naye Natua | Goutam Halder | মেঘনাদবধ কাব্য | Trailer

https://www.youtube.com/watch?v=PwBWXwJgUns

बांग्ला रंगमच में विश्वविख्यात रंगकर्मी गौतम हाल्दार ने मेघनाथ वध का का आधुलिकतम पाठ मंचस्थ किया है।

Meghnad Badh - Some Portion : Debamitra Sengupta

https://www.youtube.com/watch?v=SDIJnutmLUA

Michael Madhusudan Dutt's House at Jessore

https://www.youtube.com/watch?v=IUJlVyJ4nT8

Meghnad Badh | Mythological Bengali Film

https://www.youtube.com/watch?v=LK1XIDVyPu0

मेघनाथ वध काव्य पर बनी इस बांग्ला फिल्म तेलुगु फिल्म का भाषांतर है और इस फिल्म में रावण की भूमिका एनटी रामाराव ने निभाई है।


माइकल मधुसूदन दत्त

माइकल मधुसूदन दत्त

पूरा नाम

माइकल मधुसूदन दत्त

जन्म

25 जनवरी, 1824

जन्म भूमि

जैसोर, भारत (अब बांग्लादेशमें)

मृत्यु

29 जून, 1873

मृत्यु स्थान

कलकत्ता

अभिभावक

राजनारायण दत्त, जाह्नवी देवी

कर्म भूमि

भारत

मुख्य रचनाएँ

'शर्मिष्ठा', 'पद्मावती', 'कृष्ण कुमारी', 'तिलोत्तमा', 'मेघनाद वध', 'व्रजांगना', 'वीरांगना' आदि।

भाषा

हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी

प्रसिद्धि

कवि, साहित्यकार, नाटककार

नागरिकता

भारतीय

अन्य जानकारी

माइकल मधुसूदन दत्त ने मद्रासमें कुछ पत्रों के सम्पादकीय विभागों में काम किया था। इनकी पहली कविता अंग्रेज़ी भाषा में 1849 ई. प्रकाशित हुई।

इन्हें भी देखें

कवि सूची, साहित्यकार सूची



भारतभर के आदिवासी अपने को असुर मानते हैं और भारतभर में हिंदू अपनी आस्था और उपासना को महिषासुर वध से जोड़ते हैं जो पूर्वी भारत में अखंड दुर्गोत्सव है और मिथकीय इस दुर्गा को आदिवासी अपने राजा की हत्यारी मानते हैं।इस विवाद से परे असुर भारतीय संविधान के मुताबिक अनुसूचित जनजातियों में शामिल हैं।असुर वध अगर हारा सांस्कृतिक उत्सव है तो असुरों को अपने पूर्वज महिषासुर को याद करने का लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए।धर्मसत्ता में निष्णात राजसत्ता ने मनुस्मृति के पक्ष में जेएनयू को खत्म करने के मुहिम में संसद से सड़क तक जो दुर्गा स्तुति की और जैसे महिषासुर महोत्सव का विरोध किया,उस सिलसिले में कल रांची में छह असुरों के वध के साथ झारखंड में हिंदुओं की नवरात्री शुरु हो गयी तो बंगाल में उत्र 24 परगना में बारासात के पास बीड़ा में पुलिस ने महिषासुर महोत्सव को रोक दिया।पूरे बंगाल में महिषासुर महोत्सव जारी है और उसे सिरे से रोक देने की कोशिशें तेज हो रही हैंषपुरुलिया में मुख्य समारोह का आयोजन भी बाधित है।

तो समझ लीजिये कि हम माइकेल मधूसूदन दत्त को क्यों याद नहीं करते।

महिसासुर को लेकर इतना हंगामा,राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ काव्य रचनेवाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त को हम क्यों याद करेंगे?

माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस देश में पहली बार मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़कर रावण के पक्ष में मेघनाथ काव्य लिखकर साहित्य और समाज में नवजागरण दौर में खलबली मचा दी,लेकिन नवजागरण के संदर्भ में उनकी कोई चर्चा नहीं होती।बंगाल में उन्हें शरत चंद्र और ऋत्विक घटक की तरह दारुकुट्टा और आराजक आवारा के रुप में जाना जाता है और हाल में भारत के लड़ाकू टेनिस स्टार लिएंडर पेस के पुरखे के बतौर पेस की उपलब्धियों के सिलसिले में उनकी चर्चा होती है।बाकी दोस यह भी नहीं जानता।

भारत में छंद और व्याकरण तोड़कर देशज संस्कृति के समन्वय और दैवी,राजकीय पात्रों के बजाय राधा कृष्ण को आम मनुष्य के प्रेम में निष्णात करने वाले जयदेव के गीत गोविंदम् से संस्कृत काव्यधारा का अंत हो गया,लेकिन निराला से पहले तक हिंदी में वहीं छंदबद्ध काव्यधारा का सिलसिला बीसवीं सदी में आजाद भारत में भी खूब चला हालांकि बंगाल में रवींद्र नाथ के काव्यसंसार में बीसवी संदी की शुरुआत में मुक्तक छंद का प्रचलन हो गया था। इस हिसाब से 1857 की क्रांति से पहले मेघनाद वध काव्य में भाषा,छंद औरव्याकरण के अनुशासन को तहस नहस करके रावण के समर्थन में राम के खिलाफ लिखा मेघनाद वध काव्य की प्रासंगिकता के बारे में बंगाल में भी कोई चर्चा कायदे से शुरु नहीं हुई।

 नवजागरण में हिंदू धर्म सत्ता और मनुस्मृति अनुशासन की जमीन तोड़ने में मेघनाथ वध के कवि माइकेल मधुसूदन दत्त की भूमिका उसी तरह है जैसे महात्मा ज्योतिबा फूले या बाबासाहेब अंबेडकर का हिंदू धर्म ग्रंथों और मिथकों का खंडन मंडन,मनुस्मृति दहगन की है।लेकिन इस देश के बहुजन समाज को माइकेल मधुसूदन दत्त का नाम भी मालूम नहीं है।रवींद्र को जानते हैं लेकिन उनकी अस्पृश्याता के बारे में ,उनके भारत तीर्त के बारे में बहुसंख्य भारतीय जनता को कुछ भी मालूम नहीं है।

धर्मसत्ता से टकराने के कारण ईश्वर चंद्र विद्यासागर लगभग सामाजिक बहिस्कार का शिकार होकर हिंदू समाज से बाहर आदिवासी गांव में शरणली और वहां उन्होंने आखिरी सांस ली।तो राजा राममोहन राय की बहुत कारुणिक मृत्यु लंदन में हुई। भरतीय समाज,धर्म और संस्कृति के आधुनिकीकरण की उस महाक्रांति के सिलसिले में राजा राममोहन राय के बारे में समूचा देश कमोबेश जानता है और लोग शायद ईश्वर चंद्र विद्यासागर के बारे में भी कुछ कुछ जानते होंगे।लेकिन इस क्रांति में महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त की भी एक बड़ी भूमिका है जिन्होंने हिंदुत्व का अनुशासन तोड़ने के लिए ईसाई धर्म अपनाया महज अठारह साल की उम्र में।फिर रावण के पक्ष में मेघनाद को महानायक बनाकर मेघनाद वध काव्य लिखकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़ा।उनके बारे में हम कुछ खास जनाते नहीं हैं।

आज महिषासुर उत्सव का संसद और संसद के बाहर जैसा विरोध हो रहा है,रामलीला के बजाय रावण लीला का आयोजन बहुजन करने लगे तो कितनी प्रतिक्रिया होगी,इसको समझें तो सतीदाह,विधवा उत्पीड़न, स्त्री को गुलाम यौन दासी बनाकर रखने, स्त्री और शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखने,उन्हें नागरिकऔर मानवाधिकार से वंचित रखने, संपत्ति,संसादन और अवसरों से वंचित रखने, बाल विवाह, बहुविवाह, मरणासण्णके साथ शिशुकन्या के विवाह और पति के सात उनकी अतंरजलि यात्रा  के समर्थक हिंदू समाज में राम को खलनायक बनाने की क्या सद्गति रही होगी,अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।वही प्रेमचंद लिखित सद्गति बंगाली भद्र समाज ने माइकेल मदुसूदन दत्त की कर दी है और उनकी कोई स्मृति इस भारत देश के हिंदू राष्ट्र में बची नहीं है।

वैसे बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर ने भी हिंदू धर्मग्रंथों का खंडन किया,मिथक तोड़े,हिंदुत्व छोड़कर हिंदुओं के मुताबिक विष्णु के अवतार तथागत गौतम बुद्ध की शरण में जाकर बोधिसत्व बने,लेकिन बहुजन समाज का वोट हासिल करन के लिए अंबेडकर सत्तावर्ग की मजबूरी है।

माइकेल मधुसूदन दत्त के नाम पर वोट नहीं मिल सकते,जैसे शरतचंद्र, प्रेमचंद,मुक्तिबोध या ऋत्विक घटक या कबीर दास के नाम पर वोट नहीं मिल सकते।जब वोट इतना निर्णायक है तो हम वोट राजनीति के खिलाफ जाकर अपने पुरखों को याद कैसे कर सकते हैं?

माइकेल मधुसूदन दत्त जैशोर जिले के सागरदाढ़ी गांव से थे और बांग्लादेश ने उनके प्रियकवि की स्मृति सहेजकर रखी है।जैशोर में माइकेल के नाम संग्रहालय से लिकर विश्वविद्यालय तक हैं और उन पर सारा शोध बांग्लादेश में हो रहा है।कोलकाता में मरने के बाद उनकी सड़ती हुई लाश के लिए न ईसाइयों के कब्रगाह में कोई जगह थी और न हिंदुओं के श्मशान घाट में।चौबीस घंटे बाद उन्हें आखिरकार ईसाइयों के एक कब्रगाह में दफनाया गया।हिंदू समाज में तब से लेकर आज तक अस्वीकृत माइकेल की एकमात्र स्मृति उन्हींका बांग्ला में लिखा् एक एपिटाफ है,जिसका स्मृति फलक कोलकता के सबसे बड़े श्माशानघाट केवड़ातल्ला में है,जहां उनकी अंत्येषिटि हुई ही नहीं।

राजसत्ता के खिलाफ बगावत से जान बच सकती है लेकिन धर्म सत्ता हारने के बावजूद विद्रोह को कुचल सकें या न सकें,विद्रोहियों का वजूद मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।भारत में बंगाल के नवजागरण के मसीहावृंद ने ब्राह्मण धर्म की सत्ता की चुनौती दी थी और वे ईस्ट इंडिया कंपनी से नहीं टकराये।उन्होंने बंगाल और पूर्वी भारत में जारी किसान आदिवासी विद्रोहों का समर्थन नहीं किया और न वे 1857 में क्रांति के लिए पहली गोली कोलकाता से करीब तीस किमी दूर बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय की बंदूक से चलने के बाद कंपनी राज के बारे में कुछ अच्छा बुरा कहा।बिरसा मुंडा के मुंडा विद्रोह और सिधु कान्हो के संथाल विद्रोह के बार में भी वे कुछ बोले नहीं।

राजसत्ता के समर्थन से धर्म सत्ता की बर्बर असभ्यता को खत्म करना उनका मिशन था।सतीदाह प्रथा को बंद करना कितना कठिन था,आजाद भारत में भी रुपकुंवर सतीदाह प्रकरण से साफ जाहिर है।आज भी आजाद भारत में हिंदुओं में विधवा विवाह कानूनन जायज होने के बावजूद इस्लाम या ईसाई अनुयायियों की तरह आम नहीं है।बाल विवाह अब भी धड़ल्ले से हो रहे हैं।बेमेल विवाह भी हो रहे हैं।सिर्फ बहुविवाह पर रोक पूरी तरह लग गयी है,ऐसा कहा जा सकता है।

समझा जा सकता है कि मनुस्मृति अनुशासन के मुताबिक हिंदू समाज की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप न करने की मुगलिया नीति पर चल रही कंपनी की हुकूमत को हिंदू समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए बंगाल के कट्टर ब्राह्मण समाज से टकराने के लिए कतंपनी के राज काज के खिलाप उन्हें क्यों चुप हो जाना पड़ा।क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत नवजागरण आंदोलन के वे सामाजिक सुधार कानून लागू न होते तो आज ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के अंध राष्ट्रवाद के दौर में हम उस मध्ययुगीन बर्बर असभ्य अंधकार समय से शायद ही निकल पाते।

विद्रोह चाहे किसी धर्म के खिलाफ हो,विद्रोही के साथ कोई धर्म खड़ा नहीं होता।उसकी स्थिति में धर्मांतरणसे कोई फर्क नहीं पड़ता।जैसे तसलिमा नसरीन नास्तिक है और वह धर्म को दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों के मौलिक अधिकारों के लिए सबसे बड़ी बाधा मानती हैं।उनका विरोध और टकराव इसल्म के मौलवीतंत्र से है।लेकिन किसी भी धर्म सत्ता से उसे कोई समर्थन मिलने वाला नहीं है और कहीं और किसी धर्म में उन्हें शरण नहीं मिलने वाली है।

माइकेल मधुसूदन दत्त ने हिंदुत्व से मुक्ति के लिए ईसाई धर्म अपनाया।ईसाई धर्म अपनाने की उनकी पहली शर्त यह थी कि उन्हें पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया जाये।फोर्ट विलियम में ईस्ट इंटिया कंपनी के संरक्षण में उनका धर्मांतरण हुआ,लेकिन शर्त के मुताबिक उन्हें इंग्लैड भेजा नहीं जा सका।वे साहेब बनना चाहते थे शेक्सपीअर और मलिटन से बड़ा कवि अंग्रेजी में लिखकर बनाना चाहते थे।लेकिन धर्मांतरण के बाद आजीविका के लिए उन्हें चेन्नई भागना पड़ा।

माइकेल इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर भी बने तो वह धर्म सत्ता की मदद से नहीं,नवजागरण के मसीहा ईश्वर चंद्र की लगातार आर्थिक मदद से वे बैरिस्टर लंदन में रहकर बन पाये।भारत में कोलकाता लौट आये तो शुरुआत में ही अंग्रेजी में लिखना छोड़कर बांग्ला काव्य और नाटक के माध्यम से मिथकों को तोड़ते हुए मनुस्मृति शासन से कोलकाता को जो उन्होंने हिलाकर रख दिया,उसके नतीजतन ईसाई धर्म में भी उन्हें शरण नहीं मिली।ईसाइयों ने कोलकाता में उन्हें दफनाने के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी।जबकि उनकी दूसरी पत्नी हेनेरिटा की तीन दिन पहले 26 जून को मौत हो गयी तो उन्हें ईसाइयों के कब्रगाह में दफना दिया गया।माइकेल की देह सड़ने लगी तो आखिरकार ऐंगलिकन चर्च के रेवरेंड पीटर जान जार्बो कीपहल पर उन्हें हेनेरिया के बगल में मृत्यु के 24 घंयेबाद लोअर सर्कुलर रोड के कब्रिसतान में दफनाया गया।

पिता राजनाराय़ण दत्त कोलकाता के बहुत बड़े वकील और हिंदू समाज के नेता थे।इसलिए यह धर्मांतरण गुपचुप फोर्ट विलियम में हुआ।माइकेल ने शेक्सपीअर और मिल्टन का अनुसरण करते हुए सानेट लिखा और संस्कृत कालेज में एक ब्राह्मणविधवा के बेटे को दाखिला देने के खिलाफ कोलकता के ब्राह्मण समाज ने जो हिंदू कालेज शुरु किया,उससे बहिस्कृत होने के बाद बिशप कालेज में दाखिले के बावजूद कहीं किसी तरह की प्रतिष्ठा और आजीविका से वंचित होने की वजह से 18 जनवरी,1848 को चेन्नई जाकर एक ईसाई अनाथ कालेज में शिक्षक की नौकरी कर ली और उसी अनाथालय की अंग्रेज किशोरी रेबेका से विवाह किया।

चेन्नई में रहते हुए मद्रास सर्कुलर पत्रिका के लिए उन्होंने अंग्रेजी में कैप्टिव लेडी सीर्ष क कव्या लिखा और कर्ज लेकर इस पुस्तकाकार प्रकाशित किया तो सिर्फ अठारह प्रतियां ही बिक सकीं।कोलकाता में उनके लिखे की धज्जियां उड़ा दी गयीं।बेथून साहेब ने लिक दिया कि माइकेल को अंग्रेजी शिक्षा से उनकी रुचि और मेधा का जो परिस्कार हुआ है,उससे वे अपनी मातृभाषा को समृद्ध करें तो बेहतर।

पिता कीमृत्यु के बाद पत्नी रेबेका को चन्नई में छोड़कर प्रेमिका हेनेरिटा को लेकर कोलकता लौटे माइकेल तो साहित्य और समाज में आग लगा दी उनके मेघनाथ वध काव्य ने।इसी दौर में महज पांच साल में  उन्होंने लिखा-शर्मिष्ठा,पद्मावती,कष्णकुमारीस मायाकानन,बूढ़ों शालिकेर घाड़ेरों जैसे नाटक और तिलोत्तमा काव्य,ब्रजांगना काव्य,वीरांगना काव्य।

राजसत्ता और राष्ट्र के विरुद्ध विद्रोह का नतीजा दमन और नरसंहार है तो अक्सर अग्निपाखी की तरह किसी मृत्यु उपत्यका में बार बार स्वतंत्रता और लोकतंत्र भी उसी विद्रोह का परिणाम होता है।विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं।लेकिन धर्मसत्ता के खिलाफ विद्रोह का नतीजा नागरिक जीवन के लिए कितना भयंकर है ,उसका जीती जागती उदाहरण तसलिमा नसरीन है,जिसका किसी राष्ट्र या राष्ट्र सत्ता से कोई खास विरोध नहीं है।उन्होने धर्म सत्ता को भारी चुनौती दी है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने धर्म का अनुशासन नहीं माना है।राष्ट्र उन्हें धर्मसत्ता के खिलाफ जाकर अपनी शरण में नहीं ले सकता।बंगाल के वाम शासन के दरम्यान प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष विचारधारा ने अंततः धर्मसत्ता के साथ खड़ा होकर बांग्लादेश की तरह बंगाल से भी तसलिमा को निर्वासित कर दिया और धार्मिक राष्ट्रवाद की सत्ता नई दिल्ली में होने के बावजूद अधार्मिक,नास्तिक ,धर्मद्रोही तसलिमा को भारत सरकार नागरिकता नहीं दे सकती,वही भारत सरकार जिसके समर्थन में तसलिमा अक्सर कुछ नकुछ लिकती रहती है।

धर्मसत्ता के खिलाफ यह विद्रोह लेकिन सभ्यता,स्वतंत्रता,गणतंत्र,मनुष्यों के मौलिक नागरिक और मानवाधिकार के लिए अनिवार्य है।यूरोप से बहुत पहले पांच हजार साल पहले सिंधु घाटी, चीन, मिस्र,  मेसोपोटामिया, इंका और माया की सभ्यताएं बहुत विकसित रही है।

बौद्धमय भारत के अवसान के बाद भी समूचे यूरोप में बर्बर असभ्य अंधकार युग की निरंतरता रही है।आम जनता दोहरे राजकाज और राजस्व वसूली के शिकंजे में थीं।राजसत्ता समूचे यूरोप में रोम की धर्मसत्ता से नियंत्रित थी।इंग्लैंड और जरमनी के किसानों की अगुवाई में धर्मसत्ता के खिलाफ यूरोप में महाविद्रोह के बाद रेनेशां के असर में वहां पहली बार सभ्यता का विकास होने लगा और औद्योगिक क्रांति की वजह से यूरोप बाकी दुनिया के मुकाबले विकसित हुआ।अमेरिका और आस्ट्रेलिया तो बहुत बाद का किस्सा है।

मनुष्यता का बुनियादी चरित्र बाकी जीवित प्राणियों से एकदम अलग है।बाकी प्राणी अपनी इंद्रियों की क्रिया प्रतिक्रिया की सीमा नहीं तोड़ सकते या हाथी,मधुमक्की और डाल्फिन जैसे कुछ जीव जंतु सामूहिक जीवन के अभ्यास में मनुष्य से बेहतर चेतना का परिचये तो दे सकते हैं किंतु अपनी ही इंद्रियों को काबू में करने का संयम मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है और वह अपने विवेक से सही गलत का चुनाव करके क्रिया प्रतिक्रिया को नियंत्रत कर सकता है और स्वभाव से वह प्रतिक्रियावादी नहीं होता।

मुक्तबाजार में लेकिन हम अनंत भोग के लिए अपनी इंद्रियों को वश में करने का संयम खो रहे हैं और विवेक या प्रज्ञा के बदले हमारी जीवन चर्या निष्क्रियता के बावजूद प्रतिक्रियाओं की घनघटा है।

सोशल मीडिया और मीडिया में पल दर पल वहीं प्रतिक्रियाएं हमारे मौजूदा समाज का आइना है,हमारा वह चेहरा है,जिसे हम ठीक से पहचानते भी नहीं है।सामूहिक सामाजिक जीवन के मामले में मनुष्यों की तुलना में हाथी,मधुमक्खी,भेड़िये और डाल्फिन जैसे असंख्य जीव जंतु हमसे अब बेहतर हैं और हम सिर्फ जैविक जीवन में जंतु बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।इसीलिए यह अभूतपूर्व हिंसा, गृहयुद्ध,युद्ध और आतंकवाद का सिलसिला तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी चमत्कार के बावजूद हमें विध्वंस की कगार पर खड़ा करने लगा है और हम अब भी निष्क्रिय प्रतिक्रियावादी हैं।

सबकुछ हासिल कर लेने की अंधी दौड़ में हम सभ्यता के विनाश पर तुल गये हैं और जैविकी जीवनयापन में हम फिर असभ्य बर्बर अंधकार युग की यात्रा पर हैं और आगे ब्लैक होल के सिवाय कुछ नहीं है।हमने मनुष्यता के विध्वंस के लिए परमाणु धमाकों का अनंत सिलसिला सुनिश्चित कर लिया है।इसी को हम विकास कहते और जानते हैं,जिसमें विवेकहीन इंद्रिय वर्चस्व के भोग के सिवाय मनुष्यता की कोई बुनियादी सत्ता नहीं है।

माइकल मधुसुदन दत्त

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माइकल मधुसुदन दत्त

माइकल मधुसुदन दत्त (बांग्ला: মাইকেল মধুসূদন দত্ত माइकेल मॉधुसूदॉन दॉत्तॉ) (1824-29 जून,1873) जन्म से मधुसुदन दत्त, बंगला भाषाके प्रख्यात कवि और नाटककार थे। नाटक रचना के क्षेत्र मे वे प्रमुख अगुआई थे। उनकी प्रमुख रचनाओ मे मेघनादबध काव्य प्रमुख है।

जीवनी[संपादित करें]

मधुसुदन दत्त का जन्म बंगाल के जेस्सोर जिले के सागादरी नाम के गाँव मे हुआ था। अब यह जगह बांग्लादेशमे है। इनके पिता राजनारायण दत्त कलकत्तेके प्रसिद्ध वकील थे। 1837 ई0 में हिंदू कालेजमें प्रवेश किया। मधुसूदन दत्त अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे। एक ईसाई युवती के प्रेमपाश में बंधकर उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिये 1843 ई0 में हिंदू कालेज छोड़ दिया। कालेज जीवन में माइकेल मधुसूदन दत्त ने काव्यरचना आरंभ कर दी थी। हिंदू कालेज छोड़ने के पश्चात् वे बिशप कालेज में प्रविष्ट हुए। इस समय उन्होंने कुछ फारसीकविताओं का अंग्रेजीमें अनुवाद किया। आर्थिक कठिनाईयों के कारण 1848 में उन्हें बिशप कालेज भी छोड़ना पड़ा। तत्पश्चात् वे मद्रासचले गए जहाँ उन्हें गंभीर साहित्यसाधना का अवसर मिला। पिता की मृत्यु के पश्चात् 1855 में वे कलकत्ता लौट आए। उन्होंने अपनी प्रथम पत्नी को तलाक देकर एक फ्रांसीसी महिला से विवाह किया। 1862 ई0 में वे कानून के अध्ययन के लिये इंग्लैंडगए और 1866 में वे वापस आए। तत्पश्चात् उन्होंने कलकत्ता के न्यायालय मे नौकरी कर ली।

19वीं शती का उत्तरार्ध बँगला साहित्य में प्राय: मधुसूदन-बंकिम युग कहा जाता है। माइकेल मधुसूदन दत्त बंगाल में अपनी पीढ़ी के उन युवकों के प्रतिनिधि थे, जो तत्कालीन हिंदू समाज के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन से क्षुब्ध थे और जो पश्चिम की चकाचौंधपूर्ण जीवन पद्धति में आत्मभिव्यक्ति और आत्मविकास की संभावनाएँ देखते थे। माइकेल अतिशय भावुक थे। यह भावुकता उनकी आरंभ की अंग्रेजी रचनाओं तथा बाद की बँगला रचनाओं में व्याप्त है। बँगला रचनाओं को भाषा, भाव और शैली की दृष्टि से अधिक समृद्धि प्रदान करने के लिये उन्होनें अँगरेजी के साथ-साथ अनेक यूरोपीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया। संस्कृततथा तेलुगुपर भी उनका अच्छा अधिकार था।

मधुसूदन दत्त ने अपने काव्य में सदैव भारतीय आख्यानों को चुना किंतु निर्वाह में यूरोपीय जामा पहनाया, जैसा "मेघनाद वध" काव्य (1861) से स्पष्ट है। "वीरांगना काव्य" लैटिन कवि ओविड के हीरोइदीज की शैली में रचित अनूठी काव्यकृति है। "ब्रजांगना काव्य" में उन्होंने वैष्णव कवियों की शैली का अनुसरण किया। उन्होंने अंग्रेजी के मुक्तछंद और इतावली सॉनेट का बंगला में प्रयोग किया। चतुर्दशपदी कवितावली उनके सानेटों का संग्रह है। "हेक्टर वध" बँगला गद्य साहित्य में उनका उल्लेखनीय योगदान है।


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क्या नरसंहारी सियासती मजहब पर हम खुले संवाद के लिए तैयार हैं? महिषासुर का पक्ष दुर्गोत्सव के मौके पर रखने के लिए कोलकाता आ रही हैं सुषमा असुर! पलाश विश्वास

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क्या नरसंहारी सियासती मजहब पर हम खुले संवाद के लिए तैयार हैं?

महिषासुर का पक्ष दुर्गोत्सव के मौके पर रखने के लिए कोलकाता आ रही हैं सुषमा असुर!

पलाश विश्वास

सुषमा असुर का नाम अब हिंदी समाज के लिए अनजाना नहीं है।सुषमा असुर पिछले अनेक वर्षों से महिषासुर वध महोत्सव बंद करने की अपील करती रही है।वह झारखंड और बंगाल में महिषासुर के वंशजों का प्रतिनिधित्व करती है।अब देश भर में जारी महिषासुर विमर्श में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है।वही सुषमा असुर कोलकाता में सार्वजनीन दुर्गोत्सव के पंडाल का उद्घाटन करने आ रही है।बांग्ला दैनिक एई समय ने इस बारे में ब्यौरेवार समाचार पहल पृष्ठ पर छापा है और उस समाचार में सुषमा असुर का एक अन्य वक्तव्य भी प्रकाशित किया है।

महिषासुर वध का विरोध छोड़कर वे कोलकाता के दुर्गोत्सव में महिषमर्दिनी की पूजा के लिए नहीं आ रही है,बल्कि कोलकाता और बंगाल को महिषासुर का पक्ष बताने आ रही हैं।भारतभर के आदिवासियों के हक में असुरों की कथा व्यथो को लेकर बहुसंख्य हिंदू जनता से संवाद शुरु करने आ रही हैं।इस वक्त जेएनयू और गोंडवाना समेत देश के दूसरे हिस्सों में महिषासुर और रावण के वंशजों के खिलाफ जो नरसंहार अभियान के तहत फासीवादी हमले जारी हैं,जिसके तहत बंगाल में भी पुलिस महषासुर उत्सव रोक रही है,सुषमा असुर की यह पहल बहुत महत्वपूर्ण है।

कोलकाता में भारत विभाजन से पहले मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन और इसके साथ पूर्वी बंगाल के नौआखाली दंगों के दौरान कोलकाता में अमनचैन के लिए सत्ता की छिनाझपटी की नई दिल्ली से दूर जिस बेलेघाटा में आकर कोी मोहनदास कर्मचंद गांधी आकर ठहरे थे,जहां से वे नोआखाली गये थे और फिर दंगा और  भारत विभाजन रोक पाने में विफल होकर सोदपुर पानीहाटी के गांधी आश्रम में ठहरे थे,उसी बेलेघाटा के बहुत पास फूलबागान पूर्व कोलकाता सार्वजनीन दुर्गोत्सव समिति ने महापंचमी पर दुर्गा पूजा के उद्घाटन के लिए सुषमा असुर को न्यौता है और सुषमा असुर इसके लिए राजी भी हो गयी है।इस संवाद से बाकी देश के लोग कोई सबक सीखें तो हमारी बहुत सी मुश्किलें आसान हो सकती हैं।फूलबागान के लोगों को महिषासुर के वंशंजों को इसतरह आत्मीय जन बना लेने के लिए बधाई।

सुषमा असुर ने कहा कि हमारे समुदाय के बच्चे जब स्कूल कालेज में जाते हैं तब उन्हें राक्षस कहकर उनका उत्पीड़न और बहिस्कार होता है।हम कोई राक्षस दैत्य वगैरह नहीं ,हम भी दूसरों की तरह मनुष्य हैं, हम कोलकाता और बंगाल को यह बताने के लिए यहां आ रहे हैं। गौरतलब है कि गोंडवाना में भी आदिवासी खुद को असुर मानते हैं और वहां भैंसासुर की पूजा व्यापक पैमाने पर होती है,जहां दुर्गापूजा का चलन कभी नहीं रहा है।

हम पहले लिख चुके हैं कि दुर्गाभक्तों का एक हिस्सा आदिवासियों और महिषासुर एवम् रावण के वंशजों की कथा व्यथा से अनजान नहीं है और उनमें से एक बहुत बड़ा हिस्सा उनके हक हकूक की लड़ाई का कमोबेश समर्थन भी करते हैं।वे दुर्गा के मिथक में महिषासुर प्रकरण के तहत दुर्गापूजा की पद्धति में संशोधन के पक्षधर हैं।सुषमा असुर भी यह बार बार कहती रही हैं कि महिषासुर वध के बिना अपनी आस्था के मुताबिक कोई दुर्गापूजा करें तो असुर के वंशजोंको इसपर आपत्ति नहीं होगी।

उदार दुर्गाभक्तों का एक हिस्सा सुषमा असुर की इसी अपील के मुताबिक दुर्गापूजा में महिषासुर वध रोकने के पक्ष में है।लेकिन इस पर कोई सार्वजनिक संवाद अभीतक शुरु हुआ नहीं है।सुषमा असुर यह संवाद शुरु करने जा रही हैं।

यह संवाद कोलकाता में दुर्गोत्सव के मौके पर शुरु करने की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।इसके सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं।बशर्ते की हम नरबलि की परंपरा को सतीदाह की तरह खत्म करने के लिए तैयार हो और नरसंहार संस्कृति की वैदिकी पररंपरा के पुलरूत्थान के आशय को समझने के लिए तैयार हों। ऐसा हुआ तो भारत की एकता और अखंडता और मजबूत होगी जिसे हम अपने धतकरम से चकनाचूर करते जा रहे हैं।

भारतीय सभ्यता की विकास यात्रा आर्य अनार्य संस्कृति के एकीकरण के तहत हुआ है।सती कथा के तहत तमाम अनार्य देव देवियों को चंडी और भैरव बनाकर एकीकरण की प्रक्रिया कामाख्या और कालीघाट जैसे अनार्य शाक्त धर्मस्थलों को भी सती पीठ में शामिल करने के तहत हुआ है।

गोंडवाना से लेकर पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में करीब एक लाख साल पहले मनुष्यों की पाषाणकालीन सभ्यता के पुरावशेष मिले हैं।मोहनजोदोडो़ और हड़प्पा की सिंधु सभ्यता का विंध्य और अरावली पर्वतों तक विस्तार हुआ है।खास तौर पर बिहार, झारखंड,बंगाल और ओड़ीशा में वैदिकी और ब्राह्मण काल  के बाद बौद्ध और जैन धर्म का बहुत असर रहा है।जो अब तक खत्म हुआ नहीं है।गोंडवाना के अंतःस्थल में जाये बिना हम भारत की एकात्मकता को समझ नहीं सकते।सांस्कृतिक एकता के तहत अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के बिना समता और न्याय की दिशा खुल नहीं सकती और समरसता के पाखंड के बावजूद भारत कानिर्माण हो नहीं सकता तो हिंदू राष्ट्र का एजंडा भी हिंदूधर्म के सर्वनाश का कारण बना रहेगा।यही फासिज्म है।

बिहार और बंगाल में असुर आदिवासी दुर्गोत्सव और रावण दहन के दौरान महिषासुर और रावण के लिए शोक मनाते हैं और घरों से भी नहीं निकलते हैं।इसके साथ ही महायान बौद्धधर्म के असर में तंत्र के आाधार में जंगल महल में झारखंड औऱ बंगाल में आसिनी वासिनी सर्वमंगला आदि बौद्ध देवियों की पूजा प्रचलित है और मेदिनीपुर में दामाोदर पार दुर्गोत्सव उन जनसमूहों के लिए निषिद्ध है जो असुर नहीं है लेकिन इन तमाम देवियों की पूजा करते हैं।इसीतरह बंगाल बिहार झारखंड और ओड़ीशा में शिव की मूर्तियों के साथ बौद्ध और जैन मूर्तियों की भी पूजा होती है।

वैसे भी बहुसंख्य भारतीय तथागत गौतम बुद्ध और पार्शनाथ भगवान और सभी जैन तीर्थाकंरों की उपासना अपने देव देवियों के साथ उसीतरह करते हैं जैसे अविभाजित पंजाब में हिंदुओं और सिखों के साथ मुसलमानों के लिए भी गुरद्वारा तीर्थ स्थल रहा है और अंखड भारत में तो क्या खंड खंड भारत में अजमेर शरीफ में गरीबनवाज  या फतेहपुर सीकरी की शरण में जाने वाले किसी मजहब के पाबंद जैसे नहीं होते वैसे ही तमाम सीमाओं के आर पार अब भी पीरों फकीरों की मजार पर गैरमुसलमान भी खूब चादर चढ़ाते हैं।हमारे ही देश में हजारों साल से अइलग अलग मजहब के लोग एक ही परिसर में मंदिर मस्जिद में पूजा और नमाज पढ़ते रहे हैं बिना किसी झगड़े और फसाद के।

आजादी के बाद अयोध्या ,खाशी और वृंदावन को लेकर मजहबी सियासत ने जो फसाद खड़े कर दिये,वे हजारों साल से हुए रहते तो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की हाल यूनान और रोम,मेसोपोटामिया का जैसा होता।जाहिर है कि पीढ़ियों से भारतीय की सरजमीं को हमारे पुरखों ने जो अमन चैन का बसेरा बनाया है,हमने उस उजाड़ने का चाकचौबंद इंतजाम कर लिया है।नफरत की यह आंधी हमने ही सिरज ली है।

झारखंड में जैनों का महातीर्थ पार्श्वनाथ का तीर्थस्थल पारसनाथ गोमो जंक्सन के बाद है तो बंगाल के बांकुड़ा से लेकर ओड़ीशा और मेदिनीपुर के प्राचीन बंदरगाह ताम्रलिप्त तक जैन मूर्तियों,स्तूपों और मंदिरों के अवशेष सर्वत्र है तो बौद्ध धर्म का भी असर सर्वत्र हैं।

मगध,पाटलिपुत्र,राजगीर और बोधगया से झारखंड के रास्ते ताम्रलिप्त होकर विदेश यात्राएं तब होती थीं।सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा इसी रास्ते से ताम्रलिप्त होकर श्रीलंका पहुंची थी तो चीनी पर्यटक व्हेन साङ के चरण चिन्ह भी इसी रास्ते पर हैं।झारखंड के असुर एक लाख साल से पाषाणकालीन युग से पत्थरों के हथियारों से लेकर मुगल शासकों के हथियार तक बनाने में अत्यत दक्ष कारीगर रहे हैं और उनमें से ज्यादार लोग लुहार हैं।

हम इस इतिहास के मद्देनजर बीसवी संदी की जमींदारी के जल जंगल जमीन पर कब्जे के जश्न के तहत नरबलि की प्रथा महिषासुर वध के मार्फत जारी रखे हुए हैं तो इस जितनी जल्दी हम समझ लें उतना ही बेहतर है।जल जमीन जंगल के दावेदार इस सत्ताव्रक के नजरिये से राक्षस, दैत्य, दानव, असुर, किन्नर, गंधर्व,वानर वगैरह वगैरह है और नरबलि की प्रथा उनकी ह्त्या को वैदिकी वध परंपरा में परिभाषित करने की आस्था है जो अब दुर्गोत्सव में महिषासुर वध है या रामलीला के बाद रावण दहन है और रावण को तीर मारकर जलाने वाले सत्ता शिखर के सर्वोच्च लोग हैं जो रमालीला मैदान पर इस नरसंहार को महोत्सव मनाते हैं।

गौरतलब है कि गोंडवाना से लेकर पूर्व और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी भूगोल में आदिवासियों के टोटेम और शरणा धर्म के साथ साथ जैन और बौद्ध धर्म और हिंदुत्व की मिली जुली संस्कृति हजारों साल से जारी है,जिसमें दुर्गोत्सव में महिषासुर वध और रावण दहन की ब्रिटिश हुकूमत के दौरान सार्वजनीन आस्था उत्सवों की वजह से भारी उथल पुथल मची है।

दुर्गोत्सव बीसवीं सदी से पहले जमींदारों और राजाओं की निजी उत्सव रहा है और उसमें प्रजाजनों की हिस्सेदारी नहीं रही है।दुर्गोत्सव नरबलि से शुरु हुआ और जाहिर है कि इस नरबलि के शिकार प्रजाजन ही रहे हैं,जिसके प्रतीक अब महिषासुर हैं।जाहिर है कि अलग अलग उपासनापद्धति,आस्था और धर्म के बावजूद आम जनता के दिलो दिमाग में कोई दीवार भारत के इतिहास में बीसंवी सदी से पहले नहीं थी।भा्रत विबाजनके सात दिलोदिमाग का यह बंटवारा सियासत के मजहबी बना दिये जाने से हुआ है और सत्ता की इस सियासत से हमेशा मजहब और मजहबू जनता को सबसे बड़ा नुकसान होता रहा है।

दूसरी तरफ, गोस्वामी तुलसीदास के लिख रामायण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम की सर्व भारतीय छवि  मुगलिया सल्तनत के खिलाफ आम जनता के हक हकूक की लड़ाई को संगठित करने और संत फकीर पीर बाउल बौद्ध सिख जैन आदिवासी किसान आंदोलनों की परंपरा के तहत दैवीसत्ता का मानवीयकरण के नवजागरण की तहत बनी।

विडंबना यह है कि सत्ता और सामंतवाद के खिलाफ तैयार गोस्वामी तुलसीदास के अवधी मर्यादा पुरुषोत्तम राम अब रावण दहन के मार्फत देश के बहुजनों के खिलाफ जारी वैदिकी मुक्तबाजारी फासिस्ट नरसंहार अभियान का प्रतीक बन गये हैं।यही नहीं, राम के इस कायाकल्प से युद्धोन्मादी धर्मोन्माद अब हमारी राष्ट्रीयता है।

दक्षिण पूर्व एशियाई देशों तक में बोली समझी जानेवाली तमिल भाषा हमें आती नहीं है,जिसके तहत हम कम से कम आठ हजार साल का संपूर्ण भारतीय इतिहास जान सकते हैं।हम इसलिए द्रवि़ड़, आर्य, अनार्य, शक,  कुषाण, मुगल, पठान, जैन, बौद्ध, आदिवासी संस्कृतियों के विलय से बने भारत तीर्थ को समझते ही नहीं है तो दूसरी तरफ भारत की किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा लोगों की भाषा,समूचे मध्य भारत के गोंडवाना की गोंड भाषा को जानने का प्रयत्न नहीं किया है।

तमिल भाषा  तमिलनाडु की अस्मिता से जुड़कर अपनी पहचान बनाये हुए है बाकी भारत से अलगाव के बावजूद।लेकिन गोंडवाना और दंडकारण्य के आदिलवासियों की गोंड भाषा के साथ साथ मुंडारी, कुड़मी, संथाल,हो जैसी आदिवासी भाषाओ के साथ साथ हमने भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, ब्रज, बुंदेलखंडी, मालवी,कुमांयूनी और गढ़वाली और बंगाल समेत इस देश की सारी जनपद भाषाओं के विकास और  संरक्षणके बदले उन्हें तिलांजलि दी है।

जो वीरखंभा अल्मोड़ा में है,वहीं वीरस्तंभ फिर पुरुलिया और बांकुड़ा में है और वहीं,मणिपुर और नगालैंड के सारे नगा जनपदों के हर गांव में मोनोलिथ है।संस्कृति और भारतीयता की नाभि नाल के इन रक्त संबंधों को जानने के लिए जैसे तमिल जानना द्रविड़ जड़ों को समझने के लिए अनिवार्य है वैसे ही सिंधु सभ्यता के समय से आर्यावर्त के भूगोल के आर पार हिमालयी क्षेत्रों और विंध्य अरावली के पार बाकी भारत के इतिहास की निरंतरता जानने के लिए आदिवासी भाषाओं के साथ साथ तमाम जनपदों भाषाओं का जानना समझना अनिवार्य है।गोंड भाषा में ही इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझ सकती है मसलन सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद वहां के शरणार्थियों का स्थानांतरण और पुन्रवास कहां कहां किस तरह हुआ है।इन भाषाओं को जानने के लिए संस्कृति नहीं,पाली भाषा जानना ज्यादा जरुरी है।

हिमालयी क्षेत्र में मुगल पठानकाल में पराजित जातियों का प्रवास हुआ है और वे अपनी मौलिक पहचान भूल चुके है।इसी तरह भारत विभाजन के बाद इस देश में विभिन्न जनसमूहों के शरणार्थियों का जैसे स्थानातंरण और पुनर्वास हुआ,वैसा मध्य एशिया के शक,आर्य,तुर्कमंगोल आबादियों के साथ पांच हजार सालों से होता रहा है तो उससे भी पहले सिॆंधु घाटी से निकलकर द्रविड़ भूमध्य सागर के आर पार मध्यएशिया से लेकर सोवियात संघ,पूर्व और पश्चिम  यूरोप तक और उससे भी आगे डेनमार्क स्वीडन और फिनलैंड तक फैलते रहे हैं।जैसे तमिल जनसमूह दक्षिण पूव एशिया में सर्वत्र फैले गये हैं और विभाजन के बाद बंगाल और पंजाबी के लिए सारी दुनिया अपना घर संसार बन गया है।पांच हजार साल तो क्या पांच सौ साल तक उनकी पहचान वैसे ही खत्म हो जायेगी जैसे हिमालय से उतरने वाले कुंमायूनि गढवाली गोरखा डोगरी लोगों की हो जाती है।वे न अइपनी भाषा बोल सकते हैं और न पीछे छूट गये हिमालय को याद करने की फुरसत उन्हें है।हममें से कोई नहीं कह सकता कि पांच हजार साल पहले हमारे पुरखे कौन थे और कौन नहीं।डीएनए टेस्ट से भी नहीं।

जाहिर है कि विविधताओं और बहुलताओं का जैसा विलय भारत में हुआ है ,विश्वभर में वैसा कहीं नहीं हुआ है और इसी वजह से विश्व की तमाम प्राचीन सभ्यताओं इंका, माया, मिस्र, रोम,यूनान,मंगोल,मेसापोटामिया,चीन की सभ्यताओं के अवसान के विपरीत हमारी पवित्र गंगा यमुना और नर्मदा नदी की धाराओं की तरह अबाध और निरंतर है।रंग नस्ल,जाति,धर्म निर्विशेष हमारे पुरखों ने विविधताओं और बहुलताओं से जिस भारत तीर्थ का निर्माण किया है,हम अंग्रेजी हुकूमत में जमींदारों और राजारजवाड़ों की जनविरोधी नरसंहारी रस्मों को सार्वजिनक उत्सव बनाकर उस भारत तीर्थ को तहस नहस करने में लगे हैं।धर्म का लोकतंत्र को खत्म करके ङम फासिज्म के राजकाज की वानरसेना बन रहे हैं।

अगर नर बलि से लेकर पशुबलि तक की वीभत्स पंरपराओं का अंत करने के बावजूद धर्म और आस्था की निरंतरता में असर नहीं हुआ है तो समूचे देश को और खासतौर पर अनार्य असुर द्रविड़ जनसमूहों और इस देश के आदिवासियों को बहुसंख्य जनगण में विविधता और बहुलता की भारतीय संस्कृति के मुताबिक शामिल करने के लिए महिषासुर वध और रावण दहन पर पुनर्विचार और संवाद की जरुरत है।

खुशी की बात यह है कि सुषमा असुर दुर्गोत्सव के दौरान महिषासुर उत्सवों के मध्य महिषासुर वध की पुनरावृ्त्ति कर रहे बहुसंख्य जनता को सीधे संबोधित कर रही हैं।

Chhattish Gargh Refugees on indefinite Hunger Strike for the right to Mother Tongue. CM Raman Singh betrayed! Bhasha Andolan in East Bengal and Assam repeated in Chhattish Gargh! Palash Biswas

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Chhattish Gargh Refugees on indefinite Hunger Strike for the right to Mother Tongue. CM Raman Singh betrayed!

Bhasha Andolan in East Bengal and Assam repeated in Chhattish Gargh!

Palash Biswas


Bengali refugees denied right to mother tongue in most of the states where they have been systematically scattered to kill the Adivasi Kissan Bahujan Majority uprising continued until the partition of India.


In Assam,Bengalies launched Bhasha Andolan and police killed the leadership with the fire power of the State Power.In undivided Uttar Pradesh,specifically in Dineshpur,now in Uttarakhand the refugee students continued the fight.the movement began in sixties by the students of Zila Parishad Higher Secondary School Dineshpur.In 1970, I was reading in class eight in the school and my father was very close with District board Chairman Shyam Lal Varma.I had to lead the students in indefinite strike with senior students.


We could not mobilize mass support as Bengali refugees were quite insecure in adverse condition and they could not organize themselves.My father thought I was responsible for the unwanted encounter which could desettle the vulnerable refugee colonies all over in Uttar Pradesh.


We were protesting against printing of printing of Bengali question paper in Devnagari in school exams.My father and others thought they could have solved the issue without the stirke.The insisted to end the strike as powerful leaders like ND Tiwari and KC Pant intervened.


My father publicly disowned me as he disowned me yet again during emergency while I was leading students in Uttarakhand and Bengali refugees supported Mrs Gandhi.


This was  a great crisis faced by Bengali refugees all over India until MarichJhanpi movement in seventies which began in refugee camps of Madhy Pradesh and turminated in Genocide whent the refugees tried to get home yet again in West Bengal


We could not hold on because the refugees settled in Uttar Pradesh felt themselves vulnerable and tended to compromise.I was spared but my seniors were restricted and they lost their career.I was sure that they spared me just because  to manage the Bengali leadership in the resettlement colonies.

Though I passed the class eight board exams in second division with 88 percent marks in Bengali, I had no ineteres to continue my studies.


Hence,I was sent to Shaktifarm Government High School so that I may continue my studies there.I passed class Nine from there and the principal of Dineshpur Highschool Mr.Dalakoti convinced my father to get back me there as they wanted me to appear in UP board exam from the school.


In Kachhar,Bengali refugees always had been united.But it was not the same in other states.


I stand with NIKHIL BHARAT Bengali Udvastu Samanyay Samiti because it has organized Bengali refugees in twenty two states where they have been resetttle irespective of my ideology and opinion.I appeal to all refugees including Bengali,Sikh,Tamil,Tibetan,Burmese,Bhutanese to stand together with our differences to ensure the civic and human rights and citizenship without any discrimination.

Nikhil Bharat has organized Bengali refugees in Dandkarny in complete Solidrity.

Lacs of refugees earlier gheraoed CG Assembly t o press their demands and CM Raman Singh assured them to solve their problems.It was not to happen.

Hence,Bengali refugees have launched indefinite hunger strike and right to mother tongue is their prime demand.



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हम असुर लोग इस धोखा का निंदा करते हैं - सुषमा असुर सुषमा असुर कोलकाता नहीं आ रही हैं। साजिश की शिकार सुषमा असुर? पलाश विश्वास

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हम असुर लोग इस धोखा का निंदा करते हैं - सुषमा असुर

सुषमा असुर कोलकाता नहीं आ रही हैं।

साजिश की शिकार सुषमा असुर?

पलाश विश्वास
सुषमा असुर कोलकाता नहीं आ रही हैं।

हम असुर लोग इस धोखा का निंदा करते हैं - सुषमा असुर
कोलकाता की एक संस्था ने धोखे से हम असुरों को बुलाकर महिषासुर शहादत अभियान को बदनाम करने की कोशिश की, इसका हम असुर समुदाय घोर निंदा करते हैं. हम असुर कोलकाता के किसी आयोजन में शामिल होने नहीं जा रहे हैं. हमारे संगठन की महासचिव वंदना टेटे ने आयोजकों को बता दिया है दुर्गा पूजा के किसी आयोजन में असुर लोग भाग नहीं लेंगे. यह आर्यों का छल-बल का पुराना तरीका है. मुझसे संपर्क करने वाले व्यक्ति सुभाष राय ने खुद को 'साल्टलेक एफई ब्लॉक रेसिडेंट एसोसिएशन'का सदस्य बताया था और कहा था कि हमलोग शरद उत्सव का सांस्कृतिक उत्सव कर रहे हें, उसमें आपलोग आइए. आने के लिए 9 लोग का स्लीपर टिकट भी भेजा था. लेकिन जब हमलोग को मालूम हुआ कि बंगाल का अखबार में ऐसा खबर छपा है कि सुषमा असुर और उसके साथ दुर्गा पूजा का उद्घाटन करेंगे तो हम असुरों को बहुत धक्का लगा. हमने अपने संगठन का महासचिव दीदी वंदना से इस बारे में बात किया और पूरे मामले की पड़ताल की. तब सच्चाई उजागर हुआ कि हम असुरों को धोखे से बुलाया जा रहा था.

-- सुषमा असुर, सखुआपानी नेतरहाट झारखंड

नीचे उन दोनों खबरों का लिंक है जिससे हमलोगों को सच्चाई का पता लगा.

http://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/54654058.cms

http://navbharattimes.indiatimes.com/…/article…/54655130.cms

बंगाल में दुर्गोत्सव के मौके पर सात सौ स्थानों में महिषासुर उत्सव मनाया जा रहा है।कोलकाता और हावड़ा के अलावा उत्तर और दक्षिण 24 परगना,पुरुलिया और बांकुड़ा,मालदह,मुर्शिदाबाद से लेकर बंगाल के कोने कोने में आदिवासियों के साथ बहुजन वर्षों से महिषासुर उत्सव मना रहे हैं।कभी अखबारों में इस बारे में कोई खबर नहीं छपी है।लेकिन इस बार टाइम्स आफ इंडिया समूह के बांगाल अखबार एई समय में पहले पेज पर सुषमा असुर को महिषासुर का वंशज बताते हुए खबर छपी है कि अने पूर्वज की बदनामी दूर करने के लिए सुषमा असुर कोलकाता में दुर्गा पूजा का उद्गाठन करने आ रही हैं।
हम इसे महिषासुर विमर्श आम जनता के बीच शुरु करने और उदार आस्थावान लोगों की ओर से महिषासुर वध के बहना वैदिकी कर्मकांड में नरबलि और नरसंहार के आत्मे की पहल का मौका मान रहे थे।
कल दिन भर मुझे दिल्ली और अन्य स्थानों से फोन आते रहे कि क्या सुषमा असुर को इसलिए बुलाया जा रहा है कि कोलकाता में फूलबागान पूर्व कोलकाता सार्वजनीन दुर्गोत्सव के आयोजक महिषासुर वध के बिना पूजा का आयोजन कर रहे हैं।
सुषमा असुर के हवाले से जो खबर छपी उसमें हम सुषमा के जिस वक्तव्य से परिचित हैं ,उसका कोई जिक्र नहीं है।बंगाल और बिहार में असुर आदिवासियों के अपने पूर्वज का शोक मनाने का ब्यौरा जरुर है और सुषमा के हवाले से इतना कहा गया है कि वे महिषासुर और असुरों का पक्ष रखने आ रही हैं।वे कोलकाता वालो ं को बताने आ रही हैं कि असुर भी उनकी तरह का मनुष्य है।
इस बीच पहलीबार उत्तर 24 परगना में महिषासुर वध उत्सव को बंगाल पुलिस ने रोक दिया है और आदिवासी बहुल इलाकों में भी महिषासुर वध का आयोजन रोका जा रहा है।
दिल्ली के साथियों ने आयोजन केबारे में मुझे बार बार फोन से पूछा तो मैं उन्हें न आयोजकों के बारे में और न उनके आयोजन और मकसद के बारे में कुछ बता सका।बंगाल में यह खबर छपने के बाद जैसे मैं समझ रहा था,वैसे ही भारी खलबली मच गयी है।
कल भी मैंने मित्रों को बताया था कि फूलबागान पूजा कोलकाता के पूजा मैप में कहीं नहीं है जबकि सियालदह से या विधाननगर से इसकी दूरी बहुत नहीं है।हो सकता है कि महज सनसनी फऱैलाकर विज्ञापन और पब्लिसिटी के लिए आयोजकों ने बतौर स्टंट यह करतब कर दिखाया है कि दुर्गोत्सव के दौरान महिषासुर के वंशज को ही पेश कर दिया जाये।उनका वश चलता तो वे महिषासुर को ही पेश करते और हम नहीं जानते कि इस सिलसिले में सुषमा असुर ने क्या सोचकर सहमति दे दी है।
दिल्ली के मित्रों ने कहा कि सुषमा असुर फोन पर उपलब्ध नहीं हैं।हम यह भी नहीं जानते कि क्या सचमुच सुषमा असुर कोलकाता आ भी रही हैं या नहीं।
हमसे जिन्होेंने बात की है,उनसे मैंने यही कहा है कि दंडकारण्य,गोंडवाना  से लेकर आदिवासी भूगोल में सर्वत्र रावण और महिषासुर के वंशज हैं जो दुर्गोत्सव और रामलीला के भूगोल के बाहर है और जेएऩयू के महिषासुर विमर्श और संसद से लेकर सड़कों तक इसके राजनीतिक विरोध के बावजूद आम जनता को आदिवासियों और बहुजनों का पक्ष मालूम नहीं है।कोलकाता वाले चाहे मार्केंटिग या पब्लिसिटी ,जिस वजह से भी सुषमा असुर को दुर्गोत्सव का मंच देने को तैयार है,हमें इस विमर्श को आम जनता तक ले जाने का मौका बनाना चाहिए।
इसलिए मैंने महिषासुर और रावणके इतिहास भूगोल पर पिछले दिनों लिखा है और मेघनाथ वध की चर्चा भी सिलसिलेवार की है।
बंगाल के बहुजनों को लगता है कि सुषमा असुर एक गहरी साजिश की शिकार ोह रही हैं और उनका सिर्फ पूजा बाजार में इस्तेमाल होना है और उन्हें कुछ भी कहने का मौका नहीं मिलने वाला है।


বাংলার বাঁশের উৎসবে সুষমা অসুর !!! 

Saradindu Uddipan

এক ভয়ঙ্কর ষড়যন্ত্রের শিকার হয়েছেন সুষমা অসুর। দীর্ঘদিনের অসুর আন্দোলনের অগ্রপথিক সে। তাকে কোলকাতায় এনে দুর্গা পূজার প্রতিমা উদ্বোধন এক শ্যতানী পদক্ষেপ। এই কাজ ব্রহ্মন্যবাদী মানসিকতার দাম্ভিক প্রকাশ। আমরা উৎকণ্ঠিত।

সুষমার অসুর কীর্তন শোণার জন্য কর্তৃপক্ষ নিশ্চয়ই তাকে নিয়ে আসেনি। যদি তাই হত তবে কর্তৃপক্ষ অসুরের পূজার জন্য বিজ্ঞাপন দিতেন। প্রজাপালক, ন্যায়প্রায়ন মহিষাসুরের মূর্তিকে স্বমহিমায় প্রতিষ্ঠিত করতেন। সেটা না করে দুর্গা পূজার উদ্বোধন করানোর মানে কি?

নিশ্চয়ই আপনারা বুঝতে পারছেন যে এই কর্পোরেট দেবী দুর্গাপূজাও এক ভয়ঙ্কর প্রশ্ন চিহ্নের মুখে পড়ে গেছে। ধাক্কা আরো জোর লাগান ভাই। নিজেদের সাংস্কৃতিক সদ্ভাবনাকে আরো তেজস্বী করে তুলুন। তবে দেখতে পাবেন বাংলাকে এই "বাঁশ দেওয়ার উৎসব" ফেঁকাসে হয়ে যাবে।

জয় মহিষাসুর।






হিমালয় থেকে কন্যাকুমারী সর্বত্র শোনা যাচ্ছে অসুরের জয়গান। ভারতের ৮৫% মানুষ দাবী করছে তারা অসুরের বংশজ। এই মূল ভারতীয় সংস্কৃতির তারাই আসল দাবীদার। ধাক্কা আরো জোর মারো সাথী।

জয় মহিষাসুর

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#SS17

अगर आपको नहीं लगता की समय का पहिया फिर घूम रहा तो ये तस्वीरे देखिये !
ये बुद्ध से लेकर #सम्राट_अशोक#महाराज_वृहदथ#महाराज_बलि#महाबली_महिषासुर#फूल,#आंबेडकर#पेरियार#कांशीराम की मानस संताने है, जो आतुर है अपने इतिहास को खोद निकालने और अपने भविष्य को उस इतिहास जैसा स्वर्णमय बनाने के लिए !
29 सितंबर 2016 को ये कार्यक्रम #Mysore के #चमुन्डि पहाड़ पर #Dalit_Welfare_Trust के अंतर्गत हुआ!
Prof. Dr. #Mahesh_Chand_Guru और #Dalit_Minority_Sene (Sena) #Karnataka के कार्यकारी अध्यक्ष #A_J_Khan #Pro_Bhagwaan ने इसे खाश कार्यक्रम को सुशोभित किया !

उम्मीद है अगली इंडिया टुडे की रिपोर्ट में महिषासुर की शहादत दिवश की संख्या बढ़कर 1000 तक हो जाएगी जो अबकी फरवरी में केवल उत्तर भारत में 470 के आस पास थी !

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BHASHA ANDOLAN IN CHHATTISHGARGH: আন্দোলনের দ্বিতীয় দিন। শেয়ার করুন। হতভাগ্য উদ্বাস্তুদের পাশে দাঁড়ান!

Next: Sushanta Kar আমার অনুমান সম্রাট অশোক কিম্বা ঔরঙজেব একবার হলেও কেঁদেছিলেন যখন ভাইদের রক্তে হাত ধুয়েছিলেন! এমনি একটি লেখা পড়ে মনে হলো! অশোকের কিম্বা ঔরঙ্গজেবের উত্তরাধিকার বলে কিছু ছিল না কিন্তু! দ্বান্দ্বিকতাটি বোঝার জন্য 'দেশপ্রেমী 'নয় অন্তর্দৃষ্টি থাকা মানুষের মতো মানুষ দরকার! মানুষের হৃদয় থাকে হে, ঈশ্বর বিশ্বাসী নামের অপদার্থরা নামানুন, প্রকৃতির ক্ষমতা আর চাহিদা বোঝা মানুষেরা বুঝুন! এখনই আমি খোলসা করব না, কিন্তু সত্য এই যে ঔরঙজেবকে যারা নিষ্ঠুর বলে ভাবেন, এক রচনা পড়ে মনে হলো তাঁর সমালোচকদের হৃদয় বলে কিছু নেই! তাঁর কান্না কেউ শুনতেই পান না! কেউ কেউ শুনেছিলেন, তাঁরা তাঁকে এখনো পীর বলে সম্মান করে থাকেন! গালি পাড়বার আগে স্মরণে রাখবেন পীর প্রথা ভারতীয়, ঐশ্লামিক নয়!
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