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रवींद्र का दलित विमर्श-25 विषमता की अस्पृश्यता के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है। . ”এ দুর্ভাগা দেশ হতে হে মঙ্গলময় /দূর করে দাও তুমি সর্ব তুচ্ছ ভয়-/ লোক ভয়, রাজভয়, মৃত্যু ভয় আর/দীনপ্রাণ দুর্বলের এ পাষাণভার।'——- :: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत औ

Previous: रवींद्र का दलित विमर्श-24 भारत के दलित विमर्श में रवींद्र नाथ नहीं है और आदिवासी किसानों मेहनतकशों के हकहकूक की विरासत की लोकसंस्कृति वह जमीन नहीं है,इसीलिए भारत में मनुस्मृति नस्ली वर्चस्व के खिलाफ कोई प्रतिरोध नहीं है। भानूसिंहेर पदावली सीधे तौर पर बंगाल के बाउल फकीर बहुजन किसान आदिवासी सामंतवाद विरोधी साम्रजाय्वाद विरोधी आंदोलन को बदनाम गायपट्टी के दैवी सत्ता राजसत्ता वि�
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रवींद्र का दलित विमर्श-25

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।

."এ দুর্ভাগা দেশ হতে হে মঙ্গলময় /দূর করে দাও তুমি সর্ব তুচ্ছ ভয়-/ লোক ভয়, রাজভয়, মৃত্যু ভয় আর/দীনপ্রাণ দুর্বলের এ পাষাণভার।'——- :: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत और आज फिर उसी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से हम भारत को डिजिटल इंडिया बनाने की मुहिम में शामिल हैं।

इसके विपरीत आस्था का  लोकतंत्र इस्लामी शासन से भी पहले बौद्ध,हिंदू और जैन भक्ति आंदोलन की साझा विरासत सातवीं आठवीं सदी से बनती रही है और 14 वीं सदी के बाद सूफी संत आंदोलन के साथ पूरे देश की लोक संस्कृति में बदल गया यह आस्था का लोकतंत्र और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम की जमीन भी यह है।यही हमारी साझा विरासत है।


पलाश विश्वास

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।इसीलिए उत्पीड़ित अपमानित मनुष्यता के लिए न्याय और समानता की उनकी मांग उनकी कविताओं,गीतों,उपन्यासों और कहानियों से लेकर गीताजंलि के सूफी बाउल आध्यात्म और रक्त करबी और चंडालिका जैसी नृत्य नाटिकाओं का मुख्य स्वर है।

उनकी प्रार्थना अपने मोक्ष के लिए नहीं है यह जनगण की मुक्तिकामना हैः


ए दुर्भागा देश होते हे मंगलमय

दूर करे दाओ तुमि सब तुच्छ भय,-

लोकभय,राजभय,मृत्युभय आर

दीन प्राणेर दुर्बलेर ए पाषाणभार,

एर चिरपेषण यंत्रणा धुलितले

एई नित्य अवनति ,दण्डे पले पले

एई आत्म अवमान,अंतरे बाहिरे

एई दासत्वेर रज्जु,त्रस्त नतसिरे

सहस्रेर पदप्रांत तले बारंबार

मनुष्य मर्यादा पर्व चिर परिहार




स्वदेश जिज्ञासा के संदर्भ में रवींद्रनाथ कहते थे कि वे राजनेता नहीं है।

देश और समाज के बारे में रवींद्रनाथ की धारणाएं अपमानित मनुष्यता को देखने के बाद बनी है।वे कहते थे कि मानवीय संबंधों के सामग्रिक विकास का प्रयत्न ही उनके जीवन का चरम लक्ष्य है।

विषमता की अस्पृश्यता  के पुरोहित तंत्र के विरुद्ध समानता और न्याय की आवाज ही रवींद्र रचनाधर्मिता है।

इसीलिए देश और समाज की उनकी धारणाएं फासिज्म के राष्ट्रवाद तक सीमाबद्ध नहीं है।युद्ध के विरुद्ध विश्वशांति के लिए वे जिस फासीवादी नाजी अंध राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे,दो दो विश्वयुद्धों के विध्वंस के बाद आज भी उसी फासिस्ट नाजी अंध राष्ट्रवाद की वजह से पूरी दुनिया युद्ध और गृहयुद्ध के शिकंजे में है और आधी दुनिया शरणार्थी है।

समाज और देश की रवींद्रनाथ की धारणाएं हिंसा और घृणा के विरुद्ध देश काल की सीमायें तोड़कर सारे विश्व के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुई और उनका मनुष्य राष्ट्रीयता की सरहदों की कैद तोड़कर गीतांजलि का विश्व मानव बन गया।

रवींद्र नाथ ने लिखा हैः

विश्वसाथे योगे जेथाय विहार

सेईखाने योग तोमार साथे आमारो

यही रवींद्र दर्शन का मूल तत्व है।

प्रशांत चंद्र महलानबिश ने रवींद्र नाथ ओ विश्वमानवताबोध निबंध इसी दृष्टिकोण से लिखा है।

प्रशांत चंद्र महलानबिश ने लिखा हैः भारत के ह्रदयगत इस भाव की अभिव्यक्ति के लिए रवींद्रनाथ ने बांग्लाभाषा में एक नया शब्द का प्रयोग किया-विश्वमानव..विश्वमानव मनुष्यों के सभी आदर्शों का आधार है।उनके मुताबिक रवींद्रनाथ के लिखे भारत वर्ष में रवींद्र की राष्ट्र और स्वदेशी समाज के स्वदेश की अवधारणाएं मिलती हैं।पाश्चात्य नेशन या राष्ट्र के विरुद्ध हैं रवींद्रनाथ क्योंकि पश्चिम का राष्ट्र निजी हितों को साधने का साधन है।

रवींद्रनाथ के मुताबिक रिनेशां और एनलाइटेनमेंट के जरिये विज्ञान और तकनीक की मदद से पूंजीवाद का जितना व्यापक विस्तार होता गया,उसने राष्ट्र  व्यवस्था का निजी हितों को साधन के लिए उतना ही इस्तेमाल किया है।

आज के कारपोरेट राष्ट्र और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का सच भी यही है।

इसीलिए पूंजीवाद के निजी हितों के लिए इस्तेमाल होने वाले राष्ट्र भारत को बनाने के सिरे से लगातार विरोध जीवन के अंत तक रवींद्रनाथ विषमता की व्यवस्था के प्रतिरोध बतौर करते रहे।

नेशनल शब्द पर रवींद्रनाथ को तीखी आपत्ति थी।

नवबंगेर आंदोलन शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखाःएकदिन तड़के जागकर अचानक चारों तरफ देखा नेशनल पेपर,नेशनल मेला,नेशनल संग,नेशनल थिएटर-नेशनल की आंधी से ग्रसित दसों दिशाएं।औपनिवेशिक शासन के अधीन उधार की यह राष्ट्रीयता हमारी अपनी समाज व्यवस्था से मेल नहीं खाती।

हमारी अपनी समाज व्यवस्था के बारे में उनकी समझ लोक संस्कृति के लोकतंत्र से बनी थी,जिसके तहत आस्था का लोकतंत्र धर्म आधारित राष्ट्रवाद को सिरे से खारिज करता है। इसी धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर देश का विभाजन हो गया धार्मिक पहचान की दो राष्ट्रीयताओं के सिद्धांत के तहत और आज फिर उसी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से हम भारत को डिजिटल इंडिया बनाने की मुहिम में शामिल हैं।

इसके विपरीत आस्था का  लोकतंत्र इस्लामी शासन से भी पहले बौद्ध,हिंदू और जैन भक्ति आंदोलन की साझा विरासत सातवीं आठवीं सदी से बनती रही है और 14 वीं सदी के बाद सूफी संत आंदोलन के साथ पूरे देश की लोक संस्कृति में बदल गया यह आस्था का लोकतंत्र और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम की जमीन भी यह है।यही हमारी साझा विरासत है।

सोशल मीडिया पर रवींद्र विमर्श पर भी अंकुश लग रहा है और लिंक,संदर्भ सामग्री शेयर करने में तकनीकी दिक्कतें हो रही हैं।बंगाल में महिषासुर वध उत्सव का जलवा है और अखबार,मीडिया,घर परिवार सबकुछ बाजार में तब्दील है।

आस्था का क्रयशक्ति से क्या संबंध है,यह समझ लें तो आस्था की अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों समझी जा सकती है।

दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन चोल और पल्लव राजाओं ने विशाल और भव्य मंदिर बनाकर दैवीसत्ता को राजसत्ता में निष्णात करने के लिए किया था। जबकि बौद्ध और जैन धर्म के असर में यह भक्ति आंदोलन मनुस्मृति के विरुद्ध और सामंती व्यवस्था के साथ साथ राजसत्ता और दैवीसत्ता के खिलाफ आंदोलन में तब्दील हो गया।

आम जनता की आस्था में लोकतंत्र की संस्कृति की वजह से ही भारत में विविध बहुल  पस्परविरोधी संस्कृतियों का भी एकीकरण संभव हो सका है।इसीसे सामाजिक तानाबाना जनपदों की इसी लोकसंस्कृति से रचा है जिसे आस्था महोत्सव के विविध आयोजनों के मुक्तबाजार की उपभोक्ता संस्कृति ने सिरे से तहस नहस कर दिया है।

इसी अनेकता में एकता की लोकसंस्कृति ने भारतीय जनता के मुक्तिसंग्राम को दिशा दिखायी है और इसीसे भौगोलिक एकता और अखंडता का विकास हुआ है।

धर्मोन्माद में न आस्था है और न धर्म।

यह नस्ली वर्चस्व का अश्लील नंगा कार्निवाल है जिसमें मनुष्य महज उपभोक्ता है,जिसका भक्ति और आस्था से कोई लेना देना नहीं है ।

आस्था का महोत्सव मुक्त बाजार में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का नस्ली वर्चस्व है  तो यह राजनीति,सत्ता और राष्ट्र के संरक्षण में यह क्रयशक्ति के अश्लील प्रदर्शन की प्रतियोगिता और देशी विदेशी कंपनियों की अबाध मुनाफावसूली है।

यह धर्म की राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों है जो भारतीय दर्शन, आध्यात्म, इतिहास और परंपरा के खिलाफ है तो यह विज्ञान के भी खिलाफ है।

तमिलनाडु,दक्कन और आंध्र तेलंगना में सातवीं आठवीं सदी से आस्था के राजकीय इस्तेमाल के विरुद्ध आंदोलन शुरु हुआ जो 14 वीं और 16 वीं सदी के दौरान पूरे भारत में समता और न्याय का आंदोलन बन गया।

तमिल भाषा में पांच हजार साल का अखंड इतिहास है,जिसमें उत्तर भारत के अंधकार युग में भी दैवीसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ आस्था के लोकतंत्र की निरंतराता के ब्यौरे सिलसिलेवार हैं। मसलनः


The collection and the canonisation of the Śaiva and the Vaiṣṇava bhakti poetry in the 10th century led to the spread of bhakti as a mass movement. Cuntarar's (between 780–830 CE) work, Ārūr Tiruttoṇṭattokai, originated the Śaiva canon. In his poem, Cuntarar mentioned 62 nāyaṉmārs (saints of Tamil Śaivism). He was added as the Cuntaramūrtttināyaṉar, and a total of 63 nāyaṉmārs decorated as the saints of Śaivism. Nampi Āṇṭār Nampi (1080–100 CE) arranged and anthologised the hymns of Campantar, Appar, and Cuntarar as the first seven holy books and added Māṇikkavācakar's Tirukkōvaiyār and Tiruvācakam as the eighth book. Tirumūlar's Tirumantiram, 40 hymns by two other poets, Tiruttoṇdar tiruvantāti and Nampi's hymns constitute the ninth to eleventh books of the Śaivite canon respectively. Cēkkiḷār's Periya Purāṇaṃ (1135 CE) became the twelfth Tirumuṛai and completed the Tamil Śaivite bhakti canonical literature. This body of works represents a huge corpus of heterogeneous literature covering nearly 600 years of religious, literary and philosophical developments. Kāraikkāl Ammaiyār's songs (500 CE) and the compositions of the Pallava King Aiyaṭikal Kāṭavar Kōn (670–700 CE) were the earliest in the Śaivite canon and Cēkkiḷār's Periyapurāṇam (early 12th century) would be the latest.

Nātamuṉi (10th century), who is considered to be in the line of the very first Vaiṣṇavite ācāryas (teachers), compiled the Vaiṣṇavite bhakti poetry into a huge compendium called Nālāyirativyaprapantam, 'The Four Thousand Divine Works'. The earliest of Vaiṣṇavite poet-saints, Poykaiāḷvār, Pūtatāḷvār and Pēyāḷvār, belong to 650 to 700 CE. The Vaiṣṇavite canon consists of the works of 14 poets, out of which 12 are considered as āḷvārs.

(संदर्भःhttps://www.sahapedia.org/the-dynamics-of-bhakti)

उत्तर भारत की साधु संत सूफी बाउल पीर गुरु परंपरा से जुड़कर वैष्णव आंदोलन और भागवत पुराण में आस्था के लोकतंत्र के तहत ब्रह्म समाज आंदोलन और नवजागरण से पहले औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में आस्था दैवी सत्ता और राजसत्ता के शिकंजे से निकल कर जनपदों की लोकसंस्कृति में तब्दील हो गयी थी,जो अब डिजिटल इंडिया में नस्ली नरसंहारी सत्ता वर्चस्व की विशुद्ध उपभोक्ता संस्कृति है।

उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन के तहत साधु संतों सूफी फकीर बाउलों के क्रांतिकारी विचारों की वजह से पुरोहित तंत्र और सामंतों के वर्चस्ववाले धर्मस्थलों और उत्सवों से  निकलकर सगुण निर्गुण भक्ति के तहत आम जनता को जाति धर्म निर्विशेष आस्था की स्वतंत्रता मिली और तभी से मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ शूद्रों, अछूतों, आदिवासियों, स्त्रियों का बहुजन आंदोलन शुरु हो गया।

आस्था के इस लोकतंत्र में अपनी आस्था के विपरीत आस्था के विधर्मियों के धर्म और ईश्वर का सम्मान और मनुष्यमात्र से प्रेम की परंपरा का विकास हुआ। निराकार ईश्वर और सर्वेश्वर के सिद्धांत के तहत मनुष्य मात्र को नरनारायण और सेवाधर्म के मानवतावादी धर्म का विकास भी हुआ।

इसके विपरीत धर्म अब कारपोरेट कारोबार है और रवींद्र,नजरुल,लालन फकीर,जयदेव, चैतन्य महाप्रभु,रामकृष्ण,कंगाल हरिनाथऔर स्वामी विवेकानंद के बंगाल में धर्म कर्म का कारपोरेट महोत्सव मनुस्मृति पुनरोत्थान के महोत्सव की राष्ट्रीय झांकी है।



रवींद्र का दलित विमर्श-26 राजसत्ता धर्म सत्ता में तब्दील यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ। राजसत्ता,धर्मसत्ता,राष्ट्रवाद और शरणार्थी समस्या के संदर्भ में रोहिंग्या मुसलमान और गुलामी की विरासत पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-26

राजसत्ता धर्म सत्ता में तब्दील

यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ।

राजसत्ता,धर्मसत्ता,राष्ट्रवाद और शरणार्थी समस्या के संदर्भ में रोहिंग्या मुसलमान और गुलामी की विरासत

पलाश विश्वास

कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में लाखों मुसलमानों ने रैली की और इस रैली के बाद बंगाल में रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर नये सिरे से धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण तेज हुआ है।भारत में सिर्फ मुसलमान ही म्यांमार में नरसंहार और मानवाधिकार हनन के खिलाफ मुखर है,ऐसा नहीं है।

पंजाब के गुरुद्वाराओं से सीमा पर जाकर सिख कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर इन शरणार्थियों के लिए लंगर चला रहे हैं तो भारत के गैर मुसलमान नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा भी रोहिंग्या नरसंहार के खिलाफ विश्वजनमत के साथ है।

हिंदू मुसलमान दो राष्ट्र के सिद्धांत पर भारत विभाजन और जनसंंख्या स्थानांतरण भारत में शरणार्थी समस्या का मौलिक कारण है।धर्म आधारित राष्ट्रीयता की यह विरासत भारत की नहीं है।यूरोप के धर्म युद्ध की राष्ट्रीयता है और फिलीस्तीन विवाद को लेकर यूरोप का यह धर्म युद्ध अरब मुसलमान दुनिया के खिलाफ आज भी जारी है और इसी धर्म युद्ध के रक्तबीज बनकर तमाम आतंकवादी धर्म राष्ट्रीयता के संगठन रो दुनिया को लहूलुहान कर रहे हैं।

धर्म आतंकवाद का पर्याय बन गया है।

रोहिंगा मुसलमानों की समस्या भी राजसत्ता के धर्म सत्ता में बदल जाने की कथा है जिसके तहत एक धारिमिक राष्ट्रीयता दूसरी धार्मिक राष्ट्रीयता का सफाया करने में लगी है।अखंड भारत और म्यांमार दोनों ब्रिटिश हुकूमत के उपनिवेश रहे हैं तो यह धर्म युद्ध भी उसी औपनिवेशिक गुलामी की विरासत है,जो भारत के 1947 में और म्यांमार के 1948 में आजाद होने के बावजूद लगातार मजबूत होती जा रही है।

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर हैं।ऐसे जो रोहिंगा शरणार्थी भारत में हैं,म्यांमार से भारत के संबंध सुधरते जाने के बाद उन्हें अब भारत में रहने की इजाजत नहीं है और उन्हें खदेड़ने की तैयारी है।जबकि रोहिंगा मुसलमानों की राष्ट्रीयता की लड़ाई म्यांमार की आजादी से पहले से जारी है।अचानक म्यांमार में यह गृहयुद्ध शुरु नहीं हुआ है।बदला है तो भरतीय राजनय का दृष्टिकोण बदला है जो सीधे तौर पर म्यांमार की सैन्य सत्ता के साथ है।

फिलीस्तीन पर कब्जा का धर्म युद्ध भी इसके पीछे है क्योंकि रोहिंग्या मुसलमानों के सफाया कार्यक्रम में इजराइल का भी सक्रिय समर्थन है।

अश्वेतों,लातिन मेक्सिकान मूल के लोगों और भारतीयों के साथ मुसलमानों के खिलाफ श्वेत आतंकवादी नस्ली अमेरिकी राष्ट्रवाद और इजराइल के जायनी आतंकवाद से नाभिनाल संबंध है भारत में धर्मसत्ता की और बतौर राष्ट्र भारत अमेरिका और इजराइल का समर्थक है तो रोहिंगाविरोधी धर्मोन्मादी धूर्वीकरण का रसायनशास्त्र समझना उतना मुश्किल भी नहीं है।

गौरतलब है कि 1937 से पहले ब्रिटिश ने अंग्रेजों ने बर्मा को भारत का राज्य घोषित किया था लेकिन फिर अंगरेज सरकार ने बर्मा को भारत से अलग करके उसे ब्रिटिश क्राउन कालोनी (उपनिवेश) बना दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने बर्मा के जापानियों द्वारा प्रशिक्षित बर्मा आजाद फौज के साथ मिल कर हमला किया। बर्मा पर जापान का कब्जा हो गया। बर्मा में सुभाषचंद्र बोस के आजाद हिन्द फौज की वहां मौजूदगी का प्रभाव पड़ा। 1945 में आंग सन की एंटीफासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग की मदद से ब्रिटेन ने बर्मा को जापान के कब्जे से मुक्त किया लेकिन 1947 में आंग सन और उनके 6 सदस्यीय अंतरिम सरकार को राजनीतिक विरोधियों ने आजादी से 6 महीने पहले उन की हत्या कर दी। आज आंग सन म्यांमार के 'राष्ट्रपिता' कहलाते हैं। आंग सन की सहयोगी यू नू की अगुआई में 4 जनवरी, 1948 में बर्मा को ब्रिटिश राज से आजादी मिली ।

जिस नस्ली राष्ट्रवाद के राष्ट्रीयता सिद्धांत के तहत भारत का विभाजन हुआ, उसी के तहत सत्ता समीकरण के मुताबिक रोहिंगा मुसलमानों के सवाल पर देश भर में मुसलमानों के खिलाफ नस्ली घृणा अभियान  की राजनीति और राजनय के तहत यह धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण है जो ब्रिटिश हुक्मरान की गुलामी की विरासत है।

गुलामवंश के शासन का पुनरूत्थान है यह।

भारत में राजसत्ता इसी नस्ली  वर्चस्व के राष्ट्रवाद के कारण धर्मसत्ता में तब्दील है और यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ बनने लगा है,जिसकी आशंका रवींदरनाथ को थी।नेशन की इस नस्ली वर्चस्व की भावना पर प्राचीनता आरोपित करने का कार्यभार जर्मन रोमानी राष्ट्रवाद के हाथों पूरा हुआ।

गौरतलब है कि मुसोलिनी का नाजी राष्ट्रवाद भी धर्मसत्ता को मजबूत करने के हक में था तो अमेरिकी लोकतंत्र में भी उसी नस्ली धर्म सत्ता का बोलबाला है और नवनिर्वाचित अमेरिका राष्ट्रपति को कार्यभार संभालने से पहले गिरजाघर जाकर अपनी निष्ठा समर्पित करनी पड़ती है।

मजे की बात यह है कि ये रोहिंगा मुसलमान मूलतः अखंड बंगाल के चटगांव से भारत में ब्रिटिश हुकूमत के मातहत अंग्रेजों के प्रोत्साहन से ही म्यांमार के अराकान प्रदेश में बड़ी संख्या में उसी तरह जा बसे थे जैसे म्यांमार के रंगून और दूसरे प्रांतों के साथ सिंगापुर में भी बड़ी संख्या में भारत के दूसरे प्रांतों से लोग आजीविका और रोजगार के लिए जाकर बसे थे।अराकान में वैसे बंगाली मध्ययुग से बसते रहे हैं और वहां दुनिया के दूसरे हिस्सों से मुसलमान जाते रहे हैं लेकिन उनकी जनसंख्या में सबसे ज्यादा बंगाली मूल के लोग हैं।

यह शरणार्थी समस्या द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1948 में कुछ रोहिंग्या मुसलमानों के अराकान को एक मुस्लिम देश बनाने के लिए सशस्त्र संघर्ष आरंभ कर देने से लगातार चली आ रही है। वर्ष 1962 में जनरल नी विंग की सैन्य क्रांति तक यह आंदोलन बहुत सक्रिय था।

जनरल नी विंग की सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सैन्य कार्यवाही की जिसके कारण कई लाख मुसलमानों ने वर्तमान बांग्लादेश में शरण ली। उनमें से बहुत से लोगों ने बाद में कराची का रूख़ किया और उन लोगों ने पाकिस्तान की नागरिकता लेकर पाकिस्तान को अपना देश मान लिया।

मलेशिया में भी पच्चीस से तीस हज़ार रोहिंग्या मुसलमान आबाद हैं।

बर्मा के लोगों ने लंबे संघर्ष के बाद तानाशाह से मुक्ति प्राप्त कर ली है और देश में लोकतंत्र की बेल पड़ गयी है। वर्ष 2012 के चुनाव में लोकतंत्र की सबसे बड़ी समर्थक आन सांग सू की की पार्टी की सफलता के बावजूद रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिक के दरवाज़े बंद हैं और उन पर निरंतर अत्याचार जारी है जो लोकतंत्र के बारे में सू के बयानों में भारी विरोधाभास है। इसी वजह से उनसे नोबेल पुरस्कार वापस करने की मांग भी की जा रही है।

बांग्लादेश के युद्ध के दौरान करीब नब्वे लाख शरणार्थी भारत आये थे और उनमें बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे। सत्तर के दशक के उन शरणार्थियों के मुकाबले बांग्लादेश में सबसे ज्यादा करीब पांच लाख रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी हैे तो भारतभर में इनकी संख्या तिब्बत से आये बौद्ध और श्रीलंका से आने वाले तमिल शरणार्थियों की तुलना में कम हैं।

बांग्लादेश के लिए रोहिंग्या शरणार्थी उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी समस्या जरुर हैं लेकिन भारत विभाजन के बाद सीमापार से लगातार आ रहे शरणार्थियों की समस्या से जूझने वाले भारत के लिए रोहिंग्या शरणार्थी संख्या के हिसाब से उतनी बड़ी समस्या है नहीं।उनकी नस्ल की वजह से यह समस्या बड़ी समस्या जरुर बन गयी  है।

क्योंकि रोहिंगा शरणार्थियों को उऩकी राष्ट्रीयता आंदोलन की वजह से आतंकवाद और भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा बता रही है भारत की हिंदुत्ववादी सरकार और इन शरणार्थियों को खदेड़ने का ऐलान किया जा चुका है।

भारतीय राजनय भी इस मामले में म्यांमार में रोहिंगा मुसलमानों के नरसंहार और मानवाधिकार हनन के मुद्दे को सिरे से नजरअंदाज करते हुए म्यांमार की सैनिक  जुंटा सरकार का साथ देने की नीति पर चल रही है।

जैसे भारत में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का हिंदू धर्म से कुछ लेना देना नहीं है उसी तरह रोहिंगा मुसलमानों के खिलाफ सैन्य जुंटा सरकार के धर्मोन्मादी राजकाज की इस नरसंहारी संस्कृति से बौद्धधर्म का कुछ लेना देना नहीं है और न ही यह बौद्ध और इस्लाम धर्म के अनुयायियों के बीच कोई फिलीस्तीन युद्ध है।

फिलीस्तीन के धर्मयुद्ध के वारिशान जो बाकी दुनिया के खिलाफ धर्मयुद्ध जारी रखे हुए हैं ,यह उनका ही धर्मयुद्ध है।ऐसा समझ सकें तो रोहिंगा पहेली बूझ सकेंगे।

भारत में ऐसे धर्मयुद्ध का कोई इतिहास नहीं है,इसे पहले समझना जरुरी है।

क्योंकि भारत में धर्म मनुष्यता के लिए हमेशा मुक्तिमार्ग रहा है।धर्म को नस्ली वर्चस्व का माध्यम अब पश्चिम के अनुकरण में बनाया जा रहा है।

क्योंकि भारत में यूरोप की तरह धर्म की सत्ता नहीं रही है।धर्म को लेकर सारे विवाद अब धर्म की सत्ता कायम करने के कारपोरेट एजंडे से हो रहे हैं।

भारत में ब्राह्मण धर्म और वैदिकी सभ्यता की वर्ण व्यवस्था के खिलाफ खिलाफ समानता और न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के लिए विश्व में पहली रक्तहीन क्रांति का नेतृत्व महात्मा गौतम बुद्ध ने किया तो प्रतिक्रांति के तहत पुष्यमित्र शुंग ने मनुस्मृति अनुशासन लागू करते हुए वर्ण व्यवस्था को पहले से मजबूत करने के लिए भारतीय समाज को जाति व्यवस्था के तहत हजारों टुकड़ों में बांट डाला।फिरभी बौद्धमय भारत की विरासत खत्म नहीं हुई और आर्यावर्त के भूगोल से बाहर बंगाल में ग्यारहवीं शताब्दी तक बौद्धकाल जारी रहा तो दक्षिण भारत में राजसत्ता और दैवीसत्ता को एकाकार करते हुए भव्य मंदिरों में केंद्रित चोल और पल्लव राजाओं के भक्ति आंदोलन को बौद्ध श्रमणों और जैन धर्म के अनुयायियों ने मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ बहुजन आंदोलन में तब्दील कर दिया।

बंगाल,बिहार और ओडीशा में भी बड़े पैमाने पर जैन धर्म का प्रभाव रहा है।

इस्लामी शासन के अंतर्गत उत्तर भारत में सूफी संत आंदोलन ने मनुस्मृति विरोधी सामंतवाद विरोधी दैवीसत्ता विरोधी और राजसत्ता विरोधी बहुजन आंदोलन को समूचे भारत में धर्म जाति नस्ल की विविध बहुल विभिन्न संस्कृतियों के विलय की प्रक्रिया में बदल दिया जौ ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत के दौरान औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ जाति तोड़ो आंदोलन में तब्दील हो गयी।

आजादी के बाद वह जाति तोड़ो आंदोलन जाति मजबूत करो आंदोलन में बदल गया तो बहुजन आंदोलन का भी पटाक्षेप हो गया और जाति आधारित मनुसमृति व्यवस्था की बहाली के लिए धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी है और यही सुनामी म्यांमार में शुरु से चल रही है।जिसके शिकार रोहिंगा मुसलमान हैं।

इसके विपरीत भारतीय इतिहास की प्रवाहमान धारा आर्य अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण सभ्यताओं के एकीकरण के हजारों साल की भारतीय सभ्यता और संस्कृति है, जिसमें पठान और मुगल शासन काल में इस्लाम के सिद्धांतों का समावेश भी होता रहा जिसके तहत भारतीय जनमानस पर सूफी संत फकीर बाउल आंदोलन का इतना घना असर रहा है।इस इतिहास को बदलने के लिए धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी है।

रवींद्रनाथ शासकों के इतिहास के बदले भारतीय जन गण की इस सभ्यता और संस्कृति में देश और समाज को देखते थे।इसीलिए पश्चिम के पूंजीवादी साम्राज्यवादी और फासिस्ट नाजी राष्ट्रों के राष्ट्रवाद का विरोध करते थे और हम इसके बारे में मनुष्यता के धर्म और सभ्यता के संकट के संदर्भ में उऩके विचारों की चर्चा पहले ही कर चुके हैं।रवींद्रनाथ मानते थे कि पश्चिम का राष्ट्रवाद पूंजीवाद के निजी हितों को साधने का नस्ली राष्ट्रवाद है और भारत में विषमता की सामाजिक समस्या, असमानता, अन्याय और अस्पृश्यता की सामाजिक संरचना के लिए नस्ली वर्चस्व के इस राष्ट्रवाद का वे विरोध लगातार करते रहे।

अपने अंतिम निबंध में सभ्यता के संंकट  में भारत के भविष्य को लेकर वे इसीलिए चिंतित थे कि ब्रिटिश हुकूमत नस्ली राष्ट्रवादियों की सांप्रदायिक राजनीति के तहत राष्ट्रीयता के सिद्धांत के तहत भारत के विभाजन पर आमादा थे और सत्ता हस्तातंरण के बाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की नकल के तहत भारत में नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद के दुष्परिणामों से वे भारत के भविष्य को लेकर चिंतित थे।हम इस पर चर्चा कर चुके हैं।

भारत में दैवीसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ भक्ति आंदोलन,सूफी संत आंदोलन,आदिवासी किसान विद्रोह और बाउल फकीर सन्यासी आंदोलन,चंडाल और बहुजन आंदोलनों की चर्चा हमने रवींद्र रचनाधर्मिता के तहत की है ताकि पश्चिमी राष्ट्रवाद के मुकाबले भारतीय इतिहास,सभ्यता और संस्कृति की साझा विरासत की जमीन पर रवींद्र के दलित विमर्श की प्रासंगिकता निरंकुश नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद की नरसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध के सिलसिले में हम समझ सकें।

पश्चिम के इस राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में धर्मयुद्धों का इतिहास है तो संस्कृतियों के युद्धों की निरतंरता है।पश्चिम का यह राष्ट्रवाद नस्ली वर्चस्व का राष्ट्रवाद है जिसका विकास धर्मयुद्धों के दौरान धरमोन्मादी नस्ली वर्चस्व की दैवी सत्ता और राजसत्ता के पूंजीवादी तंत्र में बदलते जाने में हुआ जिसकी परिणति फासीवाद और साम्राज्यवाद में हुई।दक्षिण एशिया के भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास धर्मयुद्धों का इतिहास नहीं है और न यहां उस तरह के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद का इतिहास कभी रहा है।

राष्ट्रीयता के सिद्धांत के जरिये भारत विभाजन के साथ भारत में नस्ली वर्चस्व के लिए पश्चिम के पूंजीवादी राष्ट्रवाद का आयात हुआ।भारत में भी संविधान के संघीय ढांचा को तोड़ते हुए पूजीवादी कारपोरेटएजंडे के तहत  एक निरंकुश  सर्वसत्तावादी सैन्य राष्ट्र  का उदय हुआ जो सम्प्रभुता, केंद्रीकृत शासन और स्थिर भू-क्षेत्रीय सीमाओं के लक्षणों से सम्पन्न है। पश्चिम में धर्मयुद्धों के नतीजतन बने पश्चिमी राष्ट्रों की नकल के तहत दुनियाभर में आज के आधुनिक राज्य में भी यही ख़ूबियां हैं।इसीलिए पूरी दुनिया नस्ली  फासिज्म के शिकंजे में है और दुनियाभर की आधी मनुष्यता धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी आतंकवाद,पूजीवाद और साम्राज्यवाद के युद्धों गृहयुद्धों के कारण शरणार्थी है।

रोहिंग्या की पहचान को लेकर भी साफ समझ की कमी इतिहास के घालमेल की वजह से है।आखिर  रोहिंग्या शब्द कहां से निकला?

इस बारे में रोहिंग्या इतिहासकारों में मतभेद पाये जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह शब्द अरबी के शब्द रहमा अर्थात दया से लिया गया है और आठवीं शताब्दी ईसवी में जो अरब मुसलमान इस क्षेत्र में आये थे, उन्हें यह नाम दिया गया था जो बाद में स्थानीय प्रभाव के कारण रोहिग्या बन गया किन्तु दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि इसका स्रोत अफ़ग़ानिस्तान का रूहा स्थान है और उनका कहना है कि अरब मुसलमानों की पीढ़ीयां अराकान के तटवर्ती क्षेत्र में आबाद हैं जबकि रोहिग्या अफ़ग़ानिस्तान के रूहा क्षेत्र से आने वाली मुसलमान जाती है।

इसके मुक़ाबले में बर्मी इतिहासकारों का दावा है कि रोहिंग्या शब्द बीसवीं शताब्दी के मध्य अर्थात 1950 के दशक से पहले कभी प्रयोग नहीं हुआ और इसका आशय वे पूर्वी बंगाल औऱ खास तौर पर चटगांव के  बंगाली मुसलमान हैं जो अपना घर बार छोड़कर अराकान में आबाद हुए।

राष्ट्रपति थीन सेन और उनके समर्थक इस दावे को आधार बनाकर रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिक अधिकार देने से इन्कार कर रहे हैं।

उनका यह दावा गलत है।रोहिंग्या शब्द का प्रयोग अट्ठारहवीं शताब्दी में प्रयोग होने का ठोस प्रमाण मौजूद है। बर्मा में अरब मुसलमानों के घुसने और रहने पर सभी सहमत हैं। उनकी बस्तियां अराकीन के मध्यवर्ती क्षेत्रों में हैं जबकि रोहिंग्या मुसलमानों की अधिकांश आबादी बांग्लादेश के चटगांव डिविजन से मिली अराकान के सीमावर्ती क्षेत्र मायो में आबाद है।

कॉमन ईरा (सीई) के वर्ष 1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुसलमान  हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे। इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मीज में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में प्रश्रय दिया था।

अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है। इस समय के बाद अराकान के राजाओं ने खुद को मुगल शासकों की तरह समझना शुरू किया। ये लोग अपनी सेना में मुस्लिम पदवियों का उपयोग करते थे। इनके दरबार के अधिकारियों ने नाम भी मुस्लिम शासकों के दरबारों की तर्ज पर रखे गए।

वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है।

बर्मा में ब्रिटिश शासन स्थापना की तीन अवस्थाएँ हैं। सन्‌ 1826 ई. में प्रथम बर्मायुद्ध में अँग्रेजों ने आराकान तथा टेनैसरिम पर अधिकार प्राप्त किया। सन्‌ 1852 ई. में दूसरे युद्ध के फलस्वरूप वर्मा का दक्षिणी भाग इनके अधीन हो गया तथा 1886 ई. में संपूर्ण बर्मा पर इनका अधिकार हो गया और इसे ब्रिटिश भारतीय शासनांतर्गत रखा गया।

बहरहाल अराकान में बंगाली मुसलमानों के बसने के प्रथम प्रमाण पंद्रहवीं ईसवी शताब्दी के चौथे दशक से मिलते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा पर जापान के क़ब्ज़े के बाद आराकान में बौद्धमत के अनुयाई रख़ाइन और रोहिंग्या मुसलमानों के मध्य रक्तरंजित झड़पें हुईं। रख़ाइन की जनता जापानियों की सहायता कर रही थी और रोहिंग्या अंग्रेज़ों के समर्थक थे इसीलिए जापान ने भी रोहिंग्या मुसलमानों पर जम कर अत्याचार किया।

बर्मा 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुआ और वहाँ 1962 तक लोकतान्त्रिक सरकारें निर्वाचित होती रहीं। 2 मार्च, 1962 को जनरल ने विन के नेतृत्व में सेना ने तख्तापलट करते हुए सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और यह कब्ज़ा तबसे आजतक चला आ रहा है। 1988 तक वहाँ एकदलीय प्रणाली थी और सैनिक अधिकारी बारी-बारी से सत्ता-प्रमुख बनते रहे। सेना-समर्थित दल बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी के वर्चस्व को धक्का 1988 में लगा जब एक सेना अधिकारी सॉ मॉंग ने बड़े पैमाने पर चल रहे जनांदोलन के दौरान सत्ता को हथियाते हुए एक नए सैन्य परिषद् का गठन कर दिया जिसके नेतृत्व में आन्दोलन को बेरहमी से कुचला गया। अगले वर्ष इस परिषद् ने बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया।

ब्रिटिश शासन के दौरान बर्मा दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे धनी देशों में से था। विश्व का सबसे बड़ा चावल-निर्यातक होने के साथ शाल (टीक) सहित कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था। वहाँ के खदानों से टिन, चांदी, टंगस्टन, सीसा, तेल आदि प्रचुर मात्रा में निकले जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में खदानों को जापानियों के कब्ज़े में जाने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी मात्र में बमबारी कर उन्हें नष्ट कर दिया था। स्वतंत्रता के बाद दिशाहीन समाजवादी नीतियों ने जल्दी ही बर्मा की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया और सैनिक सत्ता के दमन और लूट ने बर्मा को आज दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में ला खड़ा किया है।

दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।

तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

बर्मा के शासकों और सैन्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है।

इनके मामले में म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।

उन्होंने कई बार रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की, लेकिन कभी भी सैनिक शासकों की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा सकीं। इसी तरह उन्होंने रोहिंग्या लोगों के लिए केवल दो बच्चे पैदा करने के नियम को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया, लेकिन उन्होंने इसका संसद में विरोध करने की जरूरत नहीं समझी।

रोहिंग्या लोगों के खिलाफ बौद्ध लोगों की हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस हिंसा में अब बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी आंग सान सूकी म्यांमार के लोकतंत्र के लिए संघर्ष में भारत की चुप्पी की कटु आलोचना करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की यह वैश्विक नायिका रोहिंग्या मुस्लिमों के बारे में कभी एक बात भी नहीं कहती हैं। और अगर कहती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं और कोई भी उन्हें देश का नागरिक बनाने की इच्छा भी नहीं रखता है।

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने म्यांमार को चेतावनी दी है कि यदि वह एक विश्वसनीय देश के रूप में देखा जाना चाहता है तो उसे देश के पश्चिमी हिस्से में रह रहे अल्पसंख्यक मुसलमानों पर बौद्धों के हमले रोकना होगा।

गौरतलब है  कि गत वर्ष बौद्ध देश म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ गुटीय हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे और करीब एक लाख 40 हजार लोग बेघर हो गए थे। कुछ लोगों का मानना है कि यह स्थिति म्यांमार के राजनीतिक सुधारों के लिए खतरा है क्योंकि इससे सुरक्षा बल फिर से नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने हाल ही में कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह जरूरी है कि वह मुस्लिम-रोहिंग्या की नागरिकता की मांग सहित अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। उन्होंने कहा कि ऐसा करने में असफल रहने पर सुधार प्रक्रिया कमजोर होगी और नकारात्मक क्षेत्रीय दुष्परिणाम ही मिलेंगे।

खुद संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि कुल आठ लाख रोहिंग्या आबादी का करीब एक चौथाई भाग विस्थापित है और उससे ज्यादा बुरा हाल अभी दुनिया की अन्य किसी भी विस्थापित कौम का नहीं है। रोहिंग्या विस्थापितों का सबसे बड़ा हिस्सा थाईलैंड और बांग्लादेश में रह रहा है, लेकिन अब भारत, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे नजदीकी देशों में भी उनके जत्थे देखे जाने लगे हैं।


यह सचाई है कि बर्मा में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच पिछले एक-दो सालों से ऐसा कट्टरपंथी प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसका शिकार वहां के सभी अल्पसंख्यकों को होना पड़ रहा है। बर्मा के फौजी शासकों ने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया है। एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरा, बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया।

राष्ट्र की उत्पति के इतिहास देखें तो यूरोप में तत्कालीन राज्य पर ऐसे राजा का शासन था जो घमण्ड से कह सकता था कि मैं ही राज्य हूँ। लेकिन, इसी सर्वसत्तावादी चरित्र के भीतर सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय समरूपता वाले 'राष्ट्र'की स्थापना की परिस्थितियाँ मौजूद थीं। सामंती वर्ग को प्रतिस्थापित करने वाला वणिक बूर्ज़्वा (जो बाद में औद्योगिक बूर्ज़्वा में बदल गया) राजाओं का अहम राजनीतिक सहयोगी बन चुका था। एक आत्मगत अनुभूति के तौर पर राष्ट्रवाद का दर्शन इसी वर्ग के अभिजनों के बीच पनपना शुरू हुआ। जल्दी ही ये अभिजन अधिक राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व के लिए बेचैन होने लगे। पूरे पश्चिमी युरोप में विधानसभाओं और संसदों में इनका बोलबाला स्थापित होने लगा। इसका नतीजा युरोपीय आधुनिकता की शुरुआत में राजशाही और संसद के बीच टकराव की घटनाओं में निकला। 1688 में इंग्लैण्ड में हुई ग्लोरियस रेवोल्यूशन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस द्वंद्व में पूँजीपति वर्ग के लिए लैटिन भाषा का शब्द 'नेशियो'महत्त्वपूर्ण बन गया। इसका मतलब था जन्म या उद्गम या मूल। इसी से 'नेशन'बना।अट्ठारहवीं सदी में जब सामंतवाद चारों तरफ़ पतनोन्मुख था और युरोप औद्योगिक क्रांति के दौर से गुज़र रहा था, पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्से राष्ट्रवाद की विचारधारा के तले एकताबद्ध हुए। उन्होंने ख़ुद को एक समरूप और घनिष्ठ एकता में बँधे राजनीतिक समुदाय के प्रतिनिधियों के तौर पर देखा।

सामंती और पूंजीवादी हित में आधुनिक पश्चिमी राष्ट्रवाद है तो यह बारत के सत्ता वर्ग का कारपोरेट एजंडा भी है।ख़ुद को नेशन कह कर यह नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व का सत्तावर्ग डिजिटल सैन्य राष्ट्र  के राजनीतिक राजनीतिक इस्तेमाल से अपने निजी और कारपोरेट हित साध सकता है। बहरहाल यूरोप में  सत्ता  वर्ग से बाहर का साधारण जनता ने राष्ट्रवाद के विचार का इस्तेमाल राजसत्ता के आततायी चरित्र के ख़िलाफ़ ख़ुद को एकजुट करने में किया। जनता को ऐसा इसलिए करना पड़ा कि पूँजीपति वर्ग के समर्थन से वंचित होती जा रही राजशाहियाँ अधिकाधिक निरंकुश और अत्याचारी होने लगी थीं। जनता बार-बार मजबूरन सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर थी जिसका नतीजा फ़्रांसीसी क्रांति जैसी युगप्रवर्तक घटनाओं में निकला। कहना न होगा कि हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जन-विद्रोहों का इतिहास बहुत पुराना था, पर अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के युरोप में यह गोलबंदी राष्ट्रवाद के झण्डे तले हो रही थी।  इनका नेतृत्व अभिजनों के हाथ में रहता था और लोकप्रिय तत्त्व घटनाक्रम में ज्वार- भाटे का काम करते थे। किसी भी स्थानीय विद्रोह का लाभ उठा कर पूँजीपति वर्ग  राजशाही के ख़िलाफ़ सम्पूर्ण राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरुआत कर देता था।


रवींद्र का दलित विमर्श-27 ताशेर देशःमनुस्मृति व्यवस्था के फासीवाद पर तीखा प्रहार नर्मदा बांध विरोधी आंदोलन के खिलाफ दैवी सत्ता का आवाहन ,हिटलर की आर्य विशुद्धता का सिद्धांत और नरहसंहार कार्यक्रम पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-27

ताशेर देशःमनुस्मृति व्यवस्था  के फासीवाद पर तीखा प्रहार

नर्मदा बांध विरोधी आंदोलन के खिलाफ दैवी सत्ता का आवाहन ,हिटलर की आर्य विशुद्धता का सिद्धांत और नरहसंहार कार्यक्रम

पलाश विश्वास

नर्मदा बांध के खिलाफ आदिवासियों और किसानों के आंदोलन का दमन का सिलसिला जारी रखते हुए आज इसे देश के नाम समर्पित करते हुए दावा किया गया कि इसके निर्माण में विदेशी कर्ज की जगह मंदिरों के धन का इस्तेमाल किया गया है।यह दावा किसान आदिवासी विरोधी नर्मदा घाटी की पूरी आबादी को डूब में शामिल करने वाले इस विध्वंसक निर्माण कार्य को धर्म और धर्म स्थल से जोड़ने का विशुद्ध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का आवाहन है जिसके तहत प्रकृति और मनुष्यविरोधी इस बड़े बांध के निर्माण का विरोध करने वालों को जनमानस में राष्ट्रद्रोही बनाया जा सके।

हमने रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या और उनके मानवाधिकार हनन को समर्थन करने के पश्चिमी धर्मयुद्ध से जनमे राष्ट्रवाद की चर्चा करते हुए राजसत्ता के दैवीसत्ता में बदल  जाने की चर्चा की है।नर्मदा बांध में इसी दैवी सत्ता का आवाहन किया जा रहा है।

रवींद्र नाथ के तासेर घर की फंतासी को रवींद्र के अंध राष्ट्रवाद के विरोध के मद्देनजर फासीवाद के विरोध के रुप में देखा जाता है।विचारधारा के तहत मनुष्यों को अनुशासित सैन्यदल या ताश के पत्तों में बदल देने की फासिस्ट राष्ट्रवाद के खिलाफ यह प्रतिरोध है।

हम मजहबी राजनीति में इस तरह जनसमुदायों को वोटबैंक राजनीति के तहत कार्ड और ट्रंप कार्ड में तब्दील होते देख रहे हैं।इस सिलसिले में हम ओबीसी ट्रंप कार्ड की चर्चा करते रहे हैं तो दलित और मुसलमान ट्रंप कार्डों का चलन शुरु से हो रहा है।

आज भी हम मजहबी सियासत और फासिज्म के राजकाज में मनुष्यों को पैदल सेनाओं में तब्दील होते हुए देख रहे हैं और कार्ड बनते जाने की नियति आज आधार कार्ड से लेकर आटोमेशन,आर्टिफिशियल टैलेंट और रोबोटिक्स का डिजिटल इंडिया का घनघोर वास्तव है जहां नागरिक और मानवाधिकार,मनुष्यता,सभ्यता और नागरिकता निषिद्ध है तो कुलीनों के सिवाय बाकी जनता वध्य है और पूरा देश एक अनंत वधस्थल है।लेकिन ताश के घर में जिस द्वीप राष्ट्र की बात की जा रही है,वहीं की रेजीमेंटेड जनगण की तरह इस नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध सन्नाटा है और जीवन यापन उसी विशुद्धता के मनुस्मृति विधान को सख्ती से मानकर चलना है।

फिरभी इसमें वर्णव्यवस्था के नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मृति व्यवस्था का जो खुल्ला विरोध रवींद्र नाथ ने किया है,उस पर कहीं चर्चा उसी तरह नहीं होती जैसे कि चंडालिका और रक्तकरबी में अस्पृश्यता के खिलाफ मनुष्यता के मुक्तिसंग्राम के बारे में कोई विमर्श नहीं है।चंडालिका में बौद्ध दर्शन की चर्चा होती है तो रक्तकरबी में स्वतंत्रत्रा संघर्ष की चर्चा होती है,लस्ली वर्चस्व की सामाजिक विषमत और इसके विरुद्ध न्याय और समानता के लिए रवींद्र नाथ की रचनाधर्मिता की नहीं।

1933 में इस नृत्यनाटिका का प्रकाशन हुआ और 1933 में ही हिटलर का जर्मनी के शासक के रुप में अभ्युत्थान हुआ लेकिन यहूदियों और कम्युनिस्टों के सफाये के घोषित लक्ष्य को लेकर हिटलर ने नाजी पार्टी की स्थापना 1923 में ही कर दी थी।प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार के लिए हिटलर ने यहूदियों को उसीतरह जिम्मेदार ठहराया,जिस तरह भारत में ब्रिटिश हुकूमत का साथ देनेवाले हिंदुत्ववादियों की भूमिका को सिरे से नजरअंदाज करके भारत विभाजन के लिए भारत में संस्थागत फासिस्ट रंगभेदी नस्ली राजनीति मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराती है।

जिस तरह अच्छे दिन के वायदे और नये खुशहाल बारत के निर्माण के वायदे से भारत में फासिज्म की सत्ता मनुस्मृति व्यवस्था नये सिरे से चलाने में कामयाब हो रही है,ठीक उसीतरह पश्चिम के धर्मयुद्ध मार्फत दैवीसत्ता बहाल करने के नाजी फासी विशुद्धता की  विचारधारा के तहत हिटलर ने जर्मनी को आर्थिक संकट से उबारकर उसका कायाकल्प के तहत युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद के तहत जर्मन जनता का समर्थन लूटकर नाजी राजकाज चलाने में कामयाब हो गये।

गौरतलब है कि  हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिकको अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओं का शुभ चिह्र है। वे अपने को विशुद्ध आर्य बताते रहे और इसीलिए भारत में फासिज्म की धर्मोन्मादी विचारधारा के झंडेवरदार शुरु से हिटलर का खुलकर समर्थन करते रहे।

यह फासिज्म हिटलर की विचारधारा के अलावा आर्य सभ्यता और विशुद्धता की उस हिंदुत्व विचारधारा का मिश्रण है,जिसका एजंडा नस्ली रंगभेद के तहत भारत में मनुस्मृति विधान और जाति व्यवस्था के तहत यहूदियों की तरह अछूतों, शूद्रों, किसानों, मेहनतकशों, आदिवासियों, अनार्यों,द्रविड़ों और गैरहिंदू नस्लों के सफाये से हिंदू साम्राज्य स्थापना करने का है।

हिटलर ने  मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्यजाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांसऔर रूससे लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए।

गौरतलब है कि हिटलर का मीन कैम्प भारत के फासिस्ट नस्ली राष्ट्रवादियों का धर्मग्रंथ है।

फासिज्म के खिलाफ निर्मम प्रहार रवींद्रनाथ शुरु से कर रहे थे और तासेर घर की पंतासी में इसी कुलीन तंत्र के वर्चस्ववाद पर उन्होने तीखा प्रहार करते हुए वर्णों की उत्पत्ति के सिद्धांत पर खुला प्रहार किया है।

हमने चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ समानता और न्याय के लिए अस्पृश्य चंडाल कन्या चंडालिका के विद्रोह और चंडाल आंदोलन की चर्चा पहले ही की है।बाउल फकीर किसान आदिवासी विद्रोह और भक्ति आंदोलन की बहुजन विरासत की भी हमने सिलसिलेवार चर्चा की है।

मनुष्यता के धर्म,राष्ट्रवाद और सभ्यता के संकट के बारे में चर्चा करते हुए नस्ली वर्चस्व की वजह से भारत में सामाजिक विषमता पर रवींद्रे के दलित विमर्श पर भी हम लगातार फोकस बनाये हुए हैं।

गौरतलब है कि 1930-32 में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाजी दल के सदस्यों की संख्या 230 हो गई। 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933 में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया, साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को स्वावलंबी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। 1934 में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। 1933 से 1938 तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली।हिटलर ने 1933 में राष्ट्रसंघको छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।

इस पूरी अवधि के दौरान भारत के न्सली राष्ट्रवादियों का हिटलर और जर्मनी के साथ नाभिनाल का संबंध रहा है।

रक्त करबी और चंडालिका में जहां किसानों और मेहनतकशों के अस्पृश्य, वंचित, अपमानित,उत्पीड़त वर्ण वर्ग की मनुष्यता की मुक्ति का महासंग्राम है,वही रवींद्रनाथ की नृत्यनाटिका ताशेर घर में सत्ता वर्ग की संरचना और सामाजिक विषमता का तानाबाना है जो मुकम्मल मनुस्मृति व्यवस्था है,उसका सामाजिक यथार्थ पर तीखे प्रहार है।

रवींद्र नाथ ने अपनी कहानी एकटि आषाढ़े गल्प को नृत्यनाटिका का रुप दिया और 1933 में इसे प्रकाशित करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र के नाम उत्सर्गित कियाः

তাসেরদেশ. উৎসর্গ কল্যাণীয় শ্রীমান সুভাষচন্দ্র, স্বদেশের চিত্তে নূতন প্রাণ সঞ্চার করবার পুণ্যব্রত তুমি গ্রহণ করেছ, সেই কথা স্মরণ ক'রে তোমার নামে 'তাসেরদেশ' নাটিকা উৎসর্গ করলুম। শান্তিনিকেতন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

गौरतलब है कि रवींद्र के अवसान के बाद आजादी के लिए भारत छोड़ने से पहले तक नेताजी सुभाषचंद्र बंगाल में हिंदुत्ववादियों के फासीवादी राष्ट्रवाद को सबसे बड़ा खतरा मानते हुए उसका लगातार प्रतिरोध करते रहे हैं।

इसका कथानक रवींद्र ने एकटि आषाढ़े गल्प में लिखा है,जिसकी शुरुआत में भारतीय समाज की प्रगतिविरोधी आदिम बर्बर संरचना का खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है जिसमें ब्रह्मा के मुख से विशुद्ध कुलीन तंत्र का जन्म बताया जाता हैः

দূর সমুদ্রের মধ্যে একটা দ্বীপ । সেখানে কেবল তাসের সাহেব , তাসের বিবি , টেক্কা এবং গোলামের বাস । দুরি তিরি হইতে নহলা-দহলা পর্যন্ত আরো অনেক-ঘর গৃহস্থ আছে, কিন্তু তাহারা উচ্চজাতীয় নহে ।

টেক্কা সাহেব গোলাম এই তিনটেই প্রধান বর্ণ, নহলা-দহলারা অন্ত্যজ- তাহাদের সহিত এক পঙ্‌ক্তিতে বসিবার যোগ্য নহে ।

কিন্তু, চমৎকার শৃঙ্খলা । কাহার কত মূল্য এবং মর্যাদা তাহা বহুকাল হইতে স্থির হইয়া গেছে , তাহার রেখামাত্র ইতস্তত হইবার জো নাই । সকলেই যথানির্দিষ্ট মতে আপন আপন কাজ করিয়া যায়। বংশাবলিক্রমে কেবল পূর্ববর্তীদিগের উপর দাগা বুলাইয়া চলা ।

সে যে কী কাজ তাহা বিদেশীর পক্ষে বোঝা শক্ত । হঠাৎ খেলা বলিয়া ভ্রম হয় । কেবল নিয়মে চলাফেরা , নিয়মে যাওয়া-আসা , নিয়মে ওঠাপড়া । অদৃশ্য হস্তে তাহাদিগকে চালনা করিতেছে এবং তাহারা চলিতেছে ।

তাহাদের মুখে কোনো ভাবের পরিবর্তন নাই । চিরকাল একমাত্র ভাব ছাপ মারা রহিয়াছে । যেন ফ্যাল্‌-ফ্যাল্‌ ছবির মতো । মান্ধাতার আমল হইতে মাথার টুপি অবধি পায়ের জুতা পর্যন্ত অবিকল সমভাবে রহিয়াছে ।

কখনো কাহাকেও চিন্তা করিতে হয় না , বিবেচনা করিতে হয় না ; সকলেই মৌন নির্জীবভাবে নিঃশব্দে পদচারণা করিয়া বেড়ায় ; পতনের সময় নিঃশব্দে পড়িয়া যায় এবং অবিচলিত মুখশ্রী লইয়া চিৎ হইয়া আকাশের দিকে তাকাইয়া থাকে ।

কাহারো কোনো আশা নাই , অভিলাষ নাই , ভয় নাই, নূতন পথে চলিবার চেষ্টা নাই , হাসি নাই , কান্না নাই , সন্দেহ নাই , দ্বিধা নাই । খাঁচার মধ্যে যেমন পাখি ঝট্‌পট্‌ করে , এই চিত্রিতবৎ মূর্তিগুলির অন্তরে সেরূপ কোনো-একটা জীবন্ত প্রাণীর অশান্ত আক্ষেপের লক্ষণ দেখা যায় না ।

অথচ এককালে এই খাঁচাগুলির মধ্যে জীবের বসতি ছিল — তখন খাঁচা দুলিত এবং ভিতর হইতে পাখার শব্দ এবং গান শোনা যাইত । গভীর অরণ্য এবং বিস্তৃত আকাশের কথা মনে পড়িত । এখন কেবল পিঞ্জরের সংকীর্ণতা এবং সুশৃঙ্খল শ্রেণী-বিন্যস্ত লৌহশলাকাগুলাই অনুভব করা যায়— পাখি উড়িয়াছে কি মরিয়াছে কি জীবন্মৃত হইয়া আছে , তাহা কে বলিতে পারে ।

আশ্চর্য স্তব্ধতা এবং শান্তি । পরিপূর্ণ স্বস্তি এবং সন্তোষ । পথে ঘাটে গৃহে সকলই সুসংহত , সুবিহিত — শব্দ নাই , দ্বন্দ্ব নাই , উৎসাহ নাই , আগ্রহ নাই — কেবল নিত্য-নৈমিত্তিক ক্ষুদ্র কাজ এবং ক্ষুদ্র বিশ্রাম ।

সমুদ্র অবিশ্রাম একতানশব্দপূর্বক তটের উপর সহস্র ফেনশুভ্র কোমল করতলের আঘাত করিয়া সমস্ত দ্বীপকে নিদ্রাবেশে আচ্ছন্ন করিয়া রাখিয়াছে — পক্ষীমাতার দুই প্রসারিত নীলপক্ষের মতো আকাশ দিগ্‌দিগন্তের শান্তিরক্ষা করিতেছে । অতিদূর পরপারে গাঢ় নীল রেখার মতো বিদেশের আভাস দেখা যায় — সেখান হইতে রাগদ্বেষের দ্বন্দ্বকোলাহল সমুদ্র পার হইয়া আসিতে পারে না ।

नृत्य नाटिका में कुलीन तंत्र के सत्ता वर्म वर्ग की उत्पत्ति के बारे में  साफ तौर पर कहा गया हैः

সদাগর। তোমাদের উৎপত্তি কোথা থেকে।

ছক্কা। ব্রহ্মা হয়রান হয়ে পড়লেন সৃষ্টির কাজে। তখন বিকেল বেলাটায় প্রথম যে হাই তুললেন, পবিত্র সেই হাই থেকে আমাদের উদ্‌ভব।

পঞ্জা। এই কারণে কোনো কোনো ম্লেচ্ছভাষায় আমাদের তাসবংশীয় না বলে হাইবংশীয় বলে।

সদাগর। আশ্চর্য।

ছক্কা। শুভ গোধূলিলগ্নে পিতামহ চার মুখে একসঙ্গে তুললেন চার হাই।

সদাগর। বাস্‌ রে। ফল হল কী।

ছক্কা। বেরিয়ে পড়ল ফস্‌ ফস্‌ করে ইস্কাবন, রুইতন, হরতন, চিঁড়েতন। এঁরা সকলেই প্রণম্য। (প্রণাম)

রাজপুত্র। সকলেই কুলীন?

ছক্কা। কুলীন বৈকি। মুখ্য কুলীন। মুখ থেকে উৎপত্তি।

भारत का प्राचीन नाम जम्बू द्वीप है और ताशों का यह देश भी समुद्र से घिरा एक द्वीप है जहां कुलीन वर्ण वर्ग की सत्ता है।साहब बीवी गुलाम और इक्का का सत्तावर्ग और कुलीन तंत्र है और अश्पृश्य अंत्यजों का व्रात्य बहुजन समाज नहला दहला वगैरह वगैरह है।जहां मनुस्मृति विधान के कठोर अनुशासन में जीवन बंधा है।वहां विचारों,सपनों,आशा,आकांक्षा या अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं है।जीवन में अचलावस्था है और समामाजिक परिवर्तन की कोई स्थिति नहीं है।

आज ही नर्मदा बांध देश को समर्पित कर दिया गया है।जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक और मानवाधिकार से किसानों और मेहनतकशों की अनंत बेदखली में यह देश डिजिटल इंडिया वही ताशों का देश है,जहां राजनीति मुखर है और सामाजिक शक्तियां मौन है और आम जनता का सफाया का अटूट मनुस्मृति तंत्र वर्ण वर्ग वर्चस्व का सैन्य राष्ट्र है।

आज हम सिलसिलेवार इस पर चर्चा करेंगे।इससे पहले ताशेर देश नृत्यनाटिका का मूल पाठ हमने अपने फेसबुक पेज पर शेयर कर दिया है।बाकी संदर्भ सामग्री भी वहीं शेयर कर रहे हैं।तकनीकी कारणों से हम इसे समूहों में शेयर नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि रवींद्र दलित विमर्श सत्ता वर्ग के लिए निषिद्ध विषय है।

बांग्लादेशी अखबार डेली स्टार में इस नाटक के एक हालिया मंचन पर  समीक्षक करीम वहीद का यह आलेख जरुर पढ़ लेंः

Life Lessons from a Deck of Cards

Tagore's "Tasher Desh" in a new light

Karim Waheed

The production was a smash hit with the audience. It offered Tagore's work in a package that reached out to a wider group of people. Photo: Mumit M.

Rabindranath Tagore wrote "Tasher Desh" (Land of Cards) 78 years ago, in the context of British India. This dance-drama is a satire on the rigidity of class systems, both Indian and British, employing the dramatic and comedic device of a land of cards where a population is trapped in countless, inane rituals. But has this satire/fantasy managed to retain its pertinence after almost eight decades?

As part of its 'Rediscovering Tagore' festival, celebrating the 150th birth anniversary of the Nobel laureate poet, British Council presented "Tasher Desh" at National Theatre Hall, Bangladesh Shilpakala Academy in Dhaka on April 22. The Daily Star is the communication partner of the festival.

Of all the components of the festival, this was hands down the most ambitious project undertaken by British Council. This was way more than a dance-drama, it was a 'dance-opera', a magnum opus if you will, executed by Shadhona (A Centre for Advancement of South Asian Culture), and presented a fusion of diverse dance forms -- Manipuri (one of the classical Indian forms), Chhau (indigenous to Bengal) and Western Contemporary. Directed by accomplished Bangladeshi dancer Warda Rihab, the production was jointly choreographed by Rihab and Rachel Krische (known for her expertise in contemporary dance) from UK. Biren Kalindi and Jagannath Chowdhury (from Purulia, India) choreographed the Chhau movements.

Shadhona experimented with the music as well. Under the direction of famed new age percussionist Tanmoy Bose, the vocal cast included traditionally trained Rabindra Sangeet singers like Nandita Yasmin, Lopamudra Mitra and contemporary/indie vocalists, Shayan Chowdhury Arnob, Anusheh Anadil and Rupankar Bagchi.

After a brief speech by Information and Cultural Affairs Minister Abul Kalam Azad, the curtains went up. Before the actual play rolled out, choreographers Rihab and Krische, surrounded by dancers, presented a jugalbandi of contemporary and Manipuri to the song "Khoro Bayu Boi Begey". I was impressed but keener on seeing the two forms mesh during the play.

The Plot: Tired of the monotonous palace life, a prince wants to set out on a voyage. He is accompanied by his mate/sidekick, a merchant. They encounter a tempest. After a shipwreck, the duo find themselves in a land where seemingly ridiculous rules and disciplines reign supreme. Abidance to strict rules in daily lives has taken away basic human qualities like emotions. There is no place for the desires of the heart. Life in this country is literally like a game of cards -- all rules -- and nothing is spontaneous. The denizens, aptly, resemble cards.

The arrival of the two foreigners who advocate free will cause an upheaval and soul searching in this land of cards, and gradually one after another, the cards shed their lifeless, zombie-like identities -- appearing very human.

Wow Factors: The masked Chhau dancers from Purulia. From the moment they appeared on the stage, these dancers had the audience in their puppet-like grips. They were brilliant, magical, and impossible to look away from. In fact, all the dancers went above and beyond to make this production a rousing success. Music direction by Tanmoy Bose offered fresh, new sounds to the ever-familiar Tagore songs. Veteran dancers Laila Hasan (as the Queen Mother) and Lubna Marium (Queen of the Cards) added depth to this innovative production. Nandita Yasmin's impassioned rendition embodied everything Tagore said and left unsaid. Costumes by Neelay (Odissi Vision & Movement Centre - Kolkata), Shalonkara, Shama razzled and dazzled.

What Didn't Quite Work: As a hardcore admirer of Anusheh Anadil's vocal prowess, I didn't find myself drawn to her rendition of "Gharetey Bhromor Elo Gunguniye". Anusheh's bold, throaty vocals didn't do justice to the song that called for romance and playfulness. But the singer did make up for that with her rendition of "Bijaymala Eno Amar Lagi". Warda Rihab's strong suit, her years of Manipuri training, seemed to have become her limitation when executing the contemporary moves. The problem is contemporary dance involves a lot of improvisation, and often short bursts of energetic movements like lifts, that go against the principle of traditional Manipuri dance that embodies delicate and graceful movements. Manipuri dance avoids sudden movements, sharp edges or straight lines. Mastering contemporary dance and seamlessly mingling it with Manipuri in just three weeks is a Herculean task, considering professional contemporary training usually takes three/four years.

On the whole, however, the production was a smash hit with the audience. It offered Tagore's work in a package that reached out to a wider group of people -- the cheering full-house was evidence to that. Through this, British Council has successfully rediscovered Tagore and as many discerning music/dance enthusiasts suggested, this production should be staged again, aired on TV and recording of it should be released in DVD format. A music album featuring the songs should be made available as well.

Now going back to the question regarding relevance of this dance-drama (presented in the intro) to modern times: Unless we manage to turn this world into a utopia, the bard's message remains absolutely pertinent.

Racist fascism would ban Ashoka Chakra soner or later as it does not represent Vedic History or religion! Bengal celebrates Mahishasur Utsav at large level and RSS opposes as it has been trying to brand JNU anti national for Adivasi Bahujan narrative of the destruction of Non Aryan aborigine civilization in India! Anti Adivasi Anti Dalit Anti OBC patriarchal Manusmriti hegemony of blind racist nationalism would soon launch campaign against everything which is not vedic.It is dark digital age of blue whales Killing the idea of India. Palash Biswas

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Racist fascism would ban Ashoka Chakra soner or later as it does not represent Vedic History or religion!

Bengal celebrates Mahishasur Utsav at large level and RSS opposes as it has been trying to brand JNU anti national for Adivasi Bahujan narrative of the destruction of Non Aryan aborigine civilization in India!

Anti Adivasi Anti Dalit Anti OBC patriarchal Manusmriti hegemony of blind racist nationalism would soon launch campaign against everything which is not vedic.It is dark digital age of blue whales Killing the idea of India.

Palash Biswas

No automatic alt text available.

Bengali dail Ei Samay has reported on front page today about Mahishasur Utsav celebrated by Indian aborigine Adivasi people and Dalit Bahujan Amebdkarite people.

In Bengal the celbration this year is much organized thanks to Dalit Solidarit Network and Mulnivasi samiti and the people and activists like Saradindu Uddipan,Pijus Pijush Kanti Gayen,David Das,Charan Besra supported by trible people in Bihar,Jharkhand,Orissa and Bengal.

Mass celebration of Mahishasur Utasav by Bahujan Peasantry of Adivasi Peasant Dalit OBC and Muslim communities in Bengal has been noticed by mainstream media.

However,the caste Hindu intelligentsia in Bengal led by Vedic specialists like Nrisingh Bhaduri is dismissed as the Adivasi and Dalit narrative of Asur Anarya civilization destroyed by Aryans with Mythical Durga is not endorsed by Vedic literature.

Anthropologist Pashupati Mahato argues that the Aborigine Adivasi Dalit Bahujan narrative of their plight and their suordination to Arya Brahaminical hegemonial Manusmriti rule should not be included in Vedic literature and it has nothing to do with the credential of such narrative.

Dalit solidarty Network cordinater Saradindu Uddipan has clarified that Mahishasur Utsav has nothing to do with Durgotasav.It is not communal or cultural clash at all.

In fact,it is the continuity of Bahujan folk heritage of Buddhist Baul Vaisnav Bengal of diversity,plurality and fraternity with the history of Baul Faqir Vaisnav Budhhist Jain Sufi combined Bahujan history of Bengal represented by Lalon Fakir,Chaitanya Mahaprabhu,Brahmo Samaj,Bengal Renaissance Peasantry uprisings, ramkrishna,Vivekanand, Rabindra Nath Tagore and Kazi Nazrul Islam.

Nevertheless, RSS is opposing the Mahishasur Utsav as it has been celebrated for years and Bengali people had no objection against tribal and Bahujan narrative and their celebration of life.
But RSS is trying its best to make it an issue for religious communal political polarization as it has already tried to brand antinational JNU for Mahishasur Narrative.

After Rabindra Nath and muslim period of Indian history and icons like Galib and others from the heritage of unity in diversity in India,the fascism of intolerance and apartheidd has excluded the most prminent Hindi writer Premchand.

Bharatendu Harishchandraa wrote Vedic Hinsa Hinsa Na Bhavati,Bharat Durdasha and Andher Nagri Chaupat Raj which might also be branded as ant national sooner or later.

Ashok Chakra might be excluded as it does not represent Vedic history and culture.

Anti Adivasi Anti Dalit Anti OBC patriarchal Manusmriti hegemony of blind racist nationalism would soon launch campaign against everything which is not vedic.It is dark digital age of blue whales Killing the idea of India.

I am addressing these issues in my discourse on Ravindras roots in Bahujan movement led by Adivasi<fakir Baul and peasantry.

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रवींद्र का दलित विमर्श-28 अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज! जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥ रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु? क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे? बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अ�

Next: रवींद्र का दलित विमर्श-29 हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है। मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं। चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाफ हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अ�
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रवींद्र का दलित विमर्श-28
अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज!
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु?
क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे?
बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
पलाश विश्वास
डिजिटल इंडिया में इन दिनों जो वेदों,उपनिषदों,पुराणों,स्मृतियों,महाकाव्यों के वैदिकी साहित्य में लिखा है,सिर्फ वही सच है और बाकी भारतीय इतिहास,हड़प्पा मोहंजोदोड़ो सिंधु घाटी की सभ्यता, अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण खस पठान मुगल कालीन साहित्य, आख्यान, वृत्तांत और विमर्श झूठ हैं।
ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति विधान सच हैं और महात्मा गौतम बुद्ध,उनका धम्म,महात्मा महावीर,गुरु नानक,बसेश्वर,ब्रह्म समाज,नवजागरण,सूफी संत बाउल फकीर आंदोलन झूठ हैं।
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
इस हिसाब से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास और भारतीय संविधान और अब तक चला आ रहा कायदा कानून,नागरिक और मानवाधिकार का सफाया तय है तो रवींद्रनाथ,गालिब, प्रेमचंद,पाश, इस्लामी राजकाज,मुसलमान तमाम लेखक,कवि और संत जिनमें शायद जायसी,रहीमदास और रसखान भी शामिल हों निषिद्ध है।
इस हिसाब से गैर वैदिकी राष्ट्रीय प्रतीक अशोक चक्र को देर सवेर हटाने का अभियान चालू होने वाला है।गौरतलब है कि सम्राट अशोकके बहुत से शिलालेखोंपर प्रायः एक चक्र (पहिया) बना हुआ है। इसे अशोक चक्रकहते हैं। यह चक्र धर्मचक्रका प्रतीक है। उदाहरण के लिये सारनाथस्थित सिंह-चतुर्मुख (लॉयन कपिटल) एवं अशोक स्तम्भपर अशोक चक्रविद्यमान है। भारत के राष्ट्रीय ध्वजमें अशोक चक्र को स्थान दिया गया है।भारतीय मुद्रा में बी अशोक चक्र है।अशोक चक्र में चौबीस तीलियाँ (स्पोक्स्) हैं वे मनुष्य के अविद्या से दु:ख बारह तीलियां और दु:ख से निर्वाण बारह तीलियां (बुद्धत्वअर्थात अरहंत) की अवस्थाओं का प्रतिक है।
रवींद्रनाथ की चंडालिका,रक्तकरबी,गीतांजलि,उनके उपन्यासों और निबंधों में राष्ट्रद्रोह पर शोध जारी करने वालों के लिए अगर प्रेमचंद का गोदान,रंगभूमि औकर कर्मभूमि जैसे उपन्यास और सद्गति,ईदगाह,पंच परमेश्वर जैसी कहानियां  खतरनाक हैं तो वाराणसी के भारतेंदु हरिश्चंद्र कम खतरनाक नहीं हैं,जिन्होंने वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति लिखकर राष्ट्रवाद को नये ढंग से परिभाषित किया तो राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ के भाषणों,निबंधों की तरह अंधेर नगरी में राष्ट्र व्यवस्था का सच बेपर्दा कर दिया और इस पर तुर्रा उन्होंने भारत दुर्दशा भी लिख दिया। आपात काल के दौरान भारतेंदु की ये रचनाएं आम जनता के लिए रंगकर्म की मशालें बन गयी थीं तो नया आपातकाल में इऩसे खतरनाक रचनाएं मिलना मुश्किल है।

तो क्या रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर होंगे भारतेंदु?
रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद का विरोध पहलीबार 1889 में अपने उपन्यास राजर्षि में किया तो सभ्यता का संकट उनका आखिरी निंबध है,जिसे मई 1941 में उन्होंने शांतिनिकेतन में भाषण बतौर प्रस्तुत किया।जबकि इससे बहुत पहले भारत दुर्दशानाटककी रचना 1875इ. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्रने की थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारतकी तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे ब्रिटिशराज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।
जिस औपनिवेशिक राष्ट्रव्यवस्था का विरोध रवींद्रनाथ और भारतेंदु कर रहे थे,वह आज का निराधार डजिटल बुलेट सामाजिक यथार्थ है।
भारत दुर्दशा के इस दृश्य पर गौर करेंः
तीसरा अंक

स्थान-मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! भारतदुर्दैव ’ आता है)
भारतदु. : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
(नाचता हुआ)
सत्या. फौ : हमारा नाम है सत्यानास।
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू चंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
भारतदु. : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।

सत्यानाश फौजदार का राजकाज है।
अतंरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका हिंदी समय में भारतेेंदु की तीनों महत्वपूर्ण रचनाएं भारत दर्दशा,अंधेर नगरी और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति पढ़ सकते हैं।
सच की कसौटी वैदिकी है और भारत में आदिवासी समाज का सच अगर भारतीय इतिहास का सच नहीं है तो सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के भगवान किन्हीं बीरसा मुंडा के पोते की बेटी के यहां खाना खाने का कार्यक्रम क्यों बनाया वैदिकी नस्ली राष्ट्रवाद के सिपाहसालार ने और फिर झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातु गांव में  बीरसा वंशज चंपा मुंडा के माटी के घर में फर्श पर टाइल्स लगवाने के बाद परोसा भोजन खाये बिना कैसे लौट आये?
मुंडा विद्रोह की कथा जाहिर है कि वैदिकी साहित्य नहीं है और भक्तजनों ने बांचा भी नहीं होगा लेकिन आदिवासी किसानों के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ निरंतर संग्राम का इतिहास जिन्होंने पढ़ा होगा,कम से कम जिन्होंने महाश्वेता देवी का लिखा उपन्यास जंगल के दावेदार पढ़ा होगा,उनके लिए उलगुनान की जमीन उलीहातु गांव अनचीन्हा नहीं है।
बीरसा मुंडा के गांव उलीहातु की आड़ में आदिवासी दुनिया  कब्जे के लिए आदिवासियों को उनके घरों से बेधकल करके ईंटों के दड़बे में कैद किया जा रहा है तो उनके इतिहास,उनकी अस्मिता और उनके अस्तित्व को भी जल जंगल जमीन पर उनके हकहकूक,उनकी नागरिकता,उनकी आजीविका,उनकी संस्कृति और उनके नागरिक और मनावाधिकार मनुस्मृति फौजों के अश्वमेधी सेना कुचलती जा रही है और नस्ली वर्चस्व के ब्राह्मणधर्म और वैदिकी संस्कृति के इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ कुछ भी कहना राष्ट्रद्रोह है और इस जनप्रतिरोध के दमन के लिए दैवी सत्ता का आवाहन है तो इस दैवी सत्ता के खिलाफ आदिवासी आख्यान,वृत्तांत और सामंतवाद साम्राज्यवाद के खिलाफ उनका निरंतर जारी संग्राम का सारा इतिहास वैैदिकी साहित्य के हवाले से खारिज हैं।
संस्कृत में लिखा सबकुछ पवित्र है और तमिल में लिखा साहित्य और इतिहास झूठ है।मनुस्मृति शिकंजे में फंसा हिंदुत्व सच है और इससे बाहर अनार्य असुर अछूतों और आदिवासियों के हजारों साल का इतिहास झूठ है।वैदिकी साहित्य के मिथकों का सच इतिहास है तो बाकी इतिहास मिथक है।
लोक संस्कृति और जनभाषाओं,गैर आर्य गैरहिंदू जनसमुदायों के तमाम आख्यान और वृत्तांत सिर्फ आदि अनंत शाश्वत वैदिकी साहित्य,व्याकरण और सौदर्यशास्त्र की कसौटी में मिथ्या है तो उनकी जीवन यंत्रणा ,उनकी अस्मिता और उनका अस्तित्व भी झूठ है।
रवींद्र नाथ वैदिकी साहित्य और उपनिषदों के आलोक में लिखें तो गुरुदेव ,विश्वकवि और उनके साहित्य का स्रोत बौद्ध दर्शन हो,अनार्य द्रविड़ संस्कृति हो लोकसंस्कृति हो तो उस पर चर्चा निषिद्ध है?
बंगाल में महिषासुर उत्सव को लेकर नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में भारी खलबली मची हुई है।यूं तो सैकड़ों सालों से भारत में आदिवासी समाज अपने को असुरों का वंशज मानते हुए नवरात्रि के दौरान शोक मनाता है और महिषासुर उत्सव भी मनाने का सिलसिला भी वर्षों पुराना है।कोलकाता और बंगाल के व्यापक हिस्सों में आदिवासी अछूत और शूद्र जनसमुदाय असुर उत्सव मनाते रहे हैं।इसे लेकर दुर्गोत्सव के दौरान अभी तक किसी टकराव की घटना नहीं हुई है।अब ये हालात सिरे से बदल गये हैं।
जेएनयू में महिषासुर उत्सव के काऱण जेएनयू के छात्रों को संसद से राष्ट्रद्रोही साबित करने के उपक्रम के बाद इसबार बंगाल में महिषासुर और दुर्गा के बारे में आदिवासी आख्यान को पहलीबार वैदिकी साहित्य की कसौटी पर कसते हुए उसका विरोध विद्वतजन कर रहे हैं और संघ परिवार इसे सीधे राष्ट्रविरोधी साबित करने पर तुला हुआ है।आज बांग्ला के प्रमुख दैनिक अखबार एई समये के पहले पेज पर महिषासुर विवाद पर विस्तृत समाचार छपा है।
इसी सिलसिले में फेसबुक पर यह पोस्ट गौर तलब हैः
मेरा सवाल देश के साहित्य जगत के दिग्गजों से हैअब क्या वो चुप रहेंगे??या इसी तरह अभी और बर्बादी देखेंगे???
फूहड़ मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मुंशी प्रेमचंद को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान'से बेदखल किया!
मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना 'गोदान'को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान'ने अपने पाठ्यक्रम से निकाल बाहर फेंका है। 'केहिसं'प्रशासन ने दलील दी है कि उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझ में नहीं आता लिहाज़ा उन्हें भारी दिक्कत होती है(!) ग़ौरतलब है कि 'गोदान'न सिर्फ प्रेमचंद प्रतिनिधि रचना के रूप में जाना जाता है बल्कि हिंदी आलोचना के नज़रिये से इसे उनका सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना गया है। भारतीय भाषाओँ की साहित्यिक पुस्तकों में सर्वाधिक बिक्री के रिकार्ड का तमगा भी इसे ही हासिल है। इतना ही नहीं, विश्व की अन्य भाषाओँ में सबसे ज़्यादा अनुवाद होने वाली भारतीय भाषा की किताब भी 'गोदान'ही है। सन 1936 से लेकर अब तक इसके अन्यान्य प्रकाशनों की तुलना में संख्या की दृष्टि से केवल लियो तोलस्तोय का 'वॉर एंड पीस'ही इसकी टक्कर में खड़ा हो पाता है। 'हिंदी संस्थान की भोथरी राजनीतिक दलील स्पष्ट कर देती है कि मौजूदा शासन में देश की कालजयी रचनाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं। ज़रुरत है कि सभी सचेत पाठकों को ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाईयों का प्रबल विरोध करना चाहिए।
-नथमल शर्मा। Nathmal SharmaSSneha Bava
गौरतलब है कि  इससे पहले वर्तमान पर एकाधिकार नस्ली आधिपत्य कायम करने के बाद हिटलरपंथी संस्थागत  संघ परिवार की  मनुस्मृति विधान की सत्ता राजनीति अतीत को भी वैदिकी आर्य रक्त की विशुद्धता की अपनी विचारधारा के मुताबिक बदलने  के दुस्साहस में लगातार बढ़ रही है। इसलिए न सिर्फ ऐतिहासिक प्रतीकों बल्कि घटनाओं, विवरणों और शख्सियतों को भी पसंद के हिसाब से चुना जा रहा है - उनमें काट छांट की जा रही है।
इसी सिलसिले में सत्ताधारियों के निर्देशानुसार  देश में स्कूली शिक्षा प्रबंधन की केंद्रीय संस्था, एनसीईआरटी ने विषयवार सुझाव मांगे हैं कि किताबों में नई और आवश्यक तब्दीलियां क्या हो सकती हैं। इसी के तहत संघ परिवार से जुड़े संगठन और नेता फौरन हरकत में आ गये।
यह खबर पहले ही आप सभी को मालूम ही होगा कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नामक संगठन ने स्कूली किताबों में आमूलचूल बदलाव की सिफारिशें भेजी हैं। पांच पेज की इन सिफारिशों का लब्बोलुआब ये है कि भारत का इतिहास, हिंदुओं का इतिहास है और जो हिंदू नहीं है या हिंदू धर्म को लेकर कट्टर नहीं है, वो इस इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकता है। सिफारिशों का आलम ये है कि मिर्जा गालिब और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से जुड़े पाठ भी हटा देने को कहा गया है।



संघ परिवार से  जुड़े न्यास ने एनसीईआरटी को जो सुझाव दिए हैं उनमें कहा गया है कि किताबों में अंग्रेजी, अरबी या ऊर्दू के शब्द न हों, खालिस्तानी चरमपंथियों की गोलियों का शिकार बने विख्यात पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की कविता न हो, गालिब की रचना या टैगोर के विचार न हों, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश हटाएं जाएं, राम मंदिर विवाद और बीजेपी की हिंदूवादी राजनीति का उल्लेख न हो, गुजरात दंगों का विवरण हटाया जाए, आदि ,आदि। सिफारिशों के मुताबिक सामग्री को अधिक "प्रेरक” बनाना चाहिए।

रवींद्र का दलित विमर्श-29 हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है। मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं। चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाफ हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अ�

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रवींद्र का दलित विमर्श-29

हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है।

मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं।

चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाफ हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अब डिजिटल इंडिया में हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों का राज है।

1980 के दशक से या फिर 1970 के दशक नक्सलसमय के दौरान दक्षिण पंथी ताकतों के ध्रूवीकरण से सिर्फ सत्ता समीकरण बदला है,कोई नई शुरुआत नहीं हुई है।

बौद्धमय भारत के अंत के बाद ब्राह्मण धर्म के मनुस्मृति विधान की बहाली के लिए हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है,इसे समझे बिना नस्ली वर्चस्व के नरसंहारी राष्ट्रवाद का प्रतिरोध असंभव है।

रवींद्र का दलित विमर्श औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के उसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध में है।

पलाश विश्वास

बौद्धमय भारत के अंत के बाद ब्राह्मण धर्म के मनुस्मृति विधान की बहाली के लिए हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है,इसे समझे बिना नस्ली वर्चस्व के नरसंहारी राष्ट्रवाद का प्रतिरोध असंभव है।रवींद्र का दलित विमर्श औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के उसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध में है।

14 मई के बाद हमारी दुनिया सिरे से बदल गयी है और इससे पहले भारत में नस्ली अंध राष्ट्रवाद जैसा कुछ नहीं था या सत्ता समीकरण के सोशल इंजीनियरिंग से मनुस्मृति शासन का अंत हो जायेगा और समता और न्याय का भारततीर्थ का पुनर्जन्म होगा,ऐसा मानकर जो लोग नस्ली विषमता,घृणा, हिंसा और नरसंहार संस्कृति की मौजूदा व्यवस्था बदलने का ख्वाब देखते हैं,उनके लिए निवेदन है कि किसी भी तरह का कैंसर अचानक मृत्यु का कारण नहीं होता और बीज से वटवृक्ष बनने की एक पूरी प्रक्रिया होती है।

1980 के दशक से या फिर 1970 के दशक नक्सलसमय के दौरान दक्षिण पंथी ताकतों के ध्रूवीकरण से सिर्फ सत्ता समीकरण बदला है,कोई नई शुरुआत नहीं हुई है।

बेहतर हो कि बंगालियों के साहित्य सम्राट ऋषि बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंदमठ को एकबार फिर नये सिरे से पढ़ लें,कम से कम उसका अंतिम अध्याय पढ़ लें,जिसमें दैववाणी होती है कि म्लेच्छों के शासन के अंत के बाद जबतक हिंदू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो जाती,तब तक भारत के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी का राज जारी रहना चाहिए।

बंकिम ने 1857 की क्रांति के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का राज खत्म होने के बाद महारानी विक्टोरिया के घोषणापत्र के तहत भारत के सीधे तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश बन जाने के बाद बंगाल के बाउल फकीर संन्यासी आदिवासी किसान विद्रोह को सन्यासी विद्रोह में समेटते हुए इस उपन्यास का प्रकाशन 1882 में किया था।

भारतीय नस्ली वर्चस्व के मनुस्मृति राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र के भौतिकी और रसायनशास्त्र को ठीक से समझने के लिए बंकिम के आनंदमठ का पाठ अनिवार्य है।

वंदेमातरम राष्ट्रवाद मार्फत भारतमाता की परिकल्पना में बंकिम ने 1882 में ही हिंदू राष्ट्र की स्थापना कर दी थी और इस वंदे मातरम राष्ट्रवाद का अंतिम लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना और मनुस्मृति विधान की बहाली है।

रवींद्र नाथ मनुष्यता के धर्म,सभ्यता के संकट जैसे निबंधों,रूस की चिट्ठियों, चंडालिका,रक्त करबी और ताशेर घर जैसी नृत्य नाटिकाओं,राजर्षि जैसे उपन्यास और बाउल फकीर प्रभावित अपने तमाम गीतों और गीतांजलि के माध्यम से हिंदुत्व के इसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध की जमीन बहुजन,आदिवासी,किसान आंदोलन की साझा विरासत के तहत बनाने की निरंतर कोशिशें की है।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही आदिवासियों का है,जितना गैर आदिवासियों का।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण पठान मुगल सभ्यताओं का है जितना कि वैदिकी और आर्य सभ्यता का।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही मुसलमानों,बौद्धों,ईसाइयों,सिखों,जैनियों और दूसरे गैर हिंदुओं का है जितना कि बहुसंख्य हिंदुओं का।

नव जागरण क दौरानसती प्रथा के अंत और विधवा विवाह,स्त्री शिक्षा के लक्ष्य में सबसे ज्यादा सक्रिय ईश्वर चंद्र विद्यासागर पर बार बार कट्टर हिंदुत्ववादियों के हमले होते रहे।बंगाल का कट्टर कुलीन ब्राह्मण सवर्ण समाज उनके खिलाफ संगठित था लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज में वे विद्यासागर के वध में उसतरह कामयाब नहीं हुए जैसे कि स्वतंत्र भारत में हिंदू राष्ट्र के झंडेवरदारों ने गांधी की हत्या कर दी और अब जैसे दाभोलकर,पानसारे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश की हत्याओं के साथ सात गोरक्षा तांडव में देश भर में आम बेगुनाह नागरिकों की हत्याएं हो रही हैं।वध का इस विशुद्ध कार्यक्रमयह सिलसिला चैतन्य महाप्रभू और संत तुकाराम, गुरु गोविंद सिंह की हत्याओं के बाद कभी थमा ही नहीं है।संत कबीर पर भी हमले होते रहे और उस हमले में हिंदुत्व और इस्लाम के कटट्रपंथी साथ साथ थे। जैसे रवींद्र के खिलाप,लालन फकीर के खिलाफ हिंदुत्व और इस्लाम के  कट्टरपंथी मोर्चांबद हैं।

इसी तरह मेघनाथ वध लिखकर राम को खलनायक बनाने वाले माइकेल मधुसूदन दत्त और ब्रह्मसमाज आंदोलन के संस्थापक राजा राममोहन राय के खिलाफ कट्टर हिंदुत्ववादी हमेशा सक्रिय रहे हैं।

जिस तरह आज अंध विश्वास और कुसंस्कारों को वैदिकी सभ्यता और विशुद्धता के जरिये वैज्ञानिक बताकर कारपोरेट कारोबार का एकाधिकार कायम करने का सिलसिला तकनीकी डिजिटल इंडिया का सच है,उसी तरह उनीसवीं सदी के आठवें दशक में युवा रवींद्रनाथ के समय विज्ञानविरोधी अवैज्ञानिक प्रतिक्रियावादी हिंदुत्व का महिमामंडन अभियान तेज होने लगा था।

हिंदी पत्रकारिता के मसीहा के नेतृत्व में सतीप्रथा से लेकर श्राद्धकर्म और विविध वैदिकी संस्कारों के महिमामंडन के अस्सी के दशक में हिंदी के एक राष्ट्रीय अखबार के विज्ञानविरोधी हिंदुत्व अभियान को याद कर लें तो उनीसवीं सदी के उस सच को महसूस सकते हैं।

हिंदू समाज की तमाम कुप्रथाओं और उसकी पितृसत्तात्मक नस्ली वर्चस्व के खिलाफ एक तरफ नवजागरण और ब्रह्मसमाज आंदोलन तो दूसरी तरफ आदिवासियों और किसानों के जल जंगल जमीन के हकहकूक को लेकर जमींदारों,ईस्ट इंडिया कंपनी और सवर्ण भद्रलोक समाज के खिलाफ एक के बाद एक जनविद्रोह और उसके समांतर पीरफकीर बाउल वैष्णव बौद्ध विरासत के तहत बहुजनों का एकताबद्ध आंदोलन - बौद्धमय भारत के अवसान के बाद मनुस्मृति व्यवस्था की पितृसत्ता और नस्ली वर्चस्व को इससे कठिन चुनौती फिर कभी नहीं मिली है।

इसीकी प्रतिक्रिया में वैदिकी धर्म कर्म संस्कार विधि विधान की वैज्ञानिक व्याख्याएं प्रस्तुत करने का सिलसिला शुरु हुआ और वैदिकी साहित्य का पश्चिमी देशों में पश्चिमी भाषाओं में महिमामंडन का कार्यक्रम भी शुरु हुआ।

कृपया गौर करेंः

Translation functioned as one of the significant technologies of colonial domination in India. In Orientalism, Edward W. Said argues that translation serves "to domesticate the Orient and thereby turn it into a province of European learning" (78). James Mill's The History of British India illustrates Said's point that the Orient is a "representation" and what is represented is not a real place, but "a set of references, a congeries of characteristics, that seems to have its origin in a quotation, or a fragment of a text, or a citation from someone's work on the Orient, or some bit of a previous imagining, or an amalgam of all these" (177). Though Mill had never been to India, he had written three volumes about it by the end of 1817. His History, considered an "authoritative" work on Indian life and society, constructed a version of "Hindoo nature" as uncivilized, effeminate, and barbaric, culled from the translations of Orientalists such as Jones, Williams, Halhed, and Colebrook. Its "profound effect upon the thinking of civil servants" (Kopf 236) and on new generations of Orientalist and other scholars working on India shows how Orientalist translations of "classic" Indian texts facilitated Indians' status as what Said calls "representations" or objects without history.

आगे यह भी गौर तलब हैः

Bankim, on the other hand, constructs a new, manly Bengali vernacular in order to create a new masculine subject. His fictional and non-fictional works redefine the colonized subject and interrogate Western hegemonic myths of supremacy, facilitating the formulation of national identities. Although sharing a similar regional bias and writing during the same era as Bankim, Tagore disavows nationalism.[10] He suggests that nation building itself can be understood as a colonial activity. In Nationalism, a collection of essays, and in the novels Gora and Ghare Baire, Tagore expresses his dissatisfaction with the ideology of nationalism because it erases local cultures and promotes a homogeneous national culture. He demonstrates the violent consequences of Bankim's gendered, upper-caste, Hindu nationalist formulations. Thus, reading Bankim and Tagore together in a course can allow students to see that the historical moment that produced hegemonic nationalist imaginings and from which the contemporary Hindu Right draws sustenance was already divided and already self-critical.

संदर्भःReading Anandamath, Understanding Hindutva: Postcolonial Literatures and the Politics of Canonization

By Chandrima Chakraborty

(McMaster University)

http://postcolonial.org/index.php/pct/article/view/446/841

वैज्ञानिक हिंदू धर्म के नाम से हिंदुत्व के पुनरूत्थान के इस आंदोलन में तबके पढ़े लिखे लोग भी उसीतरह प्रभावित हो रहे थे,जैसे आज पढ़े लिखे तकनीक समृद्ध शहरी कस्बाई लोगों के अलावा मोबाइल टीवी क्रांति से संक्रमित भारत के व्यापक ग्रामीऩ शूद्र,दलित,आदिवासी समाज,स्त्रियां,किसान और मेहनतकश नरसंहारी संस्कृति के संस्थागत फासीवादी नाजी सेना में शामिल हैं।

शशधर तर्कचूड़ामणि,कृष्ण प्रसन्न सेन और चंद्रनाथ बसु जैसे प्रकांड विद्वान लोग इस अवैज्ञानिक विज्ञान विरोधी मनुस्मृति विधान के महिमामंडन का वैज्ञानिक हिंदू धर्म अभियान का नेतृत्व कर रहे थे।

गोमूत्र से लेकर गोबर तक के वैज्ञानिक महिमामंडन के मौजूदा अभियान की तरह तब भी हिंदुओं के चुटिया और तिलक की वैज्ञानिक व्याख्याएं जारी थीं।

तब भी अत्याधुनिक वैज्ञानिक खोजों,नई चिकित्सा पद्धति और नई तकनीक को वैदिकी सभ्यता के आविस्कार बताने की होड़ मची थी।तभी विमान आविस्कार को रामायण के पुष्पक विमान के मिथक से खारिज करते हुए उसे भारतीय वैदिकी सभ्यता की देन बताया जाने लगा था।आज भी विज्ञानविरोधी बाबा बाबियों की बहार है।

वैज्ञानिकों के मुकाबले त्रिकालदर्शी सर्वशक्तिमान मुनि ऋषियों के हिंदुत्व क हथियार से सामाजिक बदलाव के विरुद्ध नवजागरविरोधी बहुजन विरोधी वैज्ञानिक हिंदूधर्म वैसा ही आंदोलन बन गया था जैसे कि मंडल के खिलाफ कमंडल आंदोलन सा सामाजिक न्याय और समानता के बहुजन आंदोलन का हिंदुत्वकरण अस्सी के दशक से आज खिलखलिता हुआ कमल है।

इस अवैज्ञानिक हिंदुत्ववादी नस्ली विमर्श के खिलाफ सभी विधाओं और सभी माध्यमों से रवींद्रनाथ तह वैज्ञानिक दृष्टि के साथ अकेले लड़ रहे थे।

तभी उन्होंने लिखाः

টিকিটি যে রাখা আছে তাহে ঢাকা

ম্যাগনেটিজম্ শক্তি৷

তিলকরেখায় বিদু্যত্ ধায়

তায় জেগে ওঠে ভক্তি \

उनकी जो चुटिया है,उसमें छुपी है

चुंबकीय शक्ति

तिलकरेखा में विद्युत बहे

इसीमे जागे भक्ति

वेद में लिखा सबकुछ सच है और वैदिकी साहित्य ही सच और विज्ञान की कसौटी है,वैदिकी साहित्य और उपनिषदों के स्रोंतों का इस्तेमाल करते हुए रवींद्रनाथ ने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान का प्रतिरोध किया और गैर वैदिकी स्रोंतों से प्रतिरोध का साहित्य रचा।उनके गीत,उनकी नृत्यनाटिकाएं वैज्ञानिक हिंदू धर्म के नस्ली वर्चस्व और मनुस्मृति विधान के खिलाफ अचूक हथियार बनते रहे।

जाहिर है कि यह अचानक नहीं है कि महज सोलह साल की उम्र में रवींद्रनाथ ने छद्मनाम भानुसिंह के साथ भानुसिंहेर पदावली लिखकर उत्तर भारत के संत आंदोलन से अपने को जोड़ लिया।अपने बचपन और कैशोर्य में वे नवजागरण और ब्रह्मसमाज के खिलाफ कट्टर हिंदुत्वादियों की मोर्चाबंदी को ब्रह्समाज आंदोलन के केंद्र बने अपने घर जोड़ासांकु से बहुत नजदीक से देख रहे थे रवींद्रनाथ।

मृत्यु से पहले तक रवींद्रनाथ इन्हीं तत्वों के हमलों का निशाना बनना पड़ा और मरने के बाद आज तक वे उन्हीं के निशाने पर हैं।

संघ परिवार ने बंकिम के वंदेमातरम राष्ट्रवाद को संस्थागत संगठन और सांस्कृतिक राजनीति के माध्यम स्वतंत्र भारत का सत्ता समीकरण बना दिया है और इसी वंदेमातरम राष्ट्रवाद के तहत संघ परिवार ने हिटलर का खुल्ला समर्थन किया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम से हिंदुत्ववादियों को अलग रखा है।

हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है।

इस कार्यक्रम को अंजाम देने में मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं और अब उन्ही ताकतों के किसी गटबंधन से रंगभेद के इस स्थाई बंदोबस्त का अंत नहीं हो सकता।

सत्ता वर्ण वर्ग के प्रतिरोध की यह फर्जी कवायद संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे से कम खतरनाक नहीं है।

हिंदुत्व का पुनरूत्थान के साथ हिंदू राष्ट्र का एजंडा का आरंभ राममंदिर आंदोलन से नहीं हुआ है,आदिवासी किसान बहुजन आंदोलनों के खिलाफ भारत के वर्ग वर्ण सत्तावर्ग के वंदेमातरम गठबंधन का इतिहास यही बताता है।

चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाप हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अब डिजिटल इंडिया में हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों का राज है।

आज हम औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के पुनरूत्थान और इसके खिलाफ रवींद्रनाथ के प्रतिरोध के बारे में सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। नये सिरे से संदर्भ समाग्री शेयर करने में बाधाएं हैं,इसलिए फिलहाल मेरे फेसबुक पेज पर अब तक जारी संदर्ब सामग्री से ही काम चला लें।

रवींद्र का दलित विमर्श-30 गंगा और नर्मदा की मुक्तधारा को अवरुद्ध करने वाली दैवीसत्ता का फासिज्म आदिवासियों और किसानों के खिलाफ सामाजिक विषमता के खिलाफ मनुस्मृतिविरोधी लड़ाई को खत्म करना ही हिंदुत्ववादियों के हिंदू राष्ट्र का एजंडा मुक्तधारा के लिए जल सत्याग्रह इसीलिए जारी रहेगा। पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-30

गंगा और नर्मदा की मुक्तधारा को अवरुद्ध करने वाली दैवीसत्ता का फासिज्म आदिवासियों और किसानों के खिलाफ

सामाजिक विषमता के खिलाफ मनुस्मृतिविरोधी लड़ाई को खत्म करना ही हिंदुत्ववादियों के हिंदू राष्ट्र का एजंडा

मुक्तधारा के लिए जल सत्याग्रह इसीलिए जारी रहेगा।

पलाश विश्वास

टिहरी बांध का उतना प्रबल विरोध नहीं हुआ और गंगा की अबाध जलधारा हमेशा के लिए नमामि गंगा के मंत्रोच्चार के बीच अवरुद्ध कर दी गयी।पुरानी टिहरी समेत उत्तरकाशी और टिहरी की खूबसूरत घाटियां डूब में शामिल हो गयीं।अपने खेतों,अपने गांवों और आजीविका के लिए जरुरी जंगल से बेदखल मनुष्यों का पुनर्वास नहीं हुआ अभीतक।कांग्रेसी राजकाज के जमाने में सोवियत सहयोग से बने इस बांध के विरोध में व्यापक जन आंदोलन नहीं हो सका क्योंकि तब पहाड़ में शक्तिशाली वाम दलों और संगठनों ने सोवियत पूजी का विरोध नहीं किया।उत्तराखंड अलग राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों ने भी टिहरी बांध का विरोध नहीं किया।पर्यावरण कार्यकर्ताओं,चिपको और सर्वोदय आंदोलन के मंच से हालांकि इस बांध परियोजना का जोरदार विरोध किया जाता रहा है।

इससे पहले दामोदर वैली,हिराकुड,रिंहद और भाखड़ा समेत तमाम बड़े बांधों का विकास,बिजली और सिंचाई के लिए अनिवार्य मान लिया गया।इन बांधों के कारण जल जंगल जमीन से बेदखल आदिवासियों और किसानों का आजतक पुनर्वास नहीं हो सका है।विकास परियोजनाओं में विस्थापितों का पुनर्वास कभी नहीं हुआ है और इस विकास के बलि होते रहे हैं आदिवासी और किसान।

मुक्तधारा के लिए जल सत्याग्रह इसीलिए जारी रहेगा।

इस तुलना में नर्मदा बांध का विरोध सिलसिलेवार होता रहा है और कुड़नकुलम परमाणु संयंत्र का भी विरोध जोरदार रहा है।कुड़नकुलम परमाणु संयंत्र में जनप्रतिरोध के दमन के साथ परमाणु बिजली का उत्पादन शुरु हो चुका है तो नर्मदा बांध दैवी सत्ता के आवाहन के साथ राष्ट्र को समर्पित है।

रवींद्र नाथ मुक्त जलधारा को बांधने के खिलाफ आदिवासियों और किसानों के साथ थे।अपना नाटक मुक्तधारा उन्होंने 1922 में लिखी।1919 में जालियांवाला नरसंहार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम तेज होने के दौरान।

1919 और 1922 के बीच मतभेदों के बावजूद गांधी और रवींद्रनाथ की नजदीकी बढ़ी और मुक्तधारा लिखने से पहले 1921 में अपनी यूरोप यात्रा से लौटकर कोलकाता में रवींद्रनाथ ने बंद कमरे में चारघटे तक बातचीत की थी।

1905 में बंगभंग आंदोलन के बाद रवींद्रनाथ 1919 के जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा सक्रिय थे।

गांधी और रवींद्र दोनों पश्चिमी देशों के जिस औपनिवेशिक साम्राज्यवादी नस्ली राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे,उसके खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध संवत्ंतरता संग्राम के पक्ष में यह नाटक है।गांधी जिसे पागल दौड़ कहते हैं,यंत्र और तकनीक निर्भर मनुष्यता विरोधी प्रकृतिविरोधी उस विकास के विरुद् है यह नाटक।

यांत्रिक मुक्ताबाजारी सभ्यता में आजीविका और रोजगार छीनने के कारपोरेट राज में डिजिटल इंडिया के आटोमेशन निर्भर राजकाज के संदर्भ में भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है।1921 की उस मुलाकात के बाद गांधी जहां असहयोग आंदोलन तेज करने में लगे रहे वहीं रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन में विश्वविद्यालय बनाने पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित किया।दोनों आंदोलन के दौरान एक मंच पर नहीं थे।

1919 से लेकर 1922 की अवधि में गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था तो वह खिलाफत आंदोलन का दौर भी था और उसी दौरान औद्योगिक इकाइयों में मजदूर आंदोलन के जरिये ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता का प्रतिरोध तेज से तेज होता रहा।

इसी प्रतिरोध की अभिव्यक्ति रवींद्रनाथ के मुक्तधारा नाटक में हुई।उत्तरकूट होकर शिवतराई के मध्य प्रवाहित नदी मुक्तधारा को उत्तरकूट के राजा रणजीत रोक देते हैं किसानों के दमन के लिए।युवराज अभिजीत किसानों के साथ हो गये थे और राजकीय जिम्मेदारी के खिलाफ उन्होंने किसानों का लगान माफ कर दिया।मुक्तधारा पर बांध का निर्माण का एक कारण युवराज विद्रोह भी था।बांध बनने के पीछे किसान युवराज का हाथ देखने लगे तो अपनी जान देकर उन्होंने उस बांध को तोड़ दिया।

रवींद्रनाथ सम्यवादी नहीं थे।जाहिर है कि उनकी इस रचना में वर्गचेतना उसी तरह नहीं है जैसे उनके दूसरे बेहद प्रासंगिक नाटक रक्तकरबी में वर्ग चेतना जैसी कोई चीज नहीं है।मुक्तधारा में जहां युवराज बांध तोड़ देते हैं,वहीं रक्तकरबी में राजा खुद किसानों और मेहनतकशों के मुक्ति संग्राम में शामिल हो जाते हैं।

जाहिर है कि रवींद्रनाथ के लिए मनुष्यता और मनुष्यता के धर्म  विशुद्ध सामयवादी वस्तुवादी दर्शन के ज्यादा महत्वपूर्ण है और एक दूसरे के वर्गशत्रु  को बदलाव के लिए एक साथ खड़ा कर देते हैं।

रवींद्र रचनासमग्र में यह भाववादी दृष्टिकोण बहुत प्रबल है और इसकी जड़ें भी सूफी संत बाउल फकीर आंदोलन के भारतीय दर्शन में है।

स्वदेश चिंता में रवींद्रनाथ ने साफ साफ लिखा है कि बौद्ध धर्म के अवसान के बाद से लगातार भारत में दैवी सत्ता की स्थापना के लिए मनुस्मृति विधान सख्ती से लागू किया जाने लगा और बहुसंख्य आम जनता शूद्र और अछूत हो गये।गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति और उस वजह से हुए सामाजिक परिवर्तन की आशंका से हिंदू समाज आतंकित हो गया तो मनुस्मृति व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें समाज को पीछे की ओर धकेलने लगा।

इस द्वंद के बावजूद भारत में मनुष्याता के धर्म में विविधता में एकता की बात वे लगातार कर रहे हैं।

गौरतलब है कि आस्था और धर्म कर्म संस्कार रीति रिवाज के मामले में आम लोग परंपराओं का ही पालन करते हैं और अपनी अपनी लोकसंस्कृति के मुताबिक ही उनका समाजिक और धार्मिक आचरण होता है और इसे लेकर हिंदुओं और गैरहिंदुओं में कोई विवाद नहीं है।

सारा विवाद मनुस्मृति की बहाली करके दैवी सत्ता और राजसत्ता के एकीकरण के नस्ली वर्चस्व को लेकर है जो अब अंध राष्ट्रवाद है और इसी अंध राष्ट्रवाद का विरोध रवींद्रनाथ लगातार करते रहे हैं,जो आजाद बारत में सीधे तौर पर कारपोरेट एजंडा है।इसलिए मुक्तधारा की प्रासंगिकता बहुत बढ़ गयी है।

कुल मिलाकर यह विरोध हिंदुओं और गैरहिंदुओं के बीच नहीं है।यह हिंदू समाज का आतंरिक गृहयुद्ध है और इस सिलसिले में गौरतलब है धर्मोन्माद के विरोध की वजह से मारे गये दाभोलकार,पानसारे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश सबके सब हिंदू थे तो मनुस्मृति का विरोध करते थे।

रवींद्रनाथ इसी सामाजिक विषमता को सूफी संत परंपरा की साझा विरासत के तहत खत्म करना चाहते थे और इसी सिलसिले में वे लगातार जल जंगल जमीन और किसानों,आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों,स्त्रियों और मेहनतकशों के लिए समानता और न्याय की आवाज को अपनी रचनाधर्मिता बनाये हुए थे।

जड़ समाज को गति देने के लिए उन्होंने शूद्रों और मेहनतकशों की पहल पर आधारित नाटक रथेर रशि भी लिखी है,जिसकी हम चर्चा करेंगे।

हम सांतवीं आठवीं सदी के मंदिर केंद्रित शैव और वैष्णव भक्ति आंदोलनों के मनुस्मृति विरोधी आंदोलन में बदलने की सिलसिलेवार चर्चा की है।

इसी सिलसिले में वध संस्कृति के शिकार द्रविड़ लिंगायत गौरी लंकेश की पृष्ठभूमि में लिंगायत आंदोलन की चर्चा जरुरी है।

उत्तर भारत के सूफी संत बाउल फकीर वैष्णव आंदोलन से पहले भक्ति आंदोलन के सिलसिले में बारहवीं सदी में बासवेश्वर या बसेश्वर के लिंगायत धर्म आंदोलन की स्थापना हुई।बसेश्वर के इस आंदोलन का मुख्य स्वर ब्राहमणवाद का विरोध और चरित्र जाति तोड़ो आंदोलन है।

मनुस्मृति के कट्टर अनुशासन के निषेध के साथ मनुस्मृति और जातिव्यवस्था को सिरे से लिंगायत आंदोलन ने नामंजूर कर दिया और लिंगायत ध्र्म के अनुयायी अपने को हिंदू भी नहीं मानते रहे हैं।वे वैदिकी सभ्यता,कर्मकांड,रस्मोरिवाज का विरोध करते थे,जिसका कर्नाटक में व्यापक प्रभाव हुआ।

बंगाल में मतुआ आंदोलन भी ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध था।ब्रह्मसमाज आंदोलन भी।जिसाक पूरीतरह हिंदुत्वकरण हो गया है।

इसके विपरीत बारहवीं सदी से कर्नाटक में लिंगायत धर्म का प्रभाव अटूट है।लिंगायत अनुयायी जीवन के हर क्षेत्र में कर्नाटक में नेतृ्त्व करते हैं और हिंदुत्ववादियों को इसी लिंगायत धर्म से ऐतराज है और इसीलिए इसकी प्रवक्ता गौरी लंकेश की हत्या हो गयी।

सामाजिक विषमता के खिलाफ मनुसमृतिविरोधी लड़ाई को खत्म करना ही हिंदुत्ववादियों के हिंदू राष्ट्र का एजंडा है।

रवींद्रनाथ इस विषमता को खत्म करने के लिए ही विविधता,बहुलता,सहिष्णुता और अनेकता में एकता आधारित मनुष्यता के धर्म की बात कर रहे थे।पारिवारिक पृष्ठभूमि ब्रहमसमाजी होने के बावजूद वे अपने को ब्रह्मसमाजी नहीं मानते थे।

आप इसे रवींद्रनाथ का भाववादी होना बता सकते हैं लेकिन उनकी वैज्ञानिक दृष्टि को नजरअंदाज नहीं कर सकते और न ही मुक्तबाजारी मनुस्मृति कारपोरेट एजंडा के प्रतिरोध में उनकी प्रासंगिकता को खारिज कर सकते हैं।

रवींद्रनाथ शुरु से सत्ता वर्ण वर्चस्व के खिलाफ हैं।

स्वदेशी समाज पर उन्होंने लिखा हैः


নিশ্চয় জানিবেন, ভারতবর্ষের মধ্যে একটি বাঁধিয়া তুলিবার ধর্ম চিরদিন বিরাজ করিয়াছে। নানা প্রতিকূল ব্যাপারের মধ্যে পড়িয়াও ভারতবর্ষ বরাবর একটা ব্যবস্থা করিয়া তুলিয়াছে, তাই আজও রক্ষা পাইয়াছে। এই ভারতবর্ষের উপরে আমি বিশ্বাসস্থাপন করি। এই ভারতবর্ষ এখনই এই মুহূর্তেই ধীরে ধীরে নূতন কালের সহিত আপনার পুরাতনের আশ্চর্য একটি সামঞ্জস্য গড়িয়া তুলিতেছে। আমরা প্রত্যেকে যেন সজ্ঞানভাবে ইহাতে যোগ দিতে পারি—জড়ত্বের বশে বা বিদ্রোহের তাড়নায় প্রতিক্ষণে ইহার প্রতিকূলতা না করি।

বাহিরের সহিত হিন্দুসমাজের সংঘাত এই নূতন নহে। ভারতবর্ষে প্রবেশ করিয়াই আর্যগণের সহিত এখানকার আদিম অধিবাসীদের তুমুল বিরোধ বাধিয়াছিল। এই বিরোধে আর্যগণ জয়ী হইলেন, কিন্তু অনার্যেরা আদিম অস্ট্রেলিয়ান বা আমেরিকগণের মতো উৎসাদিত হইল না; তাহারা আর্য উপনিবেশ হইতে বহিষ্কৃত হইল না; তাহারা আপনাদের আচারবিচারের সমস্ত পার্থক্যসত্ত্বেও একটি সমাজতন্ত্রের মধ্যে স্থান পাইল। তাহাদিগকে লইয়া আর্যসমাজ বিচিত্র হইল।

এই সমাজ আর-একবার সুদীর্ঘকাল বিশ্লিষ্ট হইয়া গিয়াছিল। বৌদ্ধ-প্রভাবের সময় বৌদ্ধধর্মের আকর্ষণে ভারতবর্ষীয়ের সহিত বহুতর পরদেশীয়ের ঘনিষ্ঠ সংস্রব ঘটিয়াছিল; বিরোধের সংস্রবের চেয়ে এই মিলনের সংস্রব আরো গুরুতর। বিরোধে আত্মরক্ষার চেষ্টা বরাবর জাগ্রত থাকে—মিলনের অসতর্ক অবস্থায় অতি সহজেই সমস্ত একাকার হইয়া যায়। বৌদ্ধ-ভারতবর্ষে তাহাই ঘটিয়াছিল। সেই এশিয়াব্যাপী ধর্মপ্লাবনের সময় নানা জাতির আচারব্যবহার ক্রিয়াকর্ম ভাসিয়া আসিয়াছিল, কেহ ঠেকায় নাই।

কিন্তু এই অতিবৃহৎ উচ্ছৃঙ্খলতার মধ্যেও ব্যবস্থাস্থাপনের প্রতিভা ভারতবর্ষকে ত্যাগ করিল না। যাহা-কিছু ঘরের এবং যাহা-কিছু অভ্যাগত, সমস্তকে একত্র করিয়া লইয়া পুনর্বার ভারতবর্ষ আপনার সমাজ সুবিহিত করিয়া গড়িয়া তুলিল; পূর্বাপেক্ষা আরো বিচিত্র হইয়া উঠিল। কিন্তু এই বিপুল বৈচিত্র্যের মধ্যে আপনার একটি ঐক্য সর্বত্রই সে গ্রথিত করিয়া দিয়াছে। আজ অনেকেই জিজ্ঞাসা করেন, নানা স্বতোবিরোধআত্মখণ্ডনসংকুল এই হিন্দুধর্মের এই হিন্দুসমাজের ঐক্যটা কোন্‌খানে? সুস্পষ্ট উত্তর দেওয়া কঠিন। সুবৃহৎ পরিধির কেন্দ্র খুঁজিয়া পাওয়াও তেমনি কঠিন—কিন্তু কেন্দ্র তাহার আছেই। ছোটো গোলকের গোলত্ব বুঝিতে কষ্ট হয় না, কিন্তু গোল পৃথিবীকে যাহারা খণ্ড খণ্ড করিয়া দেখে তাহারা ইহাকে চ্যাপটা বলিয়াই অনুভব করে। তেমনি হিন্দুসমাজ নানা পরস্পর-অসংগত বৈচিত্র্যকে এক করিয়া লওয়াতে তাহার ঐক্যসূত্র নিগূঢ় হইয়া পড়িয়াছে। এই ঐক্য অঙ্গুলির দ্বারা নির্দেশ করিয়া দেওয়া কঠিন, কিন্তু ইহা সমস্ত আপাত-প্রতীয়মান বিরোধের মধ্যেও দৃঢ়ভাবে যে আছে, তাহা আমরা স্পষ্টই উপলব্ধি করিতে পারি।

ইহার পরে এই ভারতবর্ষেই মুসলমানের সংঘাত আসিয়া উপস্থিত হইল। এই সংঘাত সমাজকে যে কিছুমাত্র আক্রমণ করে নাই, তাহা বলিতে পারি না। তখন হিন্দুসমাজে এই পরসংঘাতের সহিত সামঞ্জস্যসাধনের প্রক্রিয়া সর্বত্রই আরম্ভ হইয়াছিল। হিন্দু ও মুসলমান সমাজের মাঝখানে এমন একটি সংযোগস্থল সৃষ্ট হইতেছিল যেখানে উভয় সমাজের সীমারেখা মিলিয়া আসিতেছিল; নানকপনথীসম কবীরপনথীএম ও নিম্নশ্রেণীর বৈষ্ণবসমাজ ইহার দৃষ্টান্তস্থল। আমাদের দেশে সাধারণের মধ্যে নানা স্থানে ধর্ম ও আচার লইয়া যে-সকল ভাঙাগড়া চলিতেছে শিক্ষিত-সম্প্রদায় তাহার কোনো খবর রাখেন না। যদি রাখিতেন তো দেখিতেন, এখনো ভিতরে ভিতরে এই সামঞ্জস্যসাধনের সজীব প্রক্রিয়া বন্ধ হয় নাই।

সম্প্রতি আর-এক প্রবল বিদেশী আর-এক ধর্ম আচারব্যবহার ও শিক্ষাদীক্ষা লইয়া আসিয়া উপস্থিত হইয়াছে। এইরূপে পৃথিবীতে যে চারি প্রধান ধর্মকে আশ্রয় করিয়া চার বৃহৎ সমাজ আছে—হিন্দু, বৌদ্ধ, মুসলমান, খ্রীস্টান—তাহারা সকলেই ভারতবর্ষে আসিয়া মিলিয়াছে।


रवींद्र का दलित विमर्श-31 बांग्लादेश में रवींद्र और शरत को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने के इस्लामी राष्ट्रवाद खिलाफ आंदोलन तेज हमारे यहां शिक्षा और इतिहास के हिंदुत्वकरण के खिलाफ सन्नाटा कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती लड़ाई। श्वेत आंतकवाद के युद्धस्थल वधस्थल बन गये भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश, हालांकि रंग श्वेत दीखता नहीं है पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-31

बांग्लादेश में रवींद्र और शरत को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने के इस्लामी राष्ट्रवाद खिलाफ आंदोलन तेज

हमारे यहां शिक्षा और इतिहास के हिंदुत्वकरण के खिलाफ सन्नाटा

कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती लड़ाई।

श्वेत आंतकवाद के युद्धस्थल वधस्थल बन गये भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश, हालांकि रंग श्वेत दीखता नहीं है

पलाश विश्वास

कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती कोई लड़ाई।

लालन फकीर और रवींद्रनाथ की रचनाओं को पाठ्यक्रम से निकालने के खिलाफ बांग्लादेश में आंदोलन तेज हो रहा है और रवींद्र और प्रेमचंद समेत तमाम साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से निकालने और समूचा इतिहास को वैदिकी साहित्य में बदलने  के खिलाफ भारत में अभी कोई आंदोलन शुरु नहीं किया जा सका है।

बांग्लादेश में पाकिस्तानी शासन के दौरान 1961 में भी रवींद्र साहित्य और रवींद्रसंगीत पर हुक्मरान ने रोक लगा दी थी,जिसका तीव्र विरोध हुआ और वह रोक हटानी पड़ी।बाग्लादेश मुक्तिसंग्राम के दौरान तो रवींद्र के लिखे गीत आमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भोलोबासि  बांग्लादेश का राष्ट्रीय संगीत बन गया।

गौरतलब है कि 1961 के प्रतिबंध के खिलाफ ढाका में बांग्ला नववर्ष और 25 बैशाख को रवींद्र जयंती मनाने का सिलसिला शुरु हुआ जो कभी रुका नहीं है।

विविधता,बहुलता,सहिष्णुता के लोकतंत्र के खिलाफ हैं भारत के हिंदू राष्ट्रवादी और बांग्लादेश के इसलामी राष्ट्रवादी दोनों।जिस तरह संघ परिवार शिक्षा व्यवस्था के आमूल हिंदुत्वकरण के लिए लगातार विश्वविद्यालयों पर हमले कर रहा है,पाकिस्तान बनने के बाद और पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के बाद वहां भी विश्विद्यालय कट्टर इस्लामी राष्ट्रवादियों  के निशाने पर हैं।

रवींद्रनाथ कहते थे कि पश्चिम के ज्ञान विज्ञान वहां के शासक वर्ग की देन नहीं है और यह आम जनता की उपज है।हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।इसी तरह फासीवादी राष्ट्रवाद के धर्मोन्माद,नस्ली वर्चस्व और समाज और मनुष्यता के धर्म के नाम बंटवारे के राष्ट्रवाद और हिंसा,घृणा,युद्ध और विध्वंस के राष्ट्रवाद का रवींद्रनाथ विरोध करते रहे।

हम शिक्षा और ज्ञान के बदले पश्चिमी धर्मोन्मादी सैन्य राष्ट्रवाद के उत्तराधिकारी बन गये हैं तो स्वतंत्रता के बाद भी स्वदेश अभी साम्राज्यवाद का मुक्तबाजारी उपनिवेश है,जहां उच्च शिक्षा और ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है।मध्ययुगीन बर्बर इतिहास को दोहराने का उपक्रम हमारा धर्म कर्म है।

भारत में जयभीम कामरेड के नारे के साथ जाति धर्म का दायरा तोड़कर मनुस्मति विरोधी ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन और बंगाल के होक कलरव छात्र आंदोलन से पहले युद्ध अपराधियों को फांसी पर लटकाने के खिलाफ शाहबाग छात्र युवा आंदोलन के दौरान इस महादेश के तमाम  कट्टरपंथी धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी युद्धअपराधियों को एक ही रस्सी से फांसी पर लटकाने की मांग उठ चुकी है।

शाहबाग आंदोलन के तहत ही बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान नरसंहार के युद्ध अपराधी रजाकर और जमात नेताओं को फांसी पर लटकाने का सिलसिला जारी है। मनुष्यता के विरुद्ध युद्ध अपराधी वहां फांसी पर लटकाये जा रहे हैं,फिर भी बांग्लादेश सरकार और प्रशासन में इस्लामी राष्ट्रवादियों का वर्चस्व कायम है।

भारत में हिंदुत्व एजंडा के तहत पाठ्यक्रम के हिंदुत्वकरण अभियान के समांतर बांग्लादेश में हिफाजत और जमात के असर में पाठ्यक्रम से रवींद्रनाथ टैगोर,लालन फकीर ,शरतचंद्र,सत्यजीत रे के दादा उपेंद्र किशोर रायचौधरी और बांग्लादेश के बेहद लोकप्रिय लेखक हुमायूं आजाद की रचनाएं बाहर फेंक दी गयी है।इसके खिलाफ बांग्लादेश में छात्र,प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के मोर्चे ने ढाका विश्विद्यालय से आंदोलन शुरु कर दिया है।

हम पहले ही इस बारे में चर्चा कर चुके हैं कि बांग्लादेश में लालन फकीर और रवींद्रनाथ के खिलाफ भयंकर घृणा अभियान जारी है। बंकिम के हिंदू राष्ट्रवाद के साथ लालन और रवींद्रनाथ को जोड़कर उन्हें मुसलमानों के खिलाफ बताने का अभियान शुरु से चल रहा है।इसका व्यापक प्रतिरोध भी वहां हो रहा है।

रवींद्रनाथ के मशहूर उपन्यास गोरा के नायक को आखिरकार अहसास होता है कि उनकी कोई जाति नहीं है और वे अंत्यज है।रवींद्रनाथ ने अपनी रचनाओं में अपने को कई दफा अछूत, अंत्यज, जातिहीन, मंत्रहीन कहा है।अपनी मध्य एशिया की यात्रा के वृत्तांत उन्होंने इस्लाम और इस्लामी विरासत के बारे में उन्होंने सिलसिलेवार लिखा है।

उन्होंने लिखा हैः

'কাছের মানুষ বলে এরা যখন আমাকে অনুভব করেছে তখন ভুল করে নি এরা, সত্যই সহজেই এদের কাছে এসেছি। বিনা বাধায় এদের কাছে আসা সহজ, সেটা স্পষ্ট অনুভব করা গেল। এরা যে অন্য সমাজের, অন্য ধর্মসম্প্রদায়ের, অন্য সমাজগণ্ডীর, সেটা আমাকে মনে করিয়ে দেবার মতো কোনো উপলক্ষই আমার গোচর হয় নি।' (ঠাকুর ১৩৯২ : ২৮-২৯)

(मेरे अपना अंतरंग हाने का अहसास इन लोगों ने किया है।इन्होंने कोई गलती नहीं की है।मैं सचमुच सहज ही इनके पास चला आया।ये दूसरे समाज के लोग है,दूसरे धर्म संप्रदाय के लोग हैं या दूसरे समामाजिक अनुशासन के दायरे में हैं ये,ऐसा कुछ भी महसूस करने का कोई मौका मुझे मिला नहीं है।)

उत्तर कोरिया को तबाह करने की जो अश्लील चेतावनी श्वेत जायनी साम्राज्यवाद ने हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु धमाकों की गूंज के साथ दी है,उसमें यूरोप में धर्मयुद्ध और दैवीसत्ता का नस्ली वर्चस्व है जो यूरोप का राष्ट्रवाद पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का त्रिशुल है।इस त्रिशुल की मार अफगानिस्तान में मिसाइली हमलों,इराक के विध्वंस,लीबिया में गद्दाफी को खत्म करने के लिए बमबारी,सीरिया के गृहयुद्ध और मिश्र समेत पूरी अरब दुनिया में अमेरिकी अरब वसंत तक मनुष्यता को लहूलुहान कर रही है और इससे आतंकवाद की धर्मोन्मादी राजनीति अब मनुष्यता का अंत करने पर आमादा है।

रग और झंडा जो भी हो,यह विशुद्धता का श्वेत आतंकवाद है।धर्मयुद्ध है।

सभ्यताओं के संघर्ष के पश्चिमी उपक्रम की चर्चा रवींद्रनाथ की मध्यएशिया यात्रा के सिलसिले में पश्चिमी श्वेत आतंकवाद के इस आसमानी धर्मयुद्ध के खिलाफ रवींद्रनाथ की लंबी चेतावनी का सार प्रस्तुत किया है विनायक सेन नेः

"বোগদাদে ব্রিটিশদের আকাশফৌজ আছে। সেই ফৌজের খ্রিস্টান ধর্মযাজক আমাকে খবর দিলেন, এখানকার কোন শেখদের গ্রামে তারা প্রতিদিন বোমাবর্ষণ করছেন। সেখানে আবালবৃদ্ধবনিতা যারা মরছে তারা ব্রিটিশ সাম্রাজ্যের ঊর্ধ্বলোক থেকে মার খাচ্ছে; এই সাম্রাজ্যনীতি ব্যক্তিবিশেষের সত্তাকে অস্পষ্ট করে দেয় বলেই তাদের মারা এত সহজ। খ্রিস্ট এসব মানুষকেও পিতার সন্তান বলে স্বীকার করেছেন, কিন্তু খ্রিস্টান ধর্মযাজকের কাছে সেই পিতা এবং তার সন্তান হয়েছে অবাস্তব; তাদের সাম্রাজ্য-তত্ত্বের উড়োজাহাজ থেকে চেনা গেল না তাদের; সেজন্য সাম্রাজ্যজুড়ে আজ মার পড়ছে সেই খ্রিস্টেরই বুকে। তাছাড়া উড়োজাহাজ থেকে এসব মরুচারীকে মারা যায় এতটা সহজে, ফিরে মার খাওয়ার আশঙ্কা এতই কম যে, মারের বাস্তবতা তাতেও ক্ষীণ হয়ে আসে। যাদের অতি নিরাপদে মারা সম্ভব, মারওয়ালাদের কাছে তারা যথেষ্ট প্রতীয়মান নয়। এই কারণে, পাশ্চাত্য হননবিদ্যা যারা জানে না, তাদের মানবসত্তা আজ পশ্চিমের অস্ত্রীদের কাছে ক্রমশই অত্যন্ত ঝাপসা হয়ে আসছে।"

अनुवादः बगदाद में ब्र्टिश हुकूमत की आसमानी फौज है।उसी फौज के एक ईसाई धर्मयजक ने मुझे खबर दी कि यह फौज यहां किसी शेखों के गांव पर रोज बमबारी कर रही है।वहां बच्चे बूढ़े स्त्रियों समेत जो आम लोग मारे जा रहे हैं,वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उर्द्धलोक की मार से मारे जा रहे हैं।यह साम्राज्यवादी नीति व्यक्तिविशेष की निजी सत्ता को इस तरह अस्पष्ट रहस्यमयी भाषा में पेश करती है कि बेगुनाह मनुष्यों को मारना इतना सरल है।यीशु मसीह ने इन सभी मनुष्यों को ईश्वर की संतान माना है लेकिन ईसाई धर्मयाजक के लिए वह पिता और उनकी संतान अवास्तव बन गये हैं,उनका साम्राज्यवाद की अवधारणा युद्धक विमानों से पहचाना नहीं गया है और इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्य में ये सारे हमले ईशा मसीह के सीने पर हो रहे हैं। इसके अलावा युद्धक विमान से मरुभूमि के वाशिंदों को मारना इतना आसान है कि जबावी मार खाने की कोई आशंका होती नहीं है और इसीलिए उनके मारे जाने का सचभी इतना क्षीण होता जाता है।जिन्हें इतनी सुरक्षित तरीके से मारना संभव है,मारनेवालों के लिए उनका कोी वजूद होता ही नहीं है।इसलिए जो लोग पश्चिम की हत्या संस्कृति से अनजान हैं,उनकी मनुष्यता का अस्तित्व भी पश्चिमी सैन्य ताकतों के लिए क्रमशः धूमिल होता जाता है।

रवींद्र की यह चेतावनी जितना पश्चिम एशिया और बाकी दुनिया का सच है,उससे बड़ा सच भारत में कृषि व्यवस्था,किसानों,दलितों,आदिवासियों और गैर हिंदुओं का सच है।यह गोरक्षा तांडव का सच है तो नरसंहार संस्कृति का सचभी है तो फिर यह आदिवासी भूगोल में अनंत बेदखली का सच भी है।

रवींद्र नाथ की यह चेतावनी आज की पृथ्वी ,आज की मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध जारी उसी धर्मयुद्ध का सच है,जिस धर्मयुद्ध के श्वेत आतंकवाद की भाषा उत्तर कोरिया के लिए तबाही की चेतावनी है।

(संदर्भःরবীন্দ্রনাথ ও মধ্যপ্রাচ্য (Tagore and the Middle East)

Posted on May 9, 2014

বিনায়ক সেন)

रवींद्र समय का ब्रिटिश साम्राज्यवाद का श्वेत आतंकवाद अब अमेरिका साम्राज्यवाद है और पश्चिम एशिया में फिलीस्तीन और यरूशलम पर कब्जे का यूरोप का धर्मयुद्ध अब अमेरिका का धर्मयुद्ध भी है,जिसे हम कभी खाड़ी युद्ध तो कभी तेल युद्ध और फिर जल युद्ध या लोकतंत्र के लिए युद्ध और आखिरकार आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका का युद्ध कहते रहे हैं।

नस्ली आतंकवाद के विरुद्ध इस चेतावनी के बाद और पश्चिम एशिया के यथार्थ को दूसरे विश्वयुद्ध से पहले इतना सही तरीके से पेश करने वाले रवींद्रनाथ को इस्लामी राष्ट्रवाद के झंडेवरदार मुसलमानों का दुश्मन साबित करने में लगे हैं।

दरअसल, रवींद्रनाथ और काजी नजरुल इस्लाम दोनों तुर्की के आधुनिकीकरण के कमाल पाशा करिश्मे के प्रशंसक रहे हैं।

धर्म के नाम समाज के बंटवारे के खिलाफ थे नजरुल इस्लाम और रवींद्रनाथ दोनो।इसलिए कमाल अतातुर्क की क्रांति का दोनों ने स्वागत किया है।

रवींद्रनाथ ने लिखा हैः

"কামাল পাশা বললেন মধ্যযুগের অচলায়তন থেকে তুরস্ককে মুক্তি নিতে হবে। তুরস্কের বিচার বিভাগের মন্ত্রী বললেন : মেডিয়াভেল প্রিন্সিপলস্ মাস্ট গিভ ওয়ে টু সেক্যুলার ল'স। উই আর ক্রিয়েটিং আ মডার্ন, সিভিলাইজড্ নেশন।"

अनुवादः कमाल पाशा ने कहा कि मध्ययुग की जड़ता से तुर्की को आजाद करना होगा।तुर्की के न्याय मंत्री ने कहा कि मध्यकालीन सिद्धांतों के बदले धर्मनिरपेक्ष कानून लागू करना होगा।हम एक आधुनिक ,सभ्य राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं।

रवींद्रनाथ ने शुरु से लेकर अपने जीवन के अंत तक जिस राष्ट्रवाद का विरोध किया है,वह दरअसल पश्चिम के धर्म युद्ध का वही राष्ट्रवाद है,जो समाज और मनुष्यता को धर्म के नाम पर बांटता है।

अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों के अपने राज में हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया और दुश्मनी की इस मजहबी सियासत की नींव पर जो भारत ,पाकिस्तान और बांग्लादेश  का निर्माण हुआ - अखंड भारत वर्ष के वे तीनों ही टुकड़े आखिर कार श्वेत आतंकवाद के उपनिवेश बन गये,जो एक अनंत युद्धस्थल वधस्थल है और फर्क सिर्फ इतना है कि वह श्वेत आतंकवाद दीखता नहीं है और न उसका रंग श्वेत है।पश्चिम के ज्ञान विज्ञान की जगह पश्चिम की यांत्रिक आटोमेशन सभ्यता और तकनीक ने ली है।यही डिजिटल इंडिया की असल तस्वीर है।

इस्लामी कट्टरपंथ से आजादी के हक में रवींद्रनाथ का बयान इस्लामी कट्टरपंथियों को उसीतरह नागवार लगता है जैसे विविधता बहुलता,सहिष्णुता,अनेकता में एकता के मनुष्यता के धर्म से हिंदू राष्ट्रवाद को सख्त ऐतराज है।

रवींद्र नाथ के नाटक विसर्जन में मूर्तिपूजा के विरोध में देवी के अस्तित्व को झूठा साबित करने से हिंदू समाज शुरु से रवींद्र के खिलाफ रहा है।

अरब दुनिया के मशहूर शायर हाफिज के मजार पर बैठकर उन्हें अपने देश में धर्मोन्मादी सांप्रदायिकता की याद आयी और उन्होंने लिखाः

'এই সমাধির পাশে বসে আমার মনের মধ্যে একটা চমক এসে পৌঁছল, এখানকার এই বসন্তপ্রভাতে সূর্যের আলোতে দূরকালের বসন্তদিন থেকে কবির হাস্যোজ্জ্বল চোখের সংকেত। মনে হল আমরা দুজনে একই পানশালার বন্ধু, অনেকবার নানা রসের অনেক পেয়ালা ভরতি করেছি। আমিও তো কতবার দেখেছি আচারনিষ্ঠ ধার্মিকদের কুটিল ভ্রুকুটি। তাদের বচনজালে আমাকে বাঁধতে পারে নি; আমি পলাতক, ছুটি নিয়েছি অবাধপ্রবাহিত আনন্দের হাওয়ায়। নিশ্চিত মনে হল, আজ কত-শত বৎসর পরে জীবন-মৃত্যুর ব্যবধান পেরিয়ে এই কবরের পাশে এমন একজন মুসাফির এসেছে যে মানুষ হাফেজের চিরকালের জানা লোক। (ঠাকুর ১৩৯২ : ৪৩-৪৪)

बांग्लादेश के सिलाईदह,शाहजादपुर और कालीग्राम परगना में टैगोर परिवार की तीन जमींदारियां थीं।युवा रवींद्रनाथ पहलीबार 1890 में अपनी जमींदारी की देखरेख के लिए 1890 में पातिसर पहुंचे।उस वक्त तक टैगोर जमीदारियों में भयंकर सामंती व्यवस्था थी।इस बारे में कंगाल हरिनाथ के खुलना जिले के कुमारखाली से प्रकाशित अखबार ग्रामवार्ता में लगातार लिखा जाता रहा है।

लालन फकीर के सहयोगी और अनुयायी बाउल पत्रकार कंगाल हरिनाथ और उनके अखबार ग्रामवार्ता को अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ पाबना और रंगपुर के किसान  विद्रोहों के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है।टैगोर जमींदारी के लठैतों ने उनपर हमले भी किये और उन हमलों से  पास ही स्थित लालन फकीर के अखाड़े के उनके अनुयायियों ने उन्हें बचाया।इस पर बी हमने चर्चा की है।

महर्षि देवेंद्रनाथ के सामंती चरित्र से रवींद्रनाथ के मनुष्यता का धर्म उन्हें अलग करता है।टैगोर जमींदारी के प्रजाजनों पर सामंती शिकंजा तोड़ने की पहल भी रवींद्रनाथ ने की। बाकायदा जमींदार की हैसियत से रवींद्रनाथ पहलीबार कुष्ठिया जिले के सिलाईदह में गये तो पांरपारिक पुन्याह पर्व पर उन्होंने हिंदू मुसलमान और सवर्ण दलित का भेदभाव खत्म कर दिया।

गौरतलब है कि रवींद्र नाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठैगोर के जमाने से पुन्हयाह पर्व पर हिंदुओं और मुसलमानों के अलग अलग बैठाने का बंदोबस्त था तो हिंदुओं के लिए उनकी हैसियत और जाति के मुताबिक अलग बैठने का इंतजाम था।हिंदुओं के लिए चादर से ढकी दरिया तो मुसलमानों के लिए बाना चादर की दरिया।ब्राह्मणों को अलग से बैठाने का इंतजाम।

जमींदार के लिए रेशम से सजा सिंहासन।

रवींद्रनाथ ने यह इंतजाम देखते ही सिंहासन पर बैठे बिना नायब से इस भेदभाव की वजह पूछ ली तो उन्होंने परंपरा का हवाला दे दिया।

इसपर रवींद्रनात ने कह दिया की भेदभाव की यह परंपरा नहीं चलेगी। अलग अलग बैठने की व्यवस्था तुरंत खत्म करके हिंदू मुसलमान ब्राह्मण चंडाल सभी को एक साथ बैठाना होगा।नायब ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो युवा रवींद्रनाथ अड़ गये।उन्होंने खुद सिंहासन पर बैठने से इंकार कर दिया।

बाहैसियत जमींदार सबके लिए समानता का यह उनका पहला आदेश था। नायब,गोमस्ता सभी कर्मचारियों ने इस नये इंतजाम के खिलाफ एकमुश्त इस्तीफे की धमकी दे दी।इसकी परवाह किये बिना रवींद्रनाथ ने सबके लिए एक साथ बैठने का इंतजाम चालू कर दिया।नायब और कर्मचारी देखते रह गये।

यही नहीं जमींदारों के अत्याचार उत्पीड़न से मुसलमान प्रजाजनों को बचाने को रवींद्रनाथ सबसे ज्यादा प्राथमिकता देते थे।


रवींद्र का दलित विमर्श-32 देवी नहीं है,कहीं कोई देवी नहीं है। विसर्जनःदेवता के नाम मनुष्यता खोता मनुष्य দেবতার নামে মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ पलाश विश्वास

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रवींद्र का दलित विमर्श-32

देवी नहीं है,कहीं कोई देवी नहीं है।

विसर्जनःदेवता के नाम मनुष्यता खोता मनुष्य

দেবতার নামে

মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ

पलाश विश्वास

वैसे भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी के मध्य मनुस्मृति विरोधी रवींद्र के दलित विमर्श को जारी रखने में भारी कठिनाई हो रही।रवींद्र के दलित विमर्श और उससे संदर्भ सामग्री शेयर करने पर बार बार रोक लग रही है।

दैवी सत्ता और राजसत्ता के देवी पक्ष में देवी के अस्तित्व से इंकार के नाटक विसर्जन की चर्चा इस अंध धर्मोन्माद के महिषासुर वध उत्सव के मध्य बेहद मुश्किल है लेकिन जरुरी भी है सत्ता ने वर्ग वर्ण नस्ली तिलिस्म को तोड़ने के लिए।

रवींद्र नाथ ने राष्ट्रवाद के विरुद्ध त्रिपुरा राजपरिवार को लेकर राजर्षि उपन्यास लिखा,जिसका प्रकाशन 1889 में हुआ।फिर उन्होंने इसी उपन्यास के पहले अंश को लेकर विसर्जन नाटक लिखा,जो 1890 में प्रकाशित हुआ।

राष्ट्रवाद के नाम अंध धर्मोन्माद के खिलाफ यह नाटक है जिसमें बलि प्रथा का विरोध है और देवी के अस्तित्व से सिरे से इंकार है।जयसिंह के आत्म बलिदान की कथा भी यह है.जो सत्य,अहिंसा और प्रेम की मनुष्यता का उत्कर्ष है।

धर्म और आस्था से बड़ी है मनुष्यता और वही विश्वमानव जयसिंह है।

रवींद्रनाथ ने सीधे कह दिया हैःदेवी नहीं है,कही कोई देवी नहीं है।

सिर्फ विसर्जन नाटक ही नहीं,रवींद्रनाथ ने विसर्जन शीर्षक से गंगासागर तीर्त यात्रा के दौरान पुरोहित के उकसावे पर देवता के रोष से बचने के लिए तीर्थ यात्रियों के अंध विश्वास के कारण एक विधवा के इकलौते बेटे को गंगा में विसर्जन की कथा अपनी कविता देवतार ग्रास में लिखी है।

इस नाटक में दैवी सत्ता  राजसत्ता के साधन बतौर प्रस्तुत है। अंध धर्मोन्माद की सत्ता की राजनीति बेनकाब है इसमें,जो आज का सच है।

आम जनता में देव देवी के नाम धर्मसत्ता के आवाहन के तहत राष्ट्रव्यवस्था पर कब्जा करके निजी हित साधने के तंत्र मंत्र का पर्दाफाश करते हुए रवींद्र कहते हैं कि जिस दिवी के नाम यह धर्मोन्माद है,वह कहीं है ही नहीं।

यह सियासती मजहब इंसानियत के खिलाफ है।

मनुष्यता के खिलाफ पशुता को महोत्सव है यह धर्मोन्माद।

आज से करीब सवासौ साल पहले रवींद्र नाथ इस मजहबी सियासत के खिलाफ मुखर थे और हम आज उसी मजहबी सियासते के पक्षधर बनकर महिषासुर वध की तरह रवींद्रनाथ के वध के उत्सव में शामिल हैं और इस पर संवाद प्रतिबंधित है।

सवासौ साल पहले यूरोप के धर्मयुद्ध के राष्ट्रवाद के विरुद्ध भारतीय मनुष्यता के धरम की बात कर रहे थे रवींद्रनाथ और देव,देवी,ईश्वर के नाम अंध विश्वास की पूंजी के दम पर धर्म सत्ता के आवाहन से सत्ता के अपहरण के राष्ट्रवाद पर हिंसा,घृणा और नरसंहार की संस्कृति के विरुद्ध सत्य,प्रेम और अहिंसा के मनुष्यताबोध का आवाहन कर रहे थे रवींद्रनाथ।

इस नाटक की पृष्ठभूमि त्रिपुरा में गोमती नदी के पास विख्यात कालीमंदिर है तो कथा का स्रोत बौद्धसाहित्य है।हिंसा और घृणा की नरसंहारी वैदिकी संस्कृति के विरुद्ध महात्मा तथागत गौतम बुद्ध के सत्य,प्रेम और अहिंसा की वाणी है।

धर्म का अर्थ मनुष्यता का धारण है।

धर्म का अर्थ मनुष्य और प्रकृति का आध्यात्मिक तादात्म्य है।

भारतीय दर्शन परंपरा की साझा विरासत की जमीन पर खड़े रवींद्रनाथ ने इस नाटक के जरिये वैदिकी कर्मकांड, बलिप्रथा, रक्तपात, हिंसा के माध्यम से दैवी सत्ता के आवाहन के राजकीय आयोजन को धर्म या आस्था मानने से सिरे इंकार करते हुए कहा है,देवी नही है।

देवी कहीं नही है।

जो है वह मनुष्यता है।

जो है वह सत्य और सुंदर है।

जो है वह मनुष्य और मनुष्यता है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच अहिंसा और प्रेम का मानवबंधन है।

घृणा और हिंसा के धर्मस्थल की पाषाणप्रतिमा में देवी नहीं है।

देवी कहीं नहीं है।

महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के अनुसार जीवों से प्रेम और स्वामी विवेकानंद के नरनारायण का अद्भुत समन्वय है इस नाटक का कथानक और कथ्य दोनों।

अंध विश्वास की पूंजी परआधारित धार्मिक कट्टरपंथ के हिंसा और घृणा पर आधारित नरसंहारी राष्ट्रवाद के विरुद्ध मनुष्यता और सभ्यता का आधार सत्य,प्रेम और अहिसा है,जो सत्य है,सुंदर है और शाश्वत भी है।

भारतीय दर्शन परंपरा में यही धर्म है।

संत सूफी भक्ति आंदोलन,बाउल फकीर आंदोलन के विमर्श में मनुष्यता के धर्म भी वैदिकी संस्कृति के मनुस्मृति धर्म की हिंसा,घृणा,बलि और वध के खिलाफ है।

धर्म का समूचा भारतीय दर्शन नरसंहार संस्कृति के खिलाफ है जो आज पासिस्ट कारपोरेट नस्ली वर्चस्व का राष्ट्रवाद है।

परंपरा और लोकाचार नहीं,धर्म का आशय मनुष्य की मुक्ति और मानव कल्याण है और मनुष्यों की सामाजिक एकता है।जहां भेदभाव विषमता अन्या और असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है,जो पश्चिम के फासिस्ट दैवीसत्ता के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के अनिवार्य तत्व हैं।

राजर्षि उपन्यास और विसर्जन नाटक का कुल सार यही है।

रवींद्रनाथ ने लिखा भी हैः'ধর্ম যখন তার প্রকৃত উদ্দেশ্য ও স্বরূপ হারিয়ে নিমজ্জিত হয় গোড়ামি ও আচার সর্বস্বতায়, তখন তা হয়ে ওঠে মানবতাবিরোধী।'

अनुवादः धर्म जब अपने सही ल्क्ष्य से भटककर,अपना स्वरुप खोकर कट्टरपंथ और कर्मकांड सर्वस्वता में निष्णात हो जाता है,तब वह मनुष्यताविरोधी धर्म बन जाता है।

आज मनुष्यता विरोधी प्रकृति विरोधी धर्म और धर्मोन्मादी नरसंहारी राष्ट्रवाद के शिकंजे में मनुष्यता मर रही है और प्रकृति से मनुष्यता और सभ्यता का मानवबंधन टूट रहा है।गोरक्षा तांडव महिषासुर वध उत्सव की बलि बेदी पर मनुष्यता के वध का उत्सव है यह मुक्तबाजारी कारपोरेट धर्मोन्मादी महोत्सव का नंगा कार्निवाल।

नाटक की शुरुआत में त्रिपुरा की रानी गुणवती पुत्र की कामना लेकर धर्म गुरु रघुपति के समक्ष पशुबलि की मनौती करती हैं।लेकिन राजा गोविंदमाणिक्य ने त्रिपुरा में पशुबलि निषिद्ध कर दी है और वे जीवों से प्रेम के खिलाफ हिंसा को धर्म के विरुद्ध मानते हैं।लेकिनरानी की पुत्रकामना को पूंजी बनाकर पशुबलि संपन्न करने के लक्ष्य में अडिग थे राजपुरोहित धर्मगुरु।

हम आज ऐसे धर्मगुरुओं,राजपरुोहितों,राजकीय संतों साध्वियों का तांडव और कटकटेला अंधकार का उनका कारोबारी राजकाज देख रहे हैं।

मनुष्यता के धर्म के महानायक रुप में राजा गोविंदमाणिक्य का चरित्र है।

दैवीसत्ता के राजसत्ता पर वर्चस्व के लिए त्रिपुरा राजपरिवार में गृहयुद्ध का पर्यावरण इस नाटक का कथानक है जो आज के गोरक्षा तंडव का सच भी है।

पुरोहित दैवीसत्ता के पक्ष में राजसत्ता पर दैवीसत्ता के वर्चस्व के लिए राजमाता और त्रिपुरा के जणगण की आस्था और उनके अंध विश्वास के आधार पर धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में कामयाब हो जाते हैं जो आज का सबसे बड़ा राजनीतिक सच है जिसके सामने प्रतिरोध सिरे से असंभव हो गया है और पशुबलि की जगह नरबलि का महोत्सव जारी है।

धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण में बहुसंख्य आम जनता की आस्था और अंध विश्वास के राजनीतिक इस्तेमाल के राष्ट्रवाद की सुनामी की वजह से नरबलि का महोत्सव धर्म कर्म और राजकाज साथ साथ हैं।

क्षत्रपों को सत्ता समीकरण में सत्ता साझा करने की सोशल इंजीनियरिंग की तरह राजपुरोहित धर्म और देवी की स्वप्न आज्ञा का हवाला देकर सेनापति को राजा के खिलाफ विद्रोह के लिए उकसाते है और राजा केभाई नक्षत्र राय को नया राजा बनाने काप्रलोभन देकर तख्ता पलट की साजिश रचते हैं।

भाई से भाई की हत्या कराने के लिए इस धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की साजिशाना मजहबी सियासत के खिलाफ जयसिंह  प्रतिरोध करते हैं।

वे सीधे सवाल खड़ा करते हैं ः

'একী শুনিলাম ! দয়াময়ী মাতঃ;

...ভাই দিয়ে ভ্রাতৃহত্যা?

...হেন আজ্ঞা

মাতৃআজ্ঞা বলে করিলে প্রচার।'

अनुवादः

यह क्या सुन रहा हूं! दयामयी माता

---भाई के हाथों भाई की हत्या?

…. ऐसे आदेश को

माता का आदेश बताकर हो रहा है प्रचार।

तकनीकी क्रांति के माध्यमों और विधाओं पर वर्चस्व हो जाने से धर्मोन्मादी प्रचार तंत्र का यह बीज है जो अब विषवृक्षों का महारण्य है।सारे वनस्पति मरणासण्ण हैं।फिजां जहरीली है और हर सांस के साथ हिंसा और घृणा का संक्रमण है।

फिर इस साजिश का पता चलने पर राजा गोविंदमाणिक्य कहते हैंः

'...জানিয়াছি, দেবতার নামে

মনুষ্যত্ব হারায় মানুষ।'

अनुवादः

जान गया मैं,देवता के नाम

मनुष्यता खोता मनुष्य

नाटक के अंत में जयसिंह के आत्म बलिदान से राजपुरोहित का मन बदलता है।पुत्रसमान जयसिंह को खोने के बाद वैदिकी हिंसा में उनकी आस्था डगमगा जाती है।

जयसिंह को खोने के बाद भिखारिणी अपर्णा के समक्ष राजपुरोहित रघुपति सच का सामना करते हैंः

'পাষাণ ভাঙ্গিয়া গেল জননী আমার

এবার দিয়েছ দেখা প্রত্যক্ষ প্রতিমা

জননী অমৃতময়ী।'

पाषाण टूट गया है जननी मेरी

अब प्रत्यक्ष प्रतिमा का दर्शन मिला है

जननी अमृतमयी

नाटक के अंतिम दृश्य में हिंसा की धर्मोन्मादी आस्था की देवी मूर्ति टूट जाती है और धर्मोन्मादी राजपुरोहित खुद  देवी के अस्तित्व से ही इंकार कर देते हैं।

देखेंः

গুণবতী।জয় জয় মহাদেবী।

               দেবী কই?

রঘুপতি।                দেবী নাই।

গুণবতী।                            ফিরাও দেবীরে

           গুরুদেব, এনে দাও তাঁরে, রোষ শান্তি

           করিব তাঁহার। আনিয়াছি মার পূজা।

           রাজ্য পতি সব ছেড়ে পালিয়াছি শুধু

           প্রতিজ্ঞা আমার। দয়া করো, দয়া করে

           দেবীরে ফিরায়ে আনো শুধু, আজি এই

           এক রাত্রি তরে। কোথা দেবী?

রঘুপতি।কোথাও সে

           নাই। ঊর্ধ্বে নাই, নিম্নে নাই, কোথাও সে

           নাই, কোথাও সে ছিল না কখনো।

গুণবতী।                                        প্রভু,

           এইখানে ছিল না কি দেবী?

রঘুপতি।                                    দেবী বল

           তারে? এ সংসারে কোথাও থাকিত দেবী,

           তবে সেই পিশাচীরে দেবী বলা কভু

           সহ্য কি করিত দেবী? মহত্ত্ব কি তবে

           ফেলিত নিষ্ফল রক্ত হৃদয় বিদারি

           মূঢ় পাষাণের পদে? দেবী বল তারে?

           পুণ্যরক্ত পান ক'রে সে মহারাক্ষসী

           ফেটে মরে গেছে।

अनुवादः

गुणवती। जय जय महादेवी

          देवी कहां हैं?

रघुपति। देवी नहीं है।

गुणवती। लौटा लाओ देवी को

गुरुदेव,ले आओ उन्हें,गुस्सा उनका

करुंगी मैं ठंडा।लायी हू मां की पूजा।

राज्य पति छोड़कर भागी हूं मैं

अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने को.दया करो,दया करो,

देवी को लौटा लाओ,सिर्फ आज की

एक रात के लिए।कहां हैं देवी?

रघुपति। कहीं भी नहीं हैं वे

उर्द्धे नहीं हैं,निम्ने नहीं हैं,कहीं भी

नहीं है वे।कहीं वह थीं ही नहीं।

गुणवती। प्रभु,

यहीं क्या थीं नहीं वह?

रघुपति। देवी

कहती हो उसे? इस संसार में होती कहीं देवी

तो उस पिशाची को देवी कहने पर

क्या सहन कर लेती देवी? इसकी महत्ता क्या

फलती ह्रदय तोड़कर निकले निष्फल रक्त

पाषाण के पांवों पर?उसे कहती हो देवी?

पुण्य रक्त पीकर महाराक्षसी

वह पाषाण फटकर मर गयी है।

 

राजर्षि उपन्यास का आख्यान देखेंः

तीसरा परिच्छेद

राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है।

पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर रात को चौदह देवताओं की एक पूजा होती है। उस पूजा के समय एक दिन दो रात कोई भी घर से नहीं निकल सकता, राजा भी नहीं। अगर राजा बाहर निकलते हैं, तो उन्हें चोंताई को अर्थ-दण्ड चुकाना पडता है। किंवदंती है कि इस पूजा की रात को मंदिर में नर-बलि होती है। इस पूजा के उपलक्ष्य में सबसे पहले जो पशु-बलि होती है, उसे राजबाड़ी के दान के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी बलि के पशु लेने के लिए चोंताई राजा के पास आया है। पूजा में और बारह दिन बचे हैं।

राजा बोले, "इस बरस से मंदिर में जीव-बलि नहीं होगी।"

सभा के सारे लोग अवाक रह गए। राजा के भाई नक्षत्रराय के सिर के बाल तक खड़े हो गए।

चोंताई रघुपति ने कहा, "क्या मैं यह सपना देख रहा हूँ!"

राजा बोले, "नहीं ठाकुर,हम लोग इतने दिन तक सपना देख रहे थे, आज हमारी चेतना लौटी है। एक बालिका का रूप धारण करके माँ मुझे दिखाई दी थीं। वे कह गई हैं, करुणामयी जननी होने के कारण माँ अपने जीवों का और रक्त नहीं देख सकतीं।"

रघुपति ने कहा, "तब माँ इतने दिन तक जीवों का रक्त-पान कैसे करती आ रही हैं?"

राजा ने कहा, "नहीं, पान नहीं किया। जब तुम लोग रक्तपात करते थे, वे मुँह घुमा लेती थीं।

पाँचवाँ परिच्छेद

प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?"

रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।"

दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्रराय ने भुवनेश्वरी की प्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणति निवेदन किया।

रघुपति ने नक्षत्रराय से कहा, "कुमार, तुम राजा बनोगे।"

नक्षत्रराय ने कहा, "मैं राजा बनूँगा? पुरोहित जी क्या बोल रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है।"

कह कर नक्षत्रराय ठठा कर हँसने लगा।

रघुपति ने कहा, "मैं कह रहा हूँ, तुम राजा बनोगे।"

नक्षत्रराय ने कहा, "आप कह रहे हैं, मैं राजा बनूँगा?"

कह कर रघुपति के चेहरे की ओर ताकता रहा।

रघुपति ने कहा, "मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ?"

क्षत्रराय ने कहा, "बोलिए, क्या करूँ?"

रघुपति - "ध्यानपूर्वक बात सुनो। तुम्हें माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"

नक्षत्रराय ने मन्त्र के समान दोहराया, "माँ के दर्शन के लिए गोविन्द माणिक्य का रक्त लाना होगा।"

रघुपति नितांत घृणा के साथ बोल उठा, "ना, तुमसे कुछ नहीं होगा।"

नक्षत्रराय ने कहा, "क्यों नहीं होगा? जो बोला है, वही होगा। आप तो आदेश दे रहे हैं?"

रघुपति - "हाँ, मैं आदेश दे रहा हूँ।"

नक्षत्रराय - "क्या आदेश दे रहे हैं?"

रघुपति ने झुँझलाते हुए कहा, " माँ की इच्छा है, वे राज रक्त का दर्शन करेंगी। तुम गोविन्द माणिक्य का रक्त दिखा कर उनकी इच्छा पूर्ण करोगे, यही मेरा आदेश है।"

रघुपति - "सुनो वत्स, तब तुम्हें एक और शिक्षा देता हूँ। पाप-पुण्य कुछ नहीं होता। पिता कौन है, भाई कौन है, कोई ही कौन है? अगर हत्या पाप है, तो सारी हत्याएँ ही एक जैसी हैं। लेकिन कौन कहता है, हत्या पाप है? हत्याएँ तो हर रोज ही हो रही हैं। कोई सिर पर पत्थर का एक टुकड़ा गिर जाने से मर रहा है, कोई बाढ़ में बह जाने से मर रहा है, कोई महामारी के मुँह में समा कर मर रहा है, और कोई आदमी के छुरा मार देने से मर रहा है। हम लोग रोजाना कितनी चींटियों को पैरों तले कुचलते हुए चले जा रहे हैं, हम क्या उनसे इतने ही महान हैं? यह सब क्षुद्र प्राणियों के जीवन-मृत्यु का खेल खंडन योग्य तो नहीं है, महाशक्ति की माया खंडन योग्य तो नहीं है। कालरूपिणी महामाया के सम्मुख प्रतिदिन कितने लाखों-करोड़ों प्राणियों का बलिदान हो रहा है - संसार में चारों ओर से जीवों के शोणित की धाराएँ उनके महा-खप्पर में आकर जमा हो रही हैं। शायद मैंने उन धाराओं में और एक बूँद मिला दी। वे अपनी बलि कभी-न-कभी ग्रहण कर ही लेतीं, मैं बस इसमें एक कारण भर बन गया।"

तब जयसिंह प्रतिमा की ओर घूम कर कहने लगा, "माँ, क्या तुझे सब इसीलिए माँ पुकारते हैं! तू ऐसी पाषाणी है! राक्षसी, सारे संसार का रक्त चूस कर पेट भरने के लिए ही तूने यह लाल जिह्वा बाहर निकाल रखी है। स्नेह, प्रेम, ममता, सौंदर्य, धर्म, सभी मिथ्या है, सत्य है, केवल तेरी यह रक्त-पिपासा। तेरा ही पेट भरने के लिए मनुष्य मनुष्य के गले पर छुरी रखेगा, भाई भाई का खून करेगा, पिता-पुत्र में मारकाट मचेगी! निष्ठुर, अगर सचमुच ही यह तेरी इच्छा है, तो बादल रक्त की वर्षा क्यों नहीं करते, करुणा स्वरूपिणी सरिता रक्त की धारा बहाते हुए रक्त-समुद्र में जाकर क्यों नहीं मिलती? नहीं, नहीं, माँ, तू स्पष्ट रूप से बता - यह शिक्षा मिथ्या है, यह शास्त्र मिथ्या है - मेरी माँ को माँ नहीं कहते, संतान-रक्त-पिपासु राक्षसी कहते हैं, मैं इस बात को सहन नहीं कर सकता।"

उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की बिजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं।

रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?"

जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।"

आवाज से मंदिर काँप उठा।

काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई।

(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अतरराष्ट्रीय विश्वविदयालय,वर्धा ,http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2377&pageno=1)

  




रवींद्र का दलित विमर्श-33 वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है। जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है। काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं! आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसल�

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रवींद्र का दलित विमर्श-33

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है।


काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान

रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं!

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

kabuliwala এর ছবি ফলাফল


रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती सार्वभौम मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ है।विषमता की पितृसत्ता का प्रतिरोध है।अन्य विधाओं में लगभग अनुपस्थित वस्तुवादी दृष्टिकोण है।मनुस्मृति के खिलाफ,सामाजिक विषमता के खिलाफ,नस्ली वर्चस्व के खिलाफ अंत्यज,बहिस्कृतों की जीवनयंत्रणा का चीत्कार है।कुचली हुई स्त्री अस्मिता का खुल्ला विद्रोह है।न्याय और समानता के लिए संघर्ष की साझा विरासत है।

रवींद्रनाथ की गीताजंलि,उनकी कविताओं,उनकी नृत्य नाटिकाओं,नाटकों और उपन्यासों में भक्ति आंदोलन,सूफी संत वैष्णव बाउल फकीर गुरु परंपरा के असर और इन रचनाओं पर वैदिकी,अनार्य,द्रविड़,बौद्ध साहित्य और इतिहास,रवींद्र के आध्यात्म और उनके भाववाद के साथ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की हम सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।इन विधाओं के विपरीत अपनी कहानियों में रवींद्रनाथ का सामाजिक यथार्थ भाववाद और आध्यात्म के बजाय वस्तुवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्त है।इसलिए उनकी कहानियां ज्यादा असरदार हैं।

आज हम रोहिंगा मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के प्रयास के संदर्भ में आजाद भारत में मुसलमानों की स्थिति समझने के लिए उनकी दो कहानियों काबूलीवाल और मुसलमानीर गल्पो की चर्चा करेंगे।इन दोनों कहानियों में मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत के आइने में रवींद्र के विश्वमानव की छवि बेहद साफ हैं।

गुलाम औपनिवेशिक भारत में सामाजिक संबंधों का जो तानाबाना इस साझा विरासत की वजह से बना हुआ था,राजनीतिक सामाजिक संकटों के मध्य वह अब मुक्तबाजारी डिजिटल इंडिया में तहस नहस है।

उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है।

खात्मा हो गया है कृषि अर्थव्यवस्था,किसानों और खेती प्रकृति पर निर्भर सारे समुदायों के नरसंहार उत्सव के अच्छे दिन हैं इन दिनों,जहां अपनी अपनी धार्मिक पहचान के कारण मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान किसान,आदिवासी,शूद्र,दलित,स्त्री और बच्चे।

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

आज धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में धार्मिक जाति नस्ली पहचान की वजह से मनुष्यों की असुरक्षा के मुकाबले विकट परिस्थितियों में भी सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण है।भारतविभाजन के संक्रमणकाल में भी घृणा,हिंसा,अविश्वास,शत्रुता का ऐसा स्रवव्यापी माहौल नहीं है जहां हिंदू या मुसलमान बहुसंख्य के आतंक का शिकार हो जाये।रवींद्रनाथ की कहानियों में उस विचित्र भारत के बहुआयामी चित्र परत दर परत है,जिसे खत्म करने पर आमादा है श्वेत आतंकवाद का यह नस्ली धर्मयुद्ध।

उनकी कहानियों में औपनिवेशिक भारत की उत्पादन प्रणाली का सामाजिक तानाबाना है जहां गांवों की पेशागत जड़ता औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में टूटती हुई नजर आती है तो नगरों और महानगरों की जड़ें भी गांवों की कृषि व्यवस्था में है।

कृषि निर्भर जनपदों को बहुत नजदीक से रवींद्रनाथ ने पूर्वी बंगाल में देखा है और इसी कृषि व्यवस्था को सामूहिक सामुदायिका उत्पादन पद्धति के तहत आधुनिक ज्ञान विज्ञान के सहयोग से समृद्ध संपन्न भारत जनपदों की जमीन से बनाने का सपना था उनका।जो उनके उपन्यासों का भी कथानक है।

इस भारत का कोलकाता एक बड़ा सा गांव है जिसका कोना कोना अब बाजार है।

इस भारत में शिव अनार्य किसान है तो काली आदिवासी औरत।धर्म की सारी प्रतिमाएं कृषि समाज की अपनी प्रतिमाएं हैं।

जहां सारे धर्मस्थल धर्मनिरपेक्ष आस्था के केंद्र है,जिनमें पीरों का मजार भी शामिल है। जहां हिंदू मुसलमान अपने अपने पर्व और त्योहार साथ साथ मनाते हैं।पर्व और त्योहारों को लेकर जहां कोई विवाद था ही नहीं।

रवींद्रनाथ प्रेमचंद से पहले शायद पहले भारतीय कहानीकार है,जिनकी कहानियों में बहिस्कृत अंत्यज मनुष्यता की कथा है।

जिसमें कुचली हुई स्त्री अस्मिता का ज्वलंत प्रतिरोध है और भद्रलोक पाखंड के मनुस्मृति शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश है।

आम किसानों की जीवन यंत्रणा है और अपनी जमीन से बेदखली के खिलाफ गूंजती हुई चीखें हैं तो गांव और शहर के बीच सेतुबंधन का डाकघर भी है।

दासी नियति के खिलाफ पति के पतित्व को नामंजूर करने वाला स्त्री का पत्र भी है।

रवींद्रनाथ की पहली कहानी भिखारिनी 1874 में प्रकाशित हुई।सत्तावर्ग से बाहर वंचितों की कथायात्रा की यह शुरुआत है।

1890 से बंगाल के किसानों के जीवन से सीधे अपनी जमींदारी की देखरेख के सिलसिले में ग्राम बांग्ला में बार बार प्रवास के दौरान जुड़ते चले गये और 1991 से लगातार उनकी कहानियों में इसी कृषि समाज की कथा व्यथा है।

उन्होंने कुल 119 कहानियां लिखी हैं।उऩके दो हजार गीतों में जो लोकसंस्कृति की गूंज परत दर परत है,उसका वस्तुगत सामाजिक यथार्थ इन्हीं कहानियों में हैं।

कविताओं की साधु भाषा के बदले कथ्यभाषा का चमत्कार इन कहानियों में है,जो क्रमशः उनकी कविताओं में भी संक्रमित होती रही है।

अपनी कहानियों के बारे में खुद रवींद्रनाथ का कहना हैः

..'এগুলি নেহাত বাস্তব জিনিস। যা দেখেছি, তাই বলেছি। ভেবে বা কল্পনা করে আর কিছু বলা যেত, কিন্তু তাতো করিনি আমি।' (২২ মে ১৯৪১)

রবীন্দ্রনাথের উক্তি। আলাপচারি

इसी सिलसिले में बांग्लादेशी लेखक इमरान हुसैन की टिप्पणी गौरतलब हैः

তার গল্পে অবলীলায় উঠে এসেছে বাংলাদেশের মানুষ আর প্রকৃতি। তার জীবনে গ্রামবাংলার সাধারণ মানুষের জীবনাচার বিশ্ময়ের সৃষ্টি করে। তার গল্পের চরিত্রগুলোও বিচিত্র_ অধ্যাপক, উকিল, এজেন্ট, কবিরাজ, কাবুলিওয়ালা, কায়স্থ, কুলীন, খানসামা, খালাসি, কৈবর্ত, গণক, গোমস্তা, গোয়ালা, খাসিয়াড়া, চাষী, জেলে, তাঁতি, নাপিত, ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, দারোগা, দালাল প-িতমশাই, পুরাতন বোতল সংগ্রহকারী, নায়েব, ডাক্তার, মেথর, মেছুনি, মুটে, মুদি, মুন্সেফ, যোগী, রায়বাহাদুর, সিপাহী, বাউল, বেদে প্রমুখ। তার গল্পের পুরুষ চরিত্র ছাড়া নারী চরিত্র অধিকতর উজ্জ্বল। বিভিন্ন গল্পের চরিত্রের প্রসঙ্গে রবীন্দ্রনাথ একসময় তারা শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়কে লিখেছিলেন 'পোস্ট মাস্টারটি আমার বজরায় এসে বসে থাকতো। ফটিককে দেখেছি পদ্মার ঘাটে। ছিদামদের দেখেছি আমাদের কাছারিতে।'

अनुवादः उनकी कहानियों में बांग्लादेश के आम लोग और प्रकृति है।उनके जीवन में बांग्लादेश के आम लोगों के रोजमर्रे के  जीवनयापन ने विस्मय की सृष्टि की है।उनकी कहानियों के पात्र भी चित्र विचित्र हैं-अध्यापक, वकील, एजेंट, वैद्य कविराज, काबूलीवाला, कायस्थ, कुलीन, कैवर्त किसान मछुआरा, ज्योतिषी, जमींदार का गोमस्ता, ग्वाला, खासिवाड़ा, हलवाहा, मछुआरा, जुलाहा, नाई, डिप्टी मजिस्ट्रेट, दरोगा, दलाल, पंडित मशाय, पुरानी बोतल बटोरनेवाला, नायब, डाक्टर, सफाईकर्मी, मछुआरिन, बोझ ढोने वाला मजदूर, योगी, रायबहादुर, सिपाही, बाउल, बंजारा, आदि। उनकी कहानियों के पुरुषों के मुकाबले स्त्री पात्र कहीूं ज्यादा सशक्त हैं।अपनी विभिन्न कहानियों के पात्रों के बारे में रवींद्रनाथ ने कभी ताराशंकर बंद्योपाध्याय को लिखा था-पोस्टमास्टर मेरे साथ बजरे (बड़ी नौका) में अक्सर बैठा रहता था।फटिक को पद्मा नदी के घाट पर देखा।छिदाम जैसे लोगों को मैंने अपनी कचहरी में देखा।

अनुवादः यह खालिस वास्तव है।जो अपनी आंखों से देखा है,वही लिख दिया।सोचकर,काल्पनिक कुछ लिखा जा सकता था,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है।(22 मई,1941।

रवींद्रनाथ का कथन।आलापचारिता (संवा्द)।

(संदर्भः রবীন্দ্রনাথের ছোটগল্প, http://www.jaijaidinbd.com/?view=details&archiev=yes&arch_date=20-06-2012&feature=yes&type=single&pub_no=163&cat_id=3&menu_id=75&news_type_id=1&index=0)

काबूलीवाला की कथाभूमि अफगानिस्तान से लेकर कोलकाता के व्यापक फलक से जुड़ी है,जहां इंसानियत की कोई सरहद नहीं है।काबूली वाला पिता और बंगाली पिता,काबूली वाला की बेटी राबेया और बंगाल की बालिका मिनी में कोई प्रति उनकी जाति,उनके धर्म,उनकी पहचान,उनकी भाषा और उनकी राष्ट्रीयता की वजह से नहीं है।

काबूलीवाला के कोलकाता और आज के कोलकाता में आजादी के बाद क्या फर्क आया है और वैष्णव बाउल फकीर सूफी संत परंपरा की साझा विरासत किस हद तक बदल गयी है वह हाल के दुर्गापूजा मुहर्रम विवाद से साफ जाहिर है।

रोहिंग्या मुसलमान तो फिरभी विदेशी हैं और भारत और बांग्लादेश की दोनों सरकारें रोहिंग्या अलग राष्ट्र आंदोलन की वजह से इस्लामी राष्ट्रवादी संगठनों के साथ इन शरणार्थियों को जोड़कर सुरक्षा का सवाल उठा रहीं हैं।

भारतीय नागरिक जो मुसलमान रोज गोरक्षा के नाम मारे जा रहे हैं,फर्जी मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं,कश्मीर में बेगुनाह मारे जा रहे हैं,दंगो में मारे जा रहे हैं, नरसंहार के शिकार हो रहे हैं और नागरिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं और हरकहीं शक के दायरे में हैं ,शक के दायरे में मारे जा रहे हैं, उनकी आज की कथा और काबूलीवाला के कोलकाता में कितना फर्क है,यह समझना बेहद जरुरी है।

बांग्ला और हिंदी में बेहद लोकप्रिय फिल्में काबूली वाला पर बनी हैं।दक्षिण भारत में भी काबूलीवाला पर फिल्म बनी है।भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए यह कहानी अपरिचित नहीं है।

काबूलीवाला की ख्याति निर्मम सूदखोर की तरह है।वैसे ही जैसे कि  यूरोेप में मध्यकाल में यहूदी सूदखोरों की ख्याति है।

मर्चेंट आफ वेनिस में शेक्सपीअर ने सूदखोर शाइलाक का निर्मम चरित्र पेश किया है।इसके विपरीत रवींद्रनाथ का काबूलीवाला एक मनुष्य है,एक पिता है।

रवींद्रनाथ का काबूलीवाला कोई सूदखोर महाजन नहीं है।

वह  काबूलीवाला अफगानिस्तान में कर्ज में फंसने के कारण अपनी प्यारी बेटी को छोड़कर हिंदकुश पर्वत के दर्रे से भारत आया है तिजारत के जरिये रोजगार के लिए।

काबूलीवाला सार्वभौम पिता है,विश्वमानव विश्व नागरिक है और अपने देश में पीछे छूट गयी अपनी बेटी के प्रति उसका प्रेम मिनी के प्रति प्रेम में बदलकर सार्वभौम प्रेम बन गया है।वह न विभाजनपीड़ित शरणार्थी है,न तिब्बत या श्रीलंका का युद्धपीड़ित, न वह रोहिंग्या मुसलमान है और न मध्य एशिया के धर्मयुद्ध का शिकार।

आज के भारतवर्ष में,आज के कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों कीतरह काबूलीवाला की कोई जगह नहीं है और आजाद हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों समेत तमाम गैरहिंदुओं,अनार्य द्रविड़ नस्लों,असुरों के वंशजों, आदिवासियों, किसानों,शूद्रों,दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहींं।

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसे पिता के लिए कोई जगह नहीं है।

देखेंः

वह पास आकर बोला, ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई…..


इस कहानी बनी बाग्ला फिल्म में हिंदकुश दर्रे के लंबे दृश्य बेहद प्रासंगिक है क्योंकि इसी दर्रे की वजह से भारत में बार बार विदेशी हमलावर आते रहे हैं।आर्य,शक हुण कुषाण,पठान मुगल सभी उसी रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न हिस्सा बन गये।सिर्फ यूरोप के साम्राज्यवादी पुर्तगीज,फ्रेंच,डच,अंग्रेज वगैरह उस रास्ते से नहीं आये।वे समुंदर के रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के हिस्सा नहीं बने। बेहतर हो कि काबुली वाला पर बनी बांग्ला या हिंदी फिल्म दोबारा देख लें।

मुसलमानीर गल्पो की काबुलीवाला की तरह लोकप्रियता नहीं है लेकिन यह कहानी भारतीय साझा विरासत की कथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।

14 अप्रैल,1941 को रवींद्रनाथ के 80 वें जन्मदिन के अवसर पर शांतिनिकेतन में उनका बहुचर्चित निबंध सभ्यता का संकट पुस्तकाकार में प्रकाशित और वितरित हुआ।7 अगस्त,1941 में कोलकाता में उनका निधन हो गया।

मृत्यु से महज छह सप्ताह पहले 2425 अप्रैल को उन्होंने अपनी आखिरी कहानी मुसलमानीर गल्पो लिखी,जिसमें वर्ण व्यवस्था और सवर्ण हिंदुओं की विशुद्धतावादी कट्टरता की कड़ी आलोचना करते हुए मुसलमानों की उदारता के बारे में उन्होंने लिखा।हिंदू समाज के अत्याचार और बहिस्कार के खिलाफ धर्मांतरण की कथा भी यह है।आखिरी कहानी होने के बावजूद मुसलमानीर गल्पो की चर्चा बहुत कम हुई है और गैरबंगाली पाठकों में से बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी।

गौरतलब है कि अपने सभ्यता के संकट में रवींद्रनाथ नें नस्ली राष्ट्रीयता के यूरोपीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का विरोध भारत के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संदर्भ में करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण को चिन्हित करते हुए भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत जब सांप्रदायिक ध्रूवीकरण चरम पर था,उसी दौरान मृत्यु से पहले धर्मांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था की विशुद्धता को जिम्मेदार बताते हुए मुसलमानों की उदारता के कथानक पर आधारित रवींद्रनाथ की इस अंतिम कहानी की प्रासंगिकता पर अभी संवाद शुरु ही नहीं हुआ है।

इस कहानी में डकैतों के एक ब्राह्मण परिवार की सुंदरी कन्या को विवाह के बाद ससुराल यात्रा के दौरान उठा लेने पर हबीर खान नामक एक मुसलमान उसे बचा लेता है और अपने घर ले जाकर उसे अपने धर्म के अनुसार जीवन यापन करने का अवसर देता है। हबीर खान किसी नबाव साहेब की राजपूत बेगम का बेटा है ,जिसे अलग महल में बिना धर्मांतरित किये हिंदू धर्म के अनुसार जीवन यापन के लिए रखा गया था और वही महल हबीर खान का घर है।जहां एक शिव मंदिर और उसके लिए ब्राह्मण पुजारी भी है।कमला अपने घर वापस जाना चाहती हैतो हबीर उसे वहां  ले जाता है।

यह कन्या अनाथ हैं और अपने चाचा के घर में पली बढ़ी,जो उसकी सुंदरता की वजह से उसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए एक विवाहित बाहुबलि के साथ विदा करके अपनी जिम्मेदारी निभा चुका था।अब मुसलमान के घर होकर आयी, डकैतों से बचकर निकली अपनी भतीजी को दोबारा घर में रखने केलिे चाचा चाची तैयार नहीं हुए तो कमला फिर हबीर के साथ उसके घर लौट जाती है।

अपने चाचा के घर में प्रेम स्नेह से वंचित और बिना दोष बहिस्कृत कमला को हबीर के घर स्नेह मिलता है तो हबीर के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। वह इस्लाम कबूल कर लेती है।फिर उसके चाचा की बेटी का डकैत उसीकी तरह अपहरण कर लेते हैं तो मुसलमानी बनी कमला अपनी बहन को बचा लेती है और उसे उसके घर सुरक्षित सौप आती है।

इस कहानी में हबीर को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर सम्मानीय बताया गया है जिसके सामने हिंदू  डकैत भी हथियार डाले देते हैं तो नबाव की राजपूत बेगम की कथा में जोधा अकबर कहानी की गूंज है।हबीर में कबीर की छाया है।दोनों ही प्रसंग भारतवर्ष की साझा विरासत के हैं।

इस कहानी में कमला का धर्मांतरण प्रसंग भी रवींद्रनाथ के पूर्वजों के गोमांस सूंघने के कारण विशुद्धतावाद की वजह से मुसलमान बना दिये जाने और टैगोर परिवार को अछूत बहिस्कृत पीराली ब्राह्मण बना दिये जाने के संदर्भ से जुड़ता है।

सांप्रदायिक ध्रूवीकरण और हिंदू मुस्लिम राष्ट्रवाद के विरुद्ध सभ्यता का संकट लिखने के बाद रवींद्रनाथ की इस कहानी में साझा विरासत की कथा आज के धर्मोन्मादी गोरक्षा तांडव के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।

इस कथा के आरंभ में सामाजिक अराजकता,देवता अपदेवता पर निर्भरता, कानून और व्यवस्था की अनुपस्थिति और स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसके उत्पीड़न के सिलसिलेवार ब्यौरे के साथ स्त्री को वस्तु बना देने की पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार है  तो सवर्णों में पारिवारिक संबंध,स्नेह प्रेम की तुलना में विशुद्धता के सम्मान की चिंता भी अभिव्यक्त है।पितृसत्ता की विशुद्धता के सिद्धांत के तहत सुरक्षा के नाम स्त्री उत्पीड़न की यह कथा आज घर बाहर असुरक्षित स्त्री,खाप पंचायत और आनर किलिंग का सच है।

তখন অরাজকতার চরগুলো কণ্টকিত করে রেখেছিল রাষ্ট্রশাসন, অপ্রত্যাশিত অত্যাচারের অভিঘাতে দোলায়িত হত দিন রাত্রি।দুঃস্বপ্নের জাল জড়িয়েছিল জীবনযাত্রার সমস্ত ক্রিয়াকর্মে, গৃহস্থ কেবলই দেবতার মুখ তাকিয়ে থাকত, অপদেবতার কাল্পনিক আশঙ্কায় মানুষের মন থাকত আতঙ্কিত। মানুষ হোক আর দেবতাই হোক কাউকে বিশ্বাস করা কঠিনছিল, কেবলই চোখের জলের দোহাই পাড়তে হত। শুভ কর্ম এবং অশুভ কর্মের পরিণামের সীমারেখা ছিল ক্ষীণ। চলতে চলতে পদে পদে মানুষ হোঁচট খেয়ে খেয়ে পড়ত দুর্গতির মধ্যে।

এমন অবস্থায় বাড়িতে রূপসী কন্যার অভ্যাগম ছিল যেন ভাগ্যবিধাতার অভিসম্পাত। এমন মেয়ে ঘরে এলে পরিজনরা সবাই বলত 'পোড়ারমুখী বিদায় হলেই বাঁচি'। সেই রকমেরই একটা আপদ এসে জুটেছিল তিন-মহলার তালুকদার বংশীবদনের ঘরে।

কমলা ছিল সুন্দরী, তার বাপ মা গিয়েছিল মারা, সেই সঙ্গে সেও বিদায় নিলেই পরিবার নিশ্চিন্ত হত। কিন্তু তা হল না, তার কাকা বংশী অভ্যস্ত স্নেহে অত্যন্ত সতর্কভাবে এতকাল তাকে পালন করে এসেছে।

তার কাকি কিন্তু প্রতিবেশিনীদেরকাছে প্রায়ই বলত, "দেখ্‌ তো ভাই, মা বাপ ওকে রেখে গেল কেবল আমাদের মাথায় সর্বনাশ চাপিয়ে। কোন্‌ সময় কী হয় বলা যায় না। আমার এই ছেলেপিলের ঘর, তারই মাঝখানে ও যেন সর্বনাশের মশাল জ্বালিয়ে রেখেছে, চারি দিক থেকে কেবল দুষ্টলোকের দৃষ্টি এসে পড়ে। ঐ একলা ওকে নিয়ে আমার ভরাডুবি হবে কোন্‌দিন, সেই ভয়ে আমার ঘুম হয় না।"

এতদিন চলে যাচ্ছিল এক রকম করে, এখনআবার বিয়ের সম্বন্ধ এল।সেই ধূমধামের মধ্যে আর তো ওকে লুকিয়ে রাখা চলবে না। ওর কাকা বলত, "সেইজন্যই আমি এমন ঘরে পাত্র সন্ধান করছি যারামেয়েকে রক্ষা করতে পারবে।"


शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है। पलाश विश्वास

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शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण 
जनविमर्श का जन आंदोलनः साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
पलाश विश्वास


मिथकों को इतिहास में बदलने का अभियान तेज हो गया है।साहित्य और संस्कृति कीसमूची विरासत को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म है और सारे के सारे मंच,माध्यम और विधाएं बेदखल है।
मर्यादा पुरुषोत्तम को राष्ट्रीयता का प्रतीक बनाने वाली राजनीति अब मर्यादा पुरुषोतत्म के राम का भी नये सिरे से कायाकल्प करने जा रही है।शंबूक हत्या,सीता की अग्निपरीक्षा और उनका वनवास,उत्तर कांड हटाकर रामजी का शुद्धिकरण किया जा रहा है।
बंगाल या बांग्लादेश में रवींद्र के खिलाफ घृणा अभियान का जबर्दस्त विरोध है।स्त्री स्वतंत्रता में पितृसत्ता के विरुद्ध रवींद्र संगीत और रवींदार साहित्य बंगाल में स्त्रियों और उनके बच्चों के वजूद में पीढ़ी दर पीढ़ी शामिल हैं।
लेकिन विद्यासागर,राममोहन राय और माइकेल मधुसूदन दत्त के खिलाफ जिहाद का असर घना है।राम लक्ष्मण को खलनायक और मेघनाद को नायक बनाकर माइकेल मधुसूदन दत्त का  मुक्तक (अमृताक्षर) छंद में लिखा उन्नीसवीं सदी का मेघनाथ बध काव्य विद्यासागर और नवजागरण से जुड़ा है और आधुनिक भारतीय कविता की धरोहर है।
जब रामायण संशोधित किया जा सकता है तो समझ जा सकता है कि मेघनाथ वध जैसे काव्य और मिथकों के विरुद्ध लिखे गये बारतीय साहित्य का क्या हश्र होना है।इस सिलसिले में उर्मिला और राम की शक्ति पूजा को भी संशोदित किया जा सकता है।
इतिहास संशोधन के तहत रवींद्र प्रेमचंद्र गालिब पाश मुगल पठान और विविधता बहुलता सहिष्णुता के सारे प्रतीक खत्म करने के अभियान के तहत रामजी का भी नया मेकओवर किया जा रहा है।
ह्लदी घाटी की लड़ाई,सिंधु सभ्यता,अनार्य द्रविड़ विरासत,रामजन्मभूमि,आगरा के ताजमहल,दिल्ली के लालकिले के साथ साथ रामायण महाभारत जैसे विश्वविख्यात महाकाव्यों की कथा भी बदली जा रही है।जिनकी तुलना सिर्फ होमर के इलियड से की जाती रही है।
रामायण सिर्फ इस माहदेश की महाकाव्यीय कथा नहीं है बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया में व्यापक जनसमुदायों के जीवशैली में शामिल है रामायण।इंडोनेशिया इसका प्रमाण है।
राम हिंदुओं के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम है तो बौद्ध परंपरा में वे बोधिसत्व भी हैं।
भारत में रामकथा के विभिन्न रुप हैं और रामायण भी अनेक हैं।भिन्न कथाओं के विरोधाभास को लेकर अब तक विवाद का कोई इतिहास नहीं है।
बाल्मीकी रामायण तुलसीदास का रामचरित मानस या कृत्तिवास का रामायण या कंबन का रामायण नहीं हैय़जबकि आदिवासियों के रामायण में राम और सीता भाई बहन है।अब तक इन कथाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप कभी नहीं हुआ है।
अब सत्ता की राजनीति के तहत रामकथा भी इतिहास संशोधन कार्यक्रम में शामिल है।
सीता का वनवास,सीता की अग्निपरीक्षा और शंबूक हत्या जैसे सारे प्रकरण समेत समूचा उत्तर रामायण सिरे से खारिज करके राम को विशुद्ध मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाने के लिए इतिहास संशोधन ताजा कार्यक्रम है।
मनुस्मृति विधान के महिमामंडन के मकसद से यह कर्मकांड उसे लागू करने का कार्यक्रम है।
साहित्य और कला की स्वतंत्रता तो प्रतिबंधित है ही।अब साहित्य और संस्कृति की समूची विरासत इतिहास संशोधन कार्यक्रम के निशाने पर है।
सारे साहित्य का शुद्धिकरण इस तरह कर दिया जाये तो विविधता,बहुलता और सहिष्णुता का नामोनिशान नहीं बचेगा।
मीडिया में रेडीमेड प्रायोजित सूचना और विमर्श की तरह साहित्य,रंगकर्म,सिनेमा, कला और सारी विधाओं की समूची विरासत को संशोधित कर देने की मुहिम छिड़ने ही वाली है।
जो लोग अभी महान रचनाक्रम में लगे हैं,उनका किया धरा भी साबूत नहीं बचने वाला है।तमाम पुरस्कृत साहित्य को संशोधित पाठ्यक्रम के तहत संशोधित पाठ बतौर प्रस्तुत किया जा सकता है।शायद इससे बी प्रतिष्ठित विद्वतजनों को आपत्ति नहीं होगी।
रामायण संशोधन के बाद साहित्य और कला का शुद्धिकरण अभियान बी चलाने की जरुरत है।गालिब,रवींद्र और प्रेमचंद,मुक्तिबोध और भारतेंदु के साहित्य को प्रतिबंधित किया जाये,तो यह उतना बड़ा संकट नहीं है।लेकिन उनके लिखे साहित्यऔर उनके विचारों को राजनीतिक मकसद से बदलकर रख दिया जाये,तो इसका क्या नतीजे होने वाले हैं,इस पर सोचने की जरुरत है।
आज बांग्ला दैनिक एई समय में गोरखपुर में रामायण संशोधन के लिए इतिहास संशोधन के कार्यकर्ताओ की बैठक के संदर्भ में समाचार छपा है।हिंदी में यह समाचार पढ़ने को नहीं मिल रहा है।किसी के पास ब्यौरा हो तो शेयर जरुर करें।
साहित्य,कला,माध्यम,विधाओं को सत्ता के शिकंजे से रिहा कराना सत्ता परिवर्तन से बड़ी चुनौती है जो सभ्यता और मनुष्यता के लिए अनिवार्य है।
इसीलिए हम जन विमर्श के जनआंदोलन की बात कर रहे हैं।

खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी। पलाश विश्वास

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खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

पलाश विश्वास

https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/vb.100000552551326/1919932074701859/?type=2&theater


खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

बाजार का कोई सिरा नजर नहीं आाता,न नजर आता कोई घर।

किसी और आकाशगंगा के किसी और ग्रह में जैसे कोई परग्रही।


सारे चेहरे कारपोरेट हैं।गांव,देहात,खेत खलिहान,पेड़ पहाड़ सबकुछ

इस वक्त कारपोरेट।भाषा भी कारपोरेट।बोलियां भी कारपोरेट।

सिर्फ बची है पहचान।धर्म,नस्ल,भाषा,जाति की दीवारें कारपोरेट।

कारपोरेट हित से बढ़कर न मनुष्य है और न देश,न यह पृथ्वी।


गायें भैंसें और बैल न घरों में हैं और न खेतों में- न कहीं गोबर है

और न माटी कहीं है।कड़कती हुई सर्दी है,अलाव नहीं है कहीं

और न कहीं आग है और न कोई चिनगारी।संवाद नहीं है,राजनीति है बहुत।

उससे कहीं ज्यादा है धर्मस्थल,उनसे भी ज्यादा रंग बिरंगे जिहादी।


महानगर का रेसकोर्स बन गया गांव इस कुहासे में,पर घोड़े कहीं

दीख नहीं रहे।टापों की गूंज दिशा दिशा में,अंधेरा घनघोर और

लापता सारे घुड़सवार।नीलामी की बोली घोड़े की टाप।

पसीने की महक कहीं नहीं है और सारे शब्द निःशब्द।

फतवे गूंजते अनवरत।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।


न किसी का सर सलामत है और नाक सुरक्षित किसी की।हवाओं में

तलवारें चमक रहीं है।सारे के सारे लोग जख्मी,लहुलुहान।लावारिश।


घृणा का घना समुंदर कुहासे से भी घना है और है

चूंती हुई नकदी का अहंकार। सबकुछ निजी है और

सार्वजनिक कुछ भी नहीं।सिर्फ रोज रोज बनते

युद्ध के नये मोर्चे जैसे अनंत धर्मस्थल।

सारे महामहिम, आदरणीय विद्वतजन बेहद धार्मिक है इन दिनों।


धर्म बचा है और क्या है वह धर्म भी,जिसका ईश्वर है अपना ब्रांडेड और जिसमें मनुष्यता की को कोई सुगंध नहीं।कास्मेटिक धर्म की कास्मेटिक

सुगंध में मनुष्यता निष्णात।बचा है पुरोहिततंत्र।


सारा इतिहास सिरे से गायब।मनुष्यता,सभ्यता की सारी विरासतें

बाजार में नीलाम। न संस्कृति बची है और न बचा है समाज।

असामाजिक समाजविरोधी प्रकृतिविरोधी सारे मनुष्य।


घनाकुहासा। सूरज सिरे से लापता और खेतों पर दबे पांव

कंक्रीट महानगर का विस्तार,गांव में अलग अलग किलों में कैद

अपने सारे लोग,सारे रिश्ते नाते,बचपन।सन्नाटा संवाद।


सरहदों की कंटीली बाड़ घर घर कुहासा में छन छनकर चुभती,

लहूतुहान करती दिलोदिमाग।मेट्रो की चुंधियाती रोशनी चुंचुंआते

विकास की तरह पिज्जा,मोमो,बर्गर पेश करती जब तब-

सारे किसान आहिस्ते आहिस्ते लामबंद एक दूसरे के खिलाफ।


अघोषित युद्ध में हथियार डिजिटल गैजेट और वजूद आधार नंबर।

अपने ही गांव के महानगरीय जलवायु में कुहासा घनघोर।


मैदान पहाड़ इस कुहासे में एकाकार,जैसे पहाड़ कहीं नहीं हैं

और न मैदान कहीं है कोई हकीकत में और न नदी कोई।


पगडंडियां और मेड़ें एकाकार।बल खाती सर्पीली सड़के डंसतीं

पोर पोर।खेतों में जहरीली फसल से उठता धुआं और आसमान

से बरसता तेजाब।घाटियां बिकाउ बाजार में और सारे पेड़ ठूंठ।


चारों तरफ तेल की धधक।तेज दौड़ते अंधाधुंध बाइक कुहासे में।

कारों के काफिले में मशीनों का काफिला शामिल और इंसान सिरे से

लापता हैं जैसे लापता हैं सूरज और आग।धमनियों में जहर।


सरहदों के भीतर सहरहद कितने।सेनाएं कितनी लामबंद सेनाओं के खिलाफ।

मिसाइलों का रिंगटोन कभी नहीं थम रहा।सारे लोकगीत

खामोश हैं और बच्चों की किलकारियां गायब है।गायब चीखें।


परमाणु बमों का जखीरा हर सीने में छटफटाता और रिमोट से

खेल रहा कोई कहीं और सरहद के भीतर ही भीतर।आगे पीछे के

सारे पुल तोड़ दिये।महानगर सा जनपद,क्या मैदान,क्या पहाड़-

अनंत युद्धस्थल है और सारे लोग एक दूसरे के खिलाफ लामबंद।



सबकुछ निजी हैं तो धर्म और धर्मस्थल क्यों सार्वजनिक हैं?वहां राष्ट्र और राजनीति की भूमिका क्यों होनी चाहिए? किताबों,फिल्मों पर रोक लगाने के बजाये प्रतिबंधित हो सार्वजनिक धर्मस्थलों का निर्माण!जनहित में जब्त हो धर्मस्थलों का कालाधन! पलाश विश्वास

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सबकुछ निजी हैं तो धर्म और धर्मस्थल क्यों सार्वजनिक हैं?वहां राष्ट्र और राजनीति की भूमिका क्यों होनी चाहिए?

किताबों,फिल्मों पर रोक लगाने के बजाये प्रतिबंधित हो सार्वजनिक धर्मस्थलों का निर्माण!जनहित में जब्त हो धर्मस्थलों का कालाधन!

पलाश विश्वास

https://www.youtube.com/watch?v=hdtbE2WerLI

निजीकरण का दौर है।आम जनता की बुनियादी जरुरतों और सेवाओं का सिरे से निजीकरण हो गया है।

राष्ट्र और सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है।तो धर्म अब भी सार्वजनिक क्यों है?


गांव गांव धर्मस्थल के निर्माण के लिए विधायक सांसद कोटे से अनुदान देने की यह परंपरा सामंती पुनरूत्थान है।


सत्ता हित के लिए धर्म का बेशर्म इस्तेमाल और बुनियादी जरुरतों और सेवाओं से नागरिकों को उनकी आस्था और धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए वंचित करने की सत्ता संस्कृति पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।


अर्थव्यवस्था जब निजी है तो धर्म का भी निजीकरण कर दिया जाये।निजी धर्मस्थल के अलावा सारे सार्वजनिक धर्मस्थल निषिद्ध कर दिये जायें और सार्वजनिक धर्मस्थलों की अकूत संपदा नागरिकों की बुनियादी जरुरतों के लिए खर्च किया जाये या कालाधन बतौर जब्त कर लिया जाये।


नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था जो पटरी पर नहीं आयी,धर्म कारोबारियों के कालाधन जब्त करने से वह सरपट दौड़ेगी।

निजी दायरे से बाहर धर्म कर्म और सार्वजनिक धर्म स्थलों के निर्माण पर उसी तरह प्रतिबंध लगे जैसे हर सार्वजनिक चीज पर रोक लगी है।

यकीन मानिये सारे वाद विवाद खत्म हो जायेंगे।


व्यक्ति और उसकी आस्था,उसके धर्म के बीच राष्ट्र,राजनीति और सरकार का हस्तक्षेप बंद हो जाये तो दंगे फसाद की कोई गुंजाइस नहीं रहती।वैदिकी सभ्यता में भी तपस्या,साधना व्यक्ति की ही उपक्रम था,सामूहिक और सार्वजनिक धर्म कर्म का प्रदर्शन नहीं।


मन चंगा तो कठौती में गंगा,संत रैदास कह गये हैं।

भारत का भक्ति आंदोलन राजसत्ता संरक्षित धर्मस्थलों के माध्यम से आम जनता के नागरिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध दक्षिण भारत से शुरु हुआ था,जो कर्नाटक के लिंगायत आंदोलन होकर उत्तर भारत के संत फकीर आंदोलन बजरिये पूरे भारत में राजसत्ता के खिलाफ नागरिकों के हक हकूक और आस्था और धर्म की नागरिक स्वतंत्रता का आंदोलन रही है।


समूचे संत साहित्य का निष्कर्ष यही है।

मूर्ति पूजा और धर्मस्थलों के पुरोहित तंत्र के खिलाफ सीधे आत्मा और परमात्मा के मिलन का दर्शन।

यही मनुष्यता का धर्म है।भारतीय आध्यात्म है और अनेकता में एकता की साझा विरासत भी यही है।


ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता के महासंंग्राम के खिलाफ अंग्रेजों की धर्म राष्ट्रीयता की राजनीति से भारत का विभाजन हुआ तो आज भी हम उसी अंग्रेजी विरासत को ढोते हुए इस महादेश का कितना और विभाजन करेंगे?


सत्तर साल पहले मेरे परिवार ने पूर्वी बंगाल छोड़ा था भारत विभाजन की वजह से।सत्तर साल बाद पश्चिम बंगाल में सत्ताइस साल रह लेने के बावजूद मुझे फिर विस्थापित होकर उत्तराखंड के शरणार्थी उपनिवेश में अपने विस्थापित परिवार की तरह शरण लेना पड़ रहा है।


तब विस्थापन का कारण धर्म आधारित राष्ट्रीयता थी और अब मेरे विस्थापन का कारण आर्थिक होकर भी फिर वही धर्म आधारित मुक्तबाजारी राष्ट्रीयता है,जिसके कारण अचानक मेरे पांव तले जमीन उसीतरह खिसक गयी है,जैसे सत्तर साल पहले इस महादेश के करोड़ों लोगों की अपनी जमीन से बेदखली हो गयी थी।


जिस तरह आज भी इस पृथ्वी की आधी आबादी सरहदों के भीतर,आरपार शरणार्थी हैं।


गंगोत्री से गंगासागर तक,कश्मीर से कन्याकुमारी तक,मणिपुर नगालैंड से कच्छ तक मुझे कहीं ईश्वर के दर्शन नहीं हुए।

मैंने हमेशा इस महादेश के हर नागरिक में ईश्वर का दर्शन किया है। इसलिए शहीदे आजम भगतसिंह की तरह नास्तिक हूं,कहने की मुझे जरुरत महसूस नहीं हुई।


मेरे गांव के लोग,मेरे तमाम अपने लोग जिस तरह सामाजिक हैं,उसीतरह धार्मिक हैं वे सारे के सारे।

इस महादेश के चप्पे चप्पे में तमाम नस्लों के लोग उसी तरह धार्मिक और सामाजिक हैं,जैसे मेरे गांव के लोग,मेरे अपने लोग।

हजारों साल से भारत के लोग सभ्य और सामाजिक रहे हैं तो धार्मिक भी रहे हैं वे।


सत्ता वर्ग के धार्मिक पाखंड और आडंबर के विपरीत निजी जीवन में धर्म के मुताबिक निष्ठापूर्वक अपने जीवन यापन और सामाजिकता में नैतिक आचरण और कर्तव्य का निर्वाह ही आम लोगों का धर्म रहा है।


मैंने पूजा पाठ का आडंबर कभी नहीं किया।लेकिन मेरे गांव के लोग,मेरे अपने लोग अपनी आस्था के मुताबिक अपना धर्म निभाते हैं,तो आस्था और धर्म की उनकी स्वतंत्रता में मैं हस्तक्षेप नहीं करता।

गांव की साझा विरासत के मुताबिक जो रीति रिवाज मेरे गांव के लोग मानते हैं,गांव में रहकर मुझे भी उनमें शामिल होना पड़ता है।


यह मेरी सामाजिकता है।

सामूहिक जीवनयापन की शर्त है यह।

लेकिन न मैं धार्मिक हूं और न आस्तिक।


15 अगस्त,1947...दो राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर इस महादेश अखंड भारतवर्ष का विभाजन हो गया।राष्ट्रीयता का मानदंड था धर्म।उसी क्षण इतिहास भूगोल बेमायने हो गये।बेमायने हो गया इस महादेश के मनुष्यों,मानुषियों का जीवन मरण।


धर्म के नाम राजनीति और धर्म राष्ट्रीयता,धर्म राष्ट्र इस माहदेश का सामाजिक यथार्थ है और मुक्त बाजार का कोरपोरेट सच भी यही है।इतिहास और भूगोल की विकृतियों का प्रस्थानबिंदू है इस महादेश का विभाजन।


भूमंडलीकरण के दौर में भी इस महादेश के नागरिक उसी दंगाई मानसिकता के शिकंजे में हैं,जिससे उन्हें रिहा करने की कोई सूरत नहीं बची।तभी से विस्थापन का एक अटूट सिलसिला जारी है।


धर्म के नाम विस्थापन,विकास के नाम विस्थापन,रोजगार के लिए विस्थापन।धर्मसत्ता,राजसत्ता और कारपोरेट सत्ता के एकीकरण से महाबलि सत्ता वर्ग का कारपोरेट धर्म कर्म आडंबर और पाखंड से भारत विभाजन की निरंतरता और विस्थापन का सिलसिला जारी है।


बांग्लादेश और पाकिस्तान की फिल्मों,उनके साहित्य,उनके जीवन यापन को गौर से देखें तो धार्मिक पहचान के अलावा उनमें और हममें कोई फर्क करना बेहद मुश्किल है।


बांग्लादेश में सारे रीति रिवाज,लोकसंस्कृति,बोलियां पश्चिम बंगाल की तरह हैं तो पाकिस्तान के लोगों को हिंदुस्तान से अलग करना मुश्किल है।उनके खेत,खलिहान,उनके गांव,उनके शहर,उनके महानगर हूबहू हमारे जैसे हैं।


सरहदों ने बूगोल का बंटवारा कर दिया है लेकिन मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की विरासत अब भी साझा है।


युद्ध,महायुद्ध,प्राकृतिक,राजनीतिक,आर्थिक आपदाएं भूगोल बदलने के लिए काफी हैं,लेकिन इतिहास और विरासत में गंथी हुई इंसानियत जैसे हजारों साल पहले थी,आज भी वैसी ही हैं और हजारों साल बाद भी वहीं रहेंगी।


भारत के इतिहास में तमाम नस्लों के हुक्मरान सैकड़ों,हजारों साल से राज करते रहे हैं,लेकिन गंगा अब भी गंगोत्री से गंगासागर तक बहती हैं और हिमालय से बहती नदियां भारत,बांग्लादेश और पाकिस्तान की धरती को सींचती हैं बिना किसी भेदभाव के।


बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठते मानसून के बादल हिमालय के उत्तुंग शिखरों से टकराकर सरहदों के आर पार बरसकर फिजां में बहार लाती है।


धर्म और धर्मस्थल केंद्रित वाणिज्य और राजनीति पर रोक लगे तो बची रहेगी गंगा और बचा रहेगा हिमालय भी।


मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान! पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग। यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।

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मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान!

पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग।

यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।

राजनीति,कारपोरेट वर्चस्व और मीडिया का त्रिशुल परमाणु बम से भी खतरनाक।

सामाजिक तानाबाने को मजबूत किये बिना हम इस कारपोरेट राज का मुकाबला नहीं कर सकते।

पलाश विश्वास

मंदिर मस्जिद विवाद से देश में कारपोरेट राज बहाल तो जाति युद्ध से जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान है।


पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग।


मंदिर मस्जिद विवाद के धारमिक ध्रूवीकरण से इस देश की अर्थव्यवस्था सिरे से बेदखल हो गयी और मुकम्मल कारपोरेट राज कायम हो गया।


तो यह समझने की बात है कि पद्मावती विवाद से नये सिरे से जातियुद्ध छेड़ने के कारपोरेट हित क्या हो सकते हैं।


यह देश व्यापी महाभारत भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को  सिरे से खत्म करने वाला है।


यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है।


यह जनसंख्या सफाये का मास्टर प्लान है।


पद्मावती विवाद को लेकर जिस तरह जाति धर्म के नाम भारतीय जनमानस का ध्रूवीकरण हुआ है,वह भारत विभाजन की त्रासदी की निरंतरता है।


जाति केंद्रित वैमनस्य और घृणा धर्मोन्माद से कहीं ज्यादा भयानक है,जो भारतीय समाज में मनुस्मृति विधान के संविधान और कानून के राज पर वर्चस्व का प्रमाण है।


अफसोस यह है कि इस आत्मघाती जातियुद्ध का बौद्धिक नेतृत्व पढ़े लिखे प्रबुद्ध लोग कर रहे हैं तो दूसरी ओर बाबा साहेब भीमाराव अंबेडकर के स्वयंभू अनुयायी भी इस भयंकर जातियुद्ध की पैदल सेना के सिपाहसालर बनते दीख रहे हैं।


मिथकों को समाज,राष्ट्र और सामाजिक यथार्थ,अर्थव्यवस्था और भारतीय नागरिकों की रोजमर्रे की जिंदगी और उससे जुड़े तमाम मसलों को सिरे से नजरअंदाज करके कारपोरेट राज की निरंकुश सत्ता मजबूत करने में सत्ता विमर्श का यह सारा खेल सिरे से जनविरोधी है।


राजनीति,कारपोरेट वर्चस्व और मीडिया का त्रिशुल परमाणु बम से भी खतरनाक है तो इसे मिसाइलों की तरह जनमानस में निरंतर दागने में कोई कोर कसर समझदार, प्रतिबद्ध,वैचारिक लोग नहीं छोड़ रहे हैं और वे भूल रहे हैं कि धर्मोन्माद से भी बड़ी समस्या भारत की जाति व्यवस्था और उसमें निहित अन्याय और असमता की समस्या है तो अंबेकरी आंदोलन के लोगों को भी इस बात की कोई परवाह नहीं है।


करनी सेना और ब्राह्मणसमाज के फतवे के पक्ष विपक्ष में जो महाभारत का पर्यावरण देश के मौसम और जलवायु को लहूलुहान कर रहा है,उससे क्रोनि कैपिटलिज्म का कंपनी राज और निरंकुश होता जा रहा है।


ऐसे विवाद दुनियाभर में किसी न किसी छद्म मुद्दे को लेकर खड़ा करना कारपोरेट वर्चस्व के लिए अनिवार्य शर्त है।


मोनिका लिवनेस्की,सलमान रश्दी,पामेला बोर्डेस जैसे प्रकरण और उनकी आड़ में विश्वव्यापी विध्वंस का हालिया इतिहास को हम भूल रहे हैं।


तेल युद्ध और शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में इन्ही विवादों की आड़ में दुनिया का भूगोल सिरे से बदल दिया गया है और इऩ्ही विवादों की वजह से आज दुनिया की आधी आबादी शरणार्थी है और दुनियाभर में सरहदो के आर पार युद्ध और गृहयुद्ध जारी है।


ईव्हीएम के करिश्मे पर नानाविध खबरें आ रही हैं।चुनाव नतीजे पर इसका असर भी जाहिर है, होता होगा।लेकिन मेरे लिए यह कोई निर्णायक मुद्दा नहीं है।क्योंकि भारत में चुनावी समीकरण और सत्ता परिवर्तन से कारपोरेट राज बदलने की कोई सूरत नहीं है।सत्तापक्ष विपक्ष में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।कारपोरेट फंडिग से चलनेवाली राजनीति का कोई जन सरोकार नहीं है और वह कारपोरेट हित में काम करेगी। राजनीति और कारपोरेट के इसी गठबंधन को हम क्रोनी कैपिटैलिज्म कहते हैं।


गुजरात में अव्वल तो सत्ता परिवर्तन के कोई आसार जाति समीकरण के बदल जाने से नहीं है और न ऐसे किसी परिवर्तन का भारतीय कारपोरेट राज में कोई असर होना है।


सीधे तौर पर साफ साफ कहे तो राष्ट्रीय और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की  छूट दस साल के मनमोहनी राजकाज में मिली हुई थी,कांग्रेस के सत्ता से बेदखल होने के बाद उनकी सेहत पर कोई असर नहीं हुआ है।बल्कि कंपनियों का पाल बदलने से ही कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी।अब जबतक उन्ही कंपनियों का समर्थन मोदी महाराज को जारी है,कोई सत्ता समीकरण उन्हें बेदखल नहीं कर सकता।


मान भी लें कि वे बेदखल हो गये तो फिर मनमोहनी राजकाज की पुनरावृत्ति से कारपोरेट राज का अंत होगा,ऐसी कोई संभावना नहीं है।कांग्रेस और भाजपा के अलावा राज्यों में जो दल सत्ता पर काबिज हैं या विपक्ष में हैं,उनमें को कोई मुक्तबाजार के कारपोरेट राज के खिलाफ नहीं है और न कोई जनता का पक्षधर है।


1991 से भारत की आर्थिक नीतियों की निरंतराता में कोई व्यवधान नहीं आाया है।डिजिटल इंडिया की मौलिक योजना कांग्रेस की रही है जैसे आधार परियोजना,कर सुधार और जीएसटी कांग्रेस की परियोजनाएं है जिन्हें भाजपा की सरकार ने अमल में लाने का काम किया है।अब भी राज्यसभा में भाजपा को बहुमत नहीं है।अब भी केंद्र में गठबंधन सरकार है।


1989 से हमेशा केंद्र में अल्पमत या गठबंधन की सरकारे रही हैं।इसी दरम्यान तमाम आर्थिक सुधार हो गये।कुछ भी सार्वजनिक नहीं बचा है।


किसानों का सत्यानाश तो पहले हो ही चुका है अब कारोबारियों का भी सफाया होने लगा है और रोजगार, नौकरियां,आजीविका सिरे से खत्म करने की सारी संसदीय प्रक्रिया निर्विरोध सर्वदलीय सहमति से संपन्न होती रही है।


इस निरंकुश कारपोरेट राज ने भारत का सामाजिक तानाबाना और उत्पादन प्रणाली को तहस नहस कर दिया है।नतीजतन भोजन, पानी,रोजगार, शिक्षा,चिकित्सा और बुनियादी जरुरतों और सेवाओं से आम जनता सिरे से बेदखल हैं।किसान जमीन से बेदखल हो रहे हैं तो व्यवसायी कारोबार से।बच्चे अपने भविष्य से बेदखल हो रहे हैं तो युवा पीढ़ियां रोजगार और आजीविका से।


सामाजिक तानाबाने को मजबूत किये बिना हम इस कारपोरेट राज का मुकाबला नहीं कर सकते।इसलिए हम किसी भी राजनीतिक पक्ष विपक्ष में नहीं हैं।


हम हालात बदलने के लिए नये सिरे से संत फकीर, नवजागरण,मतुआ,लिंगायत  जैसे सामाजिक आंदोलन की जरुरत महसूस करते हैं, इन आंदोलनों के जैसे शिक्षा और चेतना आंदोलन की जरुरत महसूस करते हैं और महावनगर राजधानी से सांस्कृति आंदोलन को जनपदों की जड़ों में वापस ले जाने की जरुरत महसूस करते हैं। बाकी बचे खुचे जीवन में इसी काम में लगना है।



बहरहाल हमारे लिए सीधे जनता के मुखातिब होने का कोई माध्यम बचा नहीं है।प्रबुद्धजनों का पढ़ा लिखा तबका चूंकि सत्ता वर्ग के नाभिनाल से जुड़कर अपनी हैसियत और राजनीति के मुताबिक अपने ही हित में जनहित और राष्ट्रहित की व्याख्या करता है,तो उनपर भी हमारे कहे लिखे का असर होना नहीं हैे।

बहरहाल प्रिंट से बाहर हो जाने के बाद नब्वे के दशक से ब्लागिंग और सोशल मीडिया के मार्फत बोलते लिखते रहने का मेरा विकल्प भी अब सिरे से खत्म होने को है।


फिलहाल दो तीन महीने के लिए उत्तराखंड की तराई के सिडकुल साम्राज्य में मरुद्यान की तरह अभी तक साबुत अपने गांव में डेरा रहेगा।इसलिए कंप्यूटर,नेट के बिना मेरा लिखना बोलना स्थगित ही रहना है क्योंकि मैं स्मार्ट फोन का अभ्यस्त नहीं हूं।


पत्र व्यवाहर के लिए अब मेरा पता इस प्रकार रहेगाः

पलाश विश्वास

द्वारा पद्मलोचन विश्वास

गांव बसंतीपुर

पोस्टःदिनेशपुर

जिलाः उधमसिंह नगर,उत्तराखंड

पिनकोडः263160


बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव? पलाश विश्वास

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बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?

पलाश विश्वास

मई दिवस को जनता के अर्थशास्त्री डा.अशोक मित्र का 9.15 पर निधन हुआ। प्राध्यापक इमानुल हक की फेसबुक पोस्ट से दस बजे के करीब खबर मिली।


पुष्टि के लिए टीवी चैनलों को ब्राउज किया तो 10.30 बजे तक कहीं कोई सूचना तक नहीं मिली।गुगल बाबा से लेकर अति वाचाल सोशल मीडिया के पेज खंगाले तो कुछ पता नहीं चला।फिर हारकर एबीपी आनंद पर पंचायत चुनाव को लेकर  पैनली चीख पुकार के मध्य स्क्रालिंग पर निधन की एक पंक्ति की सूचना मिली तो लिखने बैठा।


आज कोलकाता में कोई अखबार प्रकाशित नहीं हुआ और टीवी पर कहीं भी अशोक मित्र की कोई चर्चा नहीं है।रविवार से लेकर बुधवार तक दीदी की कृपा से दफ्तरों में अवकाश है तो कोलकाता में भी छुट्टी का माहौल है।कहीं पर अशोक मित्र पर कोई चर्चा नहीं है।


सुबह समयांतर के संपादक आदरणीय पंकज बिष्ट का फोन आया तो पता चला कि दिल्ली में आज अखबारों में खबर तो आयी है लेकिन टीवी चैनलों पर अशोक मित्र नहीं है।देश को मालूम ही नहीं पड़ा कि किसी अशोक मित्र का निधन हो गया है।


इसके विपरीत,आज के बांग्लादेश के अखबारों और टीवी चैनलों को देखा तो वहीं सर्वत्र इस उपमहाद्वीप के महान अर्थशास्त्री और साहित्यकार अशोक मित्र की चर्चा हर कहीं देखकर हैरत हुई कि उनके मुकाबले हमारी सांस्कृतिक हैसियत कहां है,यह सोचकर।


अभी हाल में एक बालीवूड अभिनेत्री के शराब पीकर विदेश में बथटब में दम घुटने से हुई मौत पर हफ्तेभर का राष्ट्रीय शोक का नजारा याद आता है तो अहसास होता है कि जो बिकाऊ है,वही मुक्त बाजार का सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आइकन है।


वैसे भी हिंदी समाज को अपनी संस्थाओं,विरासत और इतिहास की कोई परवाह नहीं होती।बाकी भारतीय भाषाओं में भी पढ़ने लिखने का मतलब या तो साहित्य है या फिर धर्म या अपराध या सत्ता की राजनीति,राजनीति विज्ञान नहीं।


इतिहास के नाम पर हम मिथकों की च्रर्चा करते हैं।इतिहास लेखन हमारी विरासत नहीं है।इतिहास की चर्चा करने पर हम सीधे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण ,महाभारत, मनुस्मृति, इत्यादि की बात करते हैं,जिसे साहित्य तो कहा जा सकता है,इतिहास कतई नहीं।


एशिया के मुकाबले यूरोप में मध्ययुग में गहन अंधकार कहीं ज्यादा था।अमेरिका का इतिहास ही कुश सौ साल का है।लेकिन यूरोप और अमेरिका में नवजागरण के बाद ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों और विधाओं की अकादमिक चर्चा होती रही है।वस्तुगत विधि से समय का इतिहास सिलसिलेवार दर्ज किया जाता रहा है तो हम मध्ययुग से पीछे हटते चले जा रहे हैं और आदिम बर्बर प्राचीन असभ्यता के काल में,जहां हमारी संस्कृति में हिंसा और घृणा के सिवाय कुछ बचता ही नहीं है।


हम मिथकों और धर्मग्रंथ को इतिहास मानते हुए अत्याधुनिक तकनीक से ज्ञान विज्ञान की लगातार हत्या कर रहे हैं।यही हमारा राष्ट्रवादी उन्माद है,जिसका इलाज नहीं है।


एक छोटे से द्वीप इंग्लैंड की भाषा अंग्रेजी सिर्फ नस्ली और साम्राज्यवादी वर्चस्व से पूरी दुनिया पर राज कर रही है,इस धारणा के चलते हम अंग्रेजी से घृणा करते हैं।लेकिन अंग्रेजी भाषा और साहित्य में विश्वभर की तमाम संस्कृतियों,साहित्य और ज्ञान विज्ञान पर जो सिलसिलेवार विमर्श जारी है,उसके मुकाबले हमने भारतीय भाषाओं में साहित्य और धर्म के अलावा ज्ञान विज्ञान पर आम जनता को संबोधित किसी संवाद का उपक्रम शुरु ही नहीं किया है।ज्ञान हमारी शिक्षा का उद्देश्य नहीं रही है और न रोजगार का मकसद शिक्षा का है।यह हमारी क्रयशक्ति का अश्लील प्रदर्शन है।


आज जो लूट का तंत्र देश को खुले बाजार बेच रहा है,उसकी वजह यही है कि शिक्षा के अभूतपूर्व विकास के बावजूद ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में पाठ्यक्रम की परिधि से बाहर हम अब भी अपढ़ हैं और हम चौबीसों घंटे राजनीति पर चर्चा करते रहने के बावजूद राजनीति नहीं समझते।


हमारी कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है और न हमारा कोई इतिहास बोध है।


हमने देश को मुक्तबाजार बना दिया है  और धार्मिक कर्मकांड को ही सांस्कृतिक विरासत मानते हुए सांस्कृतिक बहुलता और विविधता के साथ साथ इतिहास और भूगोल की हत्या कर दी।


बाजार का व्याकरण ही हमारे लिए अर्थशास्त्र है और उत्पादन प्रणाली और श्रम से,उत्पादकों से हमारा कोई रिश्ता नहीं है।


गांव,खेत और किसानों के साथ साथ देशी उद्योग,धंधों के कत्लेआम के दृश्य देखने के लिए हमारी कोई आंख नहीं बची है।


छात्रों,युवाजनों,बच्चों,महिलाओं और वयस्कों की असहाय असुरक्षित स्थिति से हमें कोई फर्क तब तक नहीं पड़ता जबकि हम अपने गांव या नगर महानगर में बाजार में उपलब्ध भोग सामग्री के उपभोग से वंचित न हो जायें।


ऐसे परिदृश्य में में न परिवार बचा है और न समाज।

अब हम कह नहीं सकते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं।

हम पूरी तरह असामाजिक हो गये हैं।

हमारा कोई सामुदायिक जीवन नहीं है।

इसीलिए इतिहास,सांस्कृतिक विरासत, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र, संप्रभुता,स्वतंत्रता,समानता,न्याय,प्रेम जैसी अवधारणाएं हमारे लिए बेमायने हैं।


टीवी पर जो नजर आये,जो जैसे भी हो करोड़पति अरबपति हो जाये, वे ही हमारे आदर्श है।हमारा न कोई पूर्वज है, न हमारा कोई मनीषी है, न हमारी कोई संस्कृति है, न हमारा कोई इतिहास है।


न हमारा कोई अतीत है और न वर्तमान, और न भविष्य।

न हमारा कोई राष्ट्र है और न कोई राष्ट्रीयता।

सिर्फ अंध राष्ट्रवाद है।

हमारे दिलोदिमाग में बाजार है बाकी हम डिजिटल इंडिया है,जिसका न कोई संविधान है और न कोई कानून।


बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?




महाश्वेता देवी के धनबाद के दो घनिष्ठ लोगः कामरेड एके राय और मैं

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महाश्वेता देवी के धनबाद के दो घनिष्ठ लोगः कामरेड एके राय और मैं

पलाश विश्वास

सत्ताइस साल कोलकाता और बंगाल में बिताने के बाद मैं उत्तराखंड की तराई के दिनेशपुर रूद्रपुर इलाके में अपने गांव वापस जा रहा हूं।ऐसे में हमेशा के लिए बंगाल छोड़ जाने का दुःख के साथ आखिरकार अपने गांव अपने लोगों के बीच जा पाने की खुशी दोनों एकाकार है।अब मैं यहां का डेरा समेटने में लगा हूं तो ऐसे में धनबाद से कामरेड एके राय के गंभीर रुप से बीमार पड़ने की खबर मिली है।


दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज पर मेरे चर्चित उपन्यास अमेरिका से सावधान पर लिखते हुए अपने लेख में महाश्वेता दी ने धनबाद में कामरेड एके राय और मेरे साथ घनिष्ठ संपर्क होने की बात लिखी थी।महाश्वेता दी कई बरस हुए,नहीं हैं।अभी अभी कामरेड अशोक मित्र का भी अवसान हो गया।नवारुणदा महाश्वेता देवी से पहले कैंसर से हार कर चल दिये।कोलकाता का बंधन इस तरह लगातार टूटता जा रहा था। 1984 में मैंने धनबाद छोड़ और तबसे लेकर अबतक धनबाद से कोई रिश्ता बचा हुआ था तो वह कामरेड एके राय के कारण ही।


यूं तो 1970 में ही आठवीं पास करने से पहले तराई से जगन्नाथ मिश्र के बाद शायद पहले पत्रकार गोपाल विश्वास संपादित अखबार तराई टाइम्स में मैं छपने लगा था।हालांकि चूंकि मेरे पिता सामाजिक कार्यकर्ता और किसानों और शरणार्थियों के नेता पुलिनबाबू की मदद के लिए देश भर के शरणार्थियों और किसानों की समस्याओं पर कक्षा दो से ही मुझे नियमित लिखना पढ़ता था क्योंकि पिताजी हिंदी में बेहतर लिख नहीं पाते थे।1973 में जीआईसी नैनीताल पहुंचने के बाद गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की प्रेरणा से मेरा हिंदी पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन शुरु हो गया। लेकिन जनसरोकार और वैज्ञानिक सोच के साथ लेखन का सिलसिला नैनीताल समाचार से शुरु हुआ।


राजीव लोचन शाह,गिरदा और शेखर पाठक,नैनीताल समाचार,पहाड़ और उत्तराखंड संघर्षवाहिनी के तमाम साथी मेरे  थोक भाव से लगातार अब तक लिखते रहने की बुरी आदत के लिए जिम्मेदार हैं।इनमें भी गिरदा,विपिन त्रिपाठी,निर्मल जोशी,भगतदाज्यू जैसे आधे से ज्यादा लोग अब नहीं है। एक तो बांग्लाभाषी,फिर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी के इस तरह आजीवन हिंदी साहित्य न सही,हिंदी पत्रकारिता में खप जाने के पीछे इन सभी लोगों का अवदान है।


एमए पास करने के बाद कालेजों में नौकरी करने का विकल्प मेरे पास खुला था लेकिन मैं डीएसबी नैनीताल में पढ़ाना चाहता था और इसके लिए पीएचडी जरुरी थी।इसी जिद की वजह से मैं नैनीताल छोड़ने को मजबूर हुआ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गया।इलाहाबाद में शैलेश मटियानी और शेखर जोशी के मार्फत पूरी साहित्यिक बिरादरी से आत्मीयता हो गयी,लेकिन वीरेनदा और मंगलेश दा के सुझाव मानकर मैं उर्मिलेश के साथ जेएनयू पहुंच गया।वहीं मैंने महाश्वेता दी का उपन्यास जंगल के दावेदार हिंदी में पढ़ा।


इसी दरम्यान उर्मिलेश कामरेेड एके राय से मिलने धनबाद चले गये,जहां दैनिक आवाज में मदन कश्यप थे।मैं बसंतीपुर गया तो एक आयोजन में झगड़े की वजह से सार्वजनिक तौर पर पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया।अगले ही दिन उर्मिलेश का पत्र आया कि धनबाद में आवाज में मेरी जरुरत है। वे दरअसल उर्मिलेश को चाहते थे लेकिन तब उर्मिलेश जेएनयू में शोध कर रहे थे और पत्रकारिता करना नहीं चाहते थे।उन्होंने मुझे पत्रकारिता में झोंक दिया,हांलाकि बाद में वे भी आखिरकार पत्रकार बन गये। शायद दिलोदिमाग में बीरसा मुंडा के विद्रोह और कामरेड एके राय के आंदोलन का गहरा असर रहा होगा कि पिताजी के खिलाफ गुस्से के बहाने शोध,  विश्वविद्यालय, वगैरह अकादमिक मेरी महत्वाकांक्षाएं एक झटके के साथ खत्म हो गयी और मैं धनबाद पहुंच गया।


अप्रैल,1980 में दैनिक आवाज में काम के साथ आदिवासियों और मजदूरों के आंदोलनों के साथ मेरा नाम जुड़ गया और बहुत जल्दी एकेराय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो से घनिष्ठता हो गयी। वहीं मनमोहन पाठक, मदन कश्यप,बीबी शर्मा,वीरभारत तलवार और कुल्टी में संजीव थे,तो एक टीम बन गयी और हम झारखंड आंदोलन के साथ हो गये,जिसके नेता कामरेड एके राय थे जो धनबाद के सांसद भी थे।


एके राय झारखंड को लालखंड बनाना चाहते थे और उनकी सबसे बड़ी ताकत कोलियरी कामगार यूनियन थी।वे अविवाहित थे और सांसद होने के बावजूद एक होल टाइमर की तरह पुराना बाजार में यूनियन के दफ्तर में रहते थे।अब भी शायद वहीं हों।


कोलियरी कामगार  यूनियन ने धनबाद में प्रेमचंद जयंती पर महाश्वेता देवी को मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया।वक्ताओं में मैं भी था।महाश्वेता दी के साथ कामरेड एके राय और मेरी घनिष्ठता की वह शुरुआत थी।


यहीं से मेरे लेखन में किसानों और शरणार्थियों के साथ साथ आदिवासी और मजदूरों की समस्याएं प्रमुखता से छा गयीं तो नैनीताल समाचार और पहाड़ की वजह से पिछले करीब चालीस साल तक पहाड़ से बाहर होने के बावजूद  हिमालय और उत्तराखंड से मैं कभी दूर नहीं रह सका।

महाश्वेता दी मुझे कुमायूंनी बंगाली लिखा कहा करती थी।


कामरेड एके राय एकदम अलग किस्म के मार्क्सवादी थे।जो हमेशा जमीन से जुड़े थे और विचारधारा से उनका कभी विचलन नहीं हुआ।बल्कि शिबू सोरेन और सूरजमंडल की जोड़ी ने कामरेड एके राय को झारखंड आंदोलन से उन्हें दीकू बताते हुए अलग थलग कर दिया तो झारखंड आंदोलन का ही विचलन और विघटन हो गया।कामरेड राय लगातार अंग्रेजी दैनिकों में लिखते रहे हैं और उनका लेखन भी अद्भुत है।


भारतीय वामपंथी नेतृत्व ने कामरेड एकेराय और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता,आर्थिक सुधारों के पहले शहीद शंकर गुहा नियोगी का नोटिस नहीं लिया,जो सीधे जमीन से जुड़े हुए थे और भारतीय सामाजिक यथार्थ के समझदार थे।


वामपंथ से महाश्वेता दी के अलगाव की कथा भी हैरतअंगेज है।यह कथा फिर कभी।


अशोक मित्र, ऋत्विक घटक,सोमनाथ होड़,देवव्रत विश्वास जैससे भारतीय यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध लोगों को भी वामपंथ का वर्चस्ववादी कुलीन नेतृत्व बर्दाश्त नहीं कर सका।आज भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले गये वामपंथियों को इस सच का सामना करना ही चाहिए।



प्रेरणा अंशु किसान,गांव,प्रकृति और पर्यावरण पर विमर्श की पत्रिका है ताकि किसानों,कामगारों और बहुसंख्य वंचितो के हित में विकास के जनमुखी माडल के साथ समता और न्याय के आधार पर समाज का निर्माण हो।

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 प्रेरणा अंशु के संस्थापक संपादक और मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता दिवंगत मास्टर प्रताप सिहं के सपनों और आदर्सों के मुताबिक प्रेरणा अंशु  किसान,गांव,प्रकृति और पर्यावरण पर विमर्श की पत्रिका  है ताकि किसानों,कामगारों और बहुसंख्य वंचितो के हित में विकास के जनमुखी माडल के साथ समता और न्याय के आधार पर समाज का निर्माण हो।
प्रेरणा अंशु उत्तराखंड की तराई से 32 साल से निकलने वाली सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन की वाहक है।
छात्रों,युवाओं और नवोदितों को इसमें वरीयता दी जाती है लेकिन सामाजिक सरोकार और तेवर के साथ प्रतिष्ठितों का भी स्वागत है।
आलेख दो सौ शब्दों के,कहानी ज्यादा से ज्यादा तीन पेजों की,लघुकथा,व्यंग्य,रपट,आलोचना,कविता,गजल,गीत समेत सभी विधाओं और ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर मौलिक रचनाओं का स्वागत है।ज्यादा से ज्यादा लोगों को स्पेस देने के लोकतंत्र का ख्याल रखते हुए छोटी,सारगर्भित रचनाएं ही भेजें।
रचनाएं मेल से भेज सकते हैंः
Email:perrnaanshu @gmail.com
संसाधनों की सीमाबद्धता के बावजूद सामाजिक नेटवर्किंग के माध्यम से मास्साब यह पत्रिका 32 वर्षों से चला रहे थे।हम इसी परंपरा का निर्अवाह कर रहे हैं। अब हमें आपका सहयोग चाहिए।
पत्रिका के सदस्य,प्रतिनिधि बनकर आप हमारे इस सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन के नेटवर्क में शामिल हो सकते हैं।
ब्यौरे के लिए मेल करें या पत्र लिखें।
पताः संपादक,प्रेरणा अंशु,
समाजोत्थान संस्थान,
वार्ड नंबर3,
दिनेशपुर,
ऊधमसिंहनगर (उत्तराखंड)
पिन-263160
 कार्यकारी संपादक
पलाश विश्वास


अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।

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अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।
पलाश विश्वास
बंगाल में पंचायत चुनावों में वामपंथियों ने सीटों के तालमेल के बहाने ममता बनर्जी को हराने के नाम पर कांग्रेस के साथ साथ भाजपा के साथ भी गठबंधन कर लिया है और वैचारिक लीपापोती करके इस सच को छुपाने का काम भी वे कर रहे हैं।इससे नाराज हतास वामपंथी कार्यकर्ता सत्ता के साथ होने की लालच में भाजपा के सात ही नत्थी होंगे और संपूर्ण भगवाकरण की हालत में बंगाल में लाल रंग ही सिरे से गायब हो जायेगा।

इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।वामपंथी सत्ता के लिए हमेशा समझौते करते रहे हैं। असम,मेघालय और त्रिपुरा के भगवेकरण का कोई प्रतिरोध वाम नेतृत्व ने नहीं किया और उन्हें जड़े जमाने का मोका भरपूर दिया।इसलिए नतीजे आने से पहले ही मैं कह रहा था कि त्रिपुरा में वामपंथी ही वामपंथ को हराने वाला है।हमारे मित्रों ने इस पर यकीन नहीं किया।

सच यही है कि भारत में समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण रोकने के लिए ही अपने व्रग जाति हितों के मुताबिक वामपंथियों ने ही वामपंथ को हरा दिया है।

बंगाल से पहले उत्तरभारत में वामपंथ का बहुत असर रहा है और वाम नेतृ्त्व ने यूपी,बिहार,पंजाब जैसे राज्यों में अपने ही नेताओं और कार्यकर्ताओं को हाशिये पर डालकर वामपंथ का सफाया कर दिया।

ईमानदारी से इस सच का सामना किये बिना आप हिंदुत्व सुनामी को रोक नहीं सकते।


पार्टी और जनसंगठनों में करोडो़ं कैडर होने के बावजूद,तीन राज्यों की सरकारे ंबचाने के लिए लिए लगातार कांग्रेस की जनविरोधी सरकार को समर्थन देना क्या भूल गये? 

जनहित और जनसरोकारों से खुल्लमखुल्ला दगा करने के भोगे हुए यथार्थ और केंद्र सरकार की जनसंहारी नीतियो के वास्तव अनुभवों से आम जनता दस साल के करीब करीब अंत के दौरान विचारधारा के पाखंड के तहत भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के फर्जी विरोध के नाटक पर यकीन नहीं कर सकी।

नागरिकता कानून संशोधन हो या श्रम कानूनों का खात्मा या फिर आधार योजना,वामपंथियों ने आम जनता के हितों के मुताबिक कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया।
  इसीलिए 1991 के बाद से लेकर अब तक आर्थिक सुधारों का कोई कारगर विरोध नहीं हो पाया।ट्रेड यूनियनों पर दशकों के एकाधिकार होने के बावजूद श्रम कानूनों केसाथ साथ कामगारों के हकहकूक ,रोजगार खत्म होने के किलाफ इसीलिे कोई विरोध नहीं हुआ।

मलयाली और बंगाली नेतृत्व के वर्चस्ववादी रवैये की वजह से बाकी देश में वामपंथ का पूरा सफाया हो गया है।इस वर्चस्व को बनाये रखने के लिए 1977 में संघियों के साथ गठजोड़ हुआ तो बंगाल में अजय मुखर्जी सरकार और ज्योति बसु की सरकार के दौरान नक्सल उन्मूलन के नाम पर मेहनतकश तबके के दमन,सफाये का आप क्या कहेंगे?

विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का समर्थन तो भाजपा के साथ ही वामपंथी कर रहे थे।1977 में सत्ता में आये संघियों ने हर क्षेत्र में घुसपैठ कर ली तो वीपी शासनकाल के दौरान हिंदुत्व की लहर पैदा करके आखिरकार बाबरी विध्वंस की नींव पर भारत को हिंदू राष्ट्र बना ही लिया।दरअसल वाम नेतृत्व विचारधारा के पाखंड के तहत धर्मनिरपेक्षता की रट तो लगाता रहा लेकिन अपने वर्ग,जाति हित के तहत वे हिंदू राष्ट्र के कभी विरोधी नहीं थे।

यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत में सांप्रदायिक ध्रूवीकरण की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल में ही हुआ और उन्ही सांप्रदायिक त्वों के वारिसान ने पूरे वामपंथ पर कब्जा करके मनुस्मृति के एजंडे को ही लागू करने में जन प्रतिरोध की हालत बनने न देकर सबसे ज्यादा मदद की है।

जमीनी,प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और नेताओं को इन लोगों ने  दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया।

फिर बाजार की ताकतों के भरोसे नंदीग्राम सिंगुर प्रकरण का क्या?

बहुजन तबकों को स्थानीय नेतृ्त्व में भी प्रतिनिधित्व न देने वाले वामपंथी संघियों से भी ज्यादा ब्राह्मणवादी है और वर्गीयध्रूवीकरण के बजाय वर्ग जाति अस्मिता वर्चस्व के तहत मरण पर्यंत अपना नेतृत्व बनाये रखना ही इनका मकसद है।

आपको ताज्जुब हो रहा है लेकिन दशकों के अनुभव के तहत मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा है।त्रिपुरा में भी हार तय थी।दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के 32 वें वार्षिकोत्सव पर देशभर के सामाजिक कार्यकर्ताओं से मैने यही कहा था।

वामपंथियों के अवसरवाद की वजह से ही उत्तर भारत में संघियों के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं बन सका और इसी वजह से बंगाल के बाद केरल औरत्रिपुरा में भगवा झंडा लहरा रहा है।असम और पूर्वोत्तर के भगवेकरण से पहले वामपंथियों का भगवाकरण हो गया  है।

बहुजनों के सफाये में वामपंथी भी पीछे नहीं हैं।मरीचझांपी से लेकर नंदीग्राम सिंगुर तक इसके गवाह हैं।नक्सलियों के सफाये में भी ज्यादातर आदिवासी ,दलित और पिछड़े मारे गये।

बदले हुए हालात में सत्तालोलुप वाम नेतृत्व अगर भाजपा के साथ बंगाल में भी सरकार बनायें तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।लेकिन आशंका हैकि यह मौका भी उनके हाथ ऩहीं लगेगा।अगर ममता बनर्जी नहीं सुधरीं तो जिस तेजी से बंगाल का उग्र हिंदुत्वकरण हो रहा है,भाजपा देर सवेर अकेले ही सत्ता दखल कर लेगी।

जिस सच को वामपंथी नजर्ंदाज कर रहे हैं,वह यह है कि  वामपंथी भाजपा से कितना ही मधुर रिश्ता बना लें लेकिन वामपंथी नेतृत्व न  सही वामपंथी विचारधारा और आंदोलन से संघियों को सबसे ज्यादा नफरत है,जिनकी वजह से उनका हिंदुत्व एजंडा छात्रों,युवाओं,किसानों,कामगारों के प्रतिरोध के कारण लागू करना अब भी असंभव है।

रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं? पलाश विश्वास

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रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं?
पलाश विश्वास

I was with religious fanatics for many years. In fact, I was one of them. They don't understand Tagore, and his message of universal humanity and emancipation. Their hate and bigotry is dark, divisive, and past. Rabindranath Tagore is love, light and future.


बंगाल में आज रवींद्र जयंती की रस्म अदायगी हो रही है।जो मूलतः रवींद्र संगीत पर केंद्रित है।नजरुल जयंती पर भी यही माहौल होता है।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।रवींद्र विमर्श पर कोई जनसंवाद नहीं होता और न नजरुल साहित्य पर।ज्ञान पर एकाधिकार वर्चस्व की वजह से बहुसंख्य जनता के साथ ज्ञान के मठाधीश का बर्ताव जजमानों को प्रसाद बांटने जैसा होता है।साहित्य में भी यही उपक्रम जारी है ।इसे यूं समझें कि जैसे मीडिया में सूचनाओं की पल दर प्रतिपल आंधियां चलती रहती हैं और ये सारी सूचनाएं सत्ता वर्ग के हित में होती हैं जिनसे आम जनता के हितों का कोई संबंध नहीं होता।एक उदाहरण पेश करुं तो शायद बहुतों को बेहद बुरा लग सकता है।बाकी दुनिया के मुकाबले में हमारे यहां दलित साहित्य के नाम पर आत्मकथाओं को जोर शोर से महिमामंडन किया जाता है।यह दलित आत्मकथा और स्त्री आत्मक्थ्य के बारे में समान रुप से सच है।नतीजतन भारतीय भाषाओं में  समूचा दलित साहित्य आत्मक्थ्य के विविध रुप हैं,जहां व्यक्ति के संघर्ष और व्यक्ति के उत्थान का ही घनघोर महिमामंडन किया जाता है।असके विपरीत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और स्त्रियों के भी जबर्दस्त सामूहिक सामुदायिक जीवन की,समाज को बदल डालने के प्रयासों,आंदोलननो,सामूहिक विद्रोहों के आख्यान या तो बहुत कम लिखे जाते हैं या जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है।
रवींद्र साहित्य और नजरुल साहित्य का भी सच यही है।खासकर रवींद्र ने अस्पृश्यता के खिलाफ,अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ,सामाजिक विषमता के विरुद्ध,वर्चस्ववाद के खिलाफ,दलितों,स्त्रियों और किसानों के हक में जो लिखा है,वर्चस्ववाद के खिलाफ जो विद्रोह किया है,उस पर कोई चर्चा बंगाल या बंगाल से बाहर होती नहीं है।गीतांजलि भी उनका आत्मकथ्य है और यह दैवी सत्ता के खिलाफ विद्रोह है जिसे आध्यात्म कहा जाता है।उनकी प्रमुख रचनाओं  का स्रोत बौद्ध साहित्य है लेकिन उन्हे वेद उपनिषद से प्रभावित कहकर प्रचारित किया जाता है।
बंगाली स्त्रियों के कंठ और ह्रदय में रवींद्र और नजरुल संगीत जिंदा है क्यों रवींद्र और नजरुल के गीतों में ही स्त्री को पितृसत्ता की दीवारों से मुक्ति मिलती है।इसके विपरीत रवींद्र को हिंदू कुलीन  राष्ट्रवाद के महानायक बतौर पेश किया जाता है और यही सलूक डा.भीमराव अंबेडकर के साथ भी हो रहा है।
इस पर मैंने बहुत लिखा है।आगे जीते रहें तो फिर लिखते रहेंगे।
सविता इस वक्त सोदपुर की स्त्रियों के साथ रवींद्र जयंती पर हर साल की तरह कार्यक्रम में गयी हैं और जाने से पहले पूछकर गयी है कि उत्तराखंड में क्या स्त्री को इतनी आजादी है और वहां क्या स्त्रियों के लिए सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों के अवसर हैं,मैं जवाब में कुछ कह नहीं सका।
अमेरिका में तीन दशक से ज्यादा समय से रह रहे डा.पार्थ बनर्जी ने अमेरिका और यूरोप में फ्रीसेक्स के मिथ को तोड़ते हुए फेसबुक पर भारत के पुरुष वर्चस्व और अज्ञानता के अंधकार पर प्रहार किया है और बांग्ला में लिखा यह पोस्ट मैंने शेयर भी किया है।पार्थबाबू से बात हुई है कि इस टिप्पणी का अनुवाद करके प्रकाशित किया जाना है।
आज उऩ्होंने रवींद्र जयंती पर बंगालियों के रवींद्र प्रेम के पाखंड की धज्जियां उधेड़ते हुए दावा किया है  कि वे रवींद्र को समझते ही नहीं है।
पार्थ बाबू विद्वान हैं और वे ऐसा दावा करने की हैसियत भी रखते हैंषहम ऐसा कह लिख नहीं सकते हैं।लेकिन उन्होंने रवींद्र विमर्श पर मेरे लिखे को अपनी इन टिप्पणियों से सही साबित कर दिया है।

On the birthday of poet-philosopher-educator Rabindranath Tagore, I created an English-language audio program -- especially for my American friends, Indian and Pakistani friends, and Bengali-origin young people who would prefer English over Bengali. The program is open and free. I hope you listen, comment, and share. Tagore finds me my identity, my consciousness, my progressive mission, and truly, my reason to live. No, he is not God. He is a man, who symbolized modernity and enlightenment.

বাঙালিদের একটা স্বভাব আছে, খুব কম জেনেও অনেক কথা বলা। তাও আবার ভুল বানানে। যাই হোক, আমি তো আর ব্যাকরণচঞ্চু নই। তাও, রবীন্দ্রনাথের উক্তি বলে যাহোক তাহোক কারুর একটা ভুলভাল উক্তি ভুল-বানানে কোট করে দিচ্ছে দেখলে মনে একটা রক্তলোলুপ প্রতিহিংসার মনোভাব জাগে। ভীষণরকম নন-ভায়োলেন্ট বলে কিছু করতে পারিনা। এই করে করে আঙুলের নখগুলো চিবিয়ে আখের ছিবড়ে করে ফেলেছি।

বাঙালি কত জানে! শ্লীলতা অশ্লীলতার ব্যাপারটা তো আছেই। আমেরিকা ঘোর অশ্লীল। বীভৎস। "ওখানে যা সব ব্যাপার হয়, সে আর কী বলবো মশাই। ট্রেন বাস রাস্তাঘাট পার্কে পশ্চিমে সর্বত্র চূড়ান্ত বেলেল্লাপনা চলে। মানুষ, না কুকুর?" "কোথায় দেখলেন, দাদা, দিদি?" "দেখার কোনো দরকার নেই। খবর পাই।" "আহা, কোথায় খবরটা পেলেন, সেটা বলুন?" "ওই তো, আমাদের এক ভাগ্নের বাড়িওলার ছোট ছেলের মেজো শালা গিয়েছিলো।" "ও আচ্ছা, তাই বলুন। আপনি অন্যের মুখের ঝোল ঝাল অম্বল খাচ্ছেন।"

এই পর্যন্ত বলার পরে কথার মোড় অন্যদিকে ঘুরেই যাবে। কারণ বক্তা এখন রেগে আগুন, এবং বিলো-বেল্ট একখানা ঝাড়ার জন্যে তৈরী হচ্ছেন। "আরে যান যান মশাই। আপনাদের আমেরিকার কথা আর বলবেন না।" "কেন, আবার কী হলো?" "কী আপনি আমেরিকায় স্কুলে ছেলেমেয়েদের ওপর মারধোর করা হয়না বলছেন? ছাত্রদের প্রতি হিংসা হচ্ছে না কিন্তু তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে। আমেরিকার কাণ্ড কারখানা দেখে হাঁসাও যায় না কাঁদাও যায় না।" (অ্যাকচুয়াল কমেন্ট আজকেই -- বানান বিভীষিকার "হাঁসি"।)। আমার উত্তর, " "তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে ।" -- কোথায় হলো? আপনারা কত জানেন! আমেরিকা সম্পর্কে কিছু না জেনেই সেখানকার ছাত্রদের সম্পর্কে আপনাদের কী মূল্যবান ধারণা! বরং, ফ্লোরিডার বন্দুকবাজির পরে সারা আমেরিকায় ছাত্রছাত্রীরা প্রতিবাদ করে রাস্তায় নেমেছে এই ভায়োলেন্স বন্ধ করার জন্যে। এসব খবর কি আপনাদের কানে পৌঁছয় না?"

এইরকম আরো আছে। অনেক। যদি বলি, এর পরেও কি আপনি আপনার ছেলেকে বা মেয়েকে আমেরিকায় আসার চান্স পেলে বন্ধ করবেন তার আসা?" তখন দেখবেন, সবাই অদৃশ্য। কিন্তু, ঝাল ঝাড়া থেকেই যাবে। যদি বলেন, "আচ্ছা, আমেরিকার ম্যাকডোনাল্ড, কোক, পিজ্জা হাট, কে এফ সি'তে যান না কখনো?" নিঃশব্দ। "আমেরিকান সিনেমা দেখেন না?" কেউ নেই তখন স্টেজে।

আর যা যা দেখেন আমেরিকার জিনিস (ইচ্ছে করেই "জিনিস" লিখলাম ভুল বানানে) -- শ্লীলতার খাতিরে সেসব আর লিখলাম না। আফটার অল, এই ফেসবুকে আমার বৌ, বোন, বন্ধু আর হাজার ছাত্রছাত্রী আছে। কিছুটা শুনুন, আর অন্যটা ইম্যাজিন করে নিন। সত্যজিৎ রায়ের "নীল আতঙ্ক" এর কাছে শিশু!

আমেরিকার শাসকদের বিরুদ্ধে, যুদ্ধ, সি আই এ, বন্দুকবাজি, পুলিশি অত্যাচার, মিডিয়া ও মানবাধিকার লঙ্ঘনের বিষয়ে আমি এতো লিখেছি যে লোকে ভাবে আমি পাগল। এতোই মূর্খ যে নিজের ভালোমন্দ, নিরাপত্তাও বুঝিনা। যা খুশি লিখি। একদিকে এইসব লিখি, আবার অন্যদিকে আমেরিকার বা অন্য কিছুটা উন্নত দেশের শিক্ষাব্যবস্থার আধুনিকতা, নারীর স্বাধীনতা সমানাধিকার, শিশুদের জন্যে হাজার আনন্দ পার্ক খেলার ব্যবস্থা সিনেমা, তারা যাতে ভয়হীন ভাবে বড় হতে পারে, তার জন্যে স্কুলে একেবারে প্রথম থেকেই নিবেদিতপ্রাণ শিক্ষক শিক্ষিকাদের দেওয়া ভালোবাসা -- তা নিয়ে লিখেছি বহু বছর ধরে। আবার এই মার্কিন বন্ধু ও বান্ধবীদের, গুরুস্থানীয় মানুষদের খুব কাছ থেকে দেখেছি হিউম্যান রাইটস'এর কাজ করতে, পরিবেশ নিয়ে আন্দোলন করতে, যুদ্ধের বিরুদ্ধে রাস্তায় নামতে। তাদের কাছে অনেক শিখেছি।

এইসব কথা বাঙালিরা তেমন কেউ জানতেও চায়না। শিখতেও চায়না। কিন্তু বাজে বকতে তো আর পয়সা লাগেনা। আর সেন্টিমেন্টাল বাঙালি বাজে বকতে পেলে আর কিছু চায়না। কাজেই ....

ফেসবুকে এসব কথা বলে কোনো লাভ আছে কি? যেখানে একটা তিনশো বছরের পুরোনো ঠাকুর, অথবা তিন বছরের পুরোনো কুকুরের ছবি পোস্ট করলে তিন হাজার নতুন লাইক পাওয়া যায়?

শ্লীলতা অশ্লীলতা আলোচনায় অনেক বাঙালি কুকুর প্রসঙ্গ এনেছেন। আমার মনে হয়, এঁরা মানুষ যত না চেনেন, কুকুর চেনেন তার চেয়ে বেশি। আমার মনে হয়, এঁরা আসলে সবাই সেই ধর্মরাজরূপী সারমেয়নন্দন। নইলে, এতো ধার্মিক আবার কুকুর-বিশেষজ্ঞ -- একসাথে এমন আশ্চর্য সঙ্গম তাঁদের মধ্যে ঘটলো কী করে?

এ যে অদ্ভুত মিরাক্কেল!
__________________________

রবীন্দ্র জয়ন্তীতে আমার কবি প্রণাম।

নিউ ইয়র্ক, ইউ এস এ।

Partha Banerjee ও হ্যাঁ, রবীন্দ্রভক্ত বাঙালিদের বলতে ভুলে গেছি এই পঁচিশে বৈশাখে -- ইস্কুলে এই প্রাচীনপন্থী শিক্ষাব্যবস্থা সহ্য করতে না পেরে রবীন্দ্রনাথ ওই স্কুলগুলো বর্জন করেছিলেন, এবং পরে মুক্তচিন্তার বিশ্বভারতী প্রতিষ্ঠা করেছিলেন। অবশ্য ইতিহাস কেউ পড়েনা, আর অনেকে আজকাল ভুলিয়ে দেওয়ার চেষ্টাও করে যাচ্ছে খুব বেশি।

अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। पलाश विश्वास

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अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। 
पलाश विश्वास
आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी ने जनवादी लेखक संघ की कथा बांची है और इसपर प्रतिक्रियाओं के जरिये शिवराम और महेंद्र नेह के नाम आये हैं,जिनसे हमारे बेहद अंतरंग संबंध आपातकालके दौरान हो गये थे।

जगदीश्वरजी की कथा पर मेरा यह मतव्य नहीं है क्योंकि जिन लोगों के नाम उन्होंने गिनाये हैं,उनकी सचमुच बहुत बड़ी भूमिका रही है। लेकिन जनवादी लेखकों का संगठन बनाने में उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची जी की बहुत बड़ी भूमिका रही है,जिसे बाद की कुछ घटनाओं में उन्हें हाशिये पर कर दिये जाने से खास चर्चा नहीं होती तो जनवादी लेखक संघ के गठन के लिए सव्यसाची की पहल पर शिवराम और महेंद्र नेह ने आपातकाल के दौरान कोटा में जो गुप्त बैठक का आयोजन किया,उसकी शायद चर्चा करना जरुरी है।

इलाहाबाद के शेखर जोशी,अमरकांत मार्केंडय,दूधनाथ सिंह और भैरव प्रसाद गुप्त भी जनवादी लेखक बनाने के प्रयासों में लगातार जुटे हुए थे।इलाहाबाद में 100,लूकर गंज के शेखरजी के आवास में रहते हुए शैलेश मटियानी और इन सभी लेखकों से पारिवारिक जैसे संबंद होने की वजह से यह मैं बखूब जानता हूं।

हमने साम्यवाद के बारे में दिनेशपुर में रहते हुए ही पढ़ना शुरु कर दिया था और मेरे घर बसंतीपुर में मरे जन्म से पहले से नियमित तौर पर स्वाधीनता डाक से आती थी।क्योंकि मेरे पिता पुलिन विश्वास नैनीताल जिला किसानसभा के नेता थे जिन्होंने 1958 में तेलंगाना आंदोलन की तर्ज ढिमरी ब्लाक में किसान विद्रोह का नेतृत्व किया था।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में वे जेल गये।पुलिस ने उनकी बेरहमी से पिटाी की हाथ तोड़ दिया।इस आंदोलन में उनके साथी थे कामरेड हरीश ढौंडियाल एडवोकेट जो नैनीताल में पढ़ाई के के  दौरान मेरे स्थानीय अभिभावक थे,कामरेड सत्येंद्र,चौधरी नेपाल सिंह,हमारे पड़ोसी गांव अर्जुन पुर के बाबा गणेशा सिंह।तब कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कामरेड पीसी जोशी थे।

इस आंदोलन का सेना,पुलिस और पीएसी के द्वारा दमन करने वाले थे भारत में किसानों के बड़े नेता चौधरी चरण सिंह,जिनके अखिल बारत किसान समाज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य पुलिनबाबू थे और तब चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे।तेलंगाना की तर्ज पर पार्टी ने ढिमरी ब्लाक आंदोलन से पल्ला झाड़ दिया।

किसानों के चालीस गांव फूंक दिये गये थे।भारी लूटपाट हुई थी और तराई के हजारों किसान इस आंदोलन केकारण जेल गये थे।तब यूपी में कांग्रेस के मुकाबले कम्युनिस्ट पार्टी बहुत मजबूत थी और पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार था,उसके सक्रिय कार्यकर्ता थे।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन से दगा करना पहला बड़ा झटका था।बाबा गणेशा सिंह जेल में सड़कर मर गये।बाकी लोगों पर 1967 तक उत्तर प्रदेश में संविद सरकार बनने तक मुकदमा चला।

आजादी के बाद शरणार्थी आंदोलन को लेकर  भी पिताजी का कामरेड ज्योति बसु से टकराव हो गया था,जिसके कारणवे ओड़ीशा चरबेटिया कैंप भेज दिये गये थे और वहां भी आंदोलन करते रहने के कारण उन्हें  और उनके साथियों को 1952 में नैनीताल के जंगल में भेज दिया गया।

आंदोलन के उन्ही साथियों के साथ वे दिनेशपुर इलाके में गांव बसंतीपुर आ बसे।जाति या खूनका रिश्ता न होने के बावजूद आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले ये लोग जो पूर्वी बंगाल में भी तेभागा आंदोलन से जुड़े थे,हमेशा एक परिवार की तरह रहे।

आज भी बसंतीपुर एक संयुक्त परिवार है जबकि उन आंदोलनकारियों में से आज कोई जीवित नहीं हैं और उनकी तीसरी चौथी पीढ़ी गांव में हैं।आंदोलनों की विरासत की वजह से इन सभी लोगों में पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है और इस गांव में आज भी पुलिस नहीं आती क्योंकि लोग आपस में सारे विवाद निपटा लेते हैं और थाने में  इस गांव का कोई केस आज तक दर्ज नहीं हुआ है।

पार्टी के ढिमरी ब्लाक आंदोलन के नेताओं,किसानों से पल्ला झाड़ लेने की वजह से मेरे पिता कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग हो गये लेकिन 1967 तक तराई में क्म्युनिस्ट आंदोलन जोर शोर से चलता रहा औऱ इस आंदोलन का दमन का सिलसिला भी जारी रहा।

मैं शुरु से आंदोलनकारियों के साथ था और नेताओं से भरोसा उठ जाने की वजह से पिताजी मुझे इसके खिलाफ लगातार सावधान करते रहे।हालांकि उन्होंने मुझपर कभी कोई रोक नहीं लगायी उऩसे गहरे राजनीतिक मतभेद के बावजूद।

जीआईसी में गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के निर्देशन में विश्व साहित्य और मार्क्सवाद का हमने सिलसिलेवार अध्ययन शुरु किया और इसी सिलसिले में मैं और कपिलेश भोज उत्तरार्द्ध के पाठक बन गये।

सव्यसाची की पुस्तिकाओं से हमें मार्क्सवाद को गहराई से समझने में मदद मिली और हम मथुरा तक रेलवे का टिकट काटकर सव्यसाची के घर इमरजेंसी के दौरान पहुंच गये।

हमने वापसी के लिए टिकट का पैसा घड़ियां बेचकर जुगाड़ लेने का फैसला किया था।मथुरा में सव्यसाची जी के घर डा.कुंवरपाल सिंह,डा.नमिता सिंह,विनय श्रीकर,भरत सिंह,सुनीत चोपड़ा के साथ हमारी मुलाकात हुई और वहीं कोटा की बैठक के बारे में पता चला।सव्यसाची जी ने कोटा के लिए हमारे भी टिकट कटवा दिये।

कोटा में हमारी मुलाकात देहरादून से आये धीरेंद्र अस्थाना से हुई।वहीं हम पहलीबार शिवराम और महेंद्र नेह से मिले।

शिवराम के नुक्कड़ नाटक के तो हम पाठक थे ही।महेंद्र नेह के जनगीत के भी हम कायल थे।इसी सम्मेलन में जनवादी लेखक सम्मेलन बनाने पर चर्चा की शुरुआत हुई।

बैठक के संयोजन में कांतिमोहनकी स्करियभूमिका थी तो सबसे ज्यादा मुखर सुधीश पचौरी थे।हम सभी लोग अलग अलग टोलियों में कोटा का दशहरा मेला भी घूम आये।हमारी टोली में महेंद्र नेह और शिवराम दोनों थे।

कपिलेश और मैं महेंद्र नेह के साथ ही ठहरे थे।

बैठक के अंतराल के दौरान मैं और कपिलेश भोज कोटा के बाजार में भटकते हुए घड़ी बेचकर वापसी का टिकट कटवाने की जुगत में थे तो फौरन शिवराम और महेंद्र नेह को इसकी भनक लग गयी।उन्होंने तुरंत हमारे लिए टिकट निकाल लिये।

अफसोस की बात यह है कि सव्यसाची को लोगों ने भुला दिया है और जनवादी लेखक संघ के गठन में शिवराम और महेंद्र नेह की भूमिका को भी भुला दिया गया।

यहीं नहीं,हिंदी में नुक्कड़ नाटक आंदोलन में शिवराम की नेतृत्वकारी भूमिका भी भुला दी गयी।हमने तो शिवराम से ही नुक्कड़ नाटक सीखा।गिरदा भी शिवराम से प्रभावित थे।हमने नैनीताल में भी नुक्कड़ नाटक इमरजेंसी और बाद के दौर में किये।

गौरतलब है कि शिवराम ने तब नुक्कड़ नाटक लिखे और खेले जब हिंदी में गुरशरणसिंह और सफदर हाशमी की कोई चर्चा नहीं थी।

शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया।इन कामरेडों में सुनीत चोपड़ा भी शामिल हैं।

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