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एकबार फिर राम वाण के निशाने पर हैं भारतीय जनगण। नोटबंदी को इतना भारी जनसमर्थन है तो नोटबंदी को ही मुद्दा बनाकर यूपी जीतकर दिखायें! जिन्हें संविधान,कायदा कानून की कोई परवाह नहीं है ,वे संवैधानिक तरीके से बनाएंगे राम मंदिर,समझ लीजिये कि आगे क्या अंजाम वाला है! पलाश विश्वास
एकबार फिर राम वाण के निशाने पर हैं भारतीय जनगण।
नोटबंदी को इतना भारी जनसमर्थन है तो नोटबंदी को ही मुद्दा बनाकर यूपी जीतकर दिखायें!
जिन्हें संविधान,कायदा कानून की कोई परवाह नहीं है ,वे संवैधानिक तरीके से बनाएंगे राम मंदिर,समझ लीजिये कि आगे क्या अंजाम वाला है!
पलाश विश्वास
एकबार फिर राम वाण के निशाने पर हैं भारतीय जनगण।
नोटबंदी को इतना भारी जनसमर्थन है तो नोटबंदी को ही मुद्दा बनाकर यूपी जीतकर दिखायें!मजे की बात तो यह है कि सूत्रवार संघी घोषणापत्र में नोटबंदी की उपलभ्दियों या जडिजिटल इंडिया के कारपोरेट कार्यकर्म को किसी सूत्र में पिरोकर जनादेश जांचने के छप्पन इंच सीना का दम नहीं दिखा है।
फिर रामभरोसे हैं संघ परिवार।
छत्तीस इंच का सीना और मजबूत कंधे पर भरोसा नहीं है संघ परिवार को।
शिवसेना के बाद यूपी में महंत अवैद्यनाथ की बजरंगी सेना के केसरिया अश्वमेध अभियान से अलग हो जाने के बाद एक झटके से संघ परिवार हिंदुत्व एजंडे को गले लगा रही है,ऐसा समझना गलत होगा।
नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक अब वादा कर रहा है कि फरवरी के अंत तक हालात सामान्य होंगे और नकदी की हदबंदी खत्म होगी।पहली फरवरी को बजट पेश करने का दांव भी पलट गया है क्योंकि पांच राज्यों के लिए नोटों की वर्षा पर रोक लग गयी है।
केशव मौर्य ने राम मंदिर की चर्चा सबसे पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में पांव तले जमीन खिसकते महसूस करके कर दी तो अब शाह सिपाहसालार की हवा खराब है।उत्तर प्रदेश चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ वाराणसी दक्षिण से सात बार से विधायक रहे श्याम देव राय चौधरी को टिकट नहीं दिए जाने से परेशान उनके समर्थकों ने हंगामा कर दिया है, जिसे मनाने को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को जाना पड़ा तो दूसरी ओर पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ का संगठन हिंदू युवा वाहिनी ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। हिंदू युवा वाहिनी ने तो अपने प्रत्याशी भी घोषित करना शुरू कर दिया है और अब तक 6 उम्मीदवारों की घोषणा कर चुका है।
पंजाब में दाल गलती नजर नहीं आ रही है और फतह के लिए उत्तराखंड के सिवाय खास कोई दिलासा नहीं है।ऐसे आलम में यूपी में वोटर पटखनी कहीं न दे दें,इस दहशत में विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने का दावा हवा हवाई है और रामरथ निकालने की तैयारी है।
विकास रथ रामरथ में तब्दील है। डिजिटल कैशलैश इंडिया के तिलिस्म में गांवों देहात के अपढ़ अधपढ़ वोटर अपने तबाह खेत खलिहान और कारोबार काम धंधे को भूलने वाले नहीं है ,यह हकीकत समझ में आने का बाद एकबार फिर राम वाण के निशाने पर हैं भारतीय जनगण।
नोटबंदी की कामयाबी को लेकर मीडिया और संघ परिवार बल्ले बल्ले हैं और दस दिगंत सर्वनाश के माहौल में अर्थव्यवस्था पटरी से उतर जाने के बावजूद दावा है कि आम जनता और समूची उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने के बावजूद बहुत खुश है।
अगर ऐसा है तो संघ परिवार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में नोटबंदी को मुद्दा बनाकर मैदान में उतरने से डर क्यों रही रहा है?
वाशिंगटन में ग्लोबल हिंदुत्व के नये ईश्वर के तुगलकी फरमान से संघ परिवार को राम मंदिर निर्माण का एजंडा अचानक याद आया है क्योंकि मुसलामानों को अमेरिका जाने से रोकने के हुक्मनामे पर ट्रंप महाराज के दस्तखत के बाद उसपर अमल भी शुरु हो गया।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के देश में प्रवेश पर प्रतिबंध के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया है। ये देश यमन, सोमालिया, इराक, ईरान, सीरिया, सूडान, लीबिया हैं। राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद अपने पहले पेंटागन दौरे में ट्रंप ने इस शासकीय आदेश पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर करने के बाद ट्रंप ने कहा, "मैं चरमपंथी इस्लामी आतंकियों को अमेरिका से बाहर रखने के लिए सघन जांच के नए नियम स्थापित कर रहा हूं। हम उन्हें यहां देखना नहीं चाहते।"
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के देश की सीमाओं को अस्थाई रूप से चार महीने के लिए शरणार्थियों के लिए बंद करने के आदेश पर हस्ताक्षर करने के बाद मिस्र की राजधानी काहिरा में इराक़ और यमन के कई लोगों को अमरीका की उड़ान पर जाने से रोक दिया गया है. हालाँकि इन लोगों के पास कथित तौर पर सही वीज़ा दस्तावेज़ थे। इधर, न्यूयॉर्क के जॉन एफ़ कैनेडी हवाई अड्डे पर दो इराक़ी आप्रवासियों को हिरासत में ले लिया गया है। इनमें से एक अपनी पत्नी और बेटे से मिलने पहुंचे थे जो पहले ही अमरीका में बस चुके हैं।
अमेरिकी मीडिया और महिलाओं के अविराम विरोध के बाद आज गुगल और फेसबुक की तरफ से इस नस्ली उन्माद के खिलाफ बयान जारी कर दिया गया है।भारत में मुसलमानों की भारी आबादी के बावजूद भारत की हिंदुत्ववादी सरकार ने इस अमानवीय कृत्य की निंदा नहीं की है और नई दिल्ली व्हाइट हाउस के न्यौते केइंतजार में पलक पांवड़े बिछाये हुए हैं।
डोनाल्ड ट्रंप के शरणार्थी नीति में बदलाव करने से फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने उनकी आलोचना की है। फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रवासियों को कम करने के फैसले से खासा नाराज हैं। उन्होंने ट्रंप के फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि अमेरिका प्रवासियों का देश है और इस पर गर्व होना चाहिए।
बड़े मियां तो बड़े मियां,छोटे मियां छलांगे दस कोस।
अमेरिका जब मुसलमानों को ऐसे सबक सिखा सकता है तो ग्लोबल इसारों के मुताबिक मुसलमानों से बदला लेने का दांव बहुसंख्यहिंदू वोटरों को वानरसेना में तब्दील करने में बारी मददगार हो सकता है।
इसी के मद्दे नजर यूपी के चुनावी दंगल में आज बीजेपी ने भी अपना दांव चल दिया है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी का घोषणापत्र जारी किया बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में राम मंदिर से लेकर फ्री लैपटॉप, महिला सुरक्षा, युवाओं को रोजगार और किसानों की सुविधा से जुड़े 14 बड़े वादे किए।
मीडिया के मुताबिक भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र के चौदह सूत्र में पहला सूत्र यही है कि संवैधानिक तरीके से बनाएंगे राम मंदिर।यूपी विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कमर कस चुकी बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में राम मंदिर का जिक्र किया। सिपाहसालार अमित शाह ने कहा है कि अगर यूपी में बीजेपी की सरकार बनीं तो संवैधानिक तरीके से राम मंदिर बनाएंगे। शाह ने कहा, ''जहां तक राम मंदिर का मामला है तो प्रदेश में बीजेपी की नयी सरकार भी संवैधानिक तरीकों से जल्द से जल्द राम मंदिर बनवाने के लिये प्रयत्नशील रहेगी।''
अगला सूत्र भी मुसलमानों को निशाना बांधकर हिंदुओं के ध्रूवीकरण के मकसद से है।तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं की राय।सिपाहसालार ने फरमाया ने कहा, ''तीन तलाक के मुद्दे पर प्रदेश भर की मुस्लिम महिलाओं की राय लेकर उनके अधिकारों के रक्षा के लिये प्रदेश सरकार पक्षकार बनकर सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखेगी।''
अखिलेश के जबाव में फ्री लैपटॉप और एक साल तक फ्री इंटरनेट देने का दांव।
उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के चुनावी वादे की तरह बीजेपी ने भी लैपटॉप वितरण की घोषणा करते हुए कहा कि बीजेपी की सरकार बनने पर लैपटॉप पाने वालों को हर महीने एक जीबी इंटरनेट भी मुफ्त दिया जाएगा।
पश्चिम उत्र पर्देश के किसानों को ललचाने के लिए गन्ना किसानों को तुरंत भुगतान का वायदा भी किया गया है।यह भुगतान नकदी में होना है कि किसानों को कैशलैस डिजिटल ऐप्पस पर भुगतान मिलेगा,इसका खुलासा नहीं किया गया है।बहरहाल घोषणा पत्र जारी करते हुए अमित शाह ने कहा कि अगर यूपी में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनीं तो गन्ना किसानों को चीनी मील के बाहर ही गन्ना के मूल्य का चेक दे दिया जाएग।. जो उस दिन से 14 दिन बाद की तारीख का होगा।
किसानों से कर्ज पर ब्याज नहीं,ऐसा बी वायदा है।
घोषणा पत्र में किसानों को लेकर एक और बड़ा वादा ।प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने पर सभी लघु और सीमान्त किसानों का किसी भी बैंक से लिया गया सम्पूर्ण फसली कर्ज माफ किया जाएगा। किसानों से कर्ज पर ब्याज नहीं लिया जाएगा और कृषि मजदूरों को 2 लाख रुपए का बीमा दिया जाएगा।
हर घर में 24 घंटे बिजली का लालीपाप
इतना ही नहीं सरकार बनने पर बीजेपी ने पांच साल में हर घर में 24 घंटे बिजली पहुंचाने, गरीबों को 100 यूनिट बिजली, 3 रूपये प्रति यूनिट की दर से देने और हर गांव को बसों के जरिए तहसील सेंटर से जोड़ने का वादा भी किया।
अगला सूत्र भी हिंदू मतदाताओं को निशाना साधकर है कि बंद होंगे जानवरों के अवैध कत्लखाने।अमित शाह ने कहा कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने पर सूबे में जानवरों के यांत्रिक कत्लखानों को बंद किया जाएगा।
बेरोजगारी की वजह से पलायन रोकने का रामवाण भी दिलचस्प है। जिलाधिकारी को माना जाएगा पलायन के लिये जिम्मेदार।पलायन के मुद्दे अमित शाह ने कहा कि बीजेपी की सरकार बनने पर संबंधित जिलाधिकारी को पलायन के लिये जिम्मेदार माना जाएगा।एक समिति बनायी जाएगी, जो पलायन ना होना सुनिश्चित करेगी। पार्टी पलायन को लेकर श्वेत-पत्र भी जारी करेगी।
कानून व्यवस्था सुधारने का भी वायदा है।15 मिनट के अंदर घटनास्थल पर पहुंचे पुलिस।
अमित शाह ने कहा कि कानून-व्यवस्था को मजबूत करने के लिये प्रदेश की मौजूदा सरकार द्वारा शुरू की गयी डायल-100 सेवा को हाईटेक करके यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पुलिस 15 मिनट के अंदर घटनास्थल पर पहुंचे।
महिला सुरक्षा के लिए टास्क फोर्स
बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बड़ा ऐलान किया। अमित शाह ने कहा कि यूपी में बीजेपी की सरकार बनीं तो महिलाओं के लिए 100 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाएंगे।
लव जिहाद की तर्ज पर 'एंटी रोमियो दल'का गठन
बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि, यूपी में उनकी पार्टी की सरकार बनने पर महिलाओं खासकर कॉलेज जाने वाली छात्राओं से छेड़छाड़ रोकने के लिये 'एंटी रोमियो दल'गठित किये जाएंगे, जो स्कूलों के इर्द-गिर्द सक्रिय रहेंगे।यह एंटी रोमियो दल भी जाहिर है बजरंगी दल होने वाला है।
माफियाओं पर लगाम के लिए अलग-अलग टास्क फोर्स
अमित शाह ने कहा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी की सरकार बनी तो भूमाफिया, खनन माफिया पर लगाम के लिये अलग-अलग टास्क फोर्स गठित की जाएंगी। अपराधियों पर फौरन ही कार्रवाई की जाएगी औऱ 45 दिन के अंदर अपराधी जेल में जाएंगे।
बुंदेखलण्ड विकास बोर्ड का गठन
बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि उनकी पार्टी की सरकार बनने पर बुंदेलखण्ड के विकास के लिये मुख्यमंत्री कार्यालय की निगरानी में बुंदेखलण्ड विकास बोर्ड गठित किया जाएगा। ऐसा ही बोर्ड पूर्वांचल के लिये भी बनाया जाएगा।
लड़कियों को ग्रेजुएशन तक मुफ्त शिक्षा
इसके साथ ही बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में लड़कियों को ग्रेजुएशन तक मुफ्त शिक्षा, कॉलेज में फ्री WiFi और हर युवा को रोजगार देने का वादा भी किया।
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आरएसएस के ट्रंप कार्ड से डरिये! संघ परिवार से नत्थी हिंदुत्व की वानर सेना और उनके सिपाहसालारोंकी आस्था ने उनकी आंखों में पट्टी बांध दी होगी ,लेकिन जो सामाजिक बदलाव के मोर्चे पर स्वंभू मसीहा हैं, वे न राम मंदिर के नये आंदोलन और न मुसलमानों के खिलाफ ,काली दुनिया के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में भारत की साझेदारी के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं। बलिहारी उनकी चुनावी सत्ता समीकरण साधने वाली फर्जी
आरएसएस के ट्रंप कार्ड से डरिये!
संघ परिवार से नत्थी हिंदुत्व की वानर सेना और उनके सिपाहसालारोंकी आस्था ने उनकी आंखों में पट्टी बांध दी होगी ,लेकिन जो सामाजिक बदलाव के मोर्चे पर स्वंभू मसीहा हैं, वे न राम मंदिर के नये आंदोलन और न मुसलमानों के खिलाफ ,काली दुनिया के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में भारत की साझेदारी के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं।
बलिहारी उनकी चुनावी सत्ता समीकरण साधने वाली फर्जी धर्मनिरपेक्षता की भी।
पलाश विश्वास
नई विश्वव्यवस्था में भारत अमेरिका के युद्ध में पार्टनर है,हमारी राजनीति, राजनय के साथ साथ आम जनता को भी यह हकीकत याद नहीं है।
नये अमेरिकी राष्ट्रपति डान डोनाल्ड ट्रंप ने बाकायदा दुनियाभर के अश्वेतों और खासतौर पर मुसलमानों के खिलाफ युद्ध घोषणा कर दी है।यह तीसरे विश्ययुद्द की औपचारिक शुरुआत जैसी है।
आजादी से पहले ब्रिटिश हुकूमत के उपनिवेश होने की वजह से भारतीय जनता की और भरतीय राष्ट्रीय नेताओं की इजाजत के बिना भारत पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका और ब्रिटेन के साथ युद्ध में शामिल रहा है।
नतीजतन जब नेताजी सुभा, चंद्र बोस ने भारत की आजादी के लिए आजाद हिंद फौज बनाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़कर सिंगापुर रंगून फतह करने के साथ साथ अंडमान और मणिपुर में भी तिरंगा ध्वज फहरा दिया ,तब आजाद हिंद फौज का समर्थन करने के बजाय भारतीय राजनीति ने ब्रिटिश हुकूमत का समर्थन किया था और नेताजी को गद्दार बता दिया था।
आज आजाद देश किसका उपनेवेश है कहने और समझाने की कोई जरुरत नहीं है।अब भारत अमेरिका के युद्ध में अहम पार्टनर है और इस युद्ध को आतंकवाद के खिलाफ युद्ध कहा जाता रहा है।
मुसलमानों और शरणार्थियों के लिए दरवाजा बंद करने का डान डोनाल्ड का फैसला भी अमेरिका का आतंक के खिलाफ युद्ध बताया जा रहा है।डान डोनाल्ड के इस एक्शन से एक झटके के साथ इसी उपमहाद्वीप में रोहंगा मुसलमानों के खिलाफ म्यांमार में,तमिलों के खिलाफ श्रीलंका का और हिंदू बौद्ध ईसाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ बांग्लादेश में नरसंहारी बलात्कारी उत्पीड़न की विचारधारा मजबूत हो गयी है।
जाहिर है कि इस युद्ध की परिणति इराक,अफगानिस्तान और सीरिया से ज्यादा भयंकर होगी।दुनिया का श्वेत अश्वेत नस्ली ध्रूवीकरण के तहत जो तीसरा विश्वयुद्ध अश्वेत काली दुनिया के खिलाफ डान डोनाल्ड ने छेड़ दिया है,उस युद्ध में भारत आटोमेटिक शामिल है और और इस युद्ध की परिणति में भी भारत को साझेदार बनकर उसके तमाम नतीजे भुगतना है।
विडंबना है कि ताज्जुब की बात है कि सूचना तकनीक के जरिये रियल टाइम पल पल की जानकारी रखने वाला मीडिया और वैश्विक इशारों के मुताबिक राजनीति और अर्थव्यवस्था चलाने वाले देश के भाग्यविधाता और भारतीय जनता के जनप्रतिनिधि ने इस वैश्विक घटनाक्रम का कोई संज्ञान नहीं लिया है।
धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत और बहुलता विविधता के तमाम बयान दिखाने के और हैं और खाने के और हैं।धर्मनिरपेक्ष ताकतों का स्वर भी भारत में कहीं उस तरह गूंज नहीं रहा है जैसा अमेरिका,यूरोप या दनिया में बाकी जगह हो रहा है।
जाहिर है कि दलितों ,पिछड़ों और आदिवासियों के प्रति वोट की गरज से जितनी सहानुभूति राजनीतिक मीडिया खिलाड़ियों पिलाड़ियों को है,उससे कुछ ज्यादा धर्निरपेक्ष तेवर के बावजूद गैरहिंदुओं से कोई सहानुभूति सत्ता वर्ग के विविध रंगबिरंगे लोगों को उनकी पाखंडीविचारधाराओं के बावजूद नहीं है।उन्हें भी नहीं,जिन्होंने गठबंधन बनाकर यूपी बिहार में संघ परिवार का हिंदुत्व रथ को थामा है। वे तमाम सितारे भी मूक और वधिर बने हुए हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे ज्यादा मुसलमान हैं और भारत में भी बहुसंख्य हिंदुओं के बाद उनकी आबादी सबसे बड़ी है।
मुसलमानों के खिलाफ अमेरिका के खुल्ला युद्ध में भारत के शामिल हो जाने जैसी घटना के बारे में मीडिया और राजनीति की खामोशी हैरतअंगेज है।
खासकर ऐसी परिस्थितियों में जब पांच राज्य के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए डान डोनाल्ड के नक्शेकदम पर मुसलमानों से इतिहास का बदला चुकाने के लिए फिर राममंदिर के लिए बजरंगी वाहिनी और उनके सिपाहसालार नये सिरे से राम की सौौगंध खा रहे हैं।दंगा फसाद की फिजां नये सिरे से तैयार हो रही है।
जिन देशों के मुसलमानों के खिलाफ डान डोनाल्ड की निषेधाज्ञा है,उन सभी एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ भारत के पारंपारिक राजनयिक संबंध हमेशा मजबूत रहे हैं।
अमेरिका परस्त सउदी अरब के खिलाफ या संयुक्त अरब अमीरात यामिस्र के खिलाफ यह निषेधाज्ञा नहीं है।जबकि नािन इलेवेन को ट्विन टावर के विध्वंसे के मामले में सऊदी आतंकबवादी सबसे ज्यादा थे।
इससे साफ जाहिर है कि यह युद्ध आतंकवाद के खिलाफ नहीं है।
जिस इस्लामी देश पाकिस्तान को लेकर भारत को सबसे ज्यादा परेशानी है और जहां भारत विरोधकी फौजी हुकूमत है,उसके खिलाफ भी यह फतवा नहीं है।
सीधे तौर पर यह रंगभेदी हमला है काली दुनिया के खिलाफ,जिसमें हम भी शामिल हैं।मुसलमानों के अलावा लातिन अमेरिका के खिलाफ भी अमेरिका की यह युद्धघोषणा है।इस निषेधाज्ञा के तहत शरणार्थी हिंदुओं की भी शामत आनी है।
फेसबुक और गुगल केजैसे प्रतिष्ठानों के विरोध के बावजूद सूचना तकनीक पर टिकी भारतीय अर्थव्यवस्था पर इस युद्ध का क्या असर होना है,यह बात जझोला छाप विशेषज्ञों को भले समझ में नहीं आ रही हो लेकिन बाकी लोगों को क्या सांप सूंघ गया है कि डिजिटल कैशलैस इंडिया की इकोनामी को अमेरिका के इस युद्ध से क्या फर्क पड़ने वाला है,यह समझ में नहीं आ रहा है।
हम बार बार कहते रहे हैं कि भारत में जाति व्यवस्था सीधे तौर पर वर्ण व्यवस्था का रंगभेदी कायाकल्प है।
अमेरिकी डान डोनाल्ड के श्वेत वर्चस्व के अमेरिका फर्स्ट और हिंदुत्व के एजंडे के चोली दामन के साथ बहुजनों के नस्ली नरसंहार का जो तीसरा विश्वयुद्ध शुरु कर दिया गया है,उसके खिलाफ बहुजन भी सत्ता वर्ग की तरह बेपरवाह है,जबकि भारत के बहुजन समाज में भी मुसलमान शामिल है।
अगर मुसलमान बहुजनों में शामिल नहीं हैं,अगर आदिवासी भी मुसलमान में शामिल नहीं है और ओबीसी सत्तावर्ग के साथ हैं तो सिर्फ दलितों की हजारों जातियों में बंटी हुई पहचान से सामाजिक बदलाव का क्या नजारा होने वाला है,उसे भी समझें।
संघ परिवार से नत्थी हिंदुतव की वानर सेना और उनके सिपाहसालारों की आस्था ने उनकी आंखों में पट्टी बांध दी होगी ,लेकिन जो सामाजिक बदलाव के मोर्चे पर स्वंभू मसीहा हैं, वे न राम मंदिर के नये आंदोलन और न मुसलमानों के खिलाफ,काली दुनिया के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में भारत की साझेदारी के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं।
बलिहारी उनकी चुनावी सत्ता समीकरण साधने वाली फर्जी धर्मनिरपेक्षता की भी।
यह सत्ता में भागेदारी का खेल है सत्ता में रहेंगे सत्ता वर्ग के लोग ही।
बीच बीच में सत्ता हस्तांतरण का खेल जारी है।
इसका नमूना उत्तराखंड है,जहां समूचा सत्ता वर्ग हिमालय और तराई के लूटेरा माफियागिरोह से है।वहां शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण की तैयारी है।
जैसे बंगाल में नेतृत्व पर काबिज रहने की गरज से सत्ता वर्ग को ममता बनर्जी की संग नत्थी सत्ता से कोई ऐतराज नहीं है और वे हारने को भी तैयार हैं,लेकिन किसी भी सूरत में वंचित तबकों को न नेतृत्व और न सत्ता सौंपने को तैयार हैं।
उसीतरह उत्तराखंड के कांग्रेसियों को पूरे पहाड़ और तराई के केसरिया होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है और वे संघ परिवार को वाकओवर दे चुके हैं।
हरीश रावत के खासमखास सलाहकार और सिपाहसालार विजय बहुगुणा से भी ज्यादा फुर्ती से अल्मोड़िया राजनीति के तहत उनका पत्ता साफ करने में लगे हैं।
क्योंकि केसरिया राजकाज में उन्हें अपना भविष्य नजर आता है।
यही किस्सा कुल मिलाकर यूपी और पंजाब का भी है।
यूपी में अखिलेश कदम दर कदम यूपी को केसरिया बनाने में लगे हैं तो पंजाब में अकाली भाजपा सरकार के खिलाफ जो सबसे बड़ा विपक्ष है,उसका संघ परिवार से चोली दामन का साथ है।
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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख मुजफ्फरनगर से लेकर बाबरी मस्जिद तक के गुनहगारों को कटघरे में खड़ा किया सच्चर ने
आरएसएस के ट्रंप कार्ड से डरिये! अखिलेश यूपी को केसरिया बनाने में लगे हैं
मुजफ्फरनगर से लेकर बाबरी मस्जिद तक के गुनहगारों को कटघरे में खड़ा किया सच्चर ने
अखिलेश यादव की माफिया मुक्त सपा और उनके तोगड़ियावादी समाजवाद का रहस्य
शंकर गुहा नियोगी : नई आर्थिक नीति के पहले शहीद
अतीक - मुख्तार तो मफिया हैं लेकिन राजा भैया - अभय सिंह साधू, वाह मिस्टर क्लीन
आज समाजवादी पार्टी वहीं खड़ी है जहां एक ज़माने में कांग्रेस थी
बहुजनों को यह राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों समझनी चाहिए
नोटबंदी ने कमर तोड़ दी कृषि और किसान की
जब तक जाति उन्मूलन नहीं होगा, बहुजनों के खिलाफ नस्ली भेदभाव जारी रहेगा
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विधानसभा चुनाव : राजनीति का वीभत्स चेहरा सामने, नतीजा कुछ भी हो हालात बदलने के आसार नहीं
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महागठबंधन : कांग्रेस की ही खाट खड़ी कर दी राहुल गांधी ने
बहुत जल्द भारत का प्रधानमंत्री भी कोई अरबपति खरबपति बनेगा
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अमेरिकी युद्ध अपराधों के सबसे बड़े मददगार हमारे हुक्मरान! बलि नोटबंदी यूपी में जनादेश का मुद्दा मंजूर है सुपर सिपाहसालार को! खुशफहमी की हद है कि बलि अमेरिकी निशाने पर पाकिस्तान है! हम आंखें फोड़कर सूरदास बनकर पदावली कीर्तन करें,हिंदत्व का यही तकाजा है।हिंदुत्व का ग्लोबल एजंडा भी यही है,जिसके ईश्वर डान डोनाल्डे हुआ करै हैं। पलाश विश्वास
अमेरिकी युद्ध अपराधों के सबसे बड़े मददगार हमारे हुक्मरान!
बलि नोटबंदी यूपी में जनादेश का मुद्दा मंजूर है सुपर सिपाहसालार को!
खुशफहमी की हद है कि बलि अमेरिकी निशाने पर पाकिस्तान है!
हम आंखें फोड़कर सूरदास बनकर पदावली कीर्तन करें,हिंदत्व का यही तकाजा है।हिंदुत्व का ग्लोबल एजंडा भी यही है,जिसके ईश्वर डान डोनाल्डे हुआ करै हैं।
पलाश विश्वास
बलि डान डोनल्ड अब केसरिया केसरिया हैं और भारत की ओर से कारगिल लड़ाई के वे ही खासमखास सिपाहसालार हैं।
बड़जोर सुर्खियां चमक दमक रही हैं कि अब पाकिस्तान की बारी है।
बलि डान डोनाल्ड की आतंकवाद विरोधी खेती की सारी हरियाली अपने खेत खलिहान में लूटकर लानेको बेताब है तमाम केसरिया राजनयिक।
बलि नई दिल्ली पलक पांवड़े बिछाये व्हाइट हाउस के न्यौते और रेड कार्पेट का बेसब्री से इंतजार कर रहा है और जतक ओबामा कीतरह ट्रंपवा लंगोटिया यार बनकर हिंदुत्व के हित न साध दें तब तक चूं भी करना मना है।किया तो जुबान काट लेंगे।
मुसलमानों के खिलाफ निषेधाज्ञा चूंकि हिंदुत्व के हित में है,इसलिए केसरिया राजकाज में अमेरिकी युद्ध अपराध की चर्चा तक मना है।हुक्मरान की तबीयत के बारे में मालूम है लेकिन बाकी मुखर होंठों का किस्सा भी लाजबाव है।वे होंठ भी सिले हुए हैं।
अगर पाकिस्तान सचमुच का दुश्मन है तो देश भर में दंगाई सियासत के तमाम सिपाहसालार और सारे के सारे बजरंगी मिलकर पाक फौजों के दांत खट्टे करने के लिए काफी हैं।लेकिन नई दिल्ली टकटकी बांधे बैठा है कि कब डान ऐलान कर दें कि पाकिस्तान भी प्रतिबंधित है।
बागों में बहार है कि साफ जाहिर है कि ट्रंप का इराजा दुनियाभर के मुसलमानों के खिलाफ भारी पैमाने का युद्ध है और जाहिर है कि हिंदुत्व की तमाम बटालियनें अमेरिकी फौज में शामिल होने को बेताब हैं।
पूरा अमेरिका सड़कों पर है।सारे के सारे अमेरिकी वकील हवाई अड्डों पर पंसे हुए दुनियाभर के लोगों को कानूनी मदद देने के लिए लामबंद हैं।आमतौर पर राष्ट्रवाद की संकीर्ण परिभाषा में यक़ीन रखने वाली रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति ने अरब और हिस्पैनिक (स्पेन से ऐतिहासिक रूप से संबद्ध रहे देश), लेकिन मुस्लिम-बहुल सात देशों के शरणार्थियों और नागरिकों पर प्रतिबंध लगाकर अमेरिकी रंग और नस्लभेद की सोई हुई प्रेतात्मा को जगा दिया है।कुकल्कासक्स क्लान का राम राज्य बन गया है अमेरिका।
पूरे अमेरिका में प्रदर्शन शुरू हो गए हैं, अमेरिकी मानवाधिकार संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, दुनिया के विकसित देश ट्रंप के फ़ैसले की आलोचना कर रहे हैं और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपऔर उनकी सरकार पर इसका कोई असर नहीं है।बहरहाल डान के नस्ली फरमान के अमल पर शनिवार को आधी रात के करीब अदालत ने विशेष वैठक में रोक भी लगा दी है लेकिन डान बेपरवाह है।
डान को रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।सो,राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपने शरणार्थियों और सात मुस्लिम बहुल देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का बचाव किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रतिबंध मुस्लिमों पर नहीं लगाया गया है बल्कि अमेरिका को आतंकियों से सुरक्षित करने के लिए कदम उठाया गया है। अमेरिका अपने यहां यूरोप जैसे हालात उत्पन्न होने देना नहीं चाहता है। राष्ट्रपति ने कहा कि 90 दिनों में मौजूदा नीतियों की समीक्षा करने के बाद सभी देशों के लिए वीजा जारी किया जाने लगेगा।
सात मुस्लिम बहुल देशों के लोगों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध के शासकीय आदेश का बचाव करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपने जोर देकर कहा कि 'यह प्रतिबंध मुस्लिमों पर नहीं है' जैसा कि मीडिया द्वारा गलत प्रचार किया जा रहा है।गौरतलब है कि शपथ लेने के बाद ही 7 मुस्लिम देशों के लोगों प्रतिबंध लगाने के बाद अब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपपाकिस्तान पर भी प्रतिबंध लगा सकते हैं।
नई दिल्ली बल्ले बल्ले गुले गुलिस्तान है कि ट्रंप के इस कदम के बाद उनका भले ही अमेरिका के अलावा दुनियाभर में विरोध हो रहा है, वहीं हिंदुत्व के हित में सबसे बड़ी खबर यही है कि खबर है कि उन्होंने पाकिस्तान के अलावा अफगानिस्तान और सऊदी अरब को निगरानी सूची में डाला गया है।
जानकारी के अनुसार व्हाइट हाउस के चीफ ऑफ स्टाफ रींस प्रीबस ने कहा है कि जिन सात देशों को प्रतिबंध के लिए चुना गया है उनकी ओबामा और कांग्रेस दोनों ही प्रशासन द्वारा शिनाख्त की गई थी जिनकी जमीन पर आतंक को अंजाम दिया जा रहा है।
हमें व्हाइट हाउस से न्यौते का इंतजार है और कोई फर्क नहीं पड़ता कि बलि अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपका फैसला जानलेवा हो सकता है। सात देशों के मुस्लिमों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध के उनके फैसले का सीधा असर सीरिया में फंसे सात साल के मोहम्मद पर पड़ रहा है। मोहम्मद आतंकी नहीं है। वह कैंसर से जूझ रहा है, इसलिए उसका परिवार इलाज के लिए उसे अमेरिका ले जाना चाहता है लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले की वजह से अमेरिकी अधिकारी उसे वीजा नहीं दे रहे हैं। मोहम्मद की ही तरह उन सात देशों में कई लोग हैं जो बेहतर इलाज के लिए अमेरिका जाना चाहते हैं लेकिन ट्रंप का फरमान उनके लिए बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है।
हमें व्हाइट हाउस से न्यौते का इंतजार है और कोई फर्क नहीं पड़ता कि बलि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की ब्रिटेन की राजकीय यात्रा को रद्द करने की मांग करने वाली ऑनलाइन याचिका पर हस्ताक्षर करने वालों की संख्या काफी जल्दी 10 लाख के आंकड़े को पार कर गई है। यह मांग अमेरिका के राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिए सात मुस्लिम देशों के लोगों पर विवादास्पद आप्रवासन प्रतिबंध लगाने के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ रही आवाज के बीच उठी है।
हमे कोई फर्क नहीं पड़ा कि बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक एसीएलयू ने जानकारी दी है कि अब कोर्ट के स्टे के बाद राष्ट्रपति के आदेश के बावजूद अमेरिका से शरणार्थियों को निष्कासित नहीं किया जा सकेगा। ट्रंपके आदेश के बाद अमेरिकी एयरपोर्ट्स से करीब 100 से 200 लोगों को हिरासत में लिया जा चुका है। न्यूयॉर्क, एलेंक्सजेंड्रिया, वर्जिनिया, सिएटल, वॉशिंगटन, बोस्टन मैसाच्यूसेट्स समेत 24 अदालतों ने राष्ट्रपति के आदेश पर रोक लगा दी है।
गौरतलब है कि ब्रिटेन की संसद की वेबसाइट पर शनिवार की दोपहर 'डॉनल्ड ट्रंप को ब्रिटेन की राजकीय यात्रा पर आने से रोकें' शीर्षक वाली याचिका तैयार की गई है।कहने को हमारे यहां भी संसदीय लोकतंत्र है।
इसी बीच गौर करें कि डान के करिश्में से दुस्मन चीन से पींगे बढ़ाने की कोशिश में हैं आईटी कंपनियां ताकि जोर का झटका धीरे से लगे।नैशनल असोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर ऐंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) और शंघाई में भारत के महावाणिज्य दूतावास (कॉन्स्युलट जनरल ऑफ इंडिया) ने मिलकर नानचिंग सरकार के साथ इसी महीने एक समारोह का आयोजन किया। इसका मकसद चीनी कंपनियों और भारत की आईटी कंपनियों के बीच रिश्ते बढ़ाना था।
नैसकॉम के वैश्विक व्यापार विकास के निदेशक गगन सभरवाल ने ईटी को बताया, 'चीन और जापान दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और आईटी के क्षेत्र में दूसरी सबसे बड़ी खर्च करने वाले देश हैं। हमें अमेरिका और यूके पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर इन देशों की ओर रुख करने की जरूरत है।'
भारत में जन्में गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सत्य नाडेला समेत सिलिकन वैली के कई शीर्ष कार्यकारियों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंपके सात मुस्लिम बहुल देशों से लोगों के अमेरिका आने पर रोक लगाने के आदेश की निंदा की है।इस पर भी गौर फरमायेंः
Trump's executive order, especially the ban on immigrants from these countries, including those with a valid visa, has sparked reactions from all across Silicon Valley, which relies on talent from across the world. Google, Apple, SpaceX's Elon Musk, Uber, Lyft, Netflix, Microsoft, and all the major companies from tech world have reacted to this order.
Additionally Associated Press has reported that leaks of draft executive orders, which are still unverified, suggest that Trump might also revamp the H1-B program that lets Silicon Valley bring foreigners with technical skills to the US for three to six years.
गौरतलब है ऩई दिल्ली के खासमखास खाड़ी युद्ध के युद्ध अपराधी राष्ट्रपति पिता पुत्र के युद्ध अपराधों का साथ देते देते भारत देश के हुक्मरान ने देशभक्ति की सुनामी के तहत एक झटके से अमेरिका के आतंक के खिलाफ युद्ध में भारत को शामिल कर दिया।अब वही देशभक्त समुदाय सोशल मीडिया पर चीख पुकार मचा रहे हैं कि ट्रंपवा का सीना जियादा चौड़ा है और उनके सांढ़ सरीखे कंधे जियादा मजबूत है कि बलि रामराज्य का राष्ट्रपति भी डान डोनाल्ड के होवैक चाहि।बलिहारी हो।
खाड़ी युद्ध के दौरान भारत की सरजमीं से ईंधन भर रहे थे अमेरिकी युद्धक विमान तो नाइन इलेविन ट्विन टावर के विध्वंस के बाद समुंदर से अफगानिस्तान की तबाही के लिए भारत का आसमान चीर कर मिसाइलें अफगानिस्तान में बरस रही थीं,तब किसी माई के लाल को मातृभूमि की स्वतंत्रता या संप्रभुता की याद नहीं आयी।बजरंगियों की नई पीढ़ियों ने वह नजारा देखा नहीं है,भारत की सरजमीं प डान डोनाल्ड का विश्वरुप दर्शन भौते जल्दी मिलेला।पछताओ नको।
इससे भी पहले प्राचीन काल में जब युद्ध सचमुच सरहदों पर हो रहा था,कैनेडी से लेकर क्लिंटन तक किस किसके साथ न जाने कितना मधुर संबंध रहा है लेकिन अमेरिका ने भारत के खिलाफ युद्ध और शांतिकाल में भी मदद देना नहीं छोड़ा।
तनिकों याद करेें जो तनिको बु जुर्ग हुआ करै हैं और बाल कारे भी हों तो चलेगा , लेकिन सफेदी धूप के बजाय तजुर्बे की होनी चाहिए कि आठवें दशक में जब सारा देश लहूलुहान था,तालिबान और अल कायदा को सोवियत संघ को हराने के लिए जब अत्याधुनिक हथियार बताशे की तरह बांट रहा था वाशिंगटन,तब भी अमेरिको के तालिबान अलकायदा को दिये उन तमाम हथियारों का इस्तेमाल भारत की सरजमीं पर भारत को तहस नहस करने के लिए हो रहा था।अमेरिका को कोई फर्क पड़ा नहीं।
बजरंगी बिरादरी शायद अटल बिहारी वाजपेयी को भूल गये हैं,जो सन इकात्तर के चुनाव में इंदिरा गांधी का दूत बनकर विदेश की धरती पर अमेरिकी सातवें नौसेनिक बेड़े के हमलावर बढ़त के खिलाफ मोर्चाबंदी में कामयाब रहे थे औरतब अमेरिका पाकिस्तान के लिए भारत से युद्ध करने के लिए भी तैयार था।
भारत सोवियत मैत्री के बाद अमेरिका की वह ख्वाहिस पूरी नहीं हुई,यह जितना सच है,उससे बड़ा सच यह है कि वाजपेयी की राजनय ने उस अपरिहार्य युद्ध को टाल दिया।यही नहीं,1962 के युद्ध के बाद दुश्मनी का माहौल को हवा हवाई करके चीन से संबंध बनाने में भी वाजपेयी ने जनता जमाने में बाहैसियत विदेश मंत्री पहल की थी।
खास बात यह है कि इसके अलावा 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य बनाने में तबके विदेश मंत्री अटलजी ने पहल की थी।जिन्होंने बाद में केसरिया सरकार का प्रधानमंत्री बनकर गुजरात के नरसंहार के बाद किसी मसीहा को राजधर्म का पाठ दिया था और कारगिल की लड़ाई भी उनने ही लड़ी थी।
अब पहेली यह है कि भारत इजराइल अमेरिका गठजोड़ की नींव बनाने वाले रामरथी लौहमानुष लाल कृष्ण आडवानी बड़का रामभक्त देश भक्त हैं तो क्या अटलजी रामभक्त देशभक्त वगैरह वगैरह नहीं है।बूझ लें तो भइया हमें भी जानकारी जरुर दें।हालांकि अटलजी वानप्रस्थ पर हैं कि संन्यास के मोड में हैं,पता नहीं चलता जैसा कि लौहपुरुष के अंतरालबद्ध हस्तक्षेप से अक्सर पता चल जाता है और बहुत संभव है कि अटल जी को याद करने की कवायद में बजरंगी वाहिनी को गोडसे सावरकर वगैरह की ज्यादा याद आ जाये क्योंकि गांधी हत्या का एजंडा अभी अधूरा है।
हिंदुत्व के एजंडे के तहत अबतक सिर्फ विष्णु भगवान जी के मंदिर में बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की प्राण प्रतिष्ठा हुई है और टैगोर बख्श दिये गये हैं,लेकिन नेताजी और विवेकानंद को श्यामाप्रसाद श्रेणी में आरक्षित कर दिया गया है।गांधी को कर पाते गौडसे की जरुरत नइखे होती।अटल जी भी अभी श्रेणीबद्ध हुए हैं कि नाही,पता नको।शिवसेना के निकर जाने के बाद बालासाहेब का भी नये सिरे से मूल्यांकन बाकी है।झोलाछाप बिरादरी शोध किये जा रहे हैं।
अमेरिकी खुफिया एजंसियों को सारी बातें मालूम होती है।
अभी भंडा फूटा है कि राजीव गांधी की हत्या की प्लानिंग सीआईए को पांच साल पहले मालूम थी।
इंदिरा गांधी की हत्या का रहस्य अभी खुला नहीं है और उस हत्याकांड से संबंधित अमेरिकी दस्तावेज अभी लीक हुए नहीं है।
फिक्र न करें,विकी लीक्स है।
राजनीतिक समीकरण के हिंदुत्व से सराबोर केसरिया राजनय का किस्सा यह है कि अमेरिका का पार्टनर बनने के बाद,भारत अमेरिका परमाणु संधि हो जाने के बाद नई दिल्ली इसी इंतजार में है कि कभी न कभी अमेरिका पाकिस्तान का दामन छोड़कर उसे आतंकवादी देश घोषित कर देगा।वैसा कुछ भी नहीं हुआ है।
Dozens of Foreign Service officers and other career diplomats stationed around the world are so concerned about Pres. Donald J. Trump's new executive order restricting Syrian refugees and other immigrants from entering the U.S. that they're contemplating taking the rare step of sending a formal objection to senior State Department officials in Washington.
केसरिया बिरादरी देश के नाम याद भी कर लें कि गुजरात नरसंहार में क्लीन चिट के सिवाय अमेरिका से अबतक कुछ हासिल नहीं हुआ है और न भोपाल गैस त्रासदी के रासायनिक युद्ध के प्रयोग से कीड़ मकोड़े की तरह मारे गये,विकलांग और बीमार हो गये भारतीय नागरिकों को मुआवजा दिलाने में अमेरिका ने कोई मदद की है।
इसके बावजूद बलि लोहा गरम है और इसी वक्त पाकिस्तान पर निर्णायक वार अमेरिकी हाथों से कराने का मौका है।
जाहिरै है कि इसलिए डान डोनाल्ड के खिलाफ सारा अमेरिका और सारी दुनिया भले लामबंद हो जाये,हमारे लिए राष्ट्रभक्ति यही है कि हम अपने होंठ सी लें और आंखें फोड़कर सूरदास बन जायें।
हम आंखें फोड़कर सूरदास बनकर पदावली कीर्तन करें,हिंदत्व का यही तकाजा है।हिंदुत्व का ग्लोबल एजंडा भी यही है,जिसके ईश्वर डान डोनाल्डे हुआ करै हैं।
गौरतलब है कि भारत ने पहले ही भारतीय सैनिक अड्डों के इस्तेमाल के लिए अमेरिकी फौज को इजाजत के करारनामे पर दस्तखत कर दिया है और डान डोनाल्ड अमेरिका के गौरव को हासिल करने के लिए तीसरे विश्वुयुद्ध शुरु करने पर आमादा है।
गौरतलब है कि दुनियाभर में सैन्य हस्तक्षेप और युद्ध गृहयुद्ध में अभ्यस्त अमेरिकी नौसेना और जापान केसात हमलावर त्रिभुज भी अमेरिका के अव्वल नंबर दुश्मन चीन से निबटने के लिए तैयार है।बलि कि चीन के खिलाप अमेरिकी जंग की हालत में भी रामराज्य अमेरिकी डान के मातहत हैं।
बलि डान डोनल्ड के बाहुबल से एक मुशत दो दो जानी दुश्मनों पाकिस्तान और चीन को करीरी शिकस्त देने की तैयारी है और इसके लिए अमेरिका से हथियारों की खरीद भी भौते हो गयी है।सैन्यीकरण में कोई कमी सर न हो ,इसलिए रक्षा प्रतिरक्षा का विनिवेश कर दिया है और तमाम कारपोरेट निजी कंपनियों के कारोबारी हित राष्ट्रभक्ति में ऩिष्णात है।इस सुनामी को दुधारी तलवार बनाने के लिए तीसरे विश्वयुद्ध भौते जरुरी है।क्योंकि इस विश्वयुद्ध में काले और मुसलमान मारे जायेंगे और हिंदुओं को जान माल को कोई कतरा नहीं होना है।
बांग्लादेश या पाकिस्तान भले तबाह हो जाये और दुनियाभर के आतंकवादी मुसलमानों को इराक, अफगानिस्तान,लीबिया और सीरिया की तरह मिसाइलें या परमाणु बम दागकर मार गिराये महाबलि डान डोनाल्ड,रामराज्य के हिंदू प्रजाजनों को आंच तक नही आयेगी हालाकि यमन में जैसा हो गया डानोल्ड जमाने के पहले युद्ध में , कुछ बेगुनाह नागरिकों की बलि चढ़ सकती हैषबलि और बलिदान दोनों वैदिकी संस्कृति है और राष्ट्रहित में सबसे जियादा बलिदान जाहिका तौर पर संघियों ने दिया है,देश को भी उनने आजाद किया है।झूठे इतिहास को दोबारा लिखा जा रहा है।मिथकों का इतिहास ही सबसे बड़ा सच है।
यमन पर हमला करके उनने इरादे भी साफ कर दिये हैं।अमेरिकी सेना को युद्धकालीन तैयारियों के आदेश दे दिये गये हैं और अमेरिका परमाणु हथियारों का भंडार और तैनाती बढ़ायें,ऐसा निर्देश भी डान ने दे दिया है।
Pres. Donald J. Trump says his executive order restricting entry into the U.S. of people from 7 Muslim-dominated countries is to keep Americans safer, but one former Homeland Security official says the move could instead do the opposite by inspiring violent extremist attacks in the U.S.
जाहिर है कि जैसे पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में यूरोप से लेकर जापान तक नरसंहार का सिलसिला बना,उसी तरह तीसरे विश्वयुद्ध में एशिया और अफ्रीका के देशों में न जाने कितने हिरोशिमा और नागासाकी बनाने की तैयारी है।
भला हो सोवियत संघ का और उनके जिंदा महानायक गोर्बचेव महान का कि सोवियत संघ पहले खाडी़ युद्द के बाद ही तितर बितर हो गया।
अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप के भयंकर प्रतिरोध के बाद महाबलि खुद ही टूटकर बिखर गया और दुनिया सिरे से बदलकर अमेरिकी गोद के हवाले हो गयी।
यही वजह है कि तेल युद्ध और अरब वसंत के बावजूद अमेरिकी हमालावर रवैये के बावजूद तीसरा विश्वयुद्ध शुरु नहीं हुआ।
अब मुसलमानों और काली दुनिया के खिलाफ यह तीसरा विश्वयुद्ध डान डोनाल्ड लड़ना चाहते हैं तो अपनी अपनी जनता और अपनी अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत की भीख मांगते हुए यूरोप के तमाम रथी महारथी डान की खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गये हैं।
नई विश्व व्यवस्था जिस तकनीकी चमत्कार की वजह से ग्लोबल विलेजवा में तब्दील है ससुरी दुनिया,उसी तकनीकी दुनिया की राजधानी सिलिकन वैली में डान का विरोद संक्रामक महामारी है।गुगल,फेसबुक,ट्विटर से लेकर सारी ग्लोबल कंपनियां इस नस्ली युद्दोन्माद के खिलाफ बाबुलंद आवाज में डान के खिलाफ आवाज उठा रही हैं।
तीसरा विश्वयुद्ध हुआतो मुसलमानों के खिलाफ इस विश्वयुद्ध के भूगोल में रामराज्य के महारथियों की खवाहिशों के मुताबिक अमेरिकी मिसाइलों और अमेरिकी नेवी ने अरब और खाड़ी देसों के मुसलमानों के साथ साथ पाकिस्तान को भी निशाना बांध लिया तो पश्चिम एशिया के सारे तेल कुंए हिंदुस्तान की सरजमीं पर दहकने वाले हैं क्योंकि इस तीसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका के सबसे खास पार्टनर भारत ही को बनना है।फिर अमेरिका के दुस्मन हमारे भी दुश्मन होंगे।बजरंगियों को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके आका डानडोनाल्डको वे पहले से दुश्मन मानकर हिंदुस्तान के चप्पे चप्पे में उनके सफाये के ढेरों दंगा फसाद करते रहे हैं।अब सोने पर सुहागा है।
हामीरी राजनीति और राजनय इसविश्वव्यापी भयानक संकट में भी भारत के राष्ट्रहित,नागरिकों की जानमाल सेहत के बजाय पाकिस्तान को नजर में रखरकर अमेरिकी युद्ध अपराधों के साथ हैं।
अमेरिकी युद्ध अपराधों के सबसे बड़े मददगार हमारे हुक्मरान है।
बलि केसरिया जबरंगी जिहादी सेना के सुपर सिपाहसालार ने रामराज्य के प्रजाजनों के लिए बाबुलंद ऐलान कर दिया है कि यूपी के विधानसभा चुनाव को नोटबंदी पर जनादेश मानें तो यह चुनौती उन्हें मंजूर है।गौरतलब है कि चुनाव घोषणापत्र में यह उदात्त स्वर कहीं नहीं है।
गौरतलब है कि एक दो दिन पहले रिजर्व बैंक ने वायदा किया था कि एटीएम से निकासी की हदबंदी फरवरी के आखिर तक खत्म कर दी जायेगी लेकिन फरवरी से पहले जनवरी की अंतिम तिथि को ही एटीएम से निकासी हफ्ते में किसी भी दिन कुल 24 हजार की रिजर्व बैंक ने औचक छूट दे दी है,हालांकि हफ्ते में कुल वही 24 हजार रुपये निकालने की हद जस की तस है।
बहरहाल बार बार एटीएम जाने से निजात मिल गयी है कि अब चाहे हफ्तेभर दौड़ते रहकर 24 हजार निकालो या फिर हफ्ते के किसी रोज अपनी सुविधा के मुताबिक एक मुश्त 24 हजाक खेंच लो।
इससे बाजार में नकदी का संकट खत्म नहीं होने जा रहा है क्योंकि हफ्तेभर की निकासी जहां थी ,वही बनी रहेगी।
संजोग यही है कि रिजर्व बैंक के ऐलान के बाद ही छप्पन इंच सीना फिर चौड़ा है और रमारथी रामधुन के अलावा नोटराग अलापने लगे हैं।
जाहिर है कि चुनौती मानें या न माने खेती और कारोबार में समान रुप से तबाह यूपी वालों के लिए नोटबंदी बड़ा मुद्दा है।
सरदर्द के इस सबब को खत्म करने के लिए औचक रिजर्व बैंक का यह फरमान है कि संकट चाहे जारी रहे लेकिन चार तारीख से शुरु विधानसभाओं के लिए चुनाव के लिए जो वोट गेरे जाने वाले हैं,उनपर केसरिया के बजाय कही गुलाबी हरा नीला रंग चढ़कर सारा हिंदुत्व गुड़गोबर न कर दें।
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बजट अभी समझ से बाहर है तो तमाम बुरी खबरों के मध्य अच्छी खबर है! तेज तर्रार पत्रकार जगमोहन फुटेला अब ठीक हैं और सक्रिय भी हो रहे हैं! पलाश विश्वास
बजट अभी समझ से बाहर है तो तमाम बुरी खबरों के मध्य अच्छी खबर है!
तेज तर्रार पत्रकार जगमोहन फुटेला अब ठीक हैं और सक्रिय भी हो रहे हैं!
पलाश विश्वास
करीब 36 साल तक बजट के दिन मैं बिना नागा अखबार के दफ्तर में काम करता रहा हूं।मेरा अवकाश भी रहा होगा कभी कभी,तब भी मैंने बजय को कभी मिस नहीं किया है।36 सा बाद जब बजट पेश हो रहा था,मैं न अखबार के डेस्क पर था और न अपने घर टीवी के सामने।बजट से पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण और आर्थिक समीक्षा से पहले मैं गांव निकल गया।दक्षिण बंगाल के देहात में।
टीवी वहां भी था,लेकिन टीवी पर बजट लोग नहीं देख रहे थे।क्योंकि आटकर छूट से देहातवालों को कोई मतलब नहीं था और उनके हिस्से में क्या आया,वे समझ नहीं पा रहे थे।
इस बीच अखबारों में बजट के बाद नये सिरे से नोटबंदी को जायज बताने की मुहिम चल पड़ी है और बजट को राजनीतिक आर्थिक सुधारों का खुल्ला खजाना बताने वाली अखबारी सुर्खियों से आम जनता के साथ मेरा भी सामना हुआ है।आम जनता की तरह यह बजट अब तक हमारी समझ से बाहर है।
इसी बीच ट्रंप महाराज के हिंदुत्व से आईटी सेक्टर का बाजा भी जब गया है।बजट की खबरों से वि्त्तीय प्रबंधन का अता पता नहीं लगा है।
नोटबंदी से पैदा हुए नकदी संकट की वजह से बेहाल बाजार को उबारने के लिए बेतहाशा सरकारी खर्च के मध्यवर्गीय जनता को खुश करने वाले प्रावधान जरुर दीखे हैं।
बजट अभी पढ़ा नहीं गया है।बच्चों और स्त्रियों पर मेहरबानी की खबर चमकदार है। कमजोर तबकों को,अनुसूचितों को क्या मिला इसका हिसाब किताब नहीं दिखा है।पिछड़े राज्यों को क्या मिला है,वह तस्वीर भी साफ नहीं है।एक करोड़ लोगों को घर देने का वायदा है और शायद हम जैसे बेघर लोगों की लाटरी भी लग जाये।
कारपोरेट को खास फायद नहीं है और चनाव के समीकरणकी परवाह किये बिना अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का योगाभ्यास भी गया है।लेकिन वह पटरी भी हवा हवाई है सुनहले दिनों के ख्वाबों की तरह।किस्सा अभी बाकी है।
मसलन अंधाधुंध निजीकरण की पटरी पर सरपट दौड़ रही बुलेट सरीखी भारतीय रेल का क्या बना,यह भी देखना बाकी है।आहिस्ते आहिस्ते पढ़ देखकर जो समझ में आयेगा ,उसे थोड़ी देर में शेयर करेंगे।
इंफ्रास्ट्रक्चर के डिडिटल कैशलैस इंडिया की लाटरी किस किसके नाम खुली है,खुलासा अभी हुआ नहीं है।आंकड़ों के पीछे सनसनाहट में क्या है,मालूम नहीं है।
बेजरोजगारी,भुखमरी और मंदी से निबटने की दिशा कहां है,पता चलातो आपको बी बतायेंगे।रोजगार सृजन की जमीन फिलहाल दीख नहीं रही है।
नोटबंदी और कायदा कानून को ताक पर रखकर राजकाज और वित्तीय प्रबंधन के झोला छाप विशेषज्ञों से भी ऊंचा उछल रहा है शेयर बाजार और मीडिया बल्ले बल्ले है।आंकडो़ं के कल में माहिर बाजीगर ख्वाबी पुलाव खूब पका रहे हैं।जायका ले लें।
अर्थशास्त्रियों की राय हो हल्ले में सिरे से गायब हैं या फिर वे सत्ता समीकरण के मुताबिक न होने से हाशिये पर हैं।झोलाछाप स्रवत्र हावी हैं।
बहरहाल मुझे चमत्कारों पर यकीन नहीं है।पिछले अप्रैल 2013 के हमारे खास दोस्त और तेज तर्रार पत्रकार जगमोहन फुटेला को ब्रेन स्ट्रोक हो गया था।
अगस्त तक फुटेला बोलने की हालत में नहीं थे।वे विकलांगता के शिकार होकर बिस्तर में कोमा जैसी हालत में निष्क्रिय पड़े रहे पिछले तीन साल से।
इस बीच हाल में मैं पालमपुर के रास्ते चंडीगढ़ और जालंधर में थे,तो उस वक्त भी किसी से फुटेला के बारे में कोई खबर नहीं मिली थी।
अगस्त,2013 में फुटेला के बेटे अभिषेक से बात हुई थी,तो उसके बाद से उनसे फिर बात करने की हिम्मत भी नहीं हुई। अभिषेक और परिवार के लोगों ने जिस तरह फुटेला को फिर खड़ा कर दिया है,उससे हम इस काबिल बेटे और परिजनों के आभारी है कि उनकी बेइंतहा सेवा से हमें अपना पुराना दोस्त वापस मिल गया है।
पहली जनवरी को फुटला ने चुनिंदा मित्रों को फोन किया।मुझे बी पोन किया ता लेकिन यात्रा के दौरान वह मिसकाल हो गया।
कल रात मैसेज बाक्स में फुटेला का संदेश मिल गया और तुरंत उसके नंबर पर काल किया तो तीन साल बाद फुटेला से बातचीत हो पायी।यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।हम फुटेला के पूरीतरह ठीक होने का इंतजार कर रहे हैं।आप भी करें तो बेहतर।
जनसत्ता में हमारे सहयोगी मित्र जयनारायण प्रसाद को भी ब्रेन स्ट्रोक हुआ था पिछले साल नासिक में ,जहां डाक्टरों ने उन्हें मृत भी घोषित कर दिया था।आनन फानन उन्हें कोलकाता लाया गया और वे जिंदा बच निकले।
जाहिर है कि जिंदगी और मौत भी अस्पतालों की मर्जी पर निर्भर है जो क्रय क्षमता से नत्थी है शिक्षा की तरह।बुनियादी जरुरतों और सेवाओं की तरह।
जयनारायण की भी आवाज बंद हो गयी थी और वे भी विकलांगता के शिकार हो गये थे।लेकिन महीनेभर में वे सही हो गये।आवाज लौटते ही उनने फोन किया। महीनेभर बाद से वे फिर जनसत्ता में काम कर रहे हैं।
फुटेला के ठीक होने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा।
कल उसने कहा कि तीन चार महीने और लगेंगे पूरी तरह ठीक होने में और उसके बाद फिर मोर्चे पर लामबंद हो जायेंगे।
जिन मित्रों को अभी खबर नहीं हुई ,उनके लिए यह बेहतरीन खबर साझा कर रहे हैं।तमाम बुरी खबरों के बीच इस साल की यह शायद पहली अच्छी खबर है।
तीन साल से देश दुनिया से बेखबर रहने के बाद फुटेला के इस तरह सक्रिय हो जाने से बहुत अच्छा लगा रहा है।आज इतना ही।
बाकी जीने को मोहलत मिलती रही तो आपकी नींद में खलल भी डालते रहेंगे।
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सिर्फ आयकर दाताओं को राहत का बजट और अंधाधुंध निजीकरणका किस्सा!
पलाश विश्वास
देश की आबादी 133 करोड़ है।33 करोड़ लोगों के पास आधार कार्ड नहीं है।बजट के आंकड़ों के मुताबिक जनसंख्या 125 बतायी गयी है और इन 125 करोड़ में सिर्फ सवा तीन करोड़ लोग आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं।जिनमें से साढ़े पांच लाख लोग पांच लाख से ज्यादा आयकर जमा करते हैं।आयकरछूट की बाजीगरी से सरकार ने अपनी आय बढ़ाने का इंतजाम कर लिया है। एक हाथ से 15,500 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हो रहा है, तो दूसरी ओर बड़ी आय वालों से कर वसूली में अधिभार जोड़े जाने पर 27,700 करोड़ सरकार के खाते में आने की उम्मीद बनी है। वित्त मंत्रालय ने रुपए की तरलता प्रणाली को सॉफ्टवेयर से जोड़ा है। इससे 25 लाख नए लोगों को आयकरप्रणाली से जोड़ा जाएगा। आयकरके दायरे में स्टार्ट अप कंपनियों की संख्या बढ़ेगी। साथ ही लघु और मझोले उद्योगों और छोटे कारोबारियों के बड़े वर्ग को आयकरके दायरे में लाने की तैयारी है।
अगर यह मान लें कि सवा तीन करोड़ लोग आयकर देते हैं,तो यह संख्या 133 करोड़ के मुकाबले कितनी है,पहले इसे समझ लीजिये और मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को आयकर में मामूली छूट से देश के गरीब किसानों, मजदूरों, मेहनतकशों ,वंचितों और बहुजन सर्वहारा जनगण के गरीबी उन्मूलन के लिए कितनी दिशाएं खुलती हैं,उसका अंदाजा लगा लीजिये।
आयकर छूट के आइने से ही पढ़े लिखे समझदार लोग बजट को लेकर बल्ले बल्ले हैं।फिर एक करोड़ लोगों को घर दिलाने का वायदा है।बेघर लोगों को इससे कितनी राहत मिलेगी ,अभी कहना मुश्किल है।लेकिन इस पर जरुर गौर करें कि आवास का धंधा प्रोमोटर बिल्डर माफिया राज है और अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगीकरण, स्मार्ट शहर, इत्यादि के बहाने महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बे में किसानों की बेदखली के बाद खेतों पर तमाम आवास परियोजनाएं बनी हैं,जहां गरीबों को कोई छत मिली नहीं है।
कोलकाता,मुंबई ,दिल्ली जैसे महानगरों में झुग्गी झोपड़पट्टी और फुटपाथों का भूगोल बदला नहीं है।गृह निर्माण के लिए सरकारी खजाना गरीबों के लिए कितना है और कितना प्रोमोटर बिल्डर माफिया के लिए है,इस पर चर्चा की जरुरत नहीं है।
हम चूंकि नैनीताल की तराई में पले बढ़े हैं और जन्म भी वहीं से है तो पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान समाज से हमारा नाभिनाल का संबंध है।हम बचपन से पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों के कृषि वैज्ञानिक समझते रहे हैं।आज पंजाब में भी गोवा के साथ वोट गिर रहे हैं।गौरतलब है कि इन विधानसभा चुनावों की कमान आरएसएस के स्वयंसेवकों के हाथ में है और उनका ट्रंप कार्ड हिदुत्व का एजंडा है।
गौरतलब है कि राममंदिर निर्माण अभियान के साथ डिजिटल कैशलैस मेकिंग इन इंडिया नत्थी सत्यानाश के मकसद से राजनीतिक आर्थिक सुधारों का केसरिया नक्शा यह आम बजट है जिसमें भारतीय रेल को समाहित करके रेलवे के निजीकरण का मास्टर प्लान है।
मजहबी सियासत के रामवाण के निशाने पर जो जनगण है,उनके लिए आर्थिक सुधारों का यह बजट समझ में नहीं आ रहा है,सही है।लेकिन जो बजट समझने का दावा कर रहे हैं और बजट की दिशा सही बता रहे हैं,वे भी ठीक से बता नहीं पा रहे हैं कि आखिर वह सही दिशा है क्या।
इसी बीच भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य जल्द शुरू होगा। रायपुर में श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में योगी आदित्यनाथ ने संवाददाताओं से कहा कि यह भगवान राम का ननिहाल है और ज्योतिष मान्यता है कि जब भगवान राम ननिहाल में विराजमान हो जाएंगे तब अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
लेनदेन में पारदर्शिता का नजारा डिजिटल कैशलैस इंडिया है,जिसके तहत एटीएम में नकदी निकासी की हदबंदी खत्म होते न होते मीडिया वृंद गान चालू है नोटबंदी को जायज बताने का जबकि चूंचूं का मुरब्बा कुल मिलाकर इतना है कि कालेधन पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने 3 लाख रुपए से ज्यादा कैश लेन-देन पर रोक लगा दी है। वित्त मंत्री अरुण जेतली ने साल 2017-18 के बजट में 3 लाख रुपए से ज्यादा के कैश ट्रांजैक्शन को बैन करने की घोषणा की थी।
इतना ही नहीं, अगर कोई 15 लाख रुपए से अधिक कैश रखना चाहेगा तो उसे इसके लिए आयकर आयुक्त से अनुमति लेनी होगी। कैश से लेन-देन को सीमित करने के लिए सरकार कानून भी बना सकती है। इस मामले में सरकार का कहना है कि जब 3 लाख रुपए से ज्यादा के कैश लेनदेन पर बैन लागू हो जाएगा तो ज्यादा कैश रखने का कोई लॉजिक नहीं रह जाता। सारा काम तो डिजिटल पेमेंट के जरिए ही होगा।
बहरहाल राहत यह बतायी जा रही है कि सरकार इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन पेमेंट पर सर्विस चार्ज की अधिकतम सीमा तय कर सकती है। सरकार का मानना है कि चेक पेमेंट पर खर्च ज्यादा आता है लेकिन इस पर सर्विस चार्ज नहीं लगता। इसे देखते हुए ई-पेमेंट पर ज्यादा सर्विस चार्ज लगाना वाजिब नहीं है।
डिजिटल लेनदेन के जोखिम से निबटने के इंतजाम किये बिना पूरी अर्थव्यवस्था को लाटरी में तब्दील करने की कवायद है।सुप्रीम कोर्ट,संसद और संविधान की कुली अवमानना के तहत हर अनिवार्य सेवा के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य किया जा रहा है और आधार के जरिये ही डिजिटल पेनमेंट की योजना है।जिसके जोखिम का खुलासा यह है कि भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने व्यापक कार्रवाई करते हुए आधार से जुड़ी सेवाएं प्रदान कर रहीं 12 वेबसाइटों और गूगल प्लेस्टोर पर उपलब्ध 12 मोबाइल एप को बंद कर दिया है। गौरतलब है कि गैरकानूनी रूप से सेवाएं प्रदान कर रहीं इन वेबसाइट्स व एप्स पर लोगों से अधिक शुल्क भी वसूला जा रहा था।
यूआईडीएआई के सीईओ अजय भूषण पांडे ने बताया कि अधिकारियों को ऐसी 26 अन्य फर्जी और गैरकानूनी वेबसाइटों और मोबाइल एप्स को बंद करने का आदेश भी दिया है। उन्होंने कहा कि यूआईडीएआई ऐसी अनधिकृत वेबसाइटों और मोबाइल एप्स को कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।
हर खाते में पंद्रह लाख जमा कराने की तर्ज पर यूनिवर्सल इनकाम केतहत न्यूनतम सुनिश्चित आय योजना का बड़ा शोर था।वह बजट प्रावधान में ख्वाबी पुलाव साबित हो गया है।सुनहले दिनों के ख्वाब की तरह।
दूसरी तरफ,अर्थ व्यवस्था और तहस नहस उत्पादन प्रणाली,फर्जी विकास और विकास दर के फर्जीवाड़ा का नजारा यह है कि पंजाब जैसे खुशहाल सूबे में बेरोजगार जवान को चुनाव प्रचार के जरिये रोजगार तलाशने की जरुरत आन पड़ी है और चुनाव निबटने के बाद वे रोजगार खो बैठे हैं।अब देहात में चुनाव में ही बेरोजगार युवाजनों को घर बैठे कमाई का मौका मिलता है।यह हमारी आजादी है।यह हमारी तरक्की है।
भारत ही नहीं, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया से लेकर यूरोप के कोने कोने में जहां भी खेती होती है,वहां पंजाब के किसान खेती करते हुए मिलेंगे।
खेती के संकट की वजह से पंजाब में अर्थव्यवस्था सिरे से बेहाल है और वहां पूरी की पूरी नई पीढ़ी नशाग्रस्त है तो दक्षिण भारत से लेकर पश्चिम भारत और पूर्वी भारत में किसान थोकदरों में आत्महत्या कर रहे हैं पहली और दूसरी हरित क्रांति के बावजूद।कृषि विकास दर शून्य के करीब पहुंच गयी है।
आंकड़ों के फर्जीवाड़े के मुताबिक गलत आधार वर्ष और गलत पद्धति से मनमर्जी मुताबिक विकास दर बताने वाले लोग फिरभी कृषि विकास दर दो ढाई प्रतिशत कुछ भी बताते रहे हैं।
अब कृषि संकट को निबटाये बिना जल जंगल जमीन से बेदखली का तांडव जारी रखते हुए बिल्डर प्रोमोटर मीफिया गिरोहों को खुल्ला छूट देते हुए बजट में कृषि विकास दर एक झटके से 4.1 तक बढ़ाने का दावा किया गया है।
इससे बड़ा सफेद झूठ पारदर्शिता के डिजिटल कैशलैस मेकिंग इन इंडिया में क्या क्या हैं,वह पता लगाना अभी बाकी है।
वित्तीय घाटा जस का तस बने रहने और बढ़ते जाने की आशंका है।सरकारी खर्च में वृद्धि के जरिये निजीकरण और उदारीकरण को जायज ठहराने की कोशिश हो रही है।पटरियों पर बुलेट ट्रेनों की जगह कारपोरेट कंपनियों की ट्रेंनें दौड़ाने की तैयारी है तो भारतीय रेल के अलावा सारे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के विनिवेश का एजंडा है।
मसलन, सरकार ने विनिवेश के लिए कामकाज तेजी से शुरू कर दिया है। करीब आधा दर्जन कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेची जाएगी, संभव है कि सरकार मार्च से पहले कई कंपनियों के विनिवेश का काम पूरा कर ले।
सरकारी कंपनियों में हिस्सा बेचने के लिए सलाहकारों की नियुक्ति प्रक्रिया शुरू हो गई है। माना जा रहा है कि सरकार कई कंपनियों में पूरी हिस्सेदारी बेचेगी।
सरकार बीईएमएल में 26 फीसदी हिस्सा मैनेजमेंट कंट्रोल के साथ बेचेगी। वहीं पवन हंस में पूरा 51 फीसदी हिस्सा मैनेजमेंट कंट्रोल के साथ बेचेगी। ब्रिज एंड रूफ कंपनी लिमिटेड का 99.35 फीसदी हिस्सा बिकेगा। भारत पंप्स एंड कम्प्रेशर्स में पूरी 100 फीसदी हिस्सेदारी बिकेगी। हिंदुस्तान फ्लोरोकार्बन में एचओसीएल का 56.43 फीसदी हिस्सा बिकेगा।
साथ ही सरकार की ओर से कंस्ट्रक्शन से जुड़ी 4 कंपनियों का भी विनिवेश किया जाएगा। हिंदुस्तान प्रीफैब, इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स लि., एचएससीसी इंडिया और नेशनल प्रोजेक्ट्स कंस्ट्रक्शन कॉर्प इन चारों कंपनियों में पूरी हिस्सेदारी बिकेगी। इन कंपनियों का सरकारी कंपनियों में विलय होगा।
जाहिर है कि देश के संसाधन बड़े पैमाने पर नीलाम करने की आगे तैयारी है।गौरतलब है कि बजट पेश करने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने विज्ञान भवन में सीआईआई, फिक्की और एसोचैम के अधिकारियों से मुलाकात की। बजट में किए गए कई एलानों को लेकर उन्होंने कारपोरेटइंडिया को सफाई भी दी।
गौर करें कि जेटली ने कहा कि 90 फीसदी एफडीआई ऑटोमैटिक रूट से आता है, एफआईपीबी को हटाने पर रोडमैप बनाया जाएगा जिस पर काम शुरु हो गया है।
जीएसटी पर वित्त मंत्री ने कहा कि आनेवाले कुछ महीनों में जीएसटी लागू हो जाएगा। एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स में कोई बदलाव नहीं किया गया है। इन बातों का ध्यान जीएसटी में रखा जाएगा।
इन सब के बीच वित्त मंत्री ने राजनीतिक पार्टियों के चंदे पर भी सफाई दी। उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टियों के चंदे में पारदर्शिता के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने का विकल्प बेहतर है। उन्होंने ये भी कहा कि बॉन्ड को बैंक से खरीद सकते हैं और इसे इस्तेमाल करने के लिए कुछ ही दिन दिए जाएंगे। इलोक्टोरल बॉन्ड से पार्टियों के चंदे में पारदर्शिता आएगी। इलेक्टोरल बॉन्ड को बैंक से खरीद सकते हैं। ये बॉन्ड चेक, कैश और डिजिटल पेमेंट से खरीदे जा सकते हैं। पार्टियों को चुनाव आयोग को एक अकाउंट दिखाना पड़ेगा और पार्टियां कुछ ही दिनों मे बॉन्ड को रिडीम कर पाएंगी।
सरकार अब मान भी रही है कि नोटबंदी का असर विकास दर पर होने लगा है।मगर पालतू मीडिया अब बजट से नोटबंदी नरसंहार को जायज साबित करने में लग गया है।सरकारी खर्च बहुत ज्यादा दिखाने के करतब के बावजूद सच यह है कि बजट में सामाजिक सुरक्षा की कोई दिशा नहीं है और रोजगार सृजन का कोई रास्ता बना है और आर्थिक विकास का नक्शा कहीं नहीं दीख रहा है।
हम अखबारी नौकरी की वजह से पिछले 36 साल से वातानुकूलित कमरे में कंप्यूटर और टेलीप्रिंटर फिर टीवी लाइव के जरिये बजट देखते रहे हैं।
इन 36 सालों में बजट को देखने समझने की पढ़ी लिखी जनता की दृष्टि बदली नहीं है।लोगों की हमेशा नजर आयकर छूट पर होती है और क्या सस्ता हुआ क्या महंगा,इसका हिसाब किताब जोड़ा जाता रहा है।इसके आगे लोग कुछ भी देखते नहीं हैं।
दूरी तरफ से आर्थिक नीतियों और अर्थव्यवस्था में हलचल,उलटफेर,इन सबका आम जनता से कोई मतलब नहीं होता।
दरअसल आम लोगों की क्रय शक्ति इतनी कम होती है कि बाजार में बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं के अतिरिक्त कुछ खर्च करने का सामर्थ्य उनका होता नहीं है।सस्ता हो या मंहगा, जीने के लिए जरुरी चीजें और सेवाएं खरीदने की उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होती है और इसलिए टैक्स का कोई हिसाब वे जोड़ते नहीं हैं।
अधिकतम सवा तीन करोड़ लोगों के अलावा बाकी करीब 130 करोड़ जन गण के लिए आयकर छूट भी बेमानी है।हम देशभर में सेक्टर दर सेक्टर कर्मचारियों से बजट पर एक दशक से ज्यादा समय चर्चा करते रहे हैं,वे भी आयकर छूट,सस्ता महंगा के अलावा बजट में घुसना नहीं चाहते।
अंग्रेजी अखबारों के विशेषांक और बजट दस्तावेज निवेशकों के अलावा आम लोगों को पढ़ने की आदत भी नहीं है।वे दरअसल कारपोरेट और मार्केट का लोखा जोखा है।जिन्हें समझने की दक्षता आम जनता की होती नहीं है।जो अमूमन हिसाब जोड़ते भी नहीं है।जैसा हिसाब बता दिया,बिना जांच पड़ताल के चुका देने में ही उनको राहत है।
लक्ष्य और प्रावधान,सरकारी खर्च,योजनाओं का तिलिस्म,कर छूट कर माफी की हकीकत से बाकी जनता अनजान है।
मीडिया की नजर राजनीति की भी नजर होती है और ज्यादातर राजनेताओं को अपने भत्तों और कमाई,आयकर के अलावा सच में कोई दिलचस्पी होती नहीं है।
इस बार पहली बार हम बजट के मौके पर राष्ट्रपति के अभिभाषण,आर्थिक समीक्षा और बजट को ठेठ देहात में बैठकर अपढ़ अधपढ़ जनता के साथ देख रहे थे।जिनमें पढ़े लिखे मामूली हिस्से को अखबारी सुर्खियों के अलावा आर्थिक मुद्दों में खास दिलचस्पी नहीं है।बजट की खबरें वे पढ़ते भी नहीं है।बजट लाइव भी देखते नहीं है।हालांकि हर घर में अब टीवी और मोबाइल दोनों है।
हम महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल के कर्मक्षेत्र नोहाटा मछलंदपुर इलाके में थे।महाप्राण भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के कानून मंत्री बने थे।पाकिस्तान के संविधान की मसविदा भी उन्होंने तैयार किया था।पूर्वी पाकिस्तान में दंगा रोक पाने में नाकाम होकर वे भारत चले आये तो इसी इलाके में मृत्यु तक सक्रिय रहे। यह वनगांव और रानाघाट चाकदह के बीच विशुध अनुसूचित किसानों का इलाका है,जिनमें नब्वे फीसद लोग मतुआ नमोशूद्र हैं।मतुआ केंद्र ठाकुर नगर भी इसी इलाके में है।इस इलाके से चुनाव लड़कर हारते रहे हैं महाप्राण।
आजादी के सत्तर साल बाद भी साम के बाद तमाम गांव अंधरे में घिरे होते हैं।कहीं कहीं पक्की सड़कें बनी है।उपजाऊ खेती का यह इलाका है।उसके पार पश्चिम दिशा में बर्दमान और हुगली के सबसे उपजाऊ इलाके हैं तो उत्तर में नदिया होकर मुर्शिदाबाद मालदह के उपजाऊ खेत हैं।पूर्व में देगंगा से लेकर भागड़ बशीर हाट हिंगलगंज के सीमावर्ती इलाके हैं।
यह सारा इलाका बहुजनों का है।जहां उपजाऊ खेती के बावजूद हर गांव से बच्चे और जवान भारत और भारत से बाहर खाड़ी देशों में मजदूरी करने को निकलते हैं। भारत में पांच साला योजनाओं और केंद्र राज्य सरकारों के सालाना बजट और विकास योजनाओं से मुक्तबाजार की अर्थव्यवस्था के मुताबिक मोटर साइकिल,मोबाइल,स्मार्ट फोन,टीवी के अलावा उनकी जिंदगी में कुछ भी बदला नहीं है।
यह किस्सा झारखंड छत्तीसगढ़ के पठारों के पार मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश ,बिहार और पंजाब हरियाण से लेकर सारे देश के केत खलिहानों का है,जहां किसानों की जरुरतें बाजार के मुताबिक बढ़ है तो खेती की लागत भी बढ़ी है।
नकदी के लिए खेत बेहिसाब हस्तांतरित हुए हैं तो बेदखली अटूट सिलसिला है।क्रयशक्ति है नहीं,खेती चौपट है और बच्चे आम तौर पर पढ़ लिख गये तो बेराजगार हैं और किसी तरह के आरक्षण और कोटे से उनकी जिंदगी बदली नहीं है।
आरक्षण और कोटे का लाभ जिन्हें मिला है,वे भी देश के महज दो करोड़ वेन भोगियों और पेंशन भोगियों में शामिल हैं और उनमें बड़ी संख्या आयकरदाताओं की भी हैं।बहुजनों में ओहदों का खास रुतबा है।
आईएएस पीसीएस आईआरएस आईपीएस तो बहुजनों में बहुत कम हैं और जो हैं,उनतक आम बहुजनों की पहुंच नहीं है।डाक्टर इंजीनीयर प्रोफेसर से लेकर ग्रुप डी के कर्मचारी भी बहुजन समाज के नेता हैं और उनका हिसाब किताब में आम जनता के लिए कोई जगह है नहीं।यह रुतबादार तबका कुछ लाख से भी ज्यादा नहीं है।
सरकारी कर्मचारियों, मध्यवर्ग और बहुजनों के रुतबेदार ओदेदार कामयाब पैसेवालों को खुश करने का गणित है बजट।इसी वजह से आयकर छूट के गणित से बजट को बहुत अच्छा बताया जा रहा है।
इस दलील से सियासत के खेमों में भी सन्नाटा है और हाशियें पर खड़ी जलजंगल जमीन के वंचित 133 करोड़ में 130 करोड़ आम जनता की सेहत का किसी को कोई परवाह नहीं है।
सरकार का मानना है कि ज्यादा कर वसूली और सरकारी उपक्रमों की हिस्सा बिक्री से उसे इतना राजस्व मिलेगा कि राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आज कहा कि अगले वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य वास्तविक है और इसे हासिल कर लिया जाएगा। अगले वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.2 फीसदी रखा गया है। वित्त मंत्री बजट बाद उद्योग व्यापार के प्रतिनिधियों से बातचीत कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने बजट से संबंधित दूसरे पहलुओं पर भी चर्चा की।
अर्थव्यवस्था की सेहत के बारे में जेटली ने खुलासा किया कि न केवल 2017-18 बल्कि इससे अगले साल के लिए तय 3 फीसदी राजकोषीय घाटे का लक्ष्य भी हासिल कर लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि वर्ष 2017-18 के बजट में बड़े नोटों बंद करने से हुए सभी फायदे पूरी तरह से शामिल नहीं हैं।
उन्होंने दावा किया कि नोटबंदी के कारण अघोषित आय पर ज्यादा कर के रूप में सरकार को अधिक राजस्व मिलेगा।
वित्त मंत्री ने कहा, 'जहां तक नोटबंदी का सवाल है तो हम यह ध्यान रखेंगे कि इससे जो भी राजस्व और अन्य लाभ होते हैं उनको पूरी तरह से इसमें शामिल नहीं किया गया है। पिछले दो साल मे कर राजस्व की वृद्घि दर 17 फीसदी रही है। लेकिन इस साल हमने इसे 12 फीसदी पर ही रखा है। जाहिर है इस लक्ष्य को हम पार कर लेंगे।'
उन्होंने कहा कि सरकार कर राजस्व में बढ़ोतरी से उत्साहित है। इसलिए उसने वर्ष 2017-18 के लिए जीडीपी का 3.2 फीसदी राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा है जबकि मौजूदा वित्त वर्ष के लिए घाटे का लक्ष्य जीडीपी का 3.5 फीसदी है। सरकार ने वर्ष 2018-19 के लिए इस घाटे को जीडीपी का 3 फीसदी रखने की भी योजना बनाई है।
वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार ने विनिवेश का लक्ष्य काफी ज्यादा रखा है। ज्यादा से ज्यादा सरकारी उपक्रम सूचीबद्घ कराए जाएंगे। इनमें सामान्य बीमा कंपनियां भी शामिल हैं। इसका मकसद उन्हें ज्यादा प्रतिस्पद्घी और पारदर्शी बनाना है। साथ ही सूचीबद्घता की जरूरतों के अनुसार सरकार को इन उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी भी घटानी है। जेटली को उम्मीद है कि सूचीबद्घता और हिस्सा बिक्री से सरकार को पर्याप्त राजस्व मिल जाएगा। जेटली ने कहा कि लालफीताशाही को कम करने के लिए विदेशी निवेश संवद्र्घन बोर्ड (एफआईपीबी) को खत्म करने का समय आ गया है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि 90 फीसदी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश स्वत: मार्ग से आ रहा है। एफआईपीबी खत्म करने के लिए आने वाले दिनों में पूरी योजना पेश की जाएगी।
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বঞ্চিত সমাজের জন্য পি. আর. ঠাকুরের এই অধিকারের লড়াই বৃথা যায়নি। কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
পি. আর. ঠাকুর (২)
কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
২৯ আগস্ট ১৯৪৭ তারিখে বাবাসাহেব ড. আম্বেদকরকে সভাপতি রেখে সংবিধান ড্রাফ্টিং কমিটি ঘোষিত হয়। এর আগের ৯মাসকে বলা যায় সংবিধানের নীতি নির্ধারণ তথা দিশা ঠিক করার পর্ব। নানাবিধ সাব কমিটি গঠিত হয়েছিল এ সময়, যাদের কাজ ছিল বিভিন্ন বিষয়ে প্রস্তাব বা পরামর্শ দান করা।
২১ ডিসেম্বর ১৯৪৬ তারিখে Constituent Assembly Negotiating Committiee গড়ার জন্য ৬জনকে দায়িত্ব দেবার প্রস্তাব পেশ হয়, এঁরা হলেন—1 আবুল কালাম আজাদ 2.পণ্ডিত জহরলাল নেহেরু 3.সর্দার বল্লভভাই প্যাটেল 4.ড. বি. পট্টভি সীতারামাইয়া 5.শংকররাও দেও এবং 6.স্যার এন, গোপালস্বামী আয়েঙ্গার। এই কমিটির হাতে বিভিন্ন রাজ্য থেকে Negotiating কমিটিতে কারা এবং ক'জন নির্বাচিত হবেন সে ক্ষমতা দেওয়া হয়েছিল। প্রস্তাবটিতে একটি সংশোধনী দাবি করেন পি. আর. ঠাকুর। তিনি বলেন—" Sir, I want to move an amendment that after the name of the Hon'ble Sir N Gopalswami Ayyanger, the name of one of the depressed class member of the House be added….."এই সংশোধনী ঘিরে বিতর্ক শুরু হয়। বিহারের আদিবাসী সমাজের লড়াকু নেতা জয়পাল সিং একজন আদিবাসী সদস্য রাখার প্রস্তাব দেন।V.I. Munniswami Pillai পি. আর. ঠাকুরের সমর্থনে এগিয়ে আসেন। বোম্বের B.G Kher প্রমুখ বিরোধিতা করেন।শেষে স্বয়ং নেহেরু হাল ধরেন। তিনি আশ্বস্ত করেন এই বলে যে, তপশিলিদের প্রতি অবিচার করা হবে না। ঠাকুরকে তিনি সংশোধনী প্রত্যাহার করতে অনুরোধ করেন।
ক্ষুব্ধ পি.আর.ঠাকুর আসন ছেড়ে Rostram-এ চলে আসেন এবং ঘোষণা করেন: "In view of the statement made by the Hon'ble Pandit Jahar Lal Neheru, I want to withdraw the amendment that I have moved. But I want to mention..(Voices- 'No, no.') one thing only (several member –No, no'). I want this assurance that at least five out of the 93 seats will be given to the Depressed Classes."
বঞ্চিত সমাজের জন্য পি. আর. ঠাকুরের এই অধিকারের লড়াই বৃথা যায়নি। কমিটিতে তপশিলিদের পাঁচের অধিক প্রতিনিধির স্থান হয়েছিল। এরপর ২৪/১/৪৭ তারিখে একটি Advisory Committee গঠিত হয় সংসদ এবং সংসদের বাইরের বিশিষ্ট ব্যক্তিদের নিয়ে।যাঁরা গুরুত্বপূর্ণ মতামত এবং পরামর্শ দান করবেন। এই কমিটির হাতে ছিল সাব-কমিটি গঠনের ক্ষমতাও। এছাড়া নাগরিকদের অধিকার, সংখ্যালঘু এবং আদিবাসীদের অধিকার এবং মৌলিক অধিকার(Fundamental rights) ছিল এই কমিটির বিবেচনার ক্ষেত্র। স্মরণে রাখা দরকার, সংখ্যালঘু হিসেবে তখন তপশিলিদেরও গণ্য করা হতো। ৭২ জনের এই Advisory Committee-তে তপশিলি সমাজের প্রতিনিধি হিসেবে নির্বাচিত হন-- 1.Sardar Prithvi Singh Azad 2.Dharam Prakash 3.H.J. Khandelkar 4.Jagjiban Ram 5.P.R. Thakur 6.Dr. B.R. Ambedkar 7.V.I. Munniswami Pillai. বাংলা থেকে গুরুত্বপূর্ণ এই কমিটিতে স্থান হয়েছিল গণ-পরিষদের সদস্য ড.প্রফুল্লচন্দ্র ঘোষ, ড.শ্যামাপ্রসাদ মুখার্জী, সুরেন্দ্রমোহন ঘোষ এবং ড.এইচ. সি. মুখার্জীর।
पी. और । टैगोर (2)
29 अगस्त 1947 को । डा. बाबा साहेब के राष्ट्रपति राष्ट्रपति के अवसर के अवसर पर । यह एक निवेदन है 9 महीने पहले । यह संविधान और मौजूदा नीति को सही करने के लिए कहा जा सकता है. इस समय विभिन्न उप समिति के एपिसोड में बनाई गई, जो अलग-अलग काम कर रहे थे या सलाह देते हैं ।
21 दिसंबर 1946 को 6 दिसंबर 1946 को 6 से 6 से 6 में 6 से 6 लोग कलाम नेहरू संविधान 2. पंडित नेहरू 3. सरदार संविधान भाई भाई भाई. 4. डा. बी. बी. बी. बी. शुभ वे देव देव और 6. सर, गोपाल स्वामी आय अयंगार । इस समिति में अलग-अलग राज्य में बातचीत करने वाले समिति के हाथ में है जो कि उन्हें शक्ति प्रदान की जा रही है. Prastābaṭitē का दावा है, एक संशोधन है, पी. और । ठाकुर । उसने कहा -" सर, मैं एक संशोधन करने के बाद एक संशोधन करने के बाद सर के नाम से खिसकाएँ के नाम से एक संशोधन के नाम से एक संशोधन जोड़ा के नाम से जोड़ा है....." इस संशोधन के आस-पास बहस शुरू करने के लिए. है । बिहार । आदिवासी समाज का समाज नेता जय सिंह एक पिल्लै पिल्लै पिल्लै पिल्लै पिल्लै पी. और । रवीन्द्रनाथ में टैगोर के समर्थन में आये । बंबई बी. जी खेर उसके चेहरे का विरोध करते हुए । आत्म नेहरू के अंत में प्रकाश के लिए । उसने कहा, " यह तुम्हारे लिए है कि उनपर कोई ज़ुल्म न होगा टैगोर संशोधन को वापसी से अनुरोध करने के लिए.
Kṣubdha pi । Āra. Ṭhākura āsana----:::: के दृश्य में ' ' माननीय पंडित जाहर लाल neheru द्वारा बनाया गया है, मुझे संशोधन करना चाहते हैं कि मैंने संशोधन कर लिया है । लेकिन मैं उल्लेख करना चाहता हूँ.. (आवाज-कोई नहीं, कोई भी नहीं है, कोई भी ' ' नहीं, मैं इस आश्वासन से कम से कम 93 सीटों से 93 सीटें होगी. उदास वर्ग."
समाज के के लिए p. और । इस लड़ाई में रवीन्द्रनाथ का अधिकार व्यर्थ हो सकता है । 24/1/47 वें प्रतिनिधियों के अवसर पर 24/1/47 वें प्रतिनिधियों का स्थान 24/1/47 वें स्थान पर थे. तब संसद में एक सलाहकार समिति का गठन किया गया था और उस व्यक्ति की संसद में सबसे महत्वपूर्ण है. अपनी राय और सलाह के अवसर पर आप लोगों के लिए धन्यवाद । यह उप-समिति का गठन और नागरिक के हाथ में था. इसके अलावा, अल्पसंख्यक अधिकारों और मूल अधिकारों और मूल अधिकारों का मूल अधिकार है । इस क्षेत्र में अल्पसंख्यक की आवश्यकता है, जैसे कि भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में. 72 सरदार पृथ्वी के रूप में एक सलाहकार समिति. 1. सरदार पृथ्वी singh आजाद 2. धरम प्रकाश 3. H.j. jagjiban khandelkar 4. राम 5. व्याख्याताओं ठाकुर 6. डॉ भीमराव अम्बेडकर 7. v.i. पिल्लै पिल्लै. इस समिति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय सभा सदस्य डॉ. श्याम चन्द्र घोष, डॉ. मुखर्जी मुखर्जी, धुन घोष और डॉ. सी. मुखर्जी.
29 अगस्त 1947 को । डा. बाबा साहेब के राष्ट्रपति राष्ट्रपति के अवसर के अवसर पर । यह एक निवेदन है 9 महीने पहले । यह संविधान और मौजूदा नीति को सही करने के लिए कहा जा सकता है. इस समय विभिन्न उप समिति के एपिसोड में बनाई गई, जो अलग-अलग काम कर रहे थे या सलाह देते हैं ।
21 दिसंबर 1946 को 6 दिसंबर 1946 को 6 से 6 से 6 में 6 से 6 लोग कलाम नेहरू संविधान 2. पंडित नेहरू 3. सरदार संविधान भाई भाई भाई. 4. डा. बी. बी. बी. बी. शुभ वे देव देव और 6. सर, गोपाल स्वामी आय अयंगार । इस समिति में अलग-अलग राज्य में बातचीत करने वाले समिति के हाथ में है जो कि उन्हें शक्ति प्रदान की जा रही है. Prastābaṭitē का दावा है, एक संशोधन है, पी. और । ठाकुर । उसने कहा -" सर, मैं एक संशोधन करने के बाद एक संशोधन करने के बाद सर के नाम से खिसकाएँ के नाम से एक संशोधन के नाम से एक संशोधन जोड़ा के नाम से जोड़ा है....." इस संशोधन के आस-पास बहस शुरू करने के लिए. है । बिहार । आदिवासी समाज का समाज नेता जय सिंह एक पिल्लै पिल्लै पिल्लै पिल्लै पिल्लै पी. और । रवीन्द्रनाथ में टैगोर के समर्थन में आये । बंबई बी. जी खेर उसके चेहरे का विरोध करते हुए । आत्म नेहरू के अंत में प्रकाश के लिए । उसने कहा, " यह तुम्हारे लिए है कि उनपर कोई ज़ुल्म न होगा टैगोर संशोधन को वापसी से अनुरोध करने के लिए.
Kṣubdha pi । Āra. Ṭhākura āsana----:::: के दृश्य में ' ' माननीय पंडित जाहर लाल neheru द्वारा बनाया गया है, मुझे संशोधन करना चाहते हैं कि मैंने संशोधन कर लिया है । लेकिन मैं उल्लेख करना चाहता हूँ.. (आवाज-कोई नहीं, कोई भी नहीं है, कोई भी ' ' नहीं, मैं इस आश्वासन से कम से कम 93 सीटों से 93 सीटें होगी. उदास वर्ग."
समाज के के लिए p. और । इस लड़ाई में रवीन्द्रनाथ का अधिकार व्यर्थ हो सकता है । 24/1/47 वें प्रतिनिधियों के अवसर पर 24/1/47 वें प्रतिनिधियों का स्थान 24/1/47 वें स्थान पर थे. तब संसद में एक सलाहकार समिति का गठन किया गया था और उस व्यक्ति की संसद में सबसे महत्वपूर्ण है. अपनी राय और सलाह के अवसर पर आप लोगों के लिए धन्यवाद । यह उप-समिति का गठन और नागरिक के हाथ में था. इसके अलावा, अल्पसंख्यक अधिकारों और मूल अधिकारों और मूल अधिकारों का मूल अधिकार है । इस क्षेत्र में अल्पसंख्यक की आवश्यकता है, जैसे कि भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में. 72 सरदार पृथ्वी के रूप में एक सलाहकार समिति. 1. सरदार पृथ्वी singh आजाद 2. धरम प्रकाश 3. H.j. jagjiban khandelkar 4. राम 5. व्याख्याताओं ठाकुर 6. डॉ भीमराव अम्बेडकर 7. v.i. पिल्लै पिल्लै. इस समिति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय सभा सदस्य डॉ. श्याम चन्द्र घोष, डॉ. मुखर्जी मुखर्जी, धुन घोष और डॉ. सी. मुखर्जी.
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महत्वपूर्ण खबरें और आलेख क्या ऐसी ही विदाई के हकदार थे मुलायम क्या ऐसी ही विदाई के हकदार थे मुलायम!
आपकी नज़र
बेहद खर्चीली जीवनशैली स्त्री आखेट का अमोघ हथियार है
पितृसत्ता के निर्मम मनुस्मृति अनुशासन के कारण सामाजिक जेलखाने में कैद स्त्री के लिए डिजिटल पंख खुले हुए आसमान की तरह है। सोशल मीडिया के मार्फत स्...
2017-02-05 22:11:48
क्या ऐसी ही विदाई के हकदार थे मुलायम!
राजनीतिक जीवन का अवसान तो कमोबेश हर राजनेता का होता है लेकिन जितने नाटकीय और फूहड़ तरीके से मुलायम सिंह का हुआ है, वह अपने आप में एक मिसाल है।
2017-02-05 13:53:55
इस विकास के एजेंडा में 'पलायन'रोकने का कोई रोड मैप क्यों नहीं है
वैसे भी 'विकास'की राजनीति अपने आप में एक 'संदिग्ध'शब्द है। इसी कथित विकास की कीमत देश की तीस लाख आवाम को 'विस्थापन'के बतौर उठाना पड़ा है।
2017-02-05 00:30:23
सिर्फ आयकर दाताओं को राहत का बजट और अंधाधुंध निजीकरणका किस्सा !
राममंदिर निर्माण अभियान के साथ डिजिटल कैशलैस मेकिंग इन इंडिया नत्थी सत्यानाश के मकसद से राजनीतिक आर्थिक सुधारों का केसरिया नक्शा यह आम बजट है
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क्या बहुजन नेता ट्रंप से भी प्रेरणा लेंगे!
बहुजन नायक-नायिकाओं ने अगर ओबामा की बजाय दक्षिण अफ्रीका के जैकब जुमा को मॉडल बनाया होता, आज न तो उनके खुद का भविष्य संकटग्रस्त होता और न ही सामाज...
2017-02-04 01:52:42
समाचार > देश
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15 thousand Bengali Hindu refugees served notice to leave Assam by Ulfa RSS linked outfit under RSS Governance RSS Never treated Bengali refuges as Hindu but Refugees always voted for Hindutva agenda! Palash Biswas
15 thousand Bengali Hindu refugees served notice to leave Assam by Ulfa RSS linked outfit under RSS Governance
RSS Never treated Bengali refuges as Hindu but Refugees always voted for Hindutva agenda!
Refugees in Uttarakhand and Uttarpradesh must think twice about their future in RSS Governance before they vote this time.
Palash Biswas
Refugees in Uttarakhand and Uttarpradesh must think twice about their future in RSS Governance before they vote this time.
I am not surprised to see 15 thousand Bengali refugees in Assam being served notice by Assamese Extremist outfit under RSS Ulfa governance as Bengali Hindu refugees voted for RSS.
Refugees have voted for RSS governance in Assam.It is ULFA empire now.I had been warning refugees against RSS Manusmiti agenda which ensured partition of India to eject out East Bengal SC OBC population out of their homeland.It is the original sin which refugees never knew because we have no firs persion account from partition victin fisrt generation.
It was LK Adwani the iron man who passed Citizenship amendment Act with all party onsensus in the parliament.Refugees seem to forget this also.
While Uttarakhand was created by RSS governace in the centre along with Chhatisgargh and Jharkhand,first RSS government declared Bengali refugees Illegal migrants in Donald Trump style just after the death of my father,the refugee leader Pulin Babu who had been most worried because of Assam movement against refugees where he have been working in sixties during the riots against Bengali refugees.He had been trying hard to organize refugees to get citizenship, reservation and right to mother tongue but failed as no All India Refugee orgnization shaped in.
It was the local support by all sections of Uttarakhand people,intelligentsia,media and politics which saved Bengali Refugees against RSS prtition replicated eviction plan yet again.
Citizenship amendment act was passed by RSS and the ruling hegemony has been targeting the refugees resettled all over India under great deportation drive which began with Orrissa.
Under such circumstances Nikhil Bharat Udvastu Samnya samiti was launched under the leadership of Dr.Subodh Biswas.
But refugee leaders have been trying hard to get citizenship with RSS Hindutva agenda.
I always warned against it even if it is our movement and we may not afford to disintegrate the refugee movement just because of ideology or difference of opinion.I support the refugee leaders irrespective of my ideology and opinion.
Under RSS Governance in Chhatisgargh, Bengali refugees face unprecedented persecution and a movement against refugees has already been launched there.
But refugee leaders were hoping against hope that RSS would reinstate citizenship to Hindu Bengali refugees for which they voted RSS in Bengal,Assam and elsewhere,but RSS ensured every law enacted to reform the economy for destruction but skipped the most wanted citizenship amendment bill to restore citizenship to Hindu Bengali refugees.
Now it is deportation drive launched by RSS linked outfits afresh in Assam and Dandkaranya.
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১৯৪৭-এর জুন মাসে বাংলার বিধানসভায় বাংলাভাগ চূড়ান্ত হলে পূর্ববাংলা থেকে নির্বাচিত ড. আম্বেদকরের সদস্যপদ স্বাভাবিক কারণেই খোয়া যায়, একই কারণে খোয়া যায় প্রমথ রঞ্জন ঠাকুরের সদস্যপদও।
পি. আর. ঠাকুর(3)
কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
পি. আর. ঠাকুর প্রসঙ্গে যাবার আগে বাবাসাহেব ড. আম্বেদকর সম্পর্কে দুয়েকটি কথা বলা দরকার। গণ-পরিষদে বাংলা থেকে তাঁর নির্বাচন আটকাতে কংগ্রেস, বিশেষত সরদার বল্লভভাই প্যাটেল সর্বাত্মক যুদ্ধ ঘোষণা করেছিলেন। যার ফলে আমরা স্বাভাবিক ভাবে ধরে নিই, সংবিধান পরিষদের ভেতরেও কংগ্রেস সদস্য ও নেতৃবৃন্দ নিশ্চয়ই সেই বিরোধিতা অব্যাহত রেখেছিলেন। ঘটনাবলী কিন্তু তার বিপরীত সাক্ষ্যই দেয়। একেবারে সূচনা থেকেই সেখানে বাবাসাহেবকে প্রাপ্য মর্যাদা দেওয়া হয়েছে। বাইরের বিরোধিতা ভেতরে টেনে আনা হয়নি।
৯ ডিসেম্বর '৪৬, অধিবেশন শুরুর দিন উপস্থিত ছিলেন সর্বমোট ২০৭ জন। সম্মানের সঙ্গে একেবারে প্রথম সারিতে যাঁদের বসানো হয়েছিল, তালিকাটা লক্ষণীয়: পণ্ডিত জহরলাল নেহেরু, মৌলানা আবুল কালাম আজাদ, সর্দার বল্লভভাই প্যাটেল, আচার্য কৃপালিনী, ড. রাজেন্দ্র প্রসাদ, সরোজিনী নাইডু, হরেকৃষ্ণ মহতাব, জি বি পন্ত, বি আর আম্বেদকর, শরৎচন্দ্র বোস, সি রাজাগোপালাচারী এবং এম. আসফ আলি। পরবর্তী কালেও লক্ষ করা গেছে, সংবিধান সভার চেয়ারম্যান রাজেন্দ্রপ্রসাদ একটি বিষয় নিয়ে বিতর্কে কুড়িজনের তালিকা ডিঙিয়ে আম্বেদকরকে বলার সুযোগ দিচ্ছেন। বাবাসাহেব সেজন্য বক্তব্যের আগে বিস্ময়ও প্রকাশ করছেন। ১৯৪৭-এর জুন মাসে বাংলার বিধানসভায় বাংলাভাগ চূড়ান্ত হলে পূর্ববাংলা থেকে নির্বাচিত ড. আম্বেদকরের সদস্যপদ স্বাভাবিক কারণেই খোয়া যায়, একই কারণে খোয়া যায় প্রমথ রঞ্জন ঠাকুরের সদস্যপদও।
৩০শে জুন ১৯৪৭, ড. রাজেন্দ্রপ্রসাদ বোম্বের প্রাইম মিনিস্টার বি জি খেরকে অনুরোধ করেন ড. আম্বেদকরকে পুনঃনির্বাচিত করতে। সেই সূত্রে জুলাই মাসেই ড. আম্বেদকর সংবিধান পরিষদে পুনঃনির্বাচিত হয়ে আসেন এবং বাংলার পরিবর্তে বোম্বের সদস্য হিসেবে পরিচিতি লাভ করেন। বাংলার সঙ্গে তাঁর নির্বাচনী বন্ধন ছিন্ন হয়। ইতিপূর্বে, জুন মাসের ২তারিখে মহাপ্রাণ যোগেন্দ্রনাথ মণ্ডলকে (Law Member to the Govt.of India) তিনি একটি গুরুত্বপূর্ণ চিঠি লেখেন যোগেন্দ্রনাথের ৩০মে '৪৭-এর চিঠির উত্তরে। যাতে ড.আম্বেদকরের দৃষ্টিভঙ্গী, বিশ্বাস ও আগামী কর্মসূচি সম্পর্কে সুস্পষ্ট ছবি ধরা পড়ে। ধরা পড়ে হিন্দু ও মুসলমান নেতৃবৃন্দ সম্পর্কে তাঁর প্রকৃত মনোভাব। ওই পরিস্থিতিতে দু'দিকেই রক্ষাকবচ (safeguards)আদায় করাকেই তপশিলিদের একমাত্র লক্ষ্য হওয়া উচিত বলে তিনি মন্তব্য করেছেন। নানা বিষয়ে আলো ফেলা সেই গুরুত্বপূর্ণ চিঠিটি প্রসঙ্গান্তরে নিশ্চয়ই কেন্দ্রীয় আলোচ্য বিষয় হতে পারে, কিন্তু বর্তমান আলোচনায় তা ততটা প্রাসঙ্গিক নয়।
সংবিধান সভায় পি আর ঠাকুরের যা কিছু অবদান, জুন '৪৭-এর মধ্যে সীমাবদ্ধ। এই সময়ে যেখানে সুযোগ মিলেছে, তিনি নিজের বক্তব্য তুলে ধরেছেন। যেমন সংবিধান সভাতেও (২৫/১/৪৭) তিনি পূর্ববাংলার দুর্ভিক্ষ আর দাঙ্গা পীড়িতদের জন্য জোরালো কন্ঠে ত্রাণের দাবী তুলে ধরেছেন। এই দরদ ও দায়বদ্ধতা সংবিধান পরিষদে আর কোনও সদস্যের কন্ঠে আমরা শুনতে পাই না। তাঁর সম্পর্কে আর কয়েকটি তথ্য দিয়ে এই আলোচনার ইতি টানব।
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उपभोक्तावाद के युद्धोन्माद में बच्चे अपराधी हैं तो कोई मां बाप,कोई रिश्ता नाता सुरक्षित नहीं है। दरअसल असल अपराधी तो हम भारत के नागरिक हैं जो पिछले 26 सालों से लगातार परिवार,समाज,संस्कृति ,लोक , जनपद, उत्पादन, अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर ऐसा नरसंहारी मुक्तबाजार बनाते रहे हैं। अखंड क्रयशक्ति की कैसलैस डिजिटल अमेरिकी जीवनशैली यही है।जो अब मुक्त बाजार का अर्थशास्त्र है,जहां श्रम
उपभोक्तावाद के युद्धोन्माद में बच्चे अपराधी हैं तो कोई मां बाप,कोई रिश्ता नाता सुरक्षित नहीं है।
दरअसल असल अपराधी तो हम भारत के नागरिक हैं जो पिछले 26 सालों से लगातार परिवार,समाज,संस्कृति ,लोक , जनपद, उत्पादन, अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर ऐसा नरसंहारी मुक्तबाजार बनाते रहे हैं।
अखंड क्रयशक्ति की कैसलैस डिजिटल अमेरिकी जीवनशैली यही है।जो अब मुक्त बाजार का अर्थशास्त्र है,जहां श्रम और उत्पादन सिरे से खत्म है और सामाजिक सांस्कृतिक उत्पादन संबंधों का तानाबाना खत्म है और उसकी सहिष्णुता , उदारता, विविधता और बहुलता की जगह एक भयंकर उपभोक्तावादी उन्माद है जिसका न श्रम से कोई संबंध है और न उत्पादन प्रणाली से और जिसके लिए परिवार या समाज या राष्ट्र जस्ट लिव इन डिजिटल कैशलैस इंडिया मेकिंग इन है।यही हुिंदुत्व है।
नकदी के तकनीक जरिये हस्तांतरण से अर्थ तंत्र का भयंकर अपराधीकरण हो रहा है और बेहतर तकनीक वाले बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार होंगे।मां बाप के कत्लेआम का सारा सामान,मुकम्मल माहौल बना रहा है हिंदुत्व का यह कारपोरेट डिजिटल अर्थतंत्र।
यही हिंदुत्व का पुनरुत्थान है,राष्ट्रवाद है और रामराज्य भी यही है।
पलाश विश्वास
भोपाल में बंगाल की 28 साल की बेटी आकांक्षा अपने प्रेमी उदयन दास के साथ लिव इन कर रही थी।वह महीनों पहले अमेरिका में युनेस्को की नौकरी की बात कहकर बांकुड़ा में बैंक के चीफ मैनेजर पिता के घर से निकली थी।इस प्रेमकथा का अंत त्रासद साबित हुआ जब भोपाल में उदयन दास के घर में पूजा बेदी के नीचे दफनायी हुई सीमेंट की ममी बना दी गयी आकांक्षा का नरकंकाल निकला।
किसी प्रेमकथा की ऐसी भयानक अंत आजकल कही न कहीं किसी न किसी रुप में दीखता रहता है।आनर किलिंग,भ्रूण हत्या और दहेज हत्या और स्त्री उत्पीड़न के तमाम मुक्तबाजारी वारदातों के साथ बिन ब्याह लिव इन संबंधों की ऐसी परिणति अमेरिकी संस्कृति की तरह हमारी नींद में खलल नहीं डालती।
जैसे हम नरसंहारों क अभ्यस्त हैं,जैसे हम बलात्कार सुनामियों के अभ्यस्त है,जैसे हम दलितों और स्त्रियों पर उतक्पीड़न के अभ्यस्त हैं,वैसे ही मुक्तबाजारी वारदातें अब रोजमर्रे की जिंदगी है।
अब बारी किसकी है,कहीं हमारी तो नहीं,इसकी कोई परवाह किसी को नहीं है।
मुक्तबाजार में पागल दौड़ अब हमारा लोकतंत्र है।
मुक्तबाजार में पागल दौड़ मजहबी सियासत है तो अखंड कारपोरेट राज भी यही।इसी पागल दौड़ में हमारा रीढ़विहीन कंबंध वजूद है।
सदमा तब गहराता है जब प्रेमिका को ठंडे दिमाग से मारने वाला शराब पीकर जीने वाला कार फ्लैटवाला रईस प्रेमी बिना किसी हिचक के अपने मां बाप का कत्ल करके रायपुर में अपने ही घर के आंगन में उनकी लाशें दफना देने का जुर्म पुलिस पूछताछ में कबूल करता है और 24 घंटे के भीतर उसी घर के आंगन में मां बाप की लाशें मिल जाती हैं।
किसी भी मां बाप के लिए किसी बच्चे की यह क्रूरता भयंकर असुरक्षाबोध का सबब है क्योंकि उपभोक्तावाद के युद्धोन्माद में बच्चे अपराधी हैं तो कोई मां बाप,कोई रिश्ता नाता सुरक्षित नहीं है।
दरअसल असल अपराधी तो हम भारत के नागरिक हैं जो पिछले 26 सालों से लगातार परिवार,समाज,संस्कृति ,लोक , जनपद, उत्पादन, अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर ऐसा नरसंहारी मुक्तबाजार बनाते रहे हैं।
यही हिंदुत्व का पुनरुत्थान है,राष्ट्रवाद है और रामराज्य भी यही है।
अखंड क्रयशक्ति की कैसलैस डिजिटल अमेरिकी जीवनशैली यही है।जो अब मुक्त बाजार का अर्थशास्त्र है,जहां श्रम और उत्पादन सिरे से खत्म है और सामाजिक सांस्कृतिक उत्पादन संबंधों का तानाबाना खत्म है और उसकी सहिष्णुता, उदारता, विविधता और बहुलता की जगह एक भयंकर उपभोक्तावादी उन्माद है जिसका न श्रम से कोई संबंध है और न उत्पादन प्रणाली से और जिसके लिए परिवार या समाज या राष्ट्र जस्ट लिव इन डिजिटल कैशलैस इंडिया मेकिंग इन है।यही हुिंदुत्व है।
उदयन दास हत्यारा है जिसने प्रेमिका की हत्या से पहले अपने मां बाप की हत्या की है।अपने अपराधों को उसने डिजिटल तकनीक की तरह सर्जिकल स्ट्राइक की तरह बिना सुराग अंजाम दिया है,परिवार और समाज से उसका कोई संपर्क सूत्र नहीं है और उपभोक्ता जीवन के लिए उसके लिए सारे संबंध बेमायने हैं,जिनकी कोई बुनियाद नहीं है। जाहिर है कि वह एक मानसिक अपराधी है और क्रिमिनल पर्सनलिटी डिसआर्डर का शिकार है।यह बीमारी मुक्तबाजार का उपभोक्तावाद है।
सबसे खतरनाक बात यह है कि मुक्तबाजार के इसी उपभोक्तावाद के लिए सारा का सारा अर्थतंत्र बदला जा रहा है।यही बजट का सार है।आर्थिक सुधार,पारदर्शिता है।
यह आर्थिक क्रांति भी रामराज्य और राममंदिर के नाम हो रहा है।
भारतीय जनसंघ के जमाने में कोई बलराज मधोक इसके अध्यक्ष भी बने थे शायद,ठीक से याद नहीं पड़ता क्योंकि साठ के दशक में तब हम निहायत बच्चे थे।
अब चूंकि संघ परिवार को श्यामाप्रसाद मुखर्जी,वीर सावरकर और गांधी हत्यारा के अलावा अपने जीवित मृत सिपाहसालारों की याद नहीं आती,इसलिए दशकों से बलराज मधोक चर्चा में नहीं हैं।
बलराज मधोक साठ के दशक में भारतीयकरण की बात करते थे।
जनसंघ तब भारतीयकरण के एजंडे पर था।यानी भारत में रहना है तो भारतीय बनना होगा और जाहिर है कि संघ परिवार की भारतीयता से तात्पर्य हिंदुत्व से है।
अब भी संघ परिवार के झोलाछाप विशेषज्ञ, सिद्धांतकार हिंदुत्व को धर्म के बदले संस्कृति बताते हुए सभी भारतवासियों के हिंदुत्वकरण पर आमादा हैं।
सबसे खतरनाक बात तो यह है कि समूचा लोकतंत्र,सारी की सारी राष्ट्र व्यवस्था,राजकाज, नीति निर्माण,संसदीय प्रणाली,लोकतांत्रिक संस्थाएं,मीडिया और माध्यम,अर्थव्यवस्था और समूचा सांस्कृतिक परिदृश्य,शिक्षा और आधारभूत संरचना ऐसे झोलाछाप विशेषज्ञों और सिद्धांतकारों के शिकंजे में हैं।
नोटबंदी से लेकर बजट,रिजर्व बैंक से लेकर विश्वविद्यालय हर स्तर पर अंतिम फैसला इन्हीं मुक्तबाजारी भूखे प्यासे बगुला भगतों का है।उन्ही का राज,राजकाज है।
मुक्तबाजार के कारपोरेट हिंदुत्व का अब सिरे से अमेरिकी करण हो गया है।मसलन डिजिटल कैशलैस लेनदेन भारतीय संस्कृति और परंपरा में किसी भी स्तर पर नहीं है।संघ परिवार की महिमा से रामराज्य में यही स्वदेशी नवजागरण है।
नकदी के तकनीक जरिये हस्तांतरण से अर्थ तंत्र का भयंकर अपराधीकरण हो रहा है और बेहतर तकनीक वाले बच्चे इसके सबसे बड़े शिकार होंगे।मां बाप के कत्लेआम का सारा समान बना रहा है हिंदुत्व का यह कारपोरेट डिजिटल अर्थतंत्र। कयामती फिजां की इंतहा है यह।अब इस अर्थतंत्र के डिजिटल धमाके में परिवार,समाज,राष्ट्र ,सारे के सारे पारिवारिक सामाजिक उत्पादन संबंध खत्म हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार की गतिविधियां भी सामाजिक कार्य कलाप है।यहां जनदों में हाट बाजार ब भी कमोबेश चौपाल की तरह काम करते हैं,जहां लेनदेन के तहत समाजिक और उत्पादन संबंध की अनिवार्यता है।
अब तीन लाख रुपये से ज्यादा कैश रखने पर सौ फीसद जुर्माना के साथ नोटबंदी से पैदा हुए नकदी संकट से उबरने के साथ नोटबंदी को जायज ठहराने के लिए कर सुधारों के साथ जो बजट पेश किया गया है,वहां बाजार की भारतीयता को सबसे पहले खत्म कर दिया गया है।
बाजार अब मुक्तबाजार है जो किसानों,मजदूरों ,कारोबारियों,बहुजनों,स्त्रियों और बच्चों के साथ साथ युवा पीढ़ियों का अबाध वधस्थल वैदिकी है।इस बाजार का उत्पादन प्रणाली ,मनुष्यों,समाज,सभ्यता और संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है।
डिजिटल कैशलैस क्रयशक्ति का उपभोक्ता वाद हिंदुत्व का नया अंध राष्ट्रवाद है।बेतहाशा बढ़ते विज्ञापनी उपभोक्ता बाजार के निशाने पर बच्चे हैं।
तकनीकी क्रांति में ज्ञान की खोज सिरे से खत्म है तो शिक्षा अब नालेज इकोनामी है यानी हर हाल में संबूक हत्या अनिवार्य है।
अंधाधुंध उपभोक्तावाद अब कारपोरेट हिंदुत्व है और इस कारपोरेट हिंदुत्व के लिए परिवार,विवाह,समाज,लोकतंत्र,संविधान,कानून का राज वैसे ही फालतू हैं जैसे समता,सामाजिक न्याय,विविधता और बहुलता,उदारता और सहिष्णुता।
इस अमेरिकी हिंदुत्व के नये प्रतीक के बतौर उदयन दास का चेहरा है और सबसे खतरनाक बात तो यह है कि हर गली मोहल्ले में,गांव शहर में,हर परिवार में एलसीडी, कंप्यूटर, मोटरसाईकिल, फ्लैट ,गाड़ी लिव इन पार्टनर के लिए बच्चे क्रमशः अपराधी और हत्यारे में तब्दील हो रहे हैं।
पूरी मुक्तबाजारी नई धर्मोनेमादी पीढ़ी अब क्रिमिनल पर्सनलिटी डिसआर्डर का शिकार है।बाहैसियत वारिस विरासत के हस्तांतरण तक रुकर उपभोग को विलंबित करने के मूड में नहीं है नई पीढ़ी।
उसे बाजार की हर तमकीली भड़कीली चीजे तुंरत चाहिए।
दूधमुंहा बच्चे तक स्मार्टफोन के रोज नये अवतार के लिए हंगामा बरपा देते हैं।
जोखिम भरे डिजिटल कैशलैस लेनदेनके साथ तकनीक बेहतर जानने वाले बच्चों का गृहयुद्ध अब नया महाभारत की पटकथा है।
उदयन दास अकेला अपराधी नहीं है।
मुक्तबाजार बड़े पैमाने पर बच्चों को अपराधी बना रहा है।
बंगाल में दुर्गापूजा के बाजार फेस्टिवल में महंगी खरीददारी के लिए क्रयशक्ति न होने की वजह से गरीब और मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों की आत्महत्या आम है।
कोलकाता में ही मां,बाप,दादा दादी और भाई बहन की मुक्तबाजारी उन्माद की वजह से हत्या अऱकबारी सुर्खियां और टीवी की सनसनी है।
आकांक्षा की प्रेमकथा के प्रसंग में वे सारी कथाएं उपकथाएं सनसनीखेज तरीके से फिर अखबारी पन्नों पर हैं और टीवी के परदे पर हैं।
यह क्राइम सस्पेंस और हारर मुक्तबाजार की संस्कृति है और इस उपभोक्ता युद्धोन्माद में कोई परिवार या कोई मां बाप सुरक्षित नहीं है।
गौरतलब है कि भोपाल और रायपुर की मूलतः देशज कस्बाई संस्कृति से जुड़े नये महानगरों का किस्सा आकांक्षा उदयन है।यह अबाध केसरिया अमेरिकीकरण का सिलसिलेवार विस्फोट है।भूकंप के निरंतर झटके हैं जो कभी भी तबाही में तब्दील हैं।
कोलकाता,दिल्ली,मुंबई,बंगलूर से सलेकर अत्याधुनिक असंख्य उपनगरों और स्मार्ट शहरों में इसका अंजाम कितना भयानक होगा,यह देखना बाकी है।
विडंबना है कि रामराज्य का वैचारिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीक मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं और इसके विपरीत भारतीय संविधान और भारतीय लोकगणराज्य का प्रतीक धम्मचक्र है।
संविधान और लोकगणराज्य और इनके प्रतीक धम्मचक्र जाहिर है कि बजरंगवाहिनी के रामवाण के निशाने पर हैं।
रामराज्य के भव्य राममंदिर के निरमाण के लिए सबसे पहले संविधान, लोकगणराज्य और उसके प्रतीक धम्मचक्र का सफाया जरुरी है और उनमें निहित मौलिक सिद्धांत,विचारधारा,आदर्श,कायदा कानून, समता,सहिष्णुता,उदारता, लोकतंत्र,न्याय,नागरिकता,नागरिक और मौलिक अधिकारों के खात्मे के साथ साथ मुकम्मलमनुस्मृति राज अनिवार्य है और संयोग से राम उसके भी प्रतीक हैं जो मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था को लागू करनेके लिए शंबूक की हत्या करते हैं और मनुस्मृति साम्राज्य के लिए अश्वमेध यज्ञ का वैदिकी आयोजन करके जनपदों को रौंद डालते हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम पितृसत्ता का निर्मम प्रतीक भी हैं जो सतीत्व की अवधारणा का जनक है और उनका न्याय सीता की अग्निपरीक्षा और सीता का ही गर्भावस्था में वनवास है।रामराज्य में सामाजिक न्याय और समता का यही रसायन शास्त्र है जो अब मुक्तबाजार का भौतिकीशास्त्र और अर्थशास्त्र भी है।
सत्ता पर वर्गीय,नस्ली कब्जा और संसाधनों,अवसरों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में सत्ता वर्ग का जन्मजात जमींदारी वर्चस्व बनाये रखकर समता और सामाजिक न्याय को सिरे से खत्म करने के लिए मजहबी सियासत जिस तरह कारपोरेट और नरसंहारी हो गयी है,उसमें कानून का राज जैसे हवाई किला है,लोकतंत्र उसी तरह ख्वाबी पुलाव है और विचारधारा विशुध वैदिकी कर्मकांड का पाखंड है।
इसका कुल नतीजा दस दिगंत सर्वनाश है।
अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली का विध्वंस है और राष्ट्र का,समाज का परिवार का,संस्थानों का खंड खंड विभाजन है।सारा तंत्र मंत्र यंत्र समरसता के नाम संपन्नता क्रयशक्ति के हितों में वर्गीय समझौता है और विचारधारा पाखंड है।
मजहबी सियासत का कुल नतीजा मुक्त बाजार है और मुक्तबाजार मजहबी सियासत में तब्दील है।सभ्यता और संस्कृति का अंत है तो विचारधारा और इतिहास का अंत है।
विडंबना है कि भारतीय धर्म कर्म राष्ट्रीयता के साथ साथ भारतीय संस्कृति और इतिहास का स्वयंभू धारक वाहक संस्थागत संघ परिवार है और देश में सत्ता की कमान उसी के हाथ में है।
राजकाज और नीति निर्धारण में संसदीय प्रणाली और लोकतांत्रिक संस्थानों को हाशिये पर रखकर कारपोरेट हितों के मुताबिक ग्लोबल हिंदुत्व का एजंडा संघ परिवार की सर्वोच्च प्राथमिकता है और मुफ्त में नस्ली रंगभेद के नये मसीहा डान डोनाल्ड अब उनका विष्णु अवतार है।
ट्रंप कार्ड से लैस हिंदुत्व की सरकार अर्थव्वस्था को उत्पादन प्रणाली से उखाड़कर कारपोरेट शेयर बाजार में तब्दील करके एकाधिकार आवारा पूंजी के वर्चस्व को स्थापित करने के मकसद से मुक्त बाजार के विस्तार को वित्तीय प्रबंधन में तब्दील कर चुका है और इसी सिलसिले में उसने नोटबंदी का रामवाण का इस्तेमाल करके यूपी दखल के जरिये राज्यसभा में बहुमत के लिए फिर राममंदिर का जाप करने लगा है।
नोटबंदी के बाद रेलवे को समाहित करके जो पहला बजट निकला है संघ परिवार के राम तुनीर से उसका कुल मकसद टैक्स सुधार है ताकि आम जनता पर सारे टैक्स और कर्ज को बोझ लाद दिया जाये।
डिजिटल कैसलैस सोसाइटी का मकसद भी खेती और व्यापार में लगे बहसंख्य बहुजन सर्वहारा का नरसंहार है।
रेलवे का निजीकरण खास एजंडा है प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी सेवाओं की निलामी के साथ साथ ,रक्षा,आंतरिक सुरक्षा,परमाणू ऊर्जा, बैंकिंग, बंदरगाह, संचार, ऊर्जा, बिजली पानी सिंचाई,निर्माण विनिर्माण,खनन कोयला इस्पात, परिवहन, उड्डयन,तेल गैस,शिक्षा,चिकित्सा,औषधि,उर्वरक,रसायन,खुदरा कारोबार समेत तमाम सेक्टरों में अंधाधुंध विनिवेश और निजीकरण संघी रामराज्य का वसंत है,पर्यावरण ,जलवायु और मौसम है।
वायदा था बुलेट ट्रेनों का तो पटरियों पर निजी ट्रेनें दौड़ाने की तैयारी है और यात्री सुरक्षा के बजाय तमाम यात्री सेवाएं कारपोरेट हवाले है।
रेलकर्मचारियों पर छंटनी की तलवार है।
रेलवे पर संसद में किसी किस्म की विशेष चर्चा रोकने के लिए अबाध निजीकरण के मकसद से भारतीय रेल कारपोरेट हवाले पर पर्दा डालने के लिए रेल बजट बजट में समाहित है और नई पुरानी परियोजनाओं का कोई ब्यौरा नहीं है।
आर्थिक सुधारों को राजनीतिक सुधारों की चाशनी में डालकर लोक लुभावन बनाने का फंडा डिजिटल कैशलैस है तो नोटबंदी की वजह से सुरसामुखी हो रहे बजट घाटा,वित्तीय घाटा मुद्रास्फीति और मंहगाई,गिरती विकास दर, तबाह खेत खलिहान जनपद,तहस नहस उत्पादन प्राणाली,तबाह खेती,कारोबार और काम धंधे, बेरोजगारी, भुखमरी और मंदी के सर्वव्यापी संकट से निबटकर सुधारों के नरसंहारी कार्यक्रम को तेज करने का हिंदुत्व नस्ली एजंडा यह बजट है।
गांधी ने पूंजीवादी विकास को पागल दौड़ कहा था तो अंबेडकर ने बहुजनों को सामाजिक बदलाव और जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ दो शत्रुओं कसे लड़ने का आह्वाण किया था-पूंजीवाद के खिलाफ और ब्राह्मणवाद के खिलाफ।
आजादी के सत्तर साल बाद सारा का सारा तंत्र ब्राह्मणवादी है और रामराज्य के जरिये तथागत गौतम बुद्ध की क्रांति में खत्म ब्राह्मणवाद का पुनरूत्थान सर्वव्यापी है और पूरा देश अब आर्यावर्त है तो अमेरिका को भी आर्यावर्त बनाने की तमन्ना है।
1991 से भारतवर्ष लगातार अमेरिका बन रहा है।डिजिटल कैशलैस आधार अनिवार्य भारत अमेरिका बनते बनते पूरी तरह अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील है।
हिंदुत्व एजंडा की पूंजी मुसलमानों के खिलाफ घृणा और वैमनस्य का अंध राष्ट्रवाद है तो सोना पर सुहागा यह है कि डान डोनाल्ड ने मुसलमानों और काली दुनिया के खिलाफ तीसरे विश्वयुद्ध का ऐलान कर दिया है।
इस तीसरे विश्वयुद्ध में भारत अब अमेरिका और इजराइल का पार्टनर है तो संघ परिवार की समरसता का नया पंडा है कि अगला राष्ट्रपति ब्राह्मण होगा और उपराष्ट्रपति दलित।वर्ग समझौते का यह नायाब उपक्रम है तो अर्थव्यवस्था के साथ साथ रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का सत्यानाश करने के बाद शगूफा है कि नये नोट पर गांधी के बजाय अंबेडकर होंगे।
बहुत ताज्जुब नहीं है कि हिंदू धर्मस्थलों पर बहुत जल्द तथागत गौतम बुद्ध और अंबेडकर के साथ डान डोनाल्ड की मूर्ति की भी प्राण प्रतिष्ठा हो जाये और तीनों एकमुश्त भगवान विष्णु के अवतार घोषित कर दिये जाये।नया इतिहास जैसे रचा जा रहा है,वैसे ही नये धर्म ग्रंथ रचने में कोई बाधा नहीं है।
बहुसंख्य का अंधा राष्ट्रवाद लोकतंत्र और संविधान,कानून के राज,नागरिकत और मानवाधिकार,स्त्री बच्चों युवाजनों के साथ साथ वंचित वर्ग के लिए नरसंहार के वास्ते ब्रह्मास्त्र है।इस ब्रह्मास्त्र को कानूनी जामा संसद में पेश नया बजट है।
सन 1991 से बजटअगर पोटाशियम सायोनाइड का तेज जहर रहा है तो अब यह विशुध हिरोशिमा नागासाकी बहुराष्ट्रीय कारपोरेट उपक्रम है।
जनादेश आत्मघाती भी होता है।
विभाजित अमेरिका इसका ताजा नजीर है जो आधी से ज्यादा जनता को मंजूर नहीं है। अमेरिकी संसदीय परंपरा के मुताबिक राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों के वावजूद राजकाज के हर फैसले और समझौते को संसद में कानून बनाकर लागू करने की परंपरा है,उसे तिलांजलि देकर व्हाइट हाउस में चरण धरते ही डान डोनाल्ड एक के बाद एक एक्जीक्युटिवआर्डर के जरिये संसद को बाईपास करके अपने नस्ली कुक्लाक्स श्वेत तांडव से दुनिया में सुनामियां पैदा कर रहे हैं।
गौरतलब है कि हिटलर और मुसोलिनी भी लोकप्रिय जनादेश से पैदा हुए थे।
भारत में वहीं हो रहा है जो दोनों विश्वयुद्धों के दरम्यान जर्मनी और इटली में हुआ था या जो डान डोनाल्ड का राजकाज है।अब हिटलर,मुसोलिनी और डान डोनाल्ड हमारे अपने हुक्मरान हैं और हम उनके गुलाम प्रजाजन हैं।
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भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक पहाड़ों में भूकंप से पर्यावरण के बारुदी सुरंगों में धमाका।राजधानियों की सेहत पर कोई असर नहीं।आपदा प्रबंधन सुसुप्त है। पलाश विश्वास
भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक
पहाड़ों में भूकंप से पर्यावरण के बारुदी सुरंगों में धमाका।राजधानियों की सेहत पर कोई असर नहीं।आपदा प्रबंधन सुसुप्त है।
पलाश विश्वास
राष्ट्रीय भूकंप ब्यूरो के अनुसार भूकंप की तीव्रता 5.8 थी। भूकंप का केंद्र उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पीपलकोटि को बताया जा रहा है। भूकंप जमीन के 33 किलोमीटर नीचे आया था और 7-10 सेकेंड तक झटके महसूस किए गए. देहरादून और हरिद्वार में अपेक्षाकृत ज्यादा तेज झटके महसूस हुए।
फिलहाल उत्तराखंड में लोग भूकंप के बाद आने वाले झटकों के खौफ में घर नहीं जा रहे। रुद्रप्रयाग डीएम रंजना के अनुसार, आपदा केंद्र को पूरी तरह से एक्टिव कर दिया गया है। सभी पुलिस थानों और तहसील से जानकारी जुटाई जा रही है। अभी तक कहीं से भी जनहानि की कोई सूचना नहीं है। वहीं अभी तक यह भी साफ नहीं हो सका है कि भूकंप का केंद्र रुद्रप्रयाग है या फिर पीपलकोटी। पीपलकोटी चमोली जिले में आता है और यह रुद्रप्रयाग को पड़ोसी जिला है। डीएम ने बताया कि भूकंप के झटकेमहसूस करने के बाद हम और सारा स्टाफ क्वार्टरों से बाहर आ गया। भूकंप के तेज झटके दो बार महसूस किए गए।
देहरादून, चमोली, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, केदारनाथ और ऋषिकेश समेत उत्तराखंड के कई शहर भूकंप के तेज झटकों से कांप उठे। झटके इतने तेज थे कि लोग नींद से जाग गए। घबराकर लोग निकलकर बाहर आ गए।
उत्तराखंड टुडे के मुताबिक,रुद्रप्रयाग रहा भूकंप रहा केंद्र, हल्द्वानी-देहरादून के लोगों ने बताई आप बीती । NDRF टीमें हाई अलर्ट पर
#Earthquake#Rudraprayag#Haldwani#Uttarakhand Earthquakes Today
राजीव नयन बहुगुआ का शब्द चित्र सटीक हैः
भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक
भूकम्प और भालू अक्सर पुनः लौट कर आते हैं , और ज़्यादा शिद्दत से धावा बोलते हैं । हड़बड़ाना मत । धैर्य रखना । दिवार से तुरन्त अलग हट कर खड़े हों । दरवाज़े की कुण्डी मत लगाना । सीढ़ियों से बाहर भागना , लिफ्ट से नहीं ।
दिनेश ल्वेशाली ने चेतावनी दी हैः
मौसम विभाग,,,
ब्रेकिंग न्यूज़ रात 12.30 पर फिर आ सकते है भूकम्प के झटके सतर्क रहे ।
ज्यादा से ज्यादा लोगो को शेयर करे।
हम रात को खाना खा रहे थे।टीक साढ़े दस बजे थे।दस मिनट के भीतर बसंतीपुर से भाई पद्दोलोचन का फोन आ गया कि उत्तराखंड में भूकंप आ गया है और तराई में मौसम बेहद खराब है।वह हमेशा की तरह अपनी भाभी को खबर दे रहा था।घर में बहूू उम्मीद से हैं तो हम किसी खुशखबरी का इंतजार कर रहे थे।इसके बदले हमें उत्तराखंड और पूरे उत्तर भारत में भूकंप की खबर मिली।भंकप इलाका होने के बावजूद पहाड़ों में आपदा प्रबंधन का नजारा यह है कि मौसम विभाग भी टीवी चैनलों को ठीक से बता नहीं पा रहा है कि भूकंप का एपीसेंटर ठीक कहां है।रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ दोनों को एपीसेंटर बताया जा रहा है।किसी चैनल में भूकंप का केंद्र सतह से एक किमी नीचे तो किसी दूसरे चैनल में जमीन के अंदर तीस किमी नीचे बताया जा रहा है।पहले रेक्टर स्केल पर 5.3 का भूकंप बताया गया तो बाद में यह 5.8 में बदल गया।
संस्थागत विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि इस पैमाने पर भूकंप से जानमाल के नुकसान का अंदाजा कम है।भूस्खलनों से पहाड़ में जितना नुकसान हो जाता है,भारी वर्षा से जो नुकसान होता है,बाढ़ से जो तबाही मचती है,उसके मद्देनजर उत्तराखंड के पहाड़ों के बारुदी सुरंगों के फटने से गावों और घाटियों का क्या बनना है,हाल के केदार जलसुनामी और नेपाल के महाभूकंप के अनुभव और बचाव राहत अभियान,हवा हवाई मीडिया कवरेज से उसका अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है।पहाड़ का एक एक इंच जमीन बेदखल है तो भारी पैमाने पर रोजगार की तलाश में पलायन है।जनादेश बनाने से पहले पहाड़ की सेहत पर टंगा पर्दा गिर गया है लेकिन मजहबी सियासत के कारिंदों को इसकी खास परवाह नहीं है और उत्तराखंड केसरिया है।
पद्दो ने बताया तराई में आंधी पानी से मौसम बेहद खराब है और तेज भूकंप के झटकों से अफरातफरी मची है।उसने बताया कि भतीजा टुटुल अभी घर लौटा नहीं है लेकिन उसने घर पर फोन से खबर दी है कि चंडीपुर और दिनेशपुर में बिजली गिरने से दो लोगों की मौत हो गयी है।चंडीपुर में पिताजी के मित्र संन्यासी मंडल के बेटे का निधन बिजली गिरने से हो गयी है।संन्यासी मंडल इमरजेंसी के खिलाप हमारे साथ थे और 1977 के मध्यावधि चुनाव के दौरान उनने हमारी बगावत का समर्तन पिताजी से अपनी मित्रता दांव पर लगाकर किया था।
अभी टीवी और इंटरनेट पर भूकंप से जानमाल के नुकसान की कोई खबर नहीं है।जाहिर है कि तराई में रुद्रपुर और पंतनगर इलाके में इस आपदा से मारे जाने वाले दोनों लोगों की खबर भी अभी रिपोर्ट नहीं हुई है।
टीवी के समाचारों में सलन इंडिया टुडे पर अबभी पिथौरागढ़ के पीपल कोट को भूकंप का एपीसेंटर बताया जा रहा है,जबकि हिंदी चैनलों ने पहले एपीसेंटर पिथौरागढ़ को बताने के बाद में रुद्रप्रयाग को भूकंप का केंद्र बताया है।
गौरतलब है कि केदार आपदा के वक्तभी पिथौरागढ़ और नेपाल तक में तबाही मची थी।गांव के गांव और घाटियों का नामोनिशां मिट गया था ।लेकिन तब निकटवर्ती टिहरी जिले की तबाही की खबर भी बहुत बाद में लगी थी।नेपाल के महाभूकंप से हाल मं पूरा उत्तराखंड प्रभावित हो गया था।राजधानी को शायद यह खबर भी नहीं है।
भूकंप से पहाड़ का जो बी हाल हो राजधानियों की सेहत पर असर नहीं होना है और न मलाईदार चमड़ी पर कोई आंच आनी है।जलवायू,मौसम और पर्यावरण को ठिकाने लगाने का मुक्तबाजार का स्वर्ग उत्तराखंड है जहां चार धाम की यात्रा के लिए सपर एक्सप्रेसवे अभी बनना है।
भूकंप केंद्र के नाभिनाल से जुड़ा टिहरी जलाशय का आपदा परमाणु बम की आवाज किसी को सुनायी भी नहीं पड़ती है।अंध विशेषज्ञों को खबर भी नहीं है कि ग्लेशियर कहां कहां पिघल रहे हैं और कैसे गंगोत्री रेगिस्तान में तब्दील है।बाकी चुनाव का मौसम है।राजनीति के अलावा पहाडो़ं की सेहत की फिक्र बहुत आसान भी नहीं है।
बहरहाल पर्यटन और धर्म के लिहाज से केदारघाटी की आपदा फोकस में थी।जबकि पिथौरागढ़ पहाड़ों में सबसे पिछड़े इलाकों में है।रुद्र प्रयाग के इलाके भी बेहद पिछड़े है और अभी पर्यटन का मौसम नहीं होने से भूकंप से होने वाली तबाही के शिकार ज्यादातर स्थानीय लोगों के होने का अंदेशा है।
1992 के अक्तूबर में जिस रात मैं बरेली से कोलकाता की यात्रा पर था जनसत्ता में नौकरी ज्वाइन करने के लिए,उस रात भी गढ़वाल के उत्तरकाशी में भारी भूकंप आया था।उत्तरकाशी,टिहरी और भागीरथी,अलकनंदा से लेकर टौंस और यमुना घाटियों में हुई भारी तबाही का ब्यौरा तब भी नहीं मिला था।
रुद्रप्रयाग और पिथौरागड़ में बैठे अफसरान के लिए दूर दराज के गांवों और घाटियों के बारे में आधी रात के बारे में जानकारी लेना बेहद मुश्किल है।
अफसरान टीवी वालों को वे जान माल के नुकसान की फिलहाल कोई खबर नहीं है,इतना ही बता पा रहे हैं।जाहिर है कि मीडियावाले मौके पर अभी पहुंचे नहीं है।उनका हवाई सर्वेक्षण कल ही शुरु हो पायेगा।राहत और बचाव अभियान कब तक शुरु हो पायेगा,कहना फिलहाल मुश्किल है।
फिलहाल खबरों का लब्बोलुआब यही है कि दिल्ली एनसीआर में देर शाम भूकंप के झटके महसूस किए गए। देहरादून से भी खबर है कि भूकंप के तेज झटके महसूस किए गए हैं। भूकंप का केंद्र उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में बताया गया है। रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता 5.8 मापी गई है। रात 10.35 मिनट पर झटके महसूस किए गए। भूकंप के झटके काफी देर तक महसूस किए गए. देहरादून में झटकों के बाद लोग सड़कों पर निकल आए. देहरादून से मिली खबरों के मुताबिक लोग कुमाऊं, गढ़वाल की रेंज में झटके महसूस किए गए। पश्चिमी यूपी में भी झटके महसूस किए गए. पंजाब में झटके महसूस किए जाने की खबर है।
भूकंप के झटकेपंजाब, हरियाणा, उनकी संयुक्त राजधानी चंडीगढ में भी महसूस किये गये, जिसके बाद कई लोग अपने घरों से बाहर निकल आए।फिलहाल, जान माल को कोई नुकसान पहुंचने की खबर नहीं है। खबरों के मुताबिक समूचे हरियाणा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूकंप महसूस किया गया। उंची इमारतों में रहने वाले लोग नीचे की ओर दौड़ पड़े। गुरूग्राम, फरीदाबाद, रोहतक, अंबाला, पंचकुला, सोनीपत, पानीपत और करनाल सहित हरियाणा में विभिन्न स्थानों पर भूकंप के झटकेमहसूस किए गए। पंजाब में मोहाली, पटियाला, रोपड़, लुधियाना और जलंधर सहित कई स्थानों पर भी भूकंप के झटकेमहसूस किए गए।
टिहरी की जाजल घाटी से अरण्य रंजन ने लिखा हैः
अभी अभी भूकंप आया है. काफी तेज़ झटका था और आवाज भी काफी तेज़ हुयी.
Just came sharp blow. It was very strong.
साहित्यकार उदय प्रकाश ने लिखा हैः
अभी कुछ ही देर पहले भूकंप के झटके हमारे वैशाली के घर पर आये। सिर्फ मैंने महसूस किया और कहा कि भूकंप है।
किसी ने मेरी बात नहीं मानी।
यही तो समस्या है !
अब जब टीवी पर ख़बर चल रही है, तो सब मान रहे हैं।
हम उस समय में हैं जब मानवीय सूचनाओं को इलेक्ट्रॉनिक सूचनाओं ने अपदस्थ कर दिया है।
(गंभीर बात है। हल्की भले लगे।)
Амит Холия ने लिखा हैः
Worldwide earthquake 6-feb- 2017
35 minutes ago 5.6 magnitude, 14 km depth
Pīpalkoti, Uttarakhand, India
38 minutes ago 2.0 magnitude, 29 km depth
Glendora, California, United States
39 minutes ago 2.1 magnitude, 0 km depth
Angwin, California, United States
about an hour ago 2.0 magnitude, 0 km depth
Y, Alaska, United States
about an hour ago 2.4 magnitude, 1 km depth
Healdsburg, California, United States
about 2 hours ago 1.5 magnitude, 12 km depth
Friday Harbor, Washington, United States
about 2 hours ago 5.0 magnitude, 33 km depth
Opotiki, Bay of Plenty, New Zealand
about 2 hours ago 1.5 magnitude, 0 km depth
Southern Yukon Territory, Canada
about 2 hours ago 2.3 magnitude, 0 km depth
Sutton-Alpine, Alaska, United States
about 2 hours ago 1.7 magnitude, 7 km depth
Muscoy, California, United States
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भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक पहाड़ों में भूकंप से पर्यावरण के बारुदी सुरंगों में धमाका।राजधानियों की सेहत पर कोई असर नहीं।आपदा प्रबंधन सुशुप्त है। पलाश विश्वास
भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक
पहाड़ों में भूकंप से पर्यावरण के बारुदी सुरंगों में धमाका।राजधानियों की सेहत पर कोई असर नहीं।आपदा प्रबंधन सुशुप्त है।
पलाश विश्वास
राष्ट्रीय भूकंप ब्यूरो के अनुसार भूकंप की तीव्रता 5.8 थी। भूकंप का केंद्र उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पीपलकोटि को बताया जा रहा है। भूकंप जमीन के 33 किलोमीटर नीचे आया था और 7-10 सेकेंड तक झटके महसूस किए गए. देहरादून और हरिद्वार में अपेक्षाकृत ज्यादा तेज झटके महसूस हुए।
फिलहाल उत्तराखंड में लोग भूकंप के बाद आने वाले झटकों के खौफ में घर नहीं जा रहे। रुद्रप्रयाग डीएम रंजना के अनुसार, आपदा केंद्र को पूरी तरह से एक्टिव कर दिया गया है। सभी पुलिस थानों और तहसील से जानकारी जुटाई जा रही है। अभी तक कहीं से भी जनहानि की कोई सूचना नहीं है। वहीं अभी तक यह भी साफ नहीं हो सका है कि भूकंप का केंद्र रुद्रप्रयाग है या फिर पीपलकोटी। पीपलकोटी चमोली जिले में आता है और यह रुद्रप्रयाग को पड़ोसी जिला है। डीएम ने बताया कि भूकंप के झटकेमहसूस करने के बाद हम और सारा स्टाफ क्वार्टरों से बाहर आ गया। भूकंप के तेज झटके दो बार महसूस किए गए।
देहरादून, चमोली, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, केदारनाथ और ऋषिकेश समेत उत्तराखंड के कई शहर भूकंप के तेज झटकों से कांप उठे। झटके इतने तेज थे कि लोग नींद से जाग गए। घबराकर लोग निकलकर बाहर आ गए।
उत्तराखंड टुडे के मुताबिक,रुद्रप्रयाग रहा भूकंप रहा केंद्र, हल्द्वानी-देहरादून के लोगों ने बताई आप बीती । NDRF टीमें हाई अलर्ट पर
#Earthquake#Rudraprayag#Haldwani#Uttarakhand Earthquakes Today
राजीव नयन बहुगुआ का शब्द चित्र सटीक हैः
भू डोल , ज़लज़ला , भूकम्प , अर्थ क्वेक
भूकम्प और भालू अक्सर पुनः लौट कर आते हैं , और ज़्यादा शिद्दत से धावा बोलते हैं । हड़बड़ाना मत । धैर्य रखना । दिवार से तुरन्त अलग हट कर खड़े हों । दरवाज़े की कुण्डी मत लगाना । सीढ़ियों से बाहर भागना , लिफ्ट से नहीं ।
दिनेश ल्वेशाली ने चेतावनी दी हैः
मौसम विभाग,,,
ब्रेकिंग न्यूज़ रात 12.30 पर फिर आ सकते है भूकम्प के झटके सतर्क रहे ।
ज्यादा से ज्यादा लोगो को शेयर करे।
हम रात को खाना खा रहे थे।टीक साढ़े दस बजे थे।दस मिनट के भीतर बसंतीपुर से भाई पद्दोलोचन का फोन आ गया कि उत्तराखंड में भूकंप आ गया है और तराई में मौसम बेहद खराब है।वह हमेशा की तरह अपनी भाभी को खबर दे रहा था।घर में बहूू उम्मीद से हैं तो हम किसी खुशखबरी का इंतजार कर रहे थे।इसके बदले हमें उत्तराखंड और पूरे उत्तर भारत में भूकंप की खबर मिली।भूकंप इलाका होने के बावजूद पहाड़ों में आपदा प्रबंधन का नजारा यह है कि मौसम विभाग भी टीवी चैनलों को ठीक से बता नहीं पा रहा है कि भूकंप का एपीसेंटर ठीक कहां है।रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ दोनों को एपीसेंटर बताया जा रहा है।किसी चैनल में भूकंप का केंद्र सतह से एक किमी नीचे तो किसी दूसरे चैनल में जमीन के अंदर तीस किमी नीचे बताया जा रहा है।पहले रेक्टर स्केल पर 5.3 का भूकंप बताया गया तो बाद में यह 5.8 में बदल गया।
संस्थागत विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि इस पैमाने पर भूकंप से जानमाल के नुकसान का अंदेशा कम है।भूस्खलनों से पहाड़ में जितना नुकसान हो जाता है,भारी वर्षा से जो नुकसान होता है,बाढ़ से जो तबाही मचती है,उसके मद्देनजर उत्तराखंड के पहाड़ों के बारुदी सुरंगों के फटने से गावों और घाटियों का क्या बनना है,हाल के केदार जलसुनामी और नेपाल के महाभूकंप के अनुभव और बचाव राहत अभियान,हवा हवाई मीडिया कवरेज से उसका अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है।पहाड़ का एक एक इंच जमीन बेदखल है तो भारी पैमाने पर रोजगार की तलाश में पलायन है।जनादेश बनाने से पहले पहाड़ की सेहत पर टंगा पर्दा गिर गया है लेकिन मजहबी सियासत के कारिंदों को इसकी खास परवाह नहीं है और उत्तराखंड केसरिया है।
पद्दो ने बताया तराई में आंधी पानी से मौसम बेहद खराब है और तेज भूकंप के झटकों से अफरातफरी मची है।उसने बताया कि भतीजा टुटुल अभी घर लौटा नहीं है लेकिन उसने घर पर फोन से खबर दी है कि चंडीपुर और दिनेशपुर में बिजली गिरने से दो लोगों की मौत हो गयी है।चंडीपुर में पिताजी के मित्र संन्यासी मंडल के बेटे का निधन बिजली गिरने से हो गयी है।संन्यासी मंडल इमरजेंसी के खिलाफ हमारे साथ थे और 1977 के मध्यावधि चुनाव के दौरान उनने हमारी बगावत का समर्थन पिताजी से अपनी मित्रता दांव पर लगाकर किया था।
अभी टीवी और इंटरनेट पर भूकंप से जानमाल के नुकसान की कोई खबर नहीं है।जाहिर है कि तराई में रुद्रपुर और पंतनगर इलाके में इस आपदा से मारे जाने वाले दोनों लोगों की खबर भी अभी रिपोर्ट नहीं हुई है।
टीवी के समाचारों में सलन इंडिया टुडे पर अबभी पिथौरागढ़ के पीपल कोट को भूकंप का एपीसेंटर बताया जा रहा है,जबकि हिंदी चैनलों ने पहले एपीसेंटर पिथौरागढ़ को बताने के बाद में रुद्रप्रयाग को भूकंप का केंद्र बताया है।
गौरतलब है कि केदार आपदा के वक्तभी पिथौरागढ़ और नेपाल तक में तबाही मची थी।गांव के गांव और घाटियों का नामोनिशां मिट गया था ।लेकिन तब निकटवर्ती टिहरी जिले की तबाही की खबर भी बहुत बाद में लगी थी।नेपाल के महाभूकंप से हाल मं पूरा उत्तराखंड प्रभावित हो गया था।राजधानी को शायद यह खबर भी नहीं है।
भूकंप से पहाड़ का जो बी हाल हो राजधानियों की सेहत पर असर नहीं होना है और न मलाईदार चमड़ी पर कोई आंच आनी है।जलवायू,मौसम और पर्यावरण को ठिकाने लगाने का मुक्तबाजार का स्वर्ग उत्तराखंड है जहां चार धाम की यात्रा के लिए सपर एक्सप्रेसवे अभी बनना है।
भूकंप केंद्र के नाभिनाल से जुड़ा टिहरी जलाशय का आपदा परमाणु बम की आवाज किसी को सुनायी भी नहीं पड़ती है।अंध विशेषज्ञों को खबर भी नहीं है कि ग्लेशियर कहां कहां पिघल रहे हैं और कैसे गंगोत्री रेगिस्तान में तब्दील है।बाकी चुनाव का मौसम है।राजनीति के अलावा पहाडो़ं की सेहत की फिक्र बहुत आसान भी नहीं है।
बहरहाल पर्यटन और धर्म के लिहाज से केदारघाटी की आपदा फोकस में थी।जबकि पिथौरागढ़ पहाड़ों में सबसे पिछड़े इलाकों में है।रुद्र प्रयाग के इलाके भी बेहद पिछड़े है और अभी पर्यटन का मौसम नहीं होने से भूकंप से होने वाली तबाही के शिकार ज्यादातर स्थानीय लोगों के होने का अंदेशा है।
1991 के अक्तूबर में जिस रात मैं बरेली से कोलकाता की यात्रा पर था जनसत्ता में नौकरी ज्वाइन करने के लिए,उस रात भी गढ़वाल के उत्तरकाशी में भारी भूकंप आया था।उत्तरकाशी,टिहरी और भागीरथी,अलकनंदा से लेकर टौंस और यमुना घाटियों में हुई भारी तबाही का ब्यौरा तब भी नहीं मिला था।
रुद्रप्रयाग और पिथौरागड़ में बैठे अफसरान के लिए दूर दराज के गांवों और घाटियों के बारे में आधी रात के बारे में जानकारी लेना बेहद मुश्किल है।
अफसरान टीवी वालों को वे जान माल के नुकसान की फिलहाल कोई खबर नहीं है,इतना ही बता पा रहे हैं।जाहिर है कि मीडियावाले मौके पर अभी पहुंचे नहीं है।उनका हवाई सर्वेक्षण कल ही शुरु हो पायेगा।राहत और बचाव अभियान कब तक शुरु हो पायेगा,कहना फिलहाल मुश्किल है।
फिलहाल खबरों का लब्बोलुआब यही है कि दिल्ली एनसीआर में देर शाम भूकंप के झटके महसूस किए गए। देहरादून से भी खबर है कि भूकंप के तेज झटके महसूस किए गए हैं। भूकंप का केंद्र उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में बताया गया है। रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता 5.8 मापी गई है। रात 10.35 मिनट पर झटके महसूस किए गए। भूकंप के झटके काफी देर तक महसूस किए गए. देहरादून में झटकों के बाद लोग सड़कों पर निकल आए. देहरादून से मिली खबरों के मुताबिक लोग कुमाऊं, गढ़वाल की रेंज में झटके महसूस किए गए। पश्चिमी यूपी में भी झटके महसूस किए गए. पंजाब में झटके महसूस किए जाने की खबर है।
भूकंप के झटकेपंजाब, हरियाणा, उनकी संयुक्त राजधानी चंडीगढ में भी महसूस किये गये, जिसके बाद कई लोग अपने घरों से बाहर निकल आए।फिलहाल, जान माल को कोई नुकसान पहुंचने की खबर नहीं है। खबरों के मुताबिक समूचे हरियाणा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूकंप महसूस किया गया। उंची इमारतों में रहने वाले लोग नीचे की ओर दौड़ पड़े। गुरूग्राम, फरीदाबाद, रोहतक, अंबाला, पंचकुला, सोनीपत, पानीपत और करनाल सहित हरियाणा में विभिन्न स्थानों पर भूकंप के झटकेमहसूस किए गए। पंजाब में मोहाली, पटियाला, रोपड़, लुधियाना और जलंधर सहित कई स्थानों पर भी भूकंप के झटकेमहसूस किए गए।
टिहरी की जाजल घाटी से अरण्य रंजन ने लिखा हैः
अभी अभी भूकंप आया है. काफी तेज़ झटका था और आवाज भी काफी तेज़ हुयी.
Just came sharp blow. It was very strong.
साहित्यकार उदय प्रकाश ने लिखा हैः
अभी कुछ ही देर पहले भूकंप के झटके हमारे वैशाली के घर पर आये। सिर्फ मैंने महसूस किया और कहा कि भूकंप है।
किसी ने मेरी बात नहीं मानी।
यही तो समस्या है !
अब जब टीवी पर ख़बर चल रही है, तो सब मान रहे हैं।
हम उस समय में हैं जब मानवीय सूचनाओं को इलेक्ट्रॉनिक सूचनाओं ने अपदस्थ कर दिया है।
(गंभीर बात है। हल्की भले लगे।)
Амит Холия ने लिखा हैः
Worldwide earthquake 6-feb- 2017
35 minutes ago 5.6 magnitude, 14 km depth
Pīpalkoti, Uttarakhand, India
38 minutes ago 2.0 magnitude, 29 km depth
Glendora, California, United States
39 minutes ago 2.1 magnitude, 0 km depth
Angwin, California, United States
about an hour ago 2.0 magnitude, 0 km depth
Y, Alaska, United States
about an hour ago 2.4 magnitude, 1 km depth
Healdsburg, California, United States
about 2 hours ago 1.5 magnitude, 12 km depth
Friday Harbor, Washington, United States
about 2 hours ago 5.0 magnitude, 33 km depth
Opotiki, Bay of Plenty, New Zealand
about 2 hours ago 1.5 magnitude, 0 km depth
Southern Yukon Territory, Canada
about 2 hours ago 2.3 magnitude, 0 km depth
Sutton-Alpine, Alaska, United States
about 2 hours ago 1.7 magnitude, 7 km depth
Muscoy, California, United States
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Mulnivasi Trade Union is the URGENCY to Save Workers in Organised as well as Unorganised Sector Belonging to Excluded Communities ie Minorities, SC, ST and OBC!
(I prepared this document to organize trade union movement under BAMCEF umbrella while I was active in Bamcef.It might be still relevant though Bamcef leadersip could not be convinced for trade union movement.I am shareing this document for fraiends still active in Bamcef Movement.)
Mulnivasi Trade Union is the URGENCY to Save Workers in Organised as well as Unorganised Sector Belonging to Excluded Communities ie Minorities, SC, ST and OBC!
Palash Biswas
(The Report is prepared in accordance with the Guidance of National President Mulnivasi Bamcef, Mr Waman Meshram!It is circulated for further Interactions.)
The first thing to do is to discard the mere establishment of trade unions as the final aim and object of 'Labour' in India.Babasaheb DR BR Ambedkar said!One of the most significant bills that Ambedkar managed to have passed was the Indian Trade Unions (Amendment) Bill, making compulsory the recognition of atrade union in every enterprise provided it fulfilled certain conditions!
The Indian Trade Unions Act, 1946 provides for obligatory recognition of a representative trade union.
Thus, Trade Union in itself is not the Objective, it must be the Tool to mobilise Greater Working Class for the Liberation of the Mulnivasi Bahujan!
Mulnivasi Trade Union is the URGENCY to Save Workers in Organised as well as Unorganised Sector Belonging to Excluded Communities ie Minorities, SC, ST and OBC! Since all Existing Tarde Unions are part and parcels of Brahaminical Political parties and guided with Brahaminical Political Leadership,Intersts and Ideologies, they do NOT represent the Bahujan Mulnivasi workers at any level! More over, this Trade Union Movement led by Brahamins did deviate from its general agenda that is to defend the Constitutional Rights of the Working class and its Welfare! The Trade Union Movement has Betrayed the Working Class as it is led by the Ruling Class and all set to defend the Class Interest of Market Dominating Brahaminical class in an EXCLUSIVE Economy based on EXCLUSION of the 95 percent NON Brahamin Non Aryan Majority Masses and Ethnic Cleansing of Eighty Five Percent Population consisting of Mulnivasi Bahujan. That is why, the Trade Unions led by Mostly Marxist Barahmins NEVER did Oppose Capitalism, Imperialism, Corporate Imperialism, Neo Libaral Policies, Economic Reforms, Disnvestment and Divestment, Privatisation and Free Market Economy!
The Token Opposition lodged by the Trade Unions NEVER did mean any Resistance whatsoever but it Helped the LPG Mafia to Implement Manusmriti Rule Postmodern as Trade Union Movement devoid of IDEOLOGY and focused on Financial Benefit which proved to be rather Complete Mind Control! The Rights of the Working Class and Labour Laws ensured by DR BR Ambedkar who NOT only Framed these laws but also Ensured TRADE Union Rights!Since Post Ambedkarite Movement did NEGLECT AMBEDKARITE Economics and his Legacy of Trade Union Movement, the Brahamins did SUCCEED to Hijack the Trade Union Movement to mislead it!They used it as CORPORATE LOBBYING and RESOURCE Generating Machine to Monopolise Power Politics!Hence, the Production system is Devastated and It is FDI Raj all over! Hence Job Security and Working Conditions have become Shattered Dreams for us. Privatisation has made Reservation and quota IRRELEVANT! The Tarde Unions, in fact, worked as STIMULUS for Lock OUTS and Privatisation! As it happened in Bengal. Fifty six thousand Production Units have been LOCKED Out despite so called Super ACTIVE Trade Union Activities!
Here, we do face a TREMENDOUS Challenge to address the Basic Problem what kind of Trade Union Movement would Save the Working Class consisting of MULNIVASI BAHUJAN, Excluded Communities and NON Brahamins deprived of previlege as per as the Ruling Brahamins! Dr BR AMBEDKAR said the Main Agenda of Trade Union is the Resistance against the Brahaminical System as well as Capitalism! Indian Capitalism is Represented by the Brahamin Bania Class only! How can you Oppose Capitalism led by Brahamins and defending the Brahaminical System! Waman Meshram ji also concluded that all problems are ROOTED in the Brahaminical System! It means the Prime Task for Mulnivasi Trade Union must be to Finish the Rotten Brahaminical System!
We have to create an ECONOMIC Cadre Network as we have the Cadres busy in Social and Geographical Networking as We need to look into the History of Indian Trade Union Movement, the Production system and Economy, AMBEDKARITE Legacy, AMBEDKARITE ECONOMICS!Case Studies Sectorwise and Statewise! We have to analyse why Trade Unions Faliled, Deviated! Even in some cases UNDERMINED the Mother Organisation as in the Case of Marxist and Communist parties.
Without ensuring safeguards against such DIVERSION and Suicidal Trends, constitution of Trade Union Movement afresh would rather strengthen the Ruling Hegemony!
I have been studying the topic since Seventies and have some ideas. But it should NOT be an Individual Subjective exercise. We have to be Precise and Objective at both Organisatinal and Ideological level! We have to interact a lot to finalise something to begin AFRESH to defend our people in the survival struggle! We have to think a lot about UNORGANISED labour forces scattered all over REALTY, CONSTRUCTION, Retail, Infrastructure and Service including IT sector living on Cotacts and daily Wage! We should also include AGRARIAN sector where the Peasants have been converted in a Class of Unorganised workers in the Free Market Economy!
We need some contribution from every thinking person specificaly who face the Challenges to Protect our People!
We must not forget that whatever facility we Bahujans have got it is not due to the begging and crying before the exploiters. It is due to the bitter struggle that our liberation warriors such as Fule, Shahu, Ambedkar, Periyar etc. launched to capture state power in the hands of masses. The frightened Arya-Brahmin exploiters had no alternative but to make "temporary agreement" to calm-down the struggle. Brahmins at the time of Fule, Shahu, Ambedkar though enjoyed high positions, did not have absolute power in their hands. Brahmins either were under the rule of Muslim, or British, Dutch imperialists. World imperialists also fought among themselves for snatching colonies from each other. These foreign imperialists were compelled to help Bahujans fearing they may support the opponent imperialists, the Muslim rulers or the communism. Imperialists were phobic of communism. Therefore, Dr. Ambedkar and other Bahujan warriors could receive safeguards for the Bahujan masses oppressed socially and culturally. Today the situation is hundred times difficult because inhuman Manucracy is part of world imperialism. Manucratics of India have become a strong ally of Israel and America and act as their lackeys. There is no communism to frighten them. Hence, the shameless unconstitutional Manucracy in Gujarat could arrange state sponsored massacre of Muslims with hidden support of Israel and America.
Dr Ambedkar descended the Indian skies like a meteor, lighting up the freedom movement with a viable economic vision and road map, charted a constitutional democracy which, as he often said, could take us to the revolutionary goal of equality , liberty and fraternity. This assessment is accepted by a large number of people. However, his economic ideology and mission have been buried in the sands of globalisation , privatization and 'reforms' by the ruling elite and even his self-proclaimed followers , who have joined hands in erecting stone and granite statues of the 'Revolutionary' whose thoughts not only sprang from the soil of the country but also its political ,economic and social realities ( It was buried even earlier by those who presented a confused and diffused ideology from various political platforms, and who buried his rational and scientific thinking ) . Admiral Vishnu Bhagwat rightly commented!
An associate of Mahtma Jyotiba Phule Narayan Meghaji Lokhande led the First ever Trade Union Movement even before the Famous Chikago Strike for Eight Hours Working Hour ! First Ever Peasant Strike was led by Ayyankali in Kerala! Mind you, these two incidents were closely related with the Basic struggle of Liberation of Untouchables in India! Babasaheb Dr BR Ambedkar has earmarked the First Ideological Principle for Mulnivasi Bahujan Trade Union as he said that the Trade Union had to Fight against the Brahaminical Hegemony First and then against Capitalism! Ironically, Trade Union Movement as well as Anti Capitalism Anti Imperialism Resistance were Hijacked by the Brahamins and the Fight against both Capitalism and Brahaminical Hegemony DIVERTED in single Motto of Benefit. Even Stalin used to say that the demand of bonus is a bourgeogie demand! The Working Class must fight to caprture the State Power! We must keep in mind this Ideological Destination in every condition!
While we see tha history of Trade Union Movement it would be clear how the Brahamins wiped out the Legacy of Lokhande and Ayyankali and Dr BR Ambedkar himself. Trade Unions organised the first Major STRIKE All India level against the Arrest of Bal Gangadhar Tilak who was the Greatest Defender of Manusmriti Rule and worked to Revive Brahaminical Rule SWARAJ!In 1905 , the Brahamins led Tared Unions were on Strike against the Partition of Bengal to defend the interest of Brahamin ZAMINDAR and Landlords while the Majority Mulnivasi BAHUJAN, Minorities, SC and OBC Communities were supporting the Partition. Then, as Tilak handed over the Baton to the Bania Manipulator, MK Gandhi who ENSLAVED the Munivasi Bahujan Afresh with POONA Pact, Trade Unions as well as Socialist and Communist Movement became the Part of Congress RAM RAJYA Campaign known as National Freedom Movement thanks to Brahamin Manipulated History!
To Ensure the Ideological Commitment to Liberation, it is then MOST Urgent that the Leadership of the Trade Union should Not be Handed over to the Foreign Origin Micro Minority Ruling Class what exactly happened after we deviated from the legacy of Dr Ambedkar, Ayyankali and Lokhande!
Hence, we have to be most careful finalising the Organisational network which should Resist any attempt by the Tresspassers at every level!
Then, the leadership, specifically, the President, General Secretary and Cashier must be ideologically sound.
Since we have a mother organisation, Mulnivasi Bamcef which is leading the Liberation Struggle with Geographical and Social networking, we must keep in mind that the Organisational or Agitational set up of the Mulnivasi Trade Union should not Disturb the Mother Organisation as it happened to Communist Movement in India. The decline of Communist Movement in India is due to several factors. But the Ideological and Organisational Failure as well as deliberate Diversion Killed Communist Movement in India. Bengal is the Real case where the Marxist Rule Ended just because of continuous impending disaster against the Peasantry as well as Working class! The Trade Unions in Marxist ruled States, Bengal, Kerala and Tripura, were used as Gestapo Force of Voting Machinery and the Working Class was made a naked tool for Resource Genration by the Marxist Brahaminical Hegemony.The Marxist Cadres, even belonging to the Excluded communities, were Not Aware that the Trade Unions became the part of strategical Survival to sustain Manusmriti Rule and to BOOST Free Market Economy. Since the Trade Union was made MONEY Spinning Tool by the Brahaminical Parties, their sole strategy was limited withinn the basic Urgency to Enhance the Paying Capacity of the Workers. Hence, contradictory to the legacy of Ambedkar, Ayyankali and Lokhande, the Anti Capitalism Mode and Anti Brahaminical Class Struggle mode of Indian Peasantry as well as Working Class was DEACTIVATED. And Financial Benefit Bargaining became the epicenter of Trade Union Activities in India. It boosted the Market as the flow of CASH amidst Workers boosted their purchasing capacity, as Budget Allocation to Social Sector and Government Expenditure do achiev this, and it strengthened and Expanded the Market. Neo Liberal Policies and Economic reforms, Ethnic Cleansing and LPG Mafia Rule , thus have been JUSTIFIED despite severe Job Insecurity, worsening of Working Condition, Privatisation and Retrenchment! Mind you, under the Post Modern Manusmriti Apartheid Zionist Brahaminical Global Order, the Micro Minority Market Monopoly Class Brahamin Bania Raj is strategically aligned with Corporate Imperialism which is Controlled by Illuminati which run the Global Economy! Unknowingly, the members of Excluded communities SC, ST, OBC and Minorities and even other Non Brahamin Non Bania Non Aryan Communities, were entrapped to work for the New Global Order and Illuminati which jointly DESTROYED Economy, Production System and Natural Resources which used to generate Local and Natural Employment for UNSKILLED and Uneducated workers!
We have to train our Cadres and workers in general while adopting agitational Progrramme against these Ideological as well as Organisational Diversion and Disadventure! Without the much needed Ideological network, any Trade Union Activity on our part may be suicidal as it would divert the basic agenda of Bamcef!
At the Same Time we have to note the changing and Expanding character of the Working Class which is Merging Small Business as well as Peasantry. To address these Challenges we have to go back to our roots, the legacy of Ambedkar, Ayyankali and Lokhande as their Concept of Working Class was rooted in the Contradiction of Social Infrastructure and its basic Unit Caste! Their Trade Union activities did INCLUDE the Peasantry as well! They succeeded INDEED!
Hence we have to constitute some Directive Principles before we launch a Trade Union Afresh which would be Binding Ideologically as well as Organisationally!
We have to go beyond the Legal Obligations to achieve this! Continuous PRABODHAN, Cadre Camps, Study Circles and Work Shop should be adjusted with Trade Union activities simaltaneously!
And see!
Manmad 1938, the GIP Railway Dalit Mazdoor Conference, ( caste discrimination was practiced in the railways and the textile mills , with the lower and lesser paid jobs going to the Dalits ; while clean and weaving jobs went to the 'other' workers ) , was a defining moment in Dalit struggle , an inflexion point, a turning point, that focuses both on the contemporary reality and a guiding star for the times ahead. Dr Ambedkar places before all, this foundation of his beliefs , convictions and the path that leads to the future , that the Dalits in a common united front to be forged with all the exploited classes , to achieve the goal of social and economic justice in an egalitarian society and real democracy thus :
1. The economic emancipation of the Dalits is as vital as the struggle for social justice ( To make the Dalits aware of the definition of the Subjugated class'; so that Dalit awareness is raised to a level whereby we join hands and march shoulder to shoulder with all other subjugated classes , to wage the struggle against the Ruling Class )
2. Brahmanism ( or the forces that negate and deny equality , liberty and the feelings of brotherhood, 'bhai-chara') and Capitalism are the two biggest enemies of the workers or toiling classes.
3. Karl Marx did not as a principle, say that there were only two classes, the owner and the worker, and that in India these two classes had evolved in their final form.
4. The spread of poisonous and vicious religious hatred in a casteist order in Indian society has resulted in workers and employees sometimes turning against each other , as opponents and enemies.
5. Trade Union Leaders while exhorting and giving spirited speeches against the Capitalists adopt double standards and remain silent on the issue of Brahmanism.
6. The Dalit wokers and labourers movement is not against the common workers movement . It also does not support the Capitalists . Their only request is that their independent identity be protected.
7. The movement of the Working class has deviated, from its main goal , and is solely concerned with trade unionism per se.
8. The General Strike is the weapon of last resort , it is not an end in itself to be used for attaining the end of competitive trade unionism – leadership.
9. In the struggle against capitalist owners the working class cannot be successful by resorting only to trade unionism. The workers have to seize and take the reins of political power in their hands.
10. Mazdoor Sanghatans which are politically directionless become tools in the hands of political parties that support the capitalist class.
11. Equality, liberty and fraternity must be the ideals of the working class.
12. Even after the end of British Rule , it would be wholly legitimate for the workers to struggle against the spider's web of the Landlords, Capitalists and the Baniya –Sahukar combine who will very much survive even after British Rule.
13. To wage a struggle to oppose the Imperialists does not mean that the class struggle against the internal structure of society has to be kept away on the shelf.
14. The Dalit class conflict in the interest of the Dalits must conjoin with the mainstream Mazdoor Andolan.
15. In normal situations Mazdoors will take the Constitutional path. However they should prepare and ready themselves to use other means , should the situation and circumstances so demand.
16. Dalit Mazdoor Sanghatan is in full co-operation and support of the All India Mazdoor Andolan; and it sees 'resevation' as complimenting and supplementing the Andolan.
Dr Ambedkar formed the Independent Labour Party on three fundamental / basic principles and these principles were:-
I. First : All the wealth , property and assets which are in this world are the result of / and have been created by the undying ,hard labour of the workers and the kisans. . Despite this , the worker and the kisans who toils with desperation in the field is naked and hungry. All these riches, property and the means of production have been arrogated by private property rights arbitrarily imposed by the profiteers, landlord class, capitalists and the rich class who have expropriated all this wealth by illegal / unjust loot, robbery and theft. This ( parasitical ) class has done nothing to earn this.
II. Second: Indian society is divided into the class ruled over and the 'Ruling' class', whose interests mutually clash as a class conflict between the 'Ruler-Exploiter' and the 'Ruled –Exploted', is fundamental, and this fact remains all encompassing.
III. The rights of workers and the toilers can be defended , ( and will be secured ) only when the reins of 'Political power' will be in their own hands.
http://atrocitynews.wordpress.com/2007/02/02/dr-br-ambedkar-economic-program-vision-central-mission/
The Manucracy, is so shameless and unconstitutional that you can not expect justice but only persecution and torture from them, because Arya-Brahmins have proved themselves worst enemies of Mulniwasi Bahujans. All commissions (human rights, SC/ ST, Women's etc.) which lack any power to do justice are constituted to 1) appoint Arya-Brahmins on higher posts. 2) to deceive people in the hope of justice and 3) to act as an agent of exploiters in weakening Bahujan struggle. To deceive people, these commissions must create illusion of justice by false propaganda with rare incidences of insufficient justice. People countable on fingers get lottery still the millions go after it. The same principle is applied by these commissions to deceive the Mulniwasi victims. The higher authorities of the concerned department will not respond whenever it goes against Arya-Brahmin interest. It does not matter which authority you plea. You will not receive any reply from them. In writing letters and reminders to president of India, governors, all the commissions, ministers and chief minister you will only spend your money, time and will get only frustration. We ourselves are sufferer. We have no genuine Bahujanwadi media or it is very weak. No matter how just and right we are ! No matter how genuine is our side, the Manu-media will declare that we are totally wrong. In the big loud noise of Manumedia our voice have always been remained unheard.
No hope from judiciary. Judiciary is anti-Bahujan and act on the behest of Manu-Smriti to protect Arya-Brahmin interests. Have you forgotten the big Statue of Manu raised in the foreyard of Rajastan high court in Jaipur? In giving anti-Bahujan judgements it does not hesitate to go beyond its powers, and make contempt of constitution says Waman Meshram.
Therefore, our main objective must be to destroy the exploitation system completely and establish firmly the Bahujanwadi Samajik Ganatantra (Bahujanist Social Democracy). Our every action must lead us ahead in that direction. Any action which does not accomplish this function is a misleading activity. When the exploiters are afraid of loosing their state power they beg Bahujans to accept concession such as reservation and other facilities. Those who hold the reins of state-power has the ability to give concession to others. Therefore, when the Irish nationalist Redmund asked Karson the leader of Alster to agree for united Irish state and get whatever facilities and concessions he needs. On this Karson replied, "Down with your concessions, we do not want to be ruled by you at any cost."
"Manusmriti" deprived OBC, Dalit, Adiwasis from education and respectable jobs. The same is being achieved by speedy implementation of Liberalization, Privatization & Globalization" (LPG). The LPG and SEZ are modern Manusmriti. We must realize that the liberalization, privatization and globalization (LPG) and SEZ which is "modern Manusmruti" is being implemented to exploit and enslave laboring masses of the world by imperialist countries. Arya-Brahmins are part of world Tri-Iblisi imperialist alliance. Therefore, fighting against Brahminism & LPG and SEZ involves struggle against world imperialism. Considering oppressive capacity of world imperialists and their ally Arya-Brahmins, think and visualize the nature of struggle would require and prepare ourselves for it.
When Arya-Brahmins shall find themselves incapable of retaining power through the elections, they will abolish parliamentary system and impose dictatorship over the toiling masses. Then struggle will be the only alternative left with the toiling masses to free themselves from exploitation and to establish Bahujanwadi Samajik Ganatantra.Therefore, genuine struggle is a fundamental need while the electioneering shall be always secondary and complementary to the basic struggle.
The Only Alternative for the indigenous Masses !
1) All parties of Brahmin leadership are enemies of Bahujan interest. Enemies are fought tooth and nail. Solidarity is developed between the friends. Hence it is our sacred duty to destroy these organizations. We must never trust our enemiesand analyze their every sugar coated poison proposals with extreme caution.
2) Dr. Ambedkar has clearly instructed us not to depend on any leader for our emancipation of any kind. Our emancipation lies in our own hands, and in our own efforts. The basic need is to aware masses for decisive struggle against every facet of Arya-Brahmin exploitation and oppression system. Dr. Ambedkar wanted exploited Bahujan masses to become politically aware, launch missionary activities themselves and develop organizational skills and control mission and its leadership. Therefore, every exploited Bahujan considering his own efficiencies, weakness, resources and responsibilities has to dedicate himself for the missionary activity of his choice and priority. "A missionary activity is that activity which unites Bahujan Samaj, strengthen its struggle and weakens Brahmanism". Unless missionary activities are started by exploited aware Bahujans themselves, we can not destroy exploitation system, free ourselves from oppression and establish exploitation free social system.
a) Never worry of difficulties no matter how great they are ! Instead, welcome them for the cadres are tempered and steeled by surmounting difficulties. Only by surmounting difficulties our struggle can grow. Therefore, whosoever does not welcome difficulties to conquer them but lament an shed tears can not be regarded as an aware Bahujan. Such a person is only a lazy, devoid of intellect, coward, selfish or slave in mentality. We the children of "Fule, Stalin, Ambedkar" are born to win !
b) Think not in terms of individual organizations but in terms of "whole process of struggle" between us and our exploiters. In this "process" many Bahujan organizations would be friends some with their limited capacity, some will remain in mission only to a point only. Therefore, do not expect anything beyond the capacity of friends & the friendly organizations and strive to fulfill by your own efforts whatever is lacks in the Bahujan mission. The enemy and their lackeys would strive to deceive and destroy our struggle. Therefore, identify our friends and the enemies, assess their strength and weaknesses, identify "cracks" in enemy fort, use them to demolish the enemy fort.
c) "Followers" of Fule, Shahu, Ambedkar, are reviving Fule, Shahu, Ambedkarism buried under ritualism and devoteesm. They don't carry Bahujan idols on their heads but understood life mission of Fule, Shahu, Ambedkar to implement their teachings in their struggle against the exploitation and oppression. They spend their every penny on creating awareness among Bahujans, punishing the oppressors and on missionary activities leading to destruction of the Arya-Brahmin exploitation system.
Delusions of Working masses
1) Toilers believe that they are to be ruled by a powerful ruling class as the ruling class only have the ability and skills to rule. This delusion is maintained because of their deep-rooted mental slavery. Mental slaves can never think of becoming masters. Mental slavery creates apathy to develop necessary skills to control the rulers or uproot their exploitation system. If someone's brother cheat him he will not talk to him whole life; someone rape his women he may retaliate in extreme vigor and continue enmity for generations. But because of mental slavery Bahujans tolerate and ignore every cheating, betrayal and oppression of Arya-Brahmins and bring them to power by voting in their favour. You must uproot your mental slavery to make struggle against exploitation and oppression possible.
2) Poor masses have developed delusion that highly educated intellectuals or the high profile people can only become leaders and rulers. Being uneducated and having low profile they (masses) should never become politically aware as this is the task of intellectuals only. Because of above delusion even the communist parties who talk of working class leadership, in practice, exclusively have nonworking class Arya-Brahmin leadership. No communist party member protest against this ideological betrayal because all are deluded with this delusion.
This delusion results from sense of inferiority and fear of taking wrong decisions. They are unable to recognize that almost all of the decisions taken by intellectual class, from the point of view of ending exploitation and oppression, turned to be completely wrong because of timid and opportunistic class characteristics of intellectual class. Masses even fail to relate the fact that everybody learns through committing and improving from mistakes. Everybody fell while learning to walk and so on.
3) Toiling masses have developed a delusion that their duty is simply to choose among the rulers. They should not even think of controlling government, their leaders or their struggle.
4) Masses have developed a delusion that they must depend upon good leaders against exploitation and oppression therefore they simply wait for saviours to appear. They have never thought of controlling leadership an idea which is considered most important and essential for democracy by Dr. B.R. Ambedkar.
5) Masses have developed delusion that struggle against exploitation and oppression simply means giving monetary contribution to their party leaders, attending their meetings and processions, and voting in favour of candidate decided by their leaders. This delusion compel them to ignore that nun of these routine activities accomplish task of Bahujan Mission i.e. activities that successively weaken Brahmanism and strengthens Bahujan unity and their struggle.
6) They have delusion that if they choose their own role in struggle considering their own strengths, weaknesses and family and professional responsibilities and liabilities and carry the chosen missionary activities continuously means breach of party discipline. Therefore, they remain idle. This delusion is biggest setback for Bahujan struggle.
If we really, deeply study his core ideas , ideology if you like , his central mission is spelt out in his drafts to the Constitution Drafting Committee of which he was the Chairman ,1947-49 . Dr Ambedkar finally emerged as the main 'Architect' of this most vital document that lays down the framework of the Republic and its social , political and economic objectives , which is a manifesto of those who struggled for India's freedom against foreign capital , foreign rule and local dominant , economic and caste interests . The Constitution is above the Supreme Court , the Lok Sabha , the Prime Minister and the Executive and was intended to be its guiding star , its Dhruva tara. How much we have deviated from the Constitution's Directive , its soul the Directive Principles which are mandatory for any Government in office is an issue which is for all of us to assess. . If this is tested by the ground reality of the condition of the exploited classes , the denial of equality of opportunity , of education, of the very right to life , to work, and economic policies which have made the preamble of the Constitution a paper promise in the hands of the exploiting class who have arrogated to themselves a near total monopoly of resources , unprecedented and growing concentration of wealth that make a mockery of the direction 'for the common good'.
First of all let us try to forge a common understanding of how 'Ambedkar thought' evolved ? Is it possible to flag mark Dr Ambedkar's tortuous yet blazing journey . Dr Ambedkar chose his own methodology to educate and inform himself . It is true that cataclysmic events took place in the journey of his life…the 1917 October Proletarian Revolution in Russia, which to begin with placed power in the hands of the workers and peasants , the toiling and hitherto exploited class . In my understanding , though he may not have explicitly stated so in his revolutionary call in Manmad in 1938 , that was the central idea of his declaration of the three principles at the workers conference to which we will come as we discuss further . Then came the 'Great Economic Depression' of 1929 , with its devastation , hunger and unemployment , which not only burnt and singed the people in the United States but also in Europe . The Capitalist classes across the industrialized countries speedily funded Fascist groups , to further disposses and divert the working class . This was spread through fear and propaganda , promising them the mirage of nationalism , discipline, conquests and full employment , at the same time breaking their organizations , enslaving them in factories , mines and plants jointly owned by global 'finance capital' , including by American corporations and British capitalists , through the 1930s , as now brought to light , through the period of the Second World War ,via a commonly owned and set up Banking system, while the soldiers were killed and maimed as cannon fodder on military fronts all over the world in Europe , the Soviet Union , North Africa and Asia . Dr Ambedkar by now a champion of Dalit rights also clearly saw that Dalit emancipation could only be achieved through a broad united front of all the exploited classes . Dr Ambedkar had already defined a Dalit as 'one who struggles' ( for democratic rights ). His definition was, therefore, categorically inclusive of all individuals and groups who were naturally bonded , engaged in the common struggle, of the exploited classes.
Dr Ambedkar had through his definitive works , beginning in 1917 with his outstanding doctoral dissertation at the Colombia University, the "National Dividend of India" , essentially on the transfer of wealth and surpluses from India to Imperial Britain , laid bare the huge colonial (looting ) enterprise on which Britain's industrialization was founded . There is another work , that of RC Dutt ,covering this path breaking subject ; which dared to expose to bare bones , through facts , figures , official documents how Britain , later called 'Great Britain', established and executed the great parasitical enterprise , called British India . Dadabhai Naoroji whom Dr Ambedkar greatly respected also spoke and wrote on the rapacious transfer of surpluses from India to England .This thought process , bold and courageous in the extreme, shook those little social clubs who were petitioning the Sarkar for some concessions in entrance to the British Indian Army through the Royal Military Academy, Sandhurst and the ICS quota for Indians . Historically , it was quite a coincidence that Gandhi's own experiences in South Africa of racial discrimination and apartheid , brought him to India and start transforming the Congress into a mass organization of peasants , workers and all the toiling masses within the limitations of the social setup in the country. Not content with his monumental work Dr Ambedkar finished writing his " Small Holdings in India and their Remedies in 1917." We cannot but infer that Mahatma Jyotiba Phule's "Kisan Che Kode" inspired him and stoked his passion to try and expose, and later struggle , by throwing in his lot with those classes subjected to extreme social , political and economic exploitation .
Academically and to further consolidate his grasp of Public Finance was published in 1921, he worked on and published "Provincial Decentralisation of Imperial Finance in British India , the Problem of the Rupee ( the issues of Silver and Gold Standards ) in 1923 , the Evolution of Provincial Finance in British India 1925. Let us pause for a moment and reflect on the boundless energy , the diligence and perseverance , the prodigious output of the Man. No economist in India has produced such monumental , vital and relevant works as Bhimrao Ambedkar did in those nine years 1916-25. Undoubtedly these studies gave him an incomparable advantage over his contemporaries . He may have surpassed his contribution as a Law Minister after 1950 in the field of public finance if he had been Finance Minister ; but Finance Ministers in the existing system have to be conservatives not revolutionaries , who may upset the 'apple cart' !
Dr Ambedkar had emerged as ,by far the most erudite and scholarly economist on the sub-continent. His alert , incisive and sensitive mind was now setting up his own compass for the struggles ahead as he walked tall in the thirties.The Great Depression of 1929 –33 shook the whole world and its epicenter was in the United States and Europe , the foremost capitalist systems, where he had spent his period of study and observation. Capitalism's exploitative chain had broken down and was engulfed by a serious crisis ; it was replaced by Fascism , i.e the rule by private Corporations in partnership with the ruling elite controlling the State apparatus. Dr Ambedkar was perceptive enough to grasp the significance of slave labour being used by the Corporations . While he had pre-occupations with the Round Table Conference, the Poona Pact , the Government of India Act 1935 , the provincial elections and Separate electorates ; he was deeply distressed by the exploitation , impoverishment, daily humiliation and denial of human rights to the exploited classes and the Dalits in the social mileu of the backward , feudal , arch conservative society that had evolved in the country of his birth . This evolution was not an accident . Michiavellian state craft in combination with parasitical economic production relations and a cruel , ritual order was used as a means to enslave the people who built India . Another economist in Ancient India had seen through it all – Chanakya who led a revolt of the slaves and helped install a Shudra dynasty , the Mauryas , which held sway over most of India until it was done out by a regrouping of the wealthy and the propertied , expropriating classes . The people who toiled in the fields to produce food, the bundkars who wove clothes and fabrics , the artisans who made tools with their hands , household items and the most exquisite articles with precious stones and alloy metals , the people who built homes , palaces and monuments, the leather workers who made shoes , saddles for the army cavalry and without whose services society would not exist and flourish , were all continuously being cheated , looted through expropriation of the surpluses that they created by their sweat, blood and sacrifices. The Manu Smriti , a fraudulent , adharmic manufacture of diseased minds of some elements of the priestly class who had prostituted themselves to the exploiting , ruling class to lay a spider's web of fear , intimidation and an unimaginably, cruel and despotic social order based on all that is ignoble , unjust and unequal , in direct opposition to the Dharma that many great minds, specially Gautam Buddha , and those who guided Indian society had laid down. The nectar of Dr Ambedkar's perceptions can be gauged by a better effort at understanding the essence of his writings and speeches , through his life and the stands he took, some necessarily with compromises, underpinned by his deep understanding of how the exploitative chain and the process of accumulation of surplus works and creates an overwhelming majority of serfs and slaves as an economic underclass leading a dehumanizing animal like existence , outside the boundaries of the proper village or bustee and in slums and ghettoes in the cities and towns as outcastes , untouchables and sub humans or'unter-menschens'. Others , so called born into higher castes have also been forced into this large mass of labor, of unceasing toil , of carrying the load on their backs and pulling the 'thela', since then with the rise of modern capitalism.
Dr Ambedkar had decided to carry out the struggle on two tracks ; to destroy the oppressive social order and to bring about an equitable , non –capitalist economic restructuring through mass awakening , reform and democratic movements , as he believed that real economic democracy was a means to transform a nation to a just order . He said 'the struggle for economic justice was as important as the struggle for social justice' . Why has this central idea and central mission of Dr Ambedkar's life been forgotten and his core ideas and philosophy on the struggle for economic justice , suppressed by various big leaders and movements in all corners of the country is a question of fundamental importance ? This needs to be urgently corrected if we have to move forward.
http://atrocitynews.wordpress.com/2007/02/02/dr-br-ambedkar-economic-program-vision-central-mission/
The Expansion of Working Class
We have a wider organisational Set Up with Bharat Mukti Morcha besides different organs like Rashtriya Mulnivasi Sangha, Mulnivasi Mahila sangh and Mulnivasi students Organisation and other Units of social networking! Coincidentally, the Cadre Base of these organisations would rather help us to Unite and Mobilise the Expanding Working Class!As these organs have broken the Middle class set up of SC ST Employees Associations, this would Further Break the Upper Middle Class Middle Calss limitation of Self Centred Working Class PROMOTED by Brahaminical Leadership which turned Selfish, Benefit Seeking,Alienated from the Roots and Identity, Idle and Disinterested in Ideological Struggle which made them Professionally Incompetent and Inefficienst and Organisationall worthless! The Brahamin leadership BLINDED them so much so that they are not aware of the Impending Disaster and never did realises the Break down of economy or Production system! Finally, they are NOT Prepared to Pay Back the Society in any condition! The First Task should be to break the Middle class selfish blind suicidal barriers!
The New Global Order has Not only Destroyed the National Production System demoting Production as well as Manufacturing and Promoting Service, Import, Export,Private Investment, Public Private Mode of Development and Omnipower Omnipresent Foreign Capital, it also DESTROYED Business small and medium as well as the Agrarian Rural world and strategically Free Marketed the Culture of Consumerist Ethnic Cleansing!
Emergence of NON ORGANISED working Class is the most principal Development! Permanent job is replaced by CONTRACT Job even in Govt. departments! Infratstructure and Development became Top Most priority to launch Monopolistic Aggression to exploit Natural Resources. Citizenship Amendment Act, Land Acquisition Amendment Act, Retail FDI, Mining Amendment Act, other Financial and economic Reforms, SEZ, NIMZ, Industrial Areas, Industrial Corridors, Nuclear Plants, Big Dams, High Ways and Indiscriminate Industrialisation and Urbanisation led to AGRARIAN crisis converting the Society in itself a FREE MARKET which has to be DOMINATED by the Ruling Caste and Class which is Identical in India! Because Private Investment and Foreign capital are the two most Decisive elements in the Baseless SENSEX Economy, Traditional Business set up is also Broken as the Agrarian Rural Indigenous Aborigine World has BEEN Devastated!
Now the People engaged in Small and Medium Business, small scale industries and Manufacturing and Peasantry do CONSTITUTE the Majority of the Working Class and most of them are NON ORGANISED as in Agrarian sector, Realty and Infrastructure, Construction, IT, SEZ and services!
The Chief Task of the Mulnivasi Trade Union MUST be to Organise these people who coincidentally belong to the EXCLUDED Communities and have been dislodged from Home, Land and Livelihood! The have NO SURVIVAL KIT and predestined to be KILLED in Ethnic ECONOMIC Cleansing! We must MOBILISE them for Liberation, NOT for Financial benefit!
Can the proletariat, Majority MULNIVASI BAHUJAN assume the leadership of the revolution? Is it sufficiently strong and politically mature?
The power of the proletariat is sufficient to enable it to lead the Indian revolution.In India, the proletariat means the Majority MULNIVASI Bahujan! Dr BR Ambedkar has clarified it long before! What it lacks in numbers it can more than make up for by the great masses of the peasantry, whom only the proletariat can offer a program of expropriating the landlords and usurers. At present, the Peasantry and the whole Indigenous Aborigine Landscpae as well as Humanscape are SUBJECTED to MONOPOLISTIC Corporate Aggression by the LPG Mafia !
Provided, we develop an Ideological Organisational Network to MOBILISE the workers from Non Organised Sector specifically from Buisness and Agrarian Sector, it would be the Best opportunity for REVOLUTION which means Ultimate Liberation from the Age Old SLAVERY of the Brahaminical system and Hegemony and also from the Global New Order!
The decisive question, however, in India today as throughout the world since the degeneration of the Communist International, is that of the leadership of the working class itself. Will it push forward a firm revolutionary leadership, impervious to bourgeois influences, understanding the full implications of a struggle to the end against imperialism?In fact, this question was IMPENDING since the Trade Union Movement was DIVERTED by the Brahamins like TILAK, Gandhi and Nehru to ensure BRAHAMIN Bania Raj long before 1947 and the Socialists, Communists and Marxists were SUB Ordinate to them. After 1947, the Brahaminical Parties used Trade Unions to hold on Political as well as State Power! India Incs and MNCs added another Dangerous Dimension of NAXALITE and Maoist ideology and Movement to EJECT out the Mulnivasi Bahujan Demography out of NATURALLY Resourcefull Geography as in CENTRAL India!
Here you are!The Decisive answer is the Leadership of the New Working Class must Emrge representing the Majority Mulnivasi BAHUJAN Excluding the Brahaminical Aryan Class which DIVERTED the Trade Union Movement hitherto!
We have to keep in mind the Communist Betrayal from the Beginning! As the Communist Party and the Democratic Party of the renegade M.N. Roy were vainly exhorting the workers to refrain from strikes, repudiate the civil disobedience campaign and cooperate with the British for the sake of the "war for democracy." Even befor 1990 as well as after 1990, the Marxist and Communist Trade Union Leaders REFRAINED from RESISTANCE and focused on BENEFIT Bargaining to divert the Working Class from its main task to Overthrow the Brahamin Bania LPG Mafia Rule!
The Subordination of the Trade Union Movement to the Manusmriti Hegemony is the Greatest Problem since then!
Trade Unions did support Congress,Tilak, Gandhi and Nehru and the Brahamin Bania Swaraj!
Brahamins succeeded to alienate the Workers as well as Trade Union Movement from Dr. BR Ambedkar who first did launch the Labour Party!However, Stalinists had done otherwise under ultra-radical formulas during the civil disobedience campaign of 1930-31 – and disgrace the unions in the eyes of the Brahami nationalist movement. Unfortunately, the Stalinists have been swept aside.
Those Brahamin leaders of the Congress like Nehru who called themselves socialists. Brahamin leaders were urging the workers on to struggle. But at every critical point in the past they have capitulated to the Congress bourgeoisie.Later, Mrs Indira Gandhi also adopted the Socialist Mode, aligned with Communist USSR and introduced Nationalisation policy! CPI aligned with Indira Gandhi and the supported EMERGENCY Promulgated by her! Meanwhile, Pro US Democratic movement led by Socialist Jai Prakash Narayan introduced First Indian Spring and it also INVOKED the Revival of HINDU Nation and RSS family. After the Demise of USSR, Unipolar Global Power Equation led by Zionist Corporate Imperialism emerged with New Global Order and the Brahamins led by CONGRESS and RSS aligned with it. INDO US Nuclear Agreement established FDI Raj and Foreign capital Inflow captured the COMMUNIST MARXIST MAOIST movement Combined which further Handicapped the Trade Union Movment which failed to mobilise whatsoever Resistance and betrayed the Working Class in its fight for Survival and sustenance!
The Excluded Communities lost the leadership as Dr Ambedkar had to meet an untimely demise under Conspiracy as our friend BILAS Kharat has Exposed in his research work.
Since Ambedkarites had NO Leader like AMBEDKAR, the Dual Betrayal by the CONGRESS and COMMUNISTS supported by Brahaminical Parties,including the Communists, created the ground for Neo Liberal Policy!
Narasimha Rao and Manmohan are credited for which.
But GREEN Revolution, Defence Alignment and deals, Mass scale Militarisation, Big Dams did open the Floodgates of foreign Capital as the EXCLUSIVE Economy had no Fiscal policy from the Beginning and Taxation had always been over loaded against the Ninety Five Percent of the Population, the Excluded Communities, Minorities and Non Brahamin Non Aryan Masses!
Five Years Plans and yearly Budgetary allocations, Monetary Policies always boosted the Market which was MONOPOLISED by the Brahamin Bania Raj and the status quo sustained!
Mind you, like India, Russia too was a predominantly agricultural country and yet the industrial proletariat led the October Revolution. Trotsky tells us that the Russian industrial working class, exclusive of railwaymen and miners, amounted to 1½ millions in 1905 and two millions in 1917. The comparable figures for British India were (roughly) as of 1935: two millions in power-driven factories, one million plantation workers (European-owned factory farms), 400,000 transport workers apart from railwaymen. With the undoubtedly considerable increase since 1935, one can say that the Indian proletariat compared in specific weight to the Russian proletariat of 1917. It is bigger and stronger than the Chinese proletariat of three millions which was prevented from assuming the leadership of the Chinese revolution in 1927 only by the false policy of the Communist Party.But the RESULT was NIL! What Ambedkar, Ayyankali and Lokhande did, was UNDONE and the TRADE Union Movement was INVESTED to ensure Brahamin Bania raj and Manusmriti Rule! The Ramrajya!
In fact, as should be obvious, the working class movement in India at present faces immense challenges. Because the Brahaminical Hegemony is NO MORE a local Phenomenon! DNA report proved the FOREIGN URASIAN Origin of the Ruling Class and Caste, the BRAHAMIN which aligned with the New ZIONIST Global Order of Corporate Imperialism controlled by ILLUMINATI! Now, the Brahaminical Hegemony is GLOBAL and Brahaminical System in India is replaced by the Global HINDUTVA! The Task of Sustenance of the Working Class and Peasantry has been made IMPOSSIBLE and the destination to LIBERATION becomes very Tough despite the GLOBAL Movement like OCCUPY the Wall Street! Till this date, Indian Trade Union Movment has not RESPONDED as yet!
First of all, the very structure of India's workforce highlights the complexity that the movement has to confront. As of 2004-05, India's workforce was estimated at nearly 460 million. Of these, only 70 million were in any kind of regular employment. Another 130 million were casual or contract wage workers. But the majority of India's working people-the remaining 260 million-were in fact 'self-employed', being for the most part tiny producers or persons forced to engage in some income earning activity on their own for a pittance, given the absence of any kind of social security for the poor in our country. Such increase in employment as has taken place since the late 1990s has been either in the informal sector or in informal employment in the formal sector.
Indian working class is facing an unprecedented assault in the wake of policies of privatization, downsizing, increased workload, contractualization-casualization-informalisation and so on. Hard-won trade union rights are under constant attack not only from the central and state governments, but also from the judiciary. And to be sure, it is valiantly responding to the challenges. Even a cursory glance at some of the struggles that rocked India in recent years, reveal an extremely broad sweep: the struggles waged by government employees in Tamil Nadu and Bihar, the weeklong strike of SBI employees, struggles of NALCO and Neyveli workers, the nationwide protests by central trade unions against blatantly pro-imperialist measures like the hike in FDI cap in Telecom industry (February 7, 2005), the Parliament March of February 26, 2005 against the passing of the Third Patents (Amendment) Bill, the trend-setting action in aviation sector by the airport authority employees and so on.
Absolute levels of formal employment in the organized manufacturing sector have shown no rise for over a decade, despite high rates of growth of manufacturing output. The share of wages in gross value added in manufacturing has been declining steadily since the early 1980s. A significant part of the country's workforce-including the wage employed- is at very low levels of education. A substantial part of the working population is linked to land and to pre-capitalist relations.
Ideologically, the forces of obscurantism and of identity politics continue to exercise a strong influence even on the segments of the working population including industrial workers that are part of the technologically advanced sectors of the economy. Divisions of caste, religion, language and ethnicity have not disappeared, and continue to influence the consciousness of workers, thus making the task of developing the class and political consciousness of the working class a major challenge. But the CASTEOLOGY overwhelming is not to do anything with MULNIVASI Bahujan Identity. It is jaust in line with the traditional Caste System which establishes the Micro MINORITY Brahamins DOMINATING and Detremining!
Where the democratic movement has advanced through decades of struggle, there is emerging an all-in unity of the most reactionary forces against it. In defence of the Age Old hegemony and System which are further Strengthened by LPG Mafia Rule!
Neoliberal policies, while deepening the crisis of working people's lives, also provide a fertile soil for growth of divisive forces within the MULNIVASI Bahujan Demography that make it even more difficult to build the unity of the working class and of the broader sections of working people.The criminal Hijacker are still the Organisational and Ideological leaders!
Narayan Meghaji Lokhande, OBC leader from Mumbai Maharashtra who is well known as the Father of Indian Trade Union Movement, Anykali the Dalit SC Leader who led the First Strike in British India and Dr. BR Ambedkar who ensured the Trade Union Rights and Labour rights in India- have been outfocused to marginalise Indian working Class movement by the Marxist Leaders of Trade Union Movement Post Independence!Post Ambedkarites also did deviate from Ambedkarite Ideology which recognises the Excluded Communities SC, ST, OBC and Minorities as Producers and workers! Annihilition of Caste was immersed in Casteology and Greater Disaster for the Excluded Communities as Powerful Castes were co opted into the Hegemony to ensure POWER POLITICS Win and Share in Power with the Vote Bank equation of Castes most powerful across Caste and class line! More over, lack of Internal Democracy and Empowerment within the Ambedkarite movement has been HIJACKED by the Most Absolute and Opportunist caste leaders including those from Caste Hindus and the AMBEDKARITES making alliances with the Ruling Hegemony in the Centre and States contributed most to sustain ECONOMIC ETHNIC Cleansing! In parliamentary Majoritarian system, co opted Representation of EXCLUDED Communities departed from Trade Union Activities as well as Ambedkarite ECONOMICS of Inclusive Mass Mobilisation to Liberate the Eighty Five percent Enslaved Bonded Indian Masses. Deviation from Ideology have created number of FACTIONS and Personal Cult in the Ambedkarite movement and it led to the situation where the Aboriginal Indigenous Excluded landscape and humanscape are SEIZED WITHIN and all political parties and trade Unions push for Further Capital Inflow and Economic Reforms not to mention any resistance whatsoever.
BHARAT MUKTI MORCHA has launched Hundered Days` Budget Burn Campaign which is virtually a great Resurgence of AMBEDKARITE Economics! I have been talking and writing on the Global Phenomenon in which Caste Identity would be Never enough for SURVIVAL in War and Civil war like conditions and Unprecedented Violence Flare Up in ANRCHY sponsered by the Mind Control game 3 G Spectrum and Toilet media. The STATE power is in fact MILITARY NUCLEAR BIO Chemical Power and we have no space for Mass Movement and even EXPRESSION, Civil and Human Rights.
Now, I do understand that Gandhian NON Violence was NEVER anything like Hindutva or Buddhism or Spritual Philosophy, but it was an EXCELLENT STRATEGY to resist the BRUTE Imperilaism which ended the SCOPE of All Out Aggression. Maoist Menace is the Part of Global Phenomenon to kill the Democratic Civil and Human Right movement in Violence so that Ruling Manusmriti Zionist Corpoaret Hegemony may have the LICENSE to Kill the Aboriginal and Indigenous , Working and Producing Communities! It is happening all over the Globe!
Thus, an ORGANISED Non Violent Trade Union Movement in the Organised SEctor is the DEMAND of the TIME and we may not dare to BETRAY the Challenge provided we have Hearts and Minds intact with Human Sensitivity and Commitment to the Toiling masses in HOLOCAUST Environment!
It is only through a relentless struggle against both neoliberal policies and obscurantist forces of all hues that the working class movement will be able to go forward. For this, the Fundamental task as DR Ambedkar earmarked and Ayyankali and Lokhande showcased with their historical achievemnt should be Pursued rigidly! Without launching Final ASSAULT against the Brahaminical hegemony, Mobilisation of Working Class as MULNIVASI BAHUJAN Entity is impossible. Recent Bharat Mukti Morcha Mass Mobilisation demanding OBC headcount may be a brighter Development but we have no support from the Trade Union front! To make effective the Mass Movement, we have to have the control over Economy and Production system and it is IMPOSSIBLE without the mobilisation of the Working Class. Hence,the Role of the Mulnivasi Trade Union is going to be very instrumental!
The current global economic crisis and the bankruptcy of neoliberalism that it has exposed as well as the present disarray in the camp of obscurantism may well be an opportunity that the working class movement can seize to go forward. However, this demands also that the working class movement must carry with it the overwhelming mass of petty producers including the peasantry but without succumbing to the political illusions of petty commodity production or romantic conceptions concerning the dynamics of social change that tend to underplay the role of science and productive forces.
It is rather a positive development that BHARAT Mukti Morcha with Village to Village level Networking is already doing the Ground work to Mobilise the Working Class as Mulnivasi Bhujan entity!
N. M. Lokhande, a disciple of the great social reformer Jyotiba Phule. Long before trade unions of a modern type came into being in India, Lokhande espoused the cause of workers and was a pioneer in attempts to impart literacy and rudimentary education to the workers of factories in the late 19th century.Narayan Meghaji Lokhande who pioneered the labour movement in India will be remembered not only for ameliorating the working conditions of textile mill-hands in the 19th century but also for his courageous initiatives on caste and communal issues.
Narayan Meghaji Lokhande fought for providing numerous facilities which are enjoyed by workers today.
His tireless efforts led to the establishment of the first Indian labour union, the 'Mill Hands Association' in 1884.For the first time in India the Bombay Mill Hands Association was formed on 24 April 1890. This gave impetus to the trade union movement in British India. The establishment of ILO in 1919 provided a source of inspiration for the workers to organise themselves and shape their destiny. India's membership of the same exerted great influence in the formation of a central organisation of workers called 'All India Trade Union Congress' (AITUC) in 1920 for the purpose of conducting and co-ordinating the activities of the labour organisations.
A member of the Factory Labour Commission established in 1890, Lokhande's efforts contributed to the enactment of the Factory Act (1891).
Every year, the first day of the month of May is being celebrated as the May Day. Since the beginning of the last decade of the nineteenth century this day came to be observed as the Labour Day or International Workers' Day to highlight the struggle of the workers and manifest their solidarity throughout the world.
The emergence of the urban working class can be traced to the Industrial Revolution in Europe since the mid-eighteenth century. The workers were exploited with lengthy hours of work, poor wages and unhealthy living conditions. Even women and children were forced to work for 12 to 15 hours a day. There was neither government legislation nor popular movement to improve the condition of the working class.
The first attempt to ameliorate the miserable condition of the working class was made by the so called 'Utopian Socialists'. A British socialist, Robert Owen created a model community of workers by improving their working and housing conditions and providing schools for their children. His ideas stimulated the cooperative movement in England. In France too, a number of socialists such as Saint Simon, Charles Fourier, Proudhon and Louis Blanc tried to implement socialist ideas to improve the condition of the workers. However, their efforts did not succeed in improving the lot of the working class.
Born in 1848 in Thane, he began his career in the Railways and Postal Department before joining the Mandavi Textile Mill as a storekeeper.
A follower of social reformer Jyotirao Phule, the Maratha Hospital at Mumbai was started by Lokhande to provide medical aid to the poor during the plague epidemic in 1896.
He died on February 9, 1897, while serving people affected by the plague.
Mind you,The Indian Working Class is very young just because of Late Industrialisation. Only in the last two decades has it emerged permanently from the peasantry, and many proletarians still have direct ties with the villages.
The first real impetus for modern industry in India came in 1914-18, when wartime necessities relaxed the British policy of preventing the growth of factories in India; manufacturing for Britain's armies, and for the home market hitherto flooded with English-produced goods brought forth the Indian proletariat. Despite Britain's renewed discouragement of Indian industry after the war, and the narrow domestic market due to the impoverishment of the peasantry, a poverty which fell to starvation levels after 1929, industry (including mining and transportation) developed so that by 1935 there were five million Indian workers in modern plants. Since then war preparations have brought expansion – the extent is concealed by Britain as a military secret – which has undoubtedly added several millions to the industrial proletariat. The specific weight of this class is enormously increased by the fact that the industrial plants, established so late in the development of capitalism, are generally large-scale enterprises, so that the workers are concentrated into relatively few production units.But ironically, after Lokhande we the Excluded Communities lost the Intitiative and handed over the dvantage to Brahamins only.
If the latter half of the 19th century was marked by the emergence of industrial workers and their spontaneous resistance, the first two decades of the 20th century witnessed a massive expansion of working class struggle in our country, preparation of organised trade union movement and the assertion of the role of the working class on key political questions.But it contributed to Nothing as Communists led by MN Roy had already Hijacked the Trade Union Movement.
Indian Congress was born with the Demand of HOME Rule in 1885 and it demanded INDEPENDENCE as late as in 1927. Meanwhile, it was lobbying for better Placement of those in the Brahaminical ruling Class fold. CONGRESS also supported the British Colonial rulers to defend the interest of Capitalism. Since the Socialists and Communists were aligned to Congress and Brahaminical System, the Trade UNION Movement was DIVERTED therefrom despite brillient examples of Trade Union Activities as the Working Class in general was UNAWARE of the Political Equation and Economics. It remains the fact even today!
A major section of the Anushilan movement was attracted to marxism in the 30s.
Reason for Civil Disobedient Movement led by Congress an Gandhi was to contain the RESISTANCE of Indian People and the emerging Working Class!
Imput from BANGLAPEDIA
Trade Union Movement organised activities of workers to improve their working conditions. In the early stage of industrial development when there were personal contacts between employers (master) and workers (employee), there was no need of any organisation to determine relations between the two. But under the modern factory system the personal touch is absent and the relations between the employer and the worker have come under strain. The conflict of interests between buyer and seller of labour power has become conspicuous and this has led to the rise of trade union movement throughout the world. The tradition of the parallel development of the nationalist and the trade union movement, which had originated in British India continued through the Pakistan period down to the birth of Bangladesh.
For the first time in India the Bombay Mill Hands Association was formed on 24 April 1890. This gave impetus to the trade union movement in British India. The establishment of ILO in 1919 provided a source of inspiration for the workers to organise themselves and shape their destiny. India's membership of the same exerted great influence in the formation of a central organisation of workers called 'All India Trade Union Congress' (AITUC) in 1920 for the purpose of conducting and co-ordinating the activities of the labour organisations.
The period from 1924 to 1935 may be considered as the era of revolutionary trade union movement. MN Roy, Muzaffer Ahmed, SA Dange and Shawkat Osmani led the trade union movements and as a result the political consciousness among industrial workers increased. To control the movement, the British government adopted ruthless measures (eg, Kanpore Conspiracy Case and Meerat Conspiracy Case) against the militant workers and trade union leaders, but no strategy could suppress the trade union movement; rather the colonial resistance invigorated the movement against the colonial power. Later, the trade union movement was closely linked with nationalist movements and the working class started vigorous struggle for emancipation from extreme repression and economic exploitation by the colonial regime.
At the time of Partition of Bengal (1947), most trade union leaders were Hindus and when they migrated to India, a void was created in leadership in the trade union movement of Pakistan, especially in its eastern wing. Moreover, the institutions to advance workers' interest were mostly situated in areas outside Pakistan. There were barely 75 registered trade unions in the whole of Pakistan, compared to 1987 in undivided India in 1946. Of this small number of trade unions, the larger share fell to West Pakistan, leaving only a very few for the eastern wing, where there were only 141 factories with 28,000 workers and 30 unions in all with a total of 20,000 members.
During Pakistan period most trade union leaders held conflicting views and the trade unions were fragmented and weakened. As a result, the trade union movement met a setback and the trade union activities passed into the hands of petty bourgeoisie leadership. Moreover, the trade union movement in Pakistan was characterised by fragmentation of unions, prolonged strikes, retaliatory lockouts and picketing which sometimes led to violence.
As the trade union movement in Bangladesh originated in British India and Pakistan, it naturally retained its old character of working more as a nationalist force against colonial domination than as a class force vis-a-vis capitalist exploitation. As a result, the trade union movement of the region that had gained momentum in the hands of political leaders stood divided along the political and/or ideological lines in independent Bangladesh.
During this period, the trade union movement was marked by direct interference by the government and the ruling party in its internal affairs. In many industrial belts terrorism was let loose by the men of the labour front of the then ruling party and tried to drive out the honest trade unionists from the leadership of the unions. Moreover, the barring of outsiders from trade union leadership at the basic union level made the process of union hijacking very easy and turned the workers into a very weak and defenseless community.
In the early 1980s, the military government of Bangladesh banned all trade union activities in the country. Then an alliance of the National Federation of Trade Unions (NFTUs) emerged in the name of Sramik Karmachari Oikka Parishad (SKOP) to establish the democratic rights of workers as well as to fulfil their economic demands. Most NFTUs were in SKOP and since 1983, most trade union movements in Bangladesh have been organised under the leadership of SKOP.
The opportunism and lenient attitude of the trade union leaders including SKOP gave the ruling regimes a chance to disregard the agreements signed between the government and the trade union leaders. At present, the leaders of nineteen of the twenty three NFTUs are included in the SKOP. After its formation, SKOP submitted a 5-point charter of demands for establishing their democratic rights and higher wages through rallies, torch processions, demonstrations, strikes, hartals, blockades etc.
Ironically, SKOP failed to yield any tangible results for the working class people of the country. The effectiveness of the trade union movement under the leadership of SKOP gradually weakened because most SKOP leaders have political affiliations and therefore, cannot escape the influence of their respective political parties. Moreover, lack of active support by the major political parties to SKOP's programmes, excessive pressures on government by the private employers and donor agencies to disregard SKOP's demands using repressive measures to disrupt the trade union movement, forcible occupation of unions, bribing of trade union leaders, opportunistic and compromising attitude of the union leadership rendered the SKOP demands ineffective. In fact, SKOP has become a moribund forum of the working class with little to offer to the country's future trade union movements.
[Abdul Awal Khan]
Emergence Of The Indian Working Class
Labour movement
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The term labour movement or labor movement is a broad term for the development of a collective organization ofworking people, to campaign in their own interest for better treatment from their employers and governments, in particular through the implementation of specific laws governing labour relations. Trade unions are collective organizations within societies, organized for the purpose of representing the interests of workers and the working class. Many ruling class individuals and political groups may also be active in and part of the labour movement.
In some countries, especially the United Kingdom andAustralia the labour movement is understood to encompass a formal "political wing", frequently known by the namelabour party, which complements the aforementioned "industrial wing".
In Europe, the labour movement began during the industrial revolution, when agricultural jobs declined and employment moved to more industrial areas. The idea met with great resistance. In the 18th century and early 19th century, groups such as theTolpuddle Martyrs of Tolpuddle, Dorset were punished andtransported for forming unions, which was against the laws of the time.
The movement gained major impetus in the late nineteenth and early twentieth centuries from the Catholic Social Teaching tradition which began in 1891 with the publication of Pope Leo XIII's foundational document,Rerum Novarum, also known as "On the Condition of the Working Classes," in which he advocated a series of reforms including limits on the length of the work day, a living wage, the elimination of child labour, the rights of labour to organize, and the duty of the state to regulate labour conditions. Following the release of the document, the labour movement which had previously floundered began to flourish in Europe and later in North America.[citation needed]
Throughout the world, action by the labour movement has led to reforms and workers' rights, such as the two-dayweekend, minimum wage, paid holidays, and the achievement of the eight-hour day for many workers. There have been many important labour activists in modern history who have caused changes that were revolutionary at the time and are now regarded as basic. For example,Mary Harris Jones, better known as "Mother Jones", and theNational Catholic Welfare Council were central in the campaign to end child labour in the United States during the early 20th century. An active and free labour movement is considered by many to be an important element in maintaining democracy and for economic development.
"Negroes in the United States read the history of labor and find it mirrors their own experience. We are confronted by powerful forces telling us to rely on the good will and understanding of those who profit by exploiting us [...] They are shocked that action organizations, sit-ins, civil disobedience and protests are becoming our everyday tools, just as strikes, demonstrations and union organization became yours to insure that bargaining power genuinely existed on both sides of the table [...] Our needs are identical to labor's needs: decent wages, fair working conditions, livable housing, old age security, health and welfare measures [...] That is why the labor-hater and labor-baiter is virtually always a twin-headed creature spewing anti-Negro epithets from one mouth and anti-labor propaganda from the other mouth."
The outburst also had a distinct working class dimension in addition to intensification of the Swadeshi campaign and beginning of revolutionary terrorism.The first attempt to ameliorate the miserable condition of the working class was made by the so called 'Utopian Socialists'. A British socialist, Robert Owen created a model community of workers by improving their working and housing conditions and providing schools for their children. His ideas stimulated the cooperative movement in England. In France too, a number of socialists such as Saint Simon, Charles Fourier, Proudhon and Louis Blanc tried to implement socialist ideas to improve the condition of the workers. However, their efforts did not succeed in improving the lot of the working class.
The first trade union in the true sense of the term was formed on 21 October 1905 amidst intensive strike struggle in printing presses of the government. In 1905 itself workers of Burn Company (Howrah) and Kolkata Tram Company and 2000 coolies and sweepers of Kolkata Corporation went on strike. In October 1905, 950 railway guards of the East India Railway, Bengal sector, participated in a strike struggle for wage revision (against racist discrimination in wages). In 1906, about 1000 jute workers went on strike against inhuman behaviour of British officers and for improvement of their working conditions.
Similarly in 1905 several strike struggles were organised by textile workers of Mumbai against increased workload. In 1907, textile workers also participated in a strike for wage hike. Some of these strikes continued for full one week. In 1906, 500 Post and Telegraph employees participated in a week-long strike for their wage hike, bringing the entire work of the P&T department to a halt.
1907 witnessed a wave of militant struggles of railway workers on various economic demands and in protest against too much workload, successfully bringing different zones of the railways to a halt. The struggles of railway workers assumed a very crucial role in anti-imperialist mass awakening.
Meanwhile in 1907, the Indian National Congress got split into two fractions, viz. the moderates and extremists. The moderate leadership withdrew the campaign of boycotting foreign goods, called for co-operation with the government and advised rejection of militant struggles. The so-called 'extremists' led by Balgangadhar Tilak, Lala Lajpat Rai and Bipin Chandra Pal called for intensifying the mass campaign against the British. Tilak and his followers started a campaign among workers in Mumbai and appealed to them for joining the anti-British movement. The Russian revolution of 1905, though not successful in the immediate sense, also had an inspiring impact on the Indian proletariat. In 1908, textile workers of a foreign-owned cotton mill at Tuticorin went on strike and attempts to suppress them were met by militant protests of municipal workers and common people.
In this backdrop, when Tilak was arrested on 24 June 1908 by the colonial police and booked on the charge of "sedition", Mumbai workers swung into action. On 29 June thousands of people including workers clashed with the police in front of the court. When the trial began on 13 July the clashes were further intensified. Armed military forces cordoned off the roads so that workers could not reach the court. In a few cotton mills workers went on strike and marched towards the court. The army tried to disperse them, but a wide cross-section of people joined the march. The struggles continued through 14-16 July 1908. Workers of British and 'native' mills went on strike. 20,000 workers marched across the entire mill area calling upon other workers to join the strike.
On 18 July, police opened fire on workers. On 19 July in Mahim and Panch area of Mumbai 65,000 workers joined the strike. On the next day, police again fired on workers. Dock workers and petty traders along with common people joined the struggle. On 21 July, strike struggles spread further . On 22 July, 5 striking workers booked in criminal cases were sentenced. This was also the final day of Tilak's trial and he was sentenced to 6 years imprisonment. On that day, defying storms and heavy rains, thousands of workers gathered in front of the court, forcing the authorities to remove Tilak from the court through back doors after the sentence was pronounced.
What follows is an account of 6 days of workers' political action against the 6 years' sentence for Tilak: a struggle in which 200 workers and common people lost their lives.
• 23 July: workers of Mumbai went for an all-out political strike against the atrocious sentence. 1 lakh workers went on strike and a broad cross section of people came out in support of the strike, turning it into a general strike.
• 24 July: confrontation between striking workers and their supporters and the police got intensified. Street-fights started in different part of Mumbai. People formed small groups and threw brickbats to counter the police firing. Many workers were killed and injured.
• 25-26 July: The struggle continued and 'native' mill owners started their campaign to break the strike.
• 27 July: The urban middle class and other unorganized labouring people also joined the struggle.
• 28 July: Urban servants from a rural background joined the struggle and took an active part in the street fights.
In terms of intense hatred against the colonial authorities, mass militancy, sustenance, and linkage with other sections of society, it was really a grand beginning of the political awakening of the Indian working class.
Lenin hailed this heroic action of Bombay workers in the following words: "The infamous sentence pronounced by the British jackals on the Indian democrat Tilak … evoked street demonstrations and strike in Mumbai. In India, too, the proletariat has already developed to conscious political mass struggle — and, that being the case, the Russian style British regime in India is doomed."
Lenin's words proved prophetic. Workers confronted both the British regime and 'native' capitalists in militant struggles, often finding themselves at odds with the official Congress leadership. In the process, the working class gradually established itself both as a front -ranking detachment of the freedom movement and as a formidable fighter against the exploitation and injustice meted out to it as a class. The next couple of decades saw a rapid proliferation of trade unions culminating in the formation of the All India Trade Union Congress (AITUC) in 1920 as the first central trade union; and also the foundation of the political party of the working class, the CPI, in 1925. In course of an eventful journey through 1947 and beyond, the Indian proletariat launched innumerable struggles not only to defend its interests and expand its rights, but also to address the burning issues facing the nation. Many of these movements -- such as the "Sholapur Commune" (May 1930), the numerous strike struggles during the Quit India Movement, street fights in Kolkata and Mumbai respectively against the trial of INA soldiers and the Naval Mutiny (1945 and 1946), the historic political action of Durgapur Steel workers in solidarity with the prolonged food movement combined with burning issues of workers (August 1966), the all-India strike by 25 lakh central government employees and workers demanding "need-based minimum wage" (19 September 1968), the historic railway strike by 20 lakh workers (May 1974), the great textile strike in Mumbai led by Dutta Samant in 1980s and so on -- carried forward the glorious tradition of the first political strike of 1908 and will always inspire us to forge ahead.
British colonial rule had a twofold impact on societal development in India: (a) destroying the elements of capitalism that were naturally emerging from within the Indian variety of feudalism and (b) on the ruins of these indigenous capitalist elements, developing a distorted capitalism characterised by absolute domination of colonial capital and a new comprador class. The journey of industrial capitalism charted by the British began with the introduction of railways in 1853 (laying 20 miles of railroad from Mumbai). This was followed by the development of coal industry in the Asansol- Jharia belt of Bengal and Bihar which was essential for raw materials to run the railway engines. Around the same time tea plantation was introduced in Assam. Jute, textiles and spinning industries also began to take shape, giving rise to commercialisation of agriculture for the purpose of industrial use of agricultural raw materials.
1853 thus marked the emergence of modern industrial workers in our country. At that time the main component of the working class was landless poor peasants and bonded agricultural labourers -- mostly from socially backward and oppressed backgrounds such as dalits and tribals. Moreover, there was a strong presence of labouring women and child labourers. Marginalization and destruction of skilled artisans acted as a stumbling block in the process of natural transformation of artisans into modern industrial workers.
Spontaneous Protest And Struggle Of Working Class At The Initial Stage (1850-1900)
The first-ever strike struggle of Indian industrial workers took place in March 1862, i.e., within nine years of its emergence. 1200 Railway Workers of Howrah Station went on strike demanding an eight hour work day. In 1877 workers launched a strike demanding a wage hike in Nagpur Empress Mill. Between 1882 and 1890, 25 important strike struggles took place in Mumbai and Madras Presidencies. In 1881, jute workers at Ghusuri (Bengal) went on strike on two occasions against wage erosion. In 1885, jute workers of Budge Budge (near Kolkata) went on strike for 6 days and in 1889 the same jute workers went on strike for 8 days. The police opened fire on the agitating workers.
As colonial industrialization advanced, the newly emergent class of industrial workers reacted spontaneously to extreme exploitation with a good many struggles. Such outbursts, mainly directed against excessive workload, low wage and absence of minimum security, began to attract the attention of humanist intellectuals. In other words, the nascent working class movement carved out a niche for itself within the reformist domain. While workers were yet to be organised in trade unions proper, enlightened intellectuals like Sashipada Banerjee of Bengal and N M Lekhande of Mumbai started some reform work among industrial workers from a humanist and philanthropic perspective. In 1874 Sashipada Banerjee published a news magazine for workers called 'Indian Workers' and in 1898 Lekhande published a magazine in Mumbai called 'Dinabandhu'. Mr. Banerjee also set up the Baranagar Institute on the outskirts of Kolkata to impart primary education to workers. On the initiative of the Brahmo Samaj and under the direction of Sashipada Banerjee, night schools and a Savings Bank for jute workers were set up in Baranagar in 1884. Another propagandist of the Brahmo Samaj, P C Majumder established 8 night schools in Mumbai to spread primary education among workers. In Mumbai Lekhande prepared a 5-point charter of demands (related to working conditions like Sunday holiday, half- an -hour rest in noon, payment of wage within 15th of every month etc.) of workers and collected signatures of 5,500 workers in 1884; later it was submitted before a commission appointed by the Government.
Formed in 1885, the Indian National Congress was dominated by the "enlightened" upper strata and the leadership was controlled by big zamindars and the emerging capitalist class. Its class character did not permit it to address issues like exploitation and suppression of poor peasants and workers.
The first Factory Act in colonial India was enacted in 1881; it banned the appointment of child labour below 7 years and children between 7 and 12 years were awarded 4 holidays. The Factory Act of 1891 further expanded the rights of workers; the age limit for child labour was raised to 9 years. It also provided for 7 hour working day for child workers up to 14 yrs, 1½ hour rest for women workers and half- an -hour rest for male workers; Sundays were declared holidays.
However, neither British nor Indian capitalist ever cared to implement the minimum rights of workers as per Factory Acts. In fact workers could hardly make any demarcation between British colonial rulers and Indian capitalists. Their class consciousness developed through organically linked dual conflicts with both British colonial rule and Indian capitalists.
One of the key impacts of colonial rule in India was the process of decimation, through most of the nineteenth century and especially its first half, of artisanal industry and massive deindustrialization which led to the shift of population on a large scale from urban areas to rural India. This was of immense political and economic significance. It meant that the emergence of a modern working class would be an enormously complex and protracted process under especially unfavourable circumstances characterized by the threefold exploitation of labour: pre-capitalist, colonial and capitalist. Although the railways and associated engineering industries beginning in the 1850s, soon followed by the development of the cotton textile industry, and later, jute, sugar and cement, did see a rapid increase in the numbers of the industrial workforce, it was a workforce drawn from a distressed rural population rendered greatly vulnerable by British colonial policy in relation to land tenure, land revenue and agriculture. This not only meant extremely low wages determined by the prevailing miserable living standards of the rural poor and highly exploitative conditions of work, but also that the emerging working class would be steeped in pre-capitalist relations, both in terms of economic ties to land and agriculture and in terms of caste and other obscurantist structures and values. Even the very process of recruitment of workers to industrial jobs through labour contractors would often imply that workers in any factory would already be compartmentalized in terms of religion, caste and location of origin. This would of course pose huge challenges to the working class movement in its efforts to organize workers into unions and to develop their political and class consciousness.
Under these circumstances, it was no surprise that while the political organization of the Indian bourgeoisie had already taken concrete shape in the formation of the Indian National Congress by the mid 1880s, the first modern trade union emerged only in the second decade of the twentieth century in the shape of the Madras Labour Union of the workers of Buckingham and Carnatic Mills in the then Madras Presidency.[1] The first national conference of the All India Trade Union Congress took place only in 1920. However, as is well known, the trade union movement made rapid strides in the 1920s, inspired both by the Russian Revolution of October 1917 and the mass national movement against colonial rule. Plagued by internal divisions and facing the systematic repression of trade unions by the colonial rulers who foisted conspiracy cases against prominent trade union and working class militants, the movement of the working class suffered several setbacks in the 1930s, but managed to survive and then gradually strengthen itself under the leadership of the political Left, with intermittent but inconsistent support from a section of the leaders of the Indian National Congress. The working class played an important role in the transition to freedom from colonial rule, a wave of industrial action being a prominent feature of the two years on the eve of independence, 1945 and 1946.
Working Class Movement in Independent India prior to neoliberal economic reforms, 1950 to 1990
The national and international context at the time of India's independence was conducive to the relatively autonomous development of capitalism in India. For over three decades, the Indian ruling classes did attempt such a path of development. While this path, based in the first instance on stimulus to growth from public investment, import substitution and limited land reforms, did produce a rate of economic growth and diversification of industrial activities that was impressive in relation to the stagnation of the colonial period, it ran into a crisis by the mid 1960s, and the economy was characterized by relative stagnation from the mid 1960s to the end of the 1970s. The roots of the crisis lay in the fact that the Indian bourgeoisie compromised with landlordism and imperialism, with the result that neither the agrarian revolution could be completed nor the fight against imperialism carried forward consistently. However, during this phase of economic development from the early 1950s to the end of the 1970s, the working class expanded significantly and the working class movement made rapid strides as well.
The impressive achievements of the working class and trade union movement in this phase become evident when one recalls that during colonial rule, well into the twentieth century, fifteen hour working days were common in factories and the daily real wage was often poorer than the daily prison rations. Despite the systematic attempt by the Congress after independence to split every one of the mass organizations that had been under one banner during the freedom movement, and despite serious ideological differences within the Left movement itself, militant and united trade union struggles took place through the turbulent 1970s, thanks to the maturity of the leadership of the most militant segments of the trade union movement in that period, the high points of that decade being the formation of the United Council of Trade Unions (UCTU) and the historic strike of railway workers.
By the end of the 1970s, major changes occurred in the international economy. Massive building up of financial surpluses in the hands of the global transnational corporations following thirty years of uninterrupted growth at about 5 % per annum compound of the world from the end of the second world war, the petro-dollar accumulation in the metropolitan banking system following the massive increases in the price of crude oil in 1973 and 1978, and the vast expansion in the various funds emerging from the savings of workers and employees for the post retirement phase of their lives all led to the rise of finance capital on an unprecedented scale. The breakdown of the international monetary system evolved at the Bretton Woods conference of 1944 where the World Bank and the IMF were created, and the simultaneous revolution in information and communications technology led to the emergence of a world economy in which highly centralized, large finance capital acquired enormous power.
The 1980s saw both the rise of finance capital and the massive attack on trade unions and working class rights on both sides of the Atlantic-the USA and the UK. The new international conjuncture provided the Indian bourgeoisie the opportunity to borrow from international financial institutions, both official (World Bank, IMF etc.) and private (such as commercial banks), and embark upon a loan-financed expansion of government expenditure to stimulate economic growth. Acceptance of large scale international loans, beginning with the 5 billion SDR loan from the IMF in 1981, brought with them strong conditionalities requiring reining in of wages and rising administered prices. The early1980s saw a major attack on trade union rights in India, with the passing of the National Security Act (NSA) and the Essential Services Maintenance Act (ESMA). Sustained and militant struggles of the working class sought to stem the rising tide of repression.
Working Class Movement and Neoliberal Reforms, 1991-2009
By the end of the 1980s, the global tide of reaction had been greatly strengthened by the smashing of militant trade unions in USA and UK and the weakening and ultimate collapse of the socialist economies of Eastern Europe, with imperialism playing a key role in these events. The restoration of capitalism in Russia and the break-up of the USSR by 1991 made the international situation dramatically different from what it had been between 1950 and 1980. Meanwhile, the policies of loan-financed government expenditure and import liberalization of the 1980s led India into a twin crisis- a fiscal crunch and collapse of the balance of payments-by 1991, brought forward by massive capital flight in early 1991. This provided the minority Congress government of Narasimha Rao the excuse to effect a major shift in economic policies in favour of foreign finance capital.
Popularly known as LPG –L for liberalization, P for privatization and G for globalization-policies, the economic reforms have entailed removal of most norms of accountability of private capital in the name of deregulation, opening up of vast new spaces for profit-centered operations in fields as diverse as education, health and infrastructure in the name of privatization, and the relatively unrestricted movement of goods, services and finance into and out of India. The period of neoliberal reforms has been by far the most challenging period for the Indian working class movement. With the State lining up strongly behind both international and domestic large capital, and ignoring the interests of working people, both rural and urban, altogether, the working class has had to fight a defensive battle, especially with the collapse of socialism in many countries and a strong ideological offensive mounted by a triumphant capitalist order.
In retrospect, and contrary to claims made sometimes that the neoliberal order has more or less eliminated resistance, with even such resistance as has been mounted by the political Left being largely 'tokenist', it is remarkable that the working class movement in India under Left leadership has managed to sustain its struggles and retain its base among working people, having successfully carried out major partial and general industrial strike actions over the last decade and a half. The electoral verdict of 2004 and the impact of the Left on government policies in the period 2004-2009 stand testimony to the resilience of the Indian working class movement under trying conditions. While the neoliberal policy framework remains in place, the ruling classes have also had to concede ground in a number of instances. Thus, the UPA 1 regime which began by notifying the Fiscal Responsibility and Budget Management Act three days before presenting its first budget in July 2004 ended its first term by passing two important Acts-the National Rural Employment Guarantee Act and the Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act-in versions that had been improved substantially by the intervention of progressive forces both inside and outside the Parliament.
The UPA began its second term in office by admitting the role of such measures as the national rural employment guarantee scheme (NREGS) and the Farm Loan Waiver in its electoral victory, thus attributing the victory not to neoliberal policies but to potentially pro-people interventions. It would of course be completely wrong to suggest that the government has moved away from neoliberal policies. On the contrary, its panic stricken measures to further liberalise the financial sector and open it up to speculative forces of global finance indicate that even while advanced capitalist economies are seeking greater regulation of private players in the wake of the global economic crisis, our rulers remain firmly committed to disastrous neoliberal policies. The government has also repeatedly declared its commitment to privatization of even profit-making public sector enterprises. But it is important to understand that the slowing down of the reform juggernaut preceded the global economic crisis and is in substantial measure due to the active resistance put up against these policies by the working class movement led by the political Left in our country.
The Real Role of the General Strike
Since the Lahore Congress of 1929, where Nehru proposed it, the Congress has included in its program of struggle the General Strike. But, as the whole history of the labor movement has demonstrated, an effective General Strike can mean only: (1) a strike called for a specifically limited period of a few days, as a political protest for some limited demand or (2) a strike called without any time limit, with the perspective of paralyzing industry and transportation in order to follow it up with the conquest of state power. The first form of General Strike, appropriate for a limited demand, is obviously inappropriate for the achievement of independence. It has its place today – to demand the release of the imprisoned independence fighters – as a preliminary skirmish which mobilizes the masses. But to win independence, only the second form of General Strike can serve. The Congress leadership, however, has no plan or perspective for following up a General Strike with the seizure of power and establishment of a provisional government. Neither the pacifist wing of Gandhi nor the "left" Nehru wing thinks in such terms. Both are united in seeking what they call "a complete deadlock"– sufficient paralysis of governmental and economic activity to dictate to the British a resolution of the "deadlock" by reopening negotiations on the basis of the demand for independence. In the final analysis, they seek Britain's agreement to independence.
This Congress program, it is obvious, is altogether inappropriate for the industrial proletariat. Not only in the sense that revolutionary workers understand that such methods cannot overthrow the British. But also the indubitable fact that the workers cannot carry on strikes indefinitely. The peasant struggles – refusal to pay taxes and rents, etc. – still leave the peasant with the miserable living he wrests from his tiny plot of land. The hartals of the small shopkeepers can go on for a long time while the petty bourgeoisie manages to live off its tiny capital. But the industrial proletariat has neither land nor capital and starves in long strikes. It cannot strike for a year or two of civil disobedience. Moreover, the main weight of British repressions are undoubtedly directed against the workers, for the British can stand the peasant struggles and shopkeepers' hartals far longer than they can endure the shutdown of the war industries. Every factor, therefore, compels the proletariat to link its strikes with an immediate perspective of overthrowing the British. Life itself drives the working class, beyond the "deadlock" program of the Congress.
Role of Karl Marx
It was Karl Marx who gave a voice to the working class. His clarion call, "Workers of the world unite. You have nothing to lose but your chains", has been the guiding spirit of the worker's movements all over the world. Marx made a close study of the industrial society and formulated certain conclusions, which constitute the chief principles of Scientific Socialism also known as Marxism or Communism. The basic ideas of Karl Marx were first expressed in the 'Communist Manifesto' which he wrote along with Fredrich Engels in 1848. Marx believed that the only way to ensure a happy and harmonious society was to put the workers in control.
Marxism had great influence on the history of the world. It inspired the Communist Revolution in Russia (1917) and other countries like China, Cuba, Vietnam and other East European countries. Marxism and the Russian and Chinese Revolutions inspired and emboldened the working classes throughout the world to unionize and fight for their rights.
On May Day or International Workers' Day, labour unions affiliated to various communist, socialist of anarchist groups take out processions and hold demonstrations and street rallies to show their solidarity and power. May Day is an important official holiday in most of the countries of the world. In Communist countries such as China and former Soviet Union, May Day celebrations typically feature elaborates popular and military parades.
In India, the movement of the working class originated in industrialized centers such as Kolkata and Mumbai during the British period. Industrial working class emerged in India in the middle of nineteenth century when railways came to be introduced along with its ancillary industries. With the development of coal and iron mines, iron and steel industries, jute and cotton textile factories and tea-plantation industry, the number of wage earning people went on increasing.
During the British rule, the condition of the Indian workers was miserable. They were paid meagre salaries. The working hours in all the cotton mills and even other industries were 13 to 15 hours a day. The working conditions inside the factories were 'inhuman'. The workers had to put in hard labour and after the shift was over, they were so exhausted that a large number of them used to get fainted within the factory premises. The condition of the female workers was deplorable.
Employing of child labour was so common that children in the age group 5-7 constituted a major workforce in most of the factories.
Neither the British government nor the employers were sensitive to the miserable condition of the working class. Finally, after a lot of blood-bath on the part of the workers and pressure from the civil society, Indian Factory Act, 1881, was passed. This Act banned the employment of a child below 7 years of age in a factory and fixed the working hours for children in the age group 7-12 at 9 hours.
The labour movement in India had a humble beginning with Sashipada Banerjee publishing a journal titled 'Bharat Shramajivi' (Indian Labourers) in 1878 from Kolkata, exclusively devoted to the labourers.
This journal started expressing the labour problems for the first time. He also founded an institute in 1880 to spread primary and hygiene education among the workers. Another important contribution of Sashipada Banerjee was the establishment of a Savings Bank exclusively for the workers in Kolkata. A similar effort was initiated by Meghaji Narayan Lokhande in Bombay in 1898. He also started a journal, named 'Deenabandhu' (Friend of the Poor) in Marathi language.
In Kolkata and Mumbai as well as in other industrial centres, the labour movement was chiefly led by the Socialists and Communists. In post-independence era, with the proliferation of industries and factories, the working class began to make its presence felt. Realizing the potential of the workers as a political force, a number of labour unions came to be organized or supported by the political parties. Moreover, some of the labour union leaders developed political ambitions and contested elections either to the state assemblies or parliament.
Rising from humble beginning, George Fernandes became a firebrand trade union leader of Mumbai who initiated the 'bandh' culture in India. He contested the Lok Sabha elections in 1967 and defeated the Congress stalwart S.K. Patil.
The week-long all India railway strike organized by George Fernandes in 1974 did paralyze the entire nation.
Datta Samant began life as a doctor in suburban Mumbai. Moved by the plight of some patients who were stone quarry workers, he sought to fight for their rights. Soon, he evolved as a militant labour union leader who could get better wages for the workers. In 1982, Datta Samant led 2.5 lakh workers from Mumbai's textile mills on a record-breaking strike. The strike practically destroyed the textile industry and rendered thousands of workers jobless. This was the saddest episode in the history of the working class movement in India. Datta Samant even contested and won the Lok Sabha election in 1989. However, union rivalry or other unexplainable reasons led to the assassination of Datta Samant in May 1997.
With the collapse of Communism in the former Soviet Union and the East European countries during the 1980s and adoption of liberalization and globalization, the working class movement has received a serious set-back. By paying better salaries and providing good working environment, most of the multinational corporations and even Indian firms have made the labour unions redundant. Under these circumstances it seems that the International Workers' Day has lost its relevance in modern times.
With the global economic meltdown, a large number of workers have lost their jobs. Many employees are forced to work on reduced salaries. As the workers in multinational companies are not unionized they do not possess the collective bargaining power in favour of workers. Besides, the silent majority of the unorganized urban and rural workers who continue to be exploited by ruthless employers await a messiah who could lend them a voice and lead them to a better future. As long as the workers are exploited and denied their basic rights, the May Day or the International Workers' Day has relevance not only in modern times but also in future till the establishment of a classless society.
Mulnivasi Legacy
Shri Narayan Meghaji Lokhande was a follower of Jyotirao Phule, the founder of 'Satyashodhak Samaj' in 1873. The philosophy and teachings of Jyotirao Phule made a lasting impact on Shri Lokhande and he pledged to devote his life for fighting the social ills and to improve the status of women and downtrodden. It is also said that it was Shri Lokhande who, in a public function on 60th birth anniversary of Jyotirao Phule, conferred on him, the title of "Mahatma".
In fact, the ideals of social justice, equality of men and women and eradication of casteism always remained dear to him. He was also a supporter of cooperative education.
As a Chief Editor of 'Deenbandhu' he continued his campaign on the issues dear to him. During the communal riots in Bombay in 1893, he exhorted the people to restore communal harmony and peace. He worked to ensure an atmosphere of positive dialogue between Hindus and Muslims. He also urged through the newspaper to maintain peace and amity. The British Government honoured him by conferring the title of 'Rao Bahadur' for his outstanding efforts.
Lokhandeji may have well regarded it a happy coincidence that the year of his birth, 1848, was also the year in which Karl Marx and Frederich Engels published the Communist Manifesto. He would have been equally proud of the fact that in that same year Mahatma Jyotiba Phule had established in Pune the first ever school in India for the education of our women. These happy coincidences have more than a symbolic value because Lokhandeji combined in himself Marx's and Engels' concern for the working class and Mahatma Phule's commitment to the cause of women.
Lokhandeji was a product of the awakenings of that era of our history, which altered the destiny of our Nation. The establishment of the Mill Hand Association in 1884 by Lokhandeji marked the institutionalization of the labour movement in India. Deeply moved by the inhuman working conditions and ruthless exploitation of workers, Lokhandeji spearheaded an agitation against millowners and demanded fair wages, a healthy working environment and the protection of the rights and liberties of labour. His struggle resulted in the constitution of the Factory Labour Commission, of which he was made a Member. The work of this Commission led to the enactment of the Factory Act of 1891, which regulated working conditions and gave some special rights to child and female labour.
What set Lokhandeji apart from many of his peers was his equal commitment to the welfare of non-working people who were also victims of discrimination. He championed the cause of women, especially widows, dalits, minorities and other weaker sections of society. His trade unionism represented the best of the social democratic and liberal consciousness of his times.
Lokhandeji's wider social commitment was reflected in the passion with which he edited the newspaper, 'Deenbandhu'. He was also deeply committed to communal harmony, having played a role in forging unity between the Hindu and Muslim Communities during the communal riots of 1893. He was an active participant in the strove hard struggle for social reform including through his involvement with the Satyoshodhak Samaj established by Mahatma Jyotiba Phule. For these activities he was conferred the title of Rao Bahadur, a rare honour indeed for a labour leader!
Right from his early days, Ambedkar made a mark as a restless and courageous experimenter who, obviously, did not always get it right in the matter of trade-offs (and did not claim to). He fell in love with ideas as a socially oppressed and humiliated schoolboy who refused to be taken for a ride by anyone, including Baroda's royalty. Throughout his life (which ended on December 6, 1956, a couple of months after he publicly embraced Buddhism along with his followers), he was interested in the big picture. But the boy who was socially barred from playing cricket with his schoolmates in Satara (by the curse of untouchability) never took his eye off the ball. He concentrated in his public life on attainable, practical goals and never became too big to go into specifics, details, doubts, books, the problems of ordinary people, especially the lowliest of the low in Indian society.His lifelong concern with religion, morality and justice in the idealistic sense was marked by a restlessly serious attempt to get the intellectual, social and political measure of these things. He did not believe in class analysis, but intuitively and intellectually grasped the link between caste and class in India.
The recent period of socio-political development in India has seen a blossoming of Hindutva and a majority chauvinist ideological and political offensive which can only be classified as extremist in relation to national unity. At this juncture, Dr Ambedkar's fearless analysis of the caste system, of chaturvarnya, of notions of pollution, of unalterable or rigid social hierarchy and so forth, and of the implications of the hegemony of theshastras must be read, re-read and made part of a national debate. His major theoretical exposition of such questions is contained in a 1936 presidential address which stirred up a hornet's nest, the radical "Annihilation of Caste". This ideological offering to the building of a new India must be ranked on a par with his signal and justly celebrated contribution to the making of a Republican Constitution.
In this work, Dr Ambedkar emphasised the anti-social, anti-progress character of an unjust social order as well as its vital connection, through networks of force and ideology, with political power. The caste system, in his analysis, militated against fraternity, "sanghatan and cooperation for a good cause", public charity and broad-based virtue and morality. "Chaturvarnya must fail for the very reason for which Plato's Republic must fail," warned the seriously read intellectual as social rebel. He pointed out that "the lower classes of Hindus" were "completely disabled for direct action on account of a wretched system". He asserted: "There cannot be a more degrading system of social organisation. ... It is the system which deadens, paralyses and cripples the people from helpful activity." He attempted to follow through the implications of this system in the political sphere. To him the real remedy was "to destroy the belief in the sanctity of the shastras" and their caste-borne tyranny.
One battle in which social orthodoxy and opportunist politics allied to defeat progress was the instructive fight over the Hindu Code Bill in the late 1940s and early 1950s. The leading author of the Constitution led the effort to institute a reasonably forward-looking and egalitarian Hindu Code law (especially from the standpoint of women), but it was sabotaged by orthodox elements. The Congress party, despite Nehru's claim to rationality and progressivism, refused to support the Bill.
Philip Spratt
The Indian Trade Union Movement
Source: Labour Monthly, Vol. 9, October 1927, No. 10.
Transcription: Ted Crawford
HTML Markup: Brian Reid
Public Domain: Marxists Internet Archive (2009). You may freely copy, distribute, display and perform this work; as well as make derivative and commercial works. Please credit "Marxists Internet Archive" as your source.
[The author of the following very informative article, who has made a first-hand study of the Indian trade union movement, has recently been committed for trial in Bombay as the alleged author of a pamphlet, "India and China," now declared seditious.]
It is commonly said, indeed so commonly that the phrase becomes mechanical, that the Indian Trade Union Movement "is still in its infancy." The present writer has frequently had occasion to combat the use of this phrase, not so much because it is untrue, as because it is misused. Every kind of mistaken policy, sheer inactivity, sectarianism, abstention from politics, are all excused on the same plea. And, on the other hand, it conveys the idea that the only policy for Indian Labour is slow, patient progress on the present lines. It is not intended to deny the truth of what is meant by the statement, namely that Indian labour organisation is poor by Western standards. But the analysis of the situation implied by it is inadequate. It is the thesis of this article that Indian unionism is in its second stage, in which it will remain until there come into being the conditions necessary for the next stage. That these conditions will ripen fairly soon is also expected, and indeed the beginnings are already to be seen.
The broad facts of the present position have recently been given very completely by Mr. Joshi in his pamphlet, The Trade Union Movement in India, and the figures in the table below are taken from it. Though necessarily based to some extent on guesswork they are as sound as can be obtained and are near enough in any case for the present purpose.
Of the population of just over 300,000,000, 138,000,000 are taken to be workers, divided according to occupations as follows: Agriculture, 100,000,000; industry, with mining, 15,517,000; transport, 1,900,000; commerce, 8,000,000; domestic, 2,500,000; public services, 4,000,000. The more detailed facts are arranged under columns: (a) estimated number of wage- earning employees, (b) wage-earners in organised parts of occupations, or such as can be organised in trade unions, (c) number of unions in existence, (d) total membership.
WAGE EARNERS AND TRADE UNIONISTS IN INDIA
Occupation | (a) | (b) | (c) | (6) |
Agriculture | 25,000,000 | 821,000 (plantations) | — | — |
Industry | 12,147,000 | 294,000 (mining) | 1 | 1,500 |
773,000 (textiles) | 18 | 34,000 | ||
169,000 (metal) | 8 | 11,000 | ||
82,000 (glass, &c.) | 1 | — | ||
(printing) | 5 | 6,000 1,000 15,000 | ||
100,000 engineering | 5 | — | ||
(general) | 20 | — | ||
(wood, leather, chemicals | ||||
332,000 | food, clothing, building, gas, furniture, &c.) | — | ||
Transport | 1,500,000 | 155,000 (construction) | ||
800,000 (railways, | 25 | 50,000 | ||
shipping, | 6 | 20,000 | ||
100,000 docks &c., | 6 | 3,000 | ||
tramways) | 6 | 2,000 | ||
Commerce | 4,000,000 | 100,000 | 6 | 5,000 |
Domestic | 2,500,000 | 500,000 | 1 | — |
Public Administration | 4,000,000 | 500,000 | 60 | 50,000 |
Totals | 49,147,000 | 4,727,000 | 164 | 196,500 |
The distribution by provinces is also important. In 1925 the numbers of workers in factories subject to the Indian Factories Act were: In Bengal, 551,342; Bombay, 370,460; Madras, 123,563; Burma, 97,346; U.P., 78,942; Bihar and Orissa, 73,461; C.P. and Berar, 67,104; Punjab, 53,533; Assam, 48,697. Others, 30,330. Total, 1,494,958.
Government employees, railwaymen, &c., will be distributed roughly according to population. The number of trade unionists by provinces is more difficult to state, but is approximately as follows: Bombay (June, 1927), 76,000; Bengal, probably 50,000; Madras, about 25,000; others up to a few thousands each. The total number of unions affiliated to the All-India Trades Union Congress is now 60, with 125,000 members.
It is also necessary to show roughly how the present situation is related to the past. Organisation on a large scale practically began in 1918, and at the first All-India Trades Union Congress, in Bombay, October, 1920, sixty unions were affiliated, having 140,000 members, while it was claimed that the total membership of unions expressing sympathy, &c., was 500,000. At the second Congress, at Jharria, November, 1921, it was stated that 1,000,000 affiliated members were represented. It is doubtful if these numbers were actually even approached, but it is certain that there was a very big fall after 1922. At the end of 1924, only eight unions were affiliated, but by the time of the fifth Congress, in Bombay, February, 1925, there were thirty-one unions with perhaps 80,000 members. The number has risen steadily from that time.
The more exact figures compiled by the Labour Office for the Bombay Government show the same tendency. There were in the Presidency in June, 1922, twenty-two unions with 58,000 members; in September, 1923, nineteen unions with 42,000 members; September, 1924, twenty-one with 47,000 members, and since then a fairly steady rise to the present figures: sixty-six unions with 76,000 members.
The Bombay Government commented on these facts in its criticism, dated January, 1925, of the draft Trade Unions Bill.
It cannot be denied that the progress of Trade Unionism in this Presidency is at the best stationary at the present moment . . . . the movement seems to be able to show solid progress only in Ahmedabad. The quarterly review . . . . is a tale of lassitude and disillusionment. The present slump in the movement is due largely to falling prices and rising wages.
The "slump" in the movement after 1922 would be better shown by statistics of industrial disputes. The period, 1919-22, saw a very intense "strike wave," which fell away almost to nothing by 1924. In the character of the Congresses also, a similar contrast is to be seen between those days and the present. The first two Congresses were practically huge demonstrations. At Jharria there were several thousand delegates, and a strike was held specially for the occasion in the local coalfield. Many of the best-known political leaders of the country were present at both Congresses, and took active part. In the Trades Union Congress, which the present writer attended in March this year, the number of delegates was under fifty, not more than ten of whom were workers. Perhaps a score or so of members of the public were present, while as the place was Delhi, a few Congress leaders "dropped in," but said nothing.
Mr. R.K. Das, in his book The Labour Movement in India (1923), remarks that, while in the first years of intense activity the unions were mainly industrial in type, in the later period in which he was writing, craft unions also began to appear. This is an important observation, for though the unions which were then making their appearance, and by this time are the predominant type, are not craft unions in the strict sense, they do closely resemble craft unions in many ways. The figures of unions for the whole country, and especially for the Bombay Presidency, show a large increase recently in the number of unions, but a fall in the average membership, and this is characteristic.
The union movement of 1919-22, and that of 1924-27, are really quite distinct in organisation, composition, and aims, as well as in magnitude and methods. The difference has been compared plausibly with that which came about in the British movement between the 'thirties and the 'sixties of last century. The former movement was the product of a period of universal instability and excitement, and was fundamentally a revolutionary response to a revolutionary situation. The economic circumstances were enough to bring about universal discontent and protest. But the workers were also undoubtedly affected by the political excitement of the time. Thus, during the famous pilgrimage in 1921 of the primitive and ignorant plantation "coolies" of Assam and Bengal, some hundreds of them were suddenly and brutally cleared out of the Chandpur station yard at midnight by armed soldiers. They made no resistance, but shouted "Mahatma Gandhi ki jai." The revolutionary consciousness was of course generally extremely dim, but there can be no doubt that it was present. Strikes took place in every part of the country in all kinds of occupations. There was in most cases no organisation before the strike, but some kind of union was often established afterwards. All grades of workers took part. Frequently the demands of the strikers were not formulated until they had been out for some days, and they were then of an "extravagant" nature. The chief concrete demand was nearly always for wage increases, with reduction of hours a close second, but there were others often not of an economic character. The unions then formed were what would be expected from the circumstances of their origin. They were industrial in type, but usually covered only a restricted area. They often had no regular membership, payments, &c., and have been, in fact, accurately described as "little more than strike committees."
There are now few remnants of those days. The present movement operates in conditions of economic stability and political quiescence. Only in Bombay in the last two or three years has the depression in the cotton industry brought about a general tendency towards worsening of conditions. But the pressure has only sufficed to give a spurt to organisations of the present type.
The present movement, as has been remarked, while not strictly a craft unionism,1 is similar in several respects to a typical craft movement, such as that in Britain in the middle of the last century. It is mainly a movement of the upper grades of workers for extremely limited aims. The organisation is fairly thorough, but narrow as regards activities, the classes of workers involved, and the areas from which they are drawn. There is little inter-union organisation or solidarity, little class-consciousness, and a general avoidance of political activity.
It is proposed here to describe the trade union movement as the writer has hitherto seen it, in a little greater detail, in the hope that it will be of interest to Western readers, and will give some idea of present conditions and possibilities of development. The writer's observations are limited to the Bombay Presidency and the Punjab, but conversations and published reports enable it to be said that statements applicable to those Provinces are fairly sound in regard to the rest of India, apart, perhaps, from Madras.
There are several unions which aim at covering the whole of India. They are mainly of long standing, contain only upper grade workers, and remain practically aloof from the general movement.2 The All-India Postal and R.M.S. Association and the All-India Postal and Lower Grade Staff Union are loose federations of provincial and local unions. In some places one or other is split, so that in these towns there are three Postal unions with perhaps not more than one or two hundred members each. Poona and Baroda are examples. The Association was founded in 1906, and is well established, with nearly 40,000 members and a fund of perhaps a lakh of rupees. The Union arose from local unions founded in 1918 and later. Both are recognised by the Government.
The All-India Telegraph Association was founded in 1908, and has about 3,000 members and substantial funds. A split occurred in 1923, when the All-India Telegraph Union was formed. The Association contains all the Anglo-Indian and European members, while the Union has only Indians. The lower grade employees have several separate local unions.
There are other All-India federations such as that of the Currency Office Associations.
The Amalgamated Society of Railway Servants of India and Burma has 2,250 members, almost all Anglo-Indians and Europeans (drivers, guards, &c.). It was founded in 1898, and is thus the oldest union in India. It is strictly non-political and tends to separate its members from other railway employees. It tried, successfully, to keep its members at work during the N.W. Railway strike of 1925. There should also be mentioned the All-India Railwaymen's Federation, founded in 1925, after similar attempts had been made in 1921. It includes most of the railway unions, but its existence is only nominal. During the N.W.R. strike of 1925 it sent its secretary to the scene of action, but, according to Mr. Miller's report, he confined himself to mediation, and when that failed, to delivering defeatist speeches. During the B.N.R. strike of this year the federation was entirely inactive.
The G.I.P. railway has at present four separate unions, all situated at Bombay. One is for the Bombay shops, two for the headquarters clerical staff, and one for the suburban stationmasters, clerks, &c. The total membership is 5,000 to 6,000. The railway employs in all over 100,000 men. It is perhaps not an accident that the shop union, while perhaps less successful than the others in remedying grievances, &c., is the only one affiliated to the T.U.C. or the Central Labour Board, and has recently established a branch at Kalyan. The B.B.C.I. Railway has three separate unions, one with about 2,000 shopmen at Bombay, one with 6,000 members of all grades at Ahmedabad, and one at Ajmer. Even the N.W.R. has had separate unions at Karachi and Sukkur, but these are dying out. A separate union of railway clerks has recently been formed at Lahore, but it adopted Mr. Miller as its president, and is the result rather of discontent with the old union than of sectarian aims. Other militants, headed by Miller, have also recently broken away from this union and begun to organise a new one.
The N.W.R. union, at one time probably the most powerful union in Asia, really requires separate treatment. It began to organise in 1920, and in the same year fought a long and successful strike. The membership soon afterwards reached 85,000, out of about 125,000 then employed, and included all grades, among them a substantial proportion of the Europeans. It has fallen since then, with a temporary revival in 1925, owing partly to the general stabilisation of conditions, but also because of the special measures taken against it on account of the strategic importance of the line. Mr. Miller was imprisoned, other leading members were suborned, "tame" rival unions started, and so on. The paying membership of the existing recognised union is about 2,000.
Unions are now in most cases confined practically if not formally to, upper or skilled grades of workers. Thus, the Bombay Port Trust has three unions with a purely theoretical joint committee), one for the 600 men on the Port Trust Railway, one for the 1,000 workshopmen, &c., and one for the 1,600 tally clerks, shed superintendents, &c. And this last is the most successful and is the only one "recognised." But the 2,000 or more dock labourers are entirely unorganised. Even in these unions the upper grades are more strongly represented than the lower. The same thing applies in a less degree to the railway shop unions, and to others.
Thus, the Bombay Port Trust Docks Staff Union shows the following composition (May, 1927):—
Grade | No. Employed | No. in Union | Wage rates (Rs. per mth.) |
Minor officials | 120 | 105 | 125, 175, 225 (3 grades) |
Senior clerks | 200 | 175 | 85-110 |
Junior clerks | 350 | 300 | 50-85 |
Menial staff | 900 | 550-600 | 18-30 |
Similarly with the G.I.P. Railway Workmen's Union, which has the following membership (roughly) in the Matunga shops:—
Grade | No. Employed | No. in Union | Wage rates (Rs. per mth.) |
Foremen | 25 | — | 260- |
Chargemen | 250 | 10 | 86-140 |
Mistries | 100 | 25 | 50-85 |
Workmen | 4,000 | 1,500 | 50-86 |
Smiths | 700 | 500 | 50-86 |
Assistants | 2,000 | 500 | 30-40 |
Apprentices | 100 | 50 | 160-32 |
Coolies | 1,000 | 100 | 23-29 |
This is partly the result of the natural tendency of the unions to fall into the hands of the more literate members, who in present circumstances do not urgently require the strength to be derived from the solidarity of the lower grades. It is one aspect also of the general difficulty of organising the more illiterate workers, which is exemplified by the failure yet to establish a really successful union in the Bombay textile industry. There are here two unions, the Bombay Textile Labour Union, founded January 1, 1926, which has about 7,500 members, and the Girni Kamgar Mahamandal (Mill Workers' Association), founded 1923, with about 3,000. The total number employed is about 150,000. Even the Ahmedabad Textile Workers' Union, with all its resources and traditions, is finding it difficult to keep its members. Though 20,000 strong in 1922, and successful in regaining nearly 15,000 members in two years after the strike of 1923, it is now losing members, and has about 11,000 (out of over 50,000). Similarly the textile unions at Broach and Sholapur have disappeared, though on the other hand one has been recently established at Indore. The migratory character of mill labour, of which much has been said, is decreasing, and is no longer of much importance, at any rate in Bombay.
Many other classes of workers of similar skill and education remain practically or wholly unorganised—in Bombay, building, oil, gas, tramway, and other workers, and generally miners, jute workers, &c. Even when organised, either in their own or in predominantly upper grade unions, workers of this kind tend to form a "floating population" in the union. All textile unions say the same thing. The Bombay Textile Labour Union had in January, 1926, 6,000 members. It increased to over 9,000 by the end of the year, but again fell to just under 7,500 in June, 1927. The Girni Kamgar Mahamandal speaks of a "steady stream of members through the union."
The aims of the present movement are very limited. Though petitions and memoranda are continually being presented on general grievances, such as wages and hours, they are almost always unsuccessful, and there are not the spirit or material resources necessary to conduct a struggle for improvements. Strikes occur fairly frequently, mainly on account of attempts to worsen conditions, or victimisation, which is very common. Employers and managers are almost always arbitrary and provocative in their attitude, except when dealing with superior grades.
The efforts of unions are, therefore, directed mainly towards the remedying of individual complaints, and in this the upper grades are markedly more successful than the lower. The usual complaints are excessive fines, arbitrary dismissals, irregularities in promotions due to bribery and favouritism, &c.
There is a general sentiment in favour of benefit funds. The older unions, especially the A.S.R.S., have them in plenty, but the new unions and the customary contributions (1 to 8 annas per month) are too small to make them generally successful. Many unions already have Death Benefit schemes, and voluntary benefits with special subscriptions are becoming more common.
A few unions conduct educational classes for their members, the Girni Kamgar Mahamandal, the Bombay Postal and Lower Grade Staff Union, and the Ahmedabad Union in particular. (The last-named runs also temperance work, a research department, a hospital, &c.). But the education provided is in all cases the "three R's" (plus religious instruction at Ahmedabad). Mr. Joshi has attempted an inter-union class in the history and principles of Trade Unionism, but without great success.
The organisation of unions is commonly good for the very limited purposes. The proportion of actual to possible members is often high, at any rate for upper grade workers. A committee is appointed in the early stages, usually representative of all grades, and is re-elected at annual meetings. (It is not unusual, after the first month or two, for the annual meetings to be the only occasions on which the mass of members meet or take any part, save payment.) The active officers, owing to the danger of victimisation, are often "outsiders." The union has an office, usually a small room with a typewriter. These are sometimes shared with another union, especially in Bombay, where unions are numerous and rooms expensive. The older and bigger unions have permanent officials, and many of the newer unions in Bombay employ for part of their time the paid servants of the Social Service League or the Central Labour Board. The committees in most cases meet regularly and conduct the small amount of routine business. Rules and reports are published, in many cases in vernacular and English editions. The older unions publish journals, which rival their European counterparts in dullness, and some of the newer ones publish occasional bulletins. Contributions are usually collected at the place of work by committee members, and receipts are passed. A few unions adopt the system of membership cards. The books are in most cases well kept. In short, "Strict Business" might be the motto of Indian Trade Unionism.
A warning should at once be uttered against accepting this as a picture of the movement as a whole. It is correct of those unions of the upper grade type, which are active, as nearly all the Bombay unions are at the moment. But in a few cases there, and in many elsewhere, when demands are temporarily satisfied, or further advance is found to be impossible, or a severe defeat has been suffered, stagnation sets in. The union may simply cease to work, or if individuals try to keep it going, members drop a way. There is little or nothing, material or moral, to keep them together.
It is typical of social conditions generally that women's organisation hardly exists. Women are employed in large numbers, but as lower grade workers. The Girni Kamgar Mahamandal has about twenty women members, and there are a few organised in Ahmedabad and Bengal (jute workers).
Inter-union organisation is not of importance. The All-India T.U.C. contains a majority of the organised workers, though not of the unions. It and its subsidiary bodies, the Provincial Federations (in Bengal, Bombay and Madras, and in a nebulous form in the Central Provinces and the Punjab) exist mainly because they are the representatives of the labour movement officially recognised by the Central and (sometimes) by the Provincial Governments. Owing to the great distances and the general poverty of the movement, meetings can seldom be held between Congresses, and the work done is mainly of a routine character. The members of the unions take little interest in its doings, and if they send delegates they do not usually receive reports.
There is only one body in the country which can in any way be compared to a Trades Council, the Central Labour Board of Bombay.3 And that is solely because of its constitution. It does not work as a Trades Council. It, or rather Mr. Jhabvala, organises separate unions, and sometimes conducts temperance propaganda. The former he does as provincial organiser for the T.U.C., the latter as secretary of the Central Labour Board.
There is commonly great solidarity among members of the same union, especially of the same grade, and strikes often result from this. But general class-consciousness is seldom to be noticed, except among lower grade workers. It may be mentioned that the writer was present at a meeting of railway workers at the time of the agitation against the dispatch of Indian troops to China, and although the men in question have grounds for grievance against the Chinese, who are employed in the railway on the same work for higher pay, they brought forward a young Chinese worker and cheered him loudly as a demonstration of class solidarity.
The first May-day demonstration was held in Bombay this year, and was attended mainly by municipal-, mill-, and railway-men, i.e., by lower and middle grade workers. (It is possible that the upper grade men were kept away by their characteristic petit-bourgeois "respectability complexes.") It should be said that men of the lower grades, though generally unorganised, have some knowledge of what the Labour Movement means. Every worker in Bombay appears to know and respect Jhabvala, just as all Punjab workers know Miller.
A word should be said on the difficulties in labour organisation arising from differences of language, religion, &c. They are no doubt obstructions, but are not as important as is commonly thought in Europe, even in the Punjab, where communal feeling is at its worst.4 The chief difficulty of this nature is due to the relatively large differences in the wage rates of various grades (see tables on page 613). It comes about through the greater effectiveness of upper grade workers in pressing their claims, through the scarcity of persons with elementary or technical education, and partly, no doubt, through a deliberate dividing policy.
The influence of "outsiders" as officials and leaders is a delicate question, and one of great importance. They are certainly necessary, especially for lower grade unions, because of general illiteracy and the risk of victimisation. Only one such union, the Girni Kamgar Mahamandal, is carried on nominally without outside helpers. They tend to be eliminated for practical purposes by upper grade unions, when the need for them disappears. But it is the writer's impression that the present "outsiders" as a whole deserve their bad name. Many enter the movement with interested motives, and though they may promote efficiency they are not to be relied upon. A notorious case is that of the B.N. Railway strike of this year. Even if, as is often the case, their motives are purely unselfish, they generally strengthen the sectarian and otherwise reactionary tendencies to which the movement is so prone. The Ahmedabad Union is perhaps the worst case. Here the President is an ordinary humanitarian, a member of a mill-owning family, and a conscious advocate of class-collaboration. Other officials, though they see something of its dangers, allow themselves to be completely led by Gandhi, whose policy is (in most respects, but not all) the same.
Bombay is blessed with disinterested and not unprogressive leaders. The Punjab is not so fortunate. The policy of the officially recognised body is one of sheer servility. Bengal has officials of both kinds, and has for years been divided by quarrels, which have more than once split unions, probably of purely personal origin. Many of the unions seem to be of the type described by Mr. Tom Johnston in his report on the jute industry. Three out of the four unions in that industry were bogus, and served merely to advertise their presidents. Madras has leaders who do not commit the usual error of abstaining from political activity, but their politics is not that of the working class. A Labour Party has been established which runs candidates in local elections. These make the grave mistake (in present circumstances) of opposing Congress candidates. The Party in fact seems to be entirely for electoral purposes, which are of very minor importance for labour at the present stage, and to have been organised in support of the reactionary remnants of the Home Rule League.
The acknowledged national leader of the trade union movement is Mr. N.M. Joshi, the General Secretary of the Trade Union Congress. With all respect it must be said that he is as much out of place in his position as, let as say, Mr. Sidney Webb would be as Secretary of the Miners' Federation. He carries on his work with the same disinterested care that Mr. Webb would no doubt devote to the position suggested, and undoubtedly does the best that is possible along his lines. But his function is observation, research and the drafting of Bills, not leadership.
Enough has now been said to give some idea of the movement as it stands. It is clear that the most important circumstances determining the present phase are the economic stability and the political deadness—the slow collapse of bourgeois nationalism, and the continued paralysis of the petit-bourgeoisie.
India can expect on general grounds a prosperous industrial future. But Indian industry and economics generally are still very closely dependent upon Britain, which is becoming more and more a broken reed in these matters. And it is almost certain that the immediate political future of the British Empire, and Asia generally, is a stormy one. It seems in any case safe to prophesy that the decades of peaceful progress, which many Indian leaders, apparently on the example of Britain, appear to expect, will not materialise. But it is even safer to predict that the present political quiescence in the country will not last for more than a year or two. The petit-bourgeoisie in the national movement are beginning to revolt against the bourgeois leadership, the last remnants of which are fast going over to the Imperialist camp, in preparation for the Statutory Commission. It is to be expected, in view of the generally difficult position of British capitalism, that they will not be disappointed. Substantial concessions, probably "Dominion Status," &c., will be offered, and obviously the whole of the bourgeois political school will accept them thankfully. All pretence of Swarajist opposition will probably disappear fairly quickly. The mantle of nationalism will fall upon the shoulders of the petit-bourgeoisie, who will be forced to seek the assistance of the Labour Movement. (The example of Ireland must not be taken too seriously, as there the civil war upset the "normal" course of events.) The emergence of the Workers' and Peasants' Parties, of which four,5 counting the Young India Society of the Punjab, now in existence, shows this tendency. They have already made some impression upon the Labour Movement. Owing partly to their influence the T.U.C. at its last session carried a resolution in favour of industrial unionism. Unfortunately, a last-minute amendment by a railway representative was accepted, substituting "federations of unions" for "unions." Thus the resolution, which might have had some little effect, was rendered absolutely useless, by the action of the industry which stood most to gain, at the moment, from its application.
In Bombay in particular, the Workers' and Peasants' Party is carrying on propaganda for greater activity in the unions (some unions. have now commenced monthly general meetings) and for the transformation of the Central Labour Board into a genuine Trades Council, &c. It is clear from what has been said above that they will have largely to depend upon what has here been called "lower grade" labour, and the solution of the still unsolved problem of the organisation of the great mass of Indian Labour probably lies with them.
There is a general realisation in political circles of the future importance of the Labour Movement, and though nothing is done, Congress leaders speak more frequently than ever of Labour work. At the Delhi Congress, two leaders, Mr. Chaman Lal and Lala Lajpat Rai, who had been out of touch with labour for some years, reappeared. The former rejoined the movement because, after three years of Swarajist politics, he realises that bourgeois nationalism is dead, and that the future conduct of the struggle will depend upon Labour. The latter came for exactly the contrary reason, that he saw the future danger, for the bourgeoisie, and wished to check it in time.6 The struggle between Nationalism and Imperialism for the possession of the Labour Movement has begun. When it has fully opened out, the next great stage in the history of Indian Labour will have commenced.
Notes
1. Practically the only pure craft unions, apart from the Mechanical Engineers' Association of Akola, which could almost be called a professional association, are those constituting the Ahmedabad Textile Workers' Union. It is significant of the atmosphere in which this union, and indeed the movement generally, works, that craft unionism having been introduced, some workers demand more of it than their officials are willing to give them.
2. Only the Bombay section of the Postmen's Union has been affiliated to the T.U.C., and has recently withdrawn because of the protest made by the Delhi T.U.C. against the dispatch of Indian troops to China. About the same time the Department of Posts and Telegraphs announced that unions of its employees must not affiliate to the T.U.C., as the latter is a political body.
3. The Provincial Federations of course tend to become in practice confined to Madras City, Calcutta, &c. And there is in Rangoon a general labour union with 10,000 members from different industries. It appears to be an unusually successful lower grade organisation, and is probably in practice nearer to a genuine Trades Council than any other.
4. Efforts are occasionally made by employers to arouse communal passions, e.g., recently in the Bombay Port Trust Docks Staff Union, and previously in the N.W.R. union. Neither had any success. In fact only three cases have come to the writer's notice. The Moslems have recently withdrawn almost en bloc from the Ahmedabad Weavers' Union. The Punjab Press Workers' Union is said to have collapsed last year from this cause, but it was in any case a feeble body. The Indian Seamen's Union, Bombay, has split nominally on this ground. Many of the saloon crews (Indian Christians, mainly Goanese) have withdrawn to form a new union, as the old one also contains engine and deck hands (non-Christians, mainly Mohammedans). Communal feeling is present, but the split was promoted by the shipowners and brokers, because the old union was opening its doors to the other crews, and was trying to extend its activities beyond the traditional limits of a mere employment bureau. The differences which often separate Indians from Anglo-Indians and Europeans are economic. The latter are invariably privileged, and often paid much higher rates.
5. In Bengal, Bombay, Rajputana (Ajmer) and the Punjab. The Punjab Society was the first to organise a May-day demonstration in India, in Lahore in 1926. The Bombay Party has established itself as leader of the opposition in the Bombay Provincial Congress Committee. It organised the May-day demonstration this year, and is leading the present (end of August) strike of protest against the attempt to make the weavers in some mills work three looms instead of two.
6.Cf. his remarks in the People (Lahore, March 20, 1927) on the Delhi session of the Trades Union Congress: "It (the Labour Movement) is a tender plant which requires careful nursing—careful watering and protection from the rigours of the climate. . . . What the Indian worker wants is not dogma, but help in organising, and in the redress of his grievances against the Government and the employers. To feed him on doctrines . . . . is to lead him astray."
Trade union
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"Labour union" redirects here. For the Polish political party, see Labour Union (Poland). For the Canadian political party, see Union Labour.
A trade union (British English) or labor union (American English) is an organization of workers who have banded together to achieve common goals such as better working conditions. The trade union, through its leadership, bargains with the employer on behalf of union members (rank and file[1] members) and negotiateslabour contracts (collective bargaining) with employers. This may include the negotiation of wages, work rules, complaint procedures, rules governing hiring, firing and promotion of workers, benefits, workplace safety and policies. The agreements negotiated by the union leaders are binding on the rank and file members and the employer and in some cases on other non-member workers.
Originating in Europe, trade unions became popular in many countries during the Industrial Revolution, when the lack of skill necessary to perform most jobs shifted employment bargaining power almost completely to the employers' side, causing many workers to be mistreated and underpaid. Trade union organisations may be composed of individual workers, professionals, past workers, or the unemployed. The most common, but by no means only, purpose of these organizations is "maintaining or improving the conditions of theiremployment".[2]
Over the last three hundred years, many trade unions have developed into a number of forms, influenced by differing political objectives. Activities of trade unions vary, but may include:
- Provision of benefits to members: Early trade unions, like Friendly Societies, often provided a range of benefits to insure members against unemployment, ill health, old age and funeral expenses. In many developed countries, these functions have been assumed by the state; however, the provision of professional training, legal advice and representation for members is still an important benefit of trade union membership.
- Collective bargaining: Where trade unions are able to operate openly and are recognized by employers, they may negotiate with employers over wages and working conditions.
- Industrial action: Trade unions may enforce strikes or resistance to lockouts in furtherance of particular goals.
- Political activity: Trade unions may promote legislation favorable to the interests of their members or workers as a whole. To this end they may pursue campaigns, undertake lobbying, or financially support individual candidates or parties (such as the Labour Party in Britain) for public office.
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[edit] History
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The origins of unions' existence can be traced from the eighteenth century, where the rapid expansion of industrial society drew women, children, rural workers, and immigrants to the work force in numbers and in new roles. This pool of unskilled and semi-skilled labour spontaneously organized in fits and starts throughout its beginnings,[2] and would later be an important arena for the development of trade unions. Trade unions as such were endorsed by the Catholic Church towards the end of the 19th Century. Pope Leo XIII in his 'Magna Carta': Rerum Novarum, spoke against the atrocities workers faced and demanded that workers should be granted certain rights and safety regulations. [3]
[edit] Origins and early history
Trade unions have sometimes been seen as successors to the guilds of medieval Europe, though the relationship between the two is disputed.[4] Medieval guilds existed to protect and enhance their members' livelihoods through controlling the instructional capital of artisanship and the progression of members fromapprentice to craftsman, journeyman, and eventually to master and grandmaster of their craft. A trade union might include workers from only one trade or craft, or might combine several or all the workers in one company or industry.
Trade unions and/or collective bargaining were outlawed from no later than the middle of the fourteenth century when the Ordinance of Labourers was enacted in the Kingdom of England. Union organizing would eventually be outlawed everywhere and remain so until the middle of the nineteenth century.
Since the publication of the History of Trade Unionism (1894) by Sidney and Beatrice Webb, the predominant historical view is that a trade union "is a continuous association of wage earners for the purpose of maintaining or improving the conditions of their employment."[2] A modern definition by the Australian Bureau of Statistics states that a trade union is "an organization consisting predominantly of employees, the principal activities of which include the negotiation of rates of pay and conditions of employment for its members."[5]
Yet historian R.A. Leeson, in United we Stand (1971), said:
Two conflicting views of the trade-union movement strove for ascendancy in the nineteenth century: one the defensive-restrictive guild-craft tradition passed down through journeymen's clubs and friendly societies, ... the other the aggressive-expansionist drive to unite all 'laboring men and women' for a 'different order of things'.
Recent historical research by Bob James [disambiguation needed] in Craft, Trade or Mystery (2001) puts forward the view that trade unions are part of a broader movement of benefit societies, which includes medieval guilds, Freemasons, Oddfellows, friendly societies, and other fraternal organizations.
The 18th century economistAdam Smith noted the imbalance in the rights of workers in regards to owners (or "masters"). In The Wealth of Nations, Book I, chapter 8, Smith wrote:
We rarely hear, it has been said, of the combination of masters, though frequently of those of workmen. But whoever imagines, upon this account, that masters rarely combine, is as ignorant of the world as of the subject. Masters are always and everywhere in a sort of tacit, but constant and uniform combination, not to raise the wages of labor above their actual rate[.]
When workers combine, masters ... never cease to call aloud for the assistance of the civil magistrate, and the rigorous execution of those laws which have been enacted with so much severity against the combination of servants, laborers, and journeymen.
As Smith noted, unions were illegal for many years in most countries (and Smith argued that schemes to fix wages or prices, by employees or employers, should be). There were severe penalties for attempting to organize unions, up to and including execution. Despite this, unions were formed and began to acquirepolitical power, eventually resulting in a body of labor law that not only legalized organizing efforts, but codified the relationship between employers and those employees organized into unions. Even after the legitimization of trade unions there was opposition, as the case of the Tolpuddle Martyrs shows.
The right to join a trade union is mentioned in article 23, subsection 4 of the Universal Declaration of Human Rights (UDHR), which also states in article 20, subsection 2 that "No one may be compelled to belong to an association". Prohibiting a person from joining or forming a union, as well as forcing a person to do the same (e.g. "closed shops" or "union shops", see below), whether by a government or by a business, is generally considered a human rights abuse. Similar allegations can be leveled if an employer discriminates based on trade union membership. Attempts by an employer, often with the help of outside agencies, to prevent union membership amongst their staff is known as union busting.
[edit] Europe
In France, Germany, and other European countries, socialist parties and democrats played a prominent role in forming and building up trade unions, especially from the 1870s onwards. This stood in contrast to the British experience, where moderate New Model Unions dominated the union movement from the mid-nineteenth century and where trade unionism was stronger than the political labor movement until the formation and growth of the Labour Party in the early years of the twentieth century.
[edit] Unions in the United States
[edit] 19th Century American Unionism
In the early 1800s many men from large cities put together the organization which we now call the Trade Union Movement. Individuals who were members of unions at this time were skilled, experienced, and knew how to get the job done. Their main reasoning for starting this movement was to put on strikes. However, they did not have enough men to fulfill their needs and the unions which began this trendy movement, collapsed quickly. The Mechanics' Union Trade Association was the next approach to bring workers together. In 1827, this union was the first U.S. labor organization which brought together workers of divergent occupations. This was "the first city-wide federation of American workers, which recognized that all labor, regardless of trades, had common problems that could be solved only by united effort as a class."[6] This organization took off when carpentry workers from Philadelphia went on strike to protest their pay wages and working hours. This union strike was only a premonition of what was to come in the future.
" | Besides acting to raise wages and improve working conditions, the federations espoused certain social reforms, such as the institution of free public education, the abolition of imprisonment for debt, and the adoption of universal manhood suffrage. Perhaps the most important effect of these early unions was their introduction of political action. | " |
Workers realized what unionism was all about through the configuration of mechanics association and many people followed in their footsteps. The strike gave others hope that they could get their concerns out by word of mouth. Before this time many people did not speak about their concerns because of the lack of bodies. However, with more people comes more confidence. Strikes were a new way of speaking your mind and getting things accomplished.
The next established union which made an impact on the trade movement was the Grand National Consolidated Trade Union. This union was founded in 1834 as the first domestic association. However, this union was short lived due to the panic of 1837. "[Andrew] Jackson thought the Bank of the United States hurt ordinary citizens by exercising too much control over credit and economic opportunity, and he succeeded in shutting it down. But the state banks' reckless credit policies led to massive speculation in Western lands. By 1837, after Van Buren had become president, banks were clearly in trouble. Some began to close, businesses began to fail, and thousands of people lost their land." [8] This collapse of financial support and businesses left workers unemployed. Many of these workers, who became affected by the 1837 disaster, were members of a union. It was very hard for them to stay together in an economic hardship and the trade union movement came to a bump in the road. But the economy was restored by the early 1840s and trade unions started doing better. National labor unions were forming, different than ones in the past, consisting now of members of the same occupation.
The work force was drastically impacted by the Civil War and the economy was thriving. Many workers gained employment because of this economic boom and unions increased greatly. "More than 30 national craft unions were established during the 1860s and early '70s."[7] One of the significant national craft unions to be formed during this time was the National Labor Union (NLU). It was created in 1866 and included many types of workers.[9] Although relatively short-lived, the NLU paved the way for future American unions. Following the decline of the NLU, the Knights of Labor became the leading countrywide union in the 1860s. This union did not include Chinese, and partially included black people and women.[10]
[edit] Knights of Labor
Main article: Knights of Labor
The Noble and Holy Order of the Knights of Labor (KOL) was founded in Philadelphia in 1869 by Uriah Stephens and six other men. The union was formed for the purpose of organizing, educating and directing the power of the industrial masses, according to their Constitution of 1878.[11] The Knights gathered people to join the Order who believed in creating "the greatest good to the greatest amount of people". The Knights took their set goals very seriously. Some of which consisted of "productive work, civic responsibility, education, a wholesome family life, temperance, and self-improvement."[12]
The Knights of Labor worked as a secret fraternal society until 1881. The union grew slowly until the economic depression of the 1870s, when large numbers of workers joined the organization.[13] The Knights only permitted certain groups of individuals into their Order which promoted social division amongst the people around them. Bankers, speculators, lawyers, liquor dealers, gamblers, and teachers were all excluded from the union. These workers were known as the "non-producers" because their jobs did not entail physical labor. Factory workers and business men were known as the "producers" because their job constructed a physical product. The working force producers were welcomed into the Order. Women were also welcome to join the Knights, as well as black workers by the year 1883.[14] However, Asians were excluded. In November 1885, the Knights of a Washington city pushed to get rid of their Asian population. The knights were strongly for the Chinese Exclusion Act of 1882 because it greatly helped them deteriorate the Asian community. "The Act required the few non-laborers who sought entry to obtain certification from the Chinese government that they were qualified to immigrate. But this group found it increasingly difficult to prove that they were not laborers because the 1882 act defined excludables as 'skilled and unskilled laborers and Chinese employed in mining.' Thus very few Chinese could enter the country under the 1882 law." [15]
The act also stated that if an Asian left the country, they needed a certificate to re-enter.
Although Asians were not welcomed in the union, black workers who joined the union brought a large number of blacks into the white labor movement. In 1886, the Union exceeded 700,000 members, 60,000 of them black. The Knights were told that they "broke the walls of prejudice"; the "color line had been broken and black and white were found working in the same cause. The American Federation of Labor (AFL),founded by Samuel Gompers, was established due to the vexation of many Knights who parted from the KOL. Many Knights joined the AFL because they set themselves apart from the KOL. They "tried to teach the American wage-earner that he was a wage-earner first and a bricklayer, carpenter, miner [...] after. This meant that the Order was teaching something that was not so in the hope that sometime it would be.' But the AFL affiliates organized carpenters as carpenters, bricklayers as bricklayers, and so forth, teaching them all to place their own craft interests before those of other workers." [16] The AFL also differed from the KOL because it only allowed associations to be formed from workers and workers were the only people permitted to join them. Unlike the AFL, the knights also allowed small businesses to join. A small business is "An independently owned and operated business that is not dominant in its field of operation and conforms to standards set by the Small Business Administration or by state law regarding number of employees and yearly income called also small business concern."[17] Since the knights allowed an array of members into their association, they ended up getting rid of many because they did not fit the title. However, the AFL was right behind them picking up their pieces. This was another way in which the AFL helped to destroy the Knights. Once an associate was no longer a knight, and they fit the description of an AFL member, they hunted them down and offered them a spot. Many times spots were offered to men who were still Knights. This allowed the AFL to grow very strong with a diverse set of members.
The diversity in the AFL faltered when many of the black members were excluded. Gompers only wanted skilled workers representing his union and many black people were not considered skilled. The AFL claimed to not exclude the black members because of their race but because they were not qualified for the part. "So as long as wages rose, and they did, hours fell, and they did, security increased, and it appeared to, the AFL could grow fat while neglecting millions of laborers doomed to lives of misery and want."[18] Even black workers considered skilled enough to fit the part were generally excluded from the Union. The AFL conducted literacy tests which had the effect of excluding immigrants and blacks. Regardless of black members being excluded, the AFL was the most prevalent union federation in America before the mid 1940s. The union was composed of over 10 million members before it combined with the Congress of Industrial Organization (CIO).
[edit] Congress of Industrial Organizations
Main article: Congress of Industrial Organizations
The CIO was put forth by John L. Lewis when troubles with the AFL persisted, after the death of Gompers in 1924. Many members of the union requested that they switch the rules which were laid out by Gompers. They wanted to support inexperienced workmen rather than only focusing on experienced workers of one occupation. John L. Lewis was the first member of the AFL to act upon this issue in 1935. He was the founder of the Committee for the Industrial Organization which was an original union branched from the AFL. The Committee for the Industrial Organization transformed into the Congress of Industrial Organization. "The Congress of Industrial Organizations (CIO) encompassed the largest sustained surge of worker organization in American history."[19] In the 1930s, the CIO grabbed many of their member's attention through victorious strikes. In the 1935, employees of Goodyear Tire and Rubber Company formed their own union called the United Rubber Workers. The Rubber Workers went on strike in 1936 to protest an increase in product with lower pay wages. "There were forty-eight strikes in 1936 in which the strikers remained at their jobs for at least one day; in twenty-two of these work stoppages, involving 34,565 workers, the strikers stayed inside the plants for more than twenty-four hours."[20] This tactic was called a "sit-down" strike which entailed workers to stop doing their job and sit in their place of employment. During these strikes, business owners were unable to bring in new workers to replace the ones who were on strike because they were still in their seats at the factory. This was unlike any strikes in the past. Before this time, workers showed their fury by leaving their factory and standing in picket lines.Walter Reuther was in control of the union at this time and moved forward to higher roles during 1955.
[edit] AFL-CIO
On May 5, 1955, labor delegates gathered in NY on behalf of 16 million workers, to witness and support the merger of The American Federation of Labor and The Congress of Industrial Organization. The merger is a result of 20 years of effort put forth by both the AFL and CIO presidents, George Meany and Walter Reuther. The gathered delegates applauded loudly when the time came to nominate officers for the new AFL-CIO. Reuther who was named one of the 37 vice presidents of the union, nominated Meany for President. After Meany's retirement in 1979, Lane Kirkland took over his position. President Dwight D. Eisenhower, who was elected in 1952, was the first to publicly address and congratulate the new union, which was now the largest in the world.
In Eisenhower's telephone broadcast to the United States he acknowledged the impact union members had made to better the nation and one of these impacts was "the development of the American philosophy of labor."[21] Eisenhower states three principles which he feels apply to the philosophy of labor. The first principles states that: "the ultimate values of mankind are spiritual; these values include liberty, human dignity, opportunity and equal rights and justice."[21] Eisenhower was stating that every individual deserves a job with decent compensation, practical hours, and good working conditions that leave them feeling fulfilled. His second principle speaks of the economic interest of the employer and employee being a mutual prosperity.[21] The employers and employees must work together in order for there to be the greatest amount of wealth for all. Workers have a right to strike when they feel their boundaries are being crossed and the best way for the employer to fix the employees unhappiness is to come to a mutual agreement. His last principle which he preached stated: "labor relations will be managed best when worked out in honest negotiation between employers and unions, without Government's unwarranted interference."[21] Eisenhower was saying that when both parties cooperate and act in mature fashion, it will be easier to work out situations and a better outcome will result because of it. Once he was done delivering the speech, everyone across the U.S. knew of the new AFL-CIO whose "mission was to bring social and economic justice to our nation by enabling working people to have a voice on the job, in government, in a changing global economy and in their communities." [22]
This new alliance is made up of 56 nationwide and intercontinental labor unions. The unions which are a part of this alliance are composed of 2.5 million working Americans and 8.5 million other affiliated members. These members do not fall under one job title but they are very diversely spread out among the working area. Their jobs go from doctors to truck drivers and painters to bankers. The mission of these workers and the AFL-CIO "is to improve the lives of working families—to bring economic justice to the workplace and social justice to our nation. To accomplish this mission we will build and change the American labor movement."[23]The AFL-CIO also has many goals which coincide with their mission:
"We will build a broad movement of American workers by organizing workers into unions. We will build a strong political voice for workers in our nation. We will change our unions to provide a new voice to workers in a changing economy. We will change our labor movement by creating a new voice for workers in our communities."[23]
The association was willing to go to any extent to help out their employers which is why the membership was so high. Members started to slowly disappear after 25 successful years of a steady membership. Starting out with 16 million members in 1955 and dropping down to 13 million by 1984 is a significant loss. This loss of members is in large part due to the 1957 removal of the Teamsters' Union who were long time members of the AFL. The Teamsters' were involved in organized crime and manipulating employers with strong force. The Teamsters' philosophy was to
"Let each member do his duty as he sees fit. Let each put his shoulder to the wheel and work together to bring about better results. Let no member sow seeds of discord within our ranks, and let our enemies see that the Teamsters of this country are determined to get their just rewards and to make their organization as it should be -- one of the largest and strongest trade unions in the country now and beyond."[24]
This philosophy did not work well for Teamster presidents Beck, Hoffa, and Williams who were all accused of criminal acts and sent to prison. In 1987 the AFL-CIO membership grew to 14 million members when the Teamsters Union was restored to the association.
The AFL-CIO also lost many members due to financial struggles in the United States. During the late 1900's the U.S. dollar began to oscillate due to rivalry with foreign countries and their coinage. This affects global trafficking and results in job loss for American citizens. The issues between the United States and foreign countries cannot be resolved by Eisenhower's third principle, which entailed honest negotiations. Consequently, the association has been dynamically supportive in administration policies which deal with global trafficking, the production of goods, and many other issues, which are optimistic policies that will add to an established financial system.
The AFL-CIO is now governed by a gathering of delegates who are present on behalf of association members who meet every four years. The delegates who are the spokespeople of the federation members are chosen by union members. While the delegates vote for new representatives every four years, they also lay down the goals and policies for the union. The most recent representatives for the organization along with 45 vice presidents are President John J. Sweeny, Secretary-treasurer Richard Trumka, and executive vice president Arlene Holt Baker
In the United States there are a total of 15.4 million union members, "11 million of whom belong to unions affiliated with the AFL-CIO."[25] This number has grown rapidly since the beginning of the union movement because today, all individuals with different occupations are welcomed to join unions. "Today's unions include manufacturing and construction workers, teachers, technicians and doctors—and every type of worker in between. No matter what you do for a living, there's a union that has members who do the same thing."[25]Educating union members about issues that shape lives of functioning families on a daily basis is one of the AFL-CIO's policies. They give them confidence to have their voices heard for political purposes. They also prioritize in
"creating family-supporting jobs by investing tax dollars in schools, roads, bridges and airports; improving the lives of workers through education, job training and raising the minimum wage; keeping good jobs at home by reforming trade rules, reindustrializing the U.S. economy and redoubling efforts at worker protections in the global economy; strengthening Social Security and private pensions; making high-quality, affordable health care available to everyone; and holding corporations more accountable for their actions."[25]
The AFL-CIO is very supportive of political issues and they show their concern by giving out information about existing political issues to families. This information is spread by volunteers and activists and includes where all the candidates stand on the issues.
[edit] Mexico
Before the 1990s, unions in Mexico have been historically part of a state institutional system. In the 1940-1980 period, between the end of the Mexican revolution in 1940, till the 1980s worldwide spread of neo-liberalism through the Washington Consensus, the Mexican unions have not operated independently, but have been instead part of a state institutional system, largely controlled by the ruling party.[26]
During this 40 years, the primary aim of the labor unions was not to benefit the workers, but to carry out the state economic policy, under their cozy relationship with the ruling party. This economic policy, which peaked in the 1950-60s with the so called Mexican Miracle, saw rising incomes and rising standards of living, but only a minor part went to the workers, while the primary beneficiaries had been the wealthy.[26]
When in the 1980s Mexico began to follow Washington Consensus, and sell of state industries (railroad, telecommunication) to private industries, the new owners had an antagonist attitude towards unions, and the unions, used to the cozy relationship with the state, was not prepared to fight back. A movement of new unions began to emerge, with a more independent model, while the old institutionalized unions had become very corrupt, violent and gangsterized. From the 1990s the new model of independent unions prevailed, and a number of them were represented by the National Union of Workers.[26]
[edit] Australia
Supporters of Unions, such as the ACTU or Australian Labor Party, often credit trade unions with leading thelabor movement in the early 20th century, which generally sought to end child labor practices, improve worker safety, increase wages for both union workers and non union workers, raise the entire society's standard of living, reduce the hours in a work week, provide public education for children, and bring other benefits to working class families.[27]
[edit] Structure and politics
Union structures, politics, and legal status vary greatly from country to country. For specific country details see List of trade unions.
Unions may organize a particular section of skilled workers (craft unionism), a cross-section of workers from various trades (general unionism), or attempt to organize all workers within a particular industry (industrial unionism). These unions are often divided into "locals", and united in national federations. These federations themselves will affiliate with Internationals, such as the International Trade Union Confederation.
A union may acquire the status of a "juristic person" (an artificial legal entity), with a mandate to negotiate with employers for the workers it represents. In such cases, unions have certain legal rights, most importantly the right to engage in collective bargaining with the employer (or employers) over wages, working hours, and other terms and conditions of employment. The inability of the parties to reach an agreement may lead to industrial action, culminating in either strike action or management lockout, or binding arbitration. In extreme cases, violent or illegal activities may develop around these events.
In other circumstances, unions may not have the legal right to represent workers, or the right may be in question. This lack of status can range from non-recognition of a union to political or criminal prosecution of union activists and members, with many cases of violence and deaths having been recorded both historically and contemporarily.[28][29]
Unions may also engage in broader political or social struggle. Social Unionism encompasses many unions that use their organizational strength to advocate for social policies and legislation favorable to their members or to workers in general. As well, unions in some countries are closely aligned with political parties.
Unions are also delineated by the service model and the organizing model. The service model union focuses more on maintaining worker rights, providing services, and resolving disputes. Alternately, the organizing model typically involves full-time union organizers, who work by building up confidence, strong networks, and leaders within the workforce; and confrontational campaigns involving large numbers of union members. Many unions are a blend of these two philosophies, and the definitions of the models themselves are still debated.
Although their political structure and autonomy varies widely, union leaderships are usually formed through democratic elections.
Some research, such as that conducted by the ACIRRT,[30] argues that unionized workers enjoy better conditions and wages than those who are not unionized.
In Britain, the perceived left-leaning nature of trade unions has resulted in the formation of a reactionary right-wing trade union called Solidarity which is supported by the far-right BNP.
[edit] Shop types
Companies that employ workers with a union generally operate on one of several models:
- A closed shop (US) or a "pre-entry closed shop" (UK) employs only people who are already union members. The compulsory hiring hall is an example of a closed shop — in this case the employer must recruit directly from the union, as well as the employee working strictly for unionized employers.
- A union shop (US) or a "post-entry closed shop" (UK) employs non-union workers as well, but sets a time limit within which new employees must join a union.
- An agency shop requires non-union workers to pay a fee to the union for its services in negotiating their contract. This is sometimes called the Rand formula. In certain situations involving state public employees in the United States, such as California, "fair share laws" make it easy to require these sorts of payments.
- An open shop does not require union membership in employing or keeping workers. Where a union is active, workers who do not contribute to a union still benefit from the collective bargaining process. In the United States, state level right-to-work laws mandate the open shop in some states.
[edit] Diversity of international unions
Labor law varies from country to country, as does the function of unions. For example, in Germany only open shops are legal; that is, all discrimination based on union membership is forbidden. This affects the function and services of the union. In addition, German unions have played a greater role in management decisions through participation in corporate boards and co-determination than have unions in the United States. (newsletter/files/BTS012EN_12-15.pdf).
In Britain, a series of laws introduced during the 1980s by Margaret Thatcher's government restricted closed and union shops. All agreements requiring a worker to join a union are now illegal. In the United States, theTaft-Hartley Act of 1947 outlawed the closed shop, but permitted the union shop unless the state government chose to prohibit it.
In addition, unions' relations with political parties vary. In many countries unions are tightly bonded, or even share leadership, with a political party intended to represent the interests of working people. Typically this is a left-wing, socialist, or social democratic party, but many exceptions exist. In the United States, by contrast, although it is historically aligned with the Democratic Party, the labor movement is by no means monolithic on that point; this is especially true among the individual "rank and file" members. For example, the International Brotherhood of Teamsters has supported Republican Party candidates on a number of occasions and the Professional Air Traffic Controllers Organization (PATCO) endorsed Ronald Reagan in 1980. (However, when PATCO went on strike in violation of their "no strike" contract, President Reagan ordered them back to work. Those who didn't return to the job were fired and replaced, effectively destroying PATCO.) In Britain the labor movement's relationship with the Labour Party is fraying as party leadership embarks on privatization plans at odds with what unions see as the worker's interests. On top of this in the past there as been a group known as the Conservative Trade Unionists or CTU. A group formed of people who sympathized with right wing Tory policy but were Trade Unionists.
In Western Europe, professional associations often carry out the functions of a trade union. In these cases, they may be negotiating for white-collar workers, such as physicians, engineers, or teachers. Typically such trade unions refrain from politics or pursue a more ordoliberal politics than their blue-collarcounterparts[citation needed].
In Germany the relation between individual employees and employers is considered to be asymmetrical. In consequence, many working conditions are not negotiable due to a strong legal protection of individuals. However, the German flavor or works legislation has as its main objective to create a balance of power between employees organized in unions and employers organized in employers associations. This allows much wider legal boundaries for collective bargaining, compared to the narrow boundaries for individual negotiations. As a condition to obtain the legal status of a trade union, employee associations need to prove that their leverage is strong enough to serve as a counterforce in negotiations with employers. If such an employees association is competing against another union, its leverage may be questioned by unions and then evaluated in a court trial. In Germany only very few professional associations obtained the right to negotiate salaries and working conditions for their members, notably the medical doctors association Marburger Bund and the pilots association Vereinigung Cockpit. The engineers association Verein Deutscher Ingenieure does not strive to act as a union, as it also represents the interests of engineering businesses.
Finally, the structure of employment laws affects unions' roles and how they carry out their business. In many western European countries wages and benefits are largely set by governmental action. The United States takes a more laissez-faire approach, setting some minimum standards but leaving most workers' wages and benefits to collective bargaining and market forces. Historically, the Republic of Korea has regulated collective bargaining by requiring employers to participate but collective bargaining has been legal only if held in sessions before the lunar new year. In totalitarian regimes such as Nazi Germany, Trade Unions were outlawed. In the Soviet Union and China, unions have typically been de facto government agencies devoted to smooth and efficient operation of government enterprises.
[edit] Criticism
Main article: Opposition to trade unions
Trade unions have been accused of benefiting insider workers, those having secure jobs, at the cost of outsider workers, consumers of the goods or services produced, and the shareholders of the unionized business. Those who are likely to be disadvantaged most from unionization are the unemployed, those at risk of unemployment, or workers who are unable to get the job they want in a particular line of work.[31]
In the United States, the outsourcing of labor to Asia, Latin America, and Africa has been partially driven by increasing costs of union partnership, which gives other countries a comparative advantage in labor, making it more efficient to perform labor-intensive work there.[32]Milton Friedman, Nobeleconomist an advocate oflaissez-fairecapitalism sought to show that unionization produces higher wages (for the union members) at the expense of fewer jobs, and that, if some industries are unionized while others are not, wages will tend to decline in non-unionized industries.[33]
Trade unions have been said to have ineffective policies on racism and sexism, such that a union is justified in not supporting a member taking action against another member. This was demonstrated by the 1987 judgment in the Weaver v NATFEH case in the UK — in which a black Muslim woman brought a complaint of workplace racist harassment against a co-trade unionist. The finding was that in the event of the union offering assistance to the plaintiff it would be in violation of the union's duty to protect the tenure of the accused member and the judgment still sets the precedent for cases of this kind that union members who make complaints to the employer of racist or sexist harassment against member(s) of the same union cannot obtain union advice or assistance; this applies irrespective of the merit of the complaint.[34]
Unions are sometimes accused of holding society to ransom by taking strike actions that result in the disruption of public services.[35][36]
[edit] Worldwide Union and by Region and Country
[edit] Worldwide and International Cooperation
The largest organization in the world is the Brussels-based International Trade Union Confederation, which today has approximately 309 affiliated organizations in 156 countries and territories, with a combined membership of 166 million. Other global trade union organizations include the World Federation of Trade Unions.
National and regional trade unions organizing in specific industry sectors or occupational groups also formglobal union federations, such as Union Network International, the International Federation of Journalists or the International Arts and Entertainment Alliance.
Ambedkar and Communism
Reply to Marxist Look at Religion Buddhist Approach
by Dr. K. Jamanadas,
Introduction
This has a reference to an article by Research Scholars, Kong Fan and Li Shen, published in "Studies in World Religions" #4, 1983, by Kong Fan and Li Shen tr. by P. Barry.
The issues created by the authors are not new. They have been raised time and again and not only in Indian context, but in World context they have been already answered by authorities like Dr. Ambedkar.
The authors expound two theories, that views of Marx, Lenin and Mao are opposed to religion. They feel that only Marx has given scientific explanation of religion, and that it is "Religion is the Opium of the people". Authors say that "It can not lead people who suffer difficulties to overcome the difficulties. It only allows them to anesthetize themselves, thereby, Religion changes material struggle into a kind of spiritual comfort. It transforms real needs to hopes of an illusory world." The authors apparently equate religion with God, and feel that as Science has disproved the existence of God, and as so called religious ethics comes from the will of God, it has no meaning.
Secondly, they believe only Marxism holds that, ultimately, rooting out private ownership will remove all evil. They lament that though Socialism has brought liberation of masses, still people believe in religion. This is because of legacy of feudalism, influence of capitalism, imperialism, beurocratism.
Lastly they outline the line of action not only for their own country but for the whole world. They feel the Communist party of China thinks it necessary to form a united front with "patriotic religious believers to oppose the reactionary forces at home and abroad and to carry out socialist revolution and modernization". They are bound to expound Marxism through "research into religion and into its history, doctrine and present circumstances." This propaganda they wish to do with "unhurried discussion to reason things out" by criticizing religion but not the people who follow or preach it, except the "criminals". Of course they do not forget to assign the power of final judgment to a few persons as they say that all this must be according to the "theories, plans and policies of Party Central".
They, however, admit that there were "religious wrongs", but blame the "Gang of four" with their "ultra leftist" attitude for these religious wrongs. Further claiming that State is not controlling Religion, the Authors are generous in allowing practice of religion to those who are patriotic and not against the government.
As I have been asked to reply this article by Mr. Jaysuria, a Buddhist Dignitary from America, I will try to say a few words from Indian Buddhist's point of view.
Ambedkar and Communism
There is such a vast literature by Dr. Ambedkar in favour of Buddhism and against Communism, that only quoting from Ambedkar, who has already thought over Communism for years before giving Buddhism to the multitudes of Indian masses, will answer all points raised by the above research scholars. One thing needs to be remembered is that Ambedkar's views are nearly fifty years old, and they are still valid. They do not mention Mao, as his theories had not then come into prominence, but what he says about communism in general should also apply to Maoism too.
The very fact that "The Gang of Four" can become successful in capturing power and do the things, against the "real" Marxism, proves the fact that there is some inherent weaknesses in Marxism.
One thing, I wish to make clear is I am not a Communist, I am an Ambedkarite. But I am one of those few who think that Marxism is not finished in Russia, unlike many who do, after the break up of Soviet Union. The meaning of Religion according to Buddhism, as expounded by Dr. Ambedkar, the modern Religion Giver of Indian Buddhism, is well explained in his "Buddha and His Dhamma", the Bible of Buddhist Ambedkarites.
It is rather unfortunate, that we have to say, the authors of the article either misunderstood Marxism or Religion or both. These scholars should have pondered over one point. If any people in the world, needed the liberation from oppression, they were the Dalits of India. According to theories of Marxism, the revolution should have started here by them. But their leader Dr. Ambedkar thought that Communism is no answer, and adopted Buddhism along with his followers. His followers are now about one fifth population of this country of 1000 million people. Was Dr. Ambedkar wrong in discarding Communism and accepting Buddhism?
Pre-requisites of Communism
Dr. Ambedkar avers that there are certain pre-requisites for the Marxism to succeed. These are the society should be a "Free society", meaning it should give importance to an Individual over the society and that it should be based on equality, fraternity and liberty. [Ambedkar, "India and the Pre-requisites of Communism", (W&S vol. 3,), p.95]
These have been brought to China by Buddhism and to Russia by Christianity. The absence of these factors in caste ridden Indian society could not foster the growth of Marxism in India, and that is why Marx failed in Hindu India. Marx could not properly evaluate the importance of caste or its influence on Indian masses. Because, Marx failed here, his followers in India talk of "Class" and not of "Caste". That is the reason, the movement of Marx in India was and still is in the hands of oppressor class.
Residue of Marxism
Marx expounded his theories about 150 years ago. Most of Marxism is demolished during these years. But what remains of the Karl Marx, Dr. Ambedkar feels, is a residue of fire, small but still very important. The residue in his opinion, consists of four items:
(i) The function of philosophy is to reconstruct the world and not to waste its time in explaining the origin of the world.
(ii) That there is a conflict of interest between class and class.
(iii) That private ownership of property brings power to one class and sorrow to another through exploitation.
(iv) That it is necessary for the good of society that the sorrow be removed by the abolition of private property.
Comparison between Buddha and Karl Marx
Taking the points form the Marxian Creed which have survived Dr. Ambedkar compares the Buddha and Karl Marx. He feels that, on the first point there is complete agreement between the Buddha and Karl Marx. That language is different but the meaning is the same. If for misery one reads exploitation Buddha is not away form Marx. ("Buddha or Karl Marx", (W&S vol. 3), p. 444)
On the question of private property, Dr. Ambedkar quotes the illuminating extract from a dialogue between Buddha and Ananda, Buddha saying avarice is because of possession, which in turn is because of tenacity. Not only Buddha prohibited private property in Sangha, he put more restrictions and "rules are far more rigorous than are to be found in Communism in Russia" (Ibid. p. 446)
Means to achieve goals
Dr. Ambedkar, then, examines the means to achieve the goals. Having summarized Buddha's tenets, he feels that, it is clear that the means adopted by the Buddha were to convert a man by changing his moral disposition to follow the path voluntarily. The means adopted by the Communists are equally clear, short and swift. They are (1) Violence and (2) Dictatorship of the Proletariat.
The Communists say that there are the only two means of establishing Communism. The first is violence. Nothing short of it will suffice to break up the existing system. The other is Dictatorship of the Proletariat. Nothing short of it will suffice to continue the new system. It is now clear what are the similarities and differences between Buddha and Karl Marx. The differences are about the means. The end is common to both. (Ibid. p. 450)
The Bhikshu Sangha had the most democratic constitution. The Buddha was only one of the Bhikkus. At the most he was like a Prime Minister among members of the Cabinet. He was never a dictator. Twice before his death be was asked to appoint some one as the head of the Sangha to control it. But each time he refused saying that the Dhamma is the Supreme Commander of the Sangha. He refused to be a dictator and refused to appoint a dictator.
What about the value of the means? Whose means are superior and lasting in the long run?
Can the Communists say that in achieving their valuable they have not destroyed other valuable ends? They have destroyed private property. Assuming that this is a valuable end can the Communists say that they have not destroyed other valuable end in the process of achieving it? How many people have they killed for achieving their end. Has human life no value? Could they not have taken property without taking the life of the owner? (Ibid. p. 452)
Dictatorship is often defined as absence of liberty or absence of Parliamentary Government. Both interpretations are not quite clear. There is no liberty even when there is Parliamentary Government. For law means want of liberty. The difference between Dictatorship and Parliamentary Government lies in this. In Parliamentary Government every citizen has a right to criticize the restraint on liberty imposed by the Government. In Parliamentary Government you have a duty and a right; the duty to obey the law and right to criticize it. In Dictatorship you have only duty to obey but no right to criticize it. [Ibid. p. 453]
We must now consider whose means are more lasting. One has to chose between Government by force and Government by moral disposition. As Burke has said force cannot be a lasting means. In his speech on conciliation with America he uttered this memorable warning:
"First, Sir, permit me to observe, that the use of force alone is but temporary. It may subdue for a moment: But it does not remove the necessity of subduing again; and a nation is not governed which is perpetually to be conquered."
"My next objection is its uncertainty. Terror is not always the effect of force, and an armament is not a victory. If you do not succeed, you are without resource, for, conciliation failing, force remains; but force failing. no further hope of reconciliation is left. Power and authority are sometimes bought by kindness; but they can never be begged as alms by an impoverished and defeated violence.
A further objection to force is, that you impair the object by your very endeavors to preserve it. The thing you fought for is the thing which you recover, but depreciated, sunk, wasted and consumed in the contest." (Ibid. p. 453)
Withering away of State
Dr. Ambedkar also discusses the Communist theory of "withering away of the state". He says, The Communists themselves admit that their theory of the State as a permanent dictatorship is a weakness in their political philosophy. They take shelter under the plea that the State will ultimately wither away. There are two questions which they have to answer. (1) When will it wither away? (2) What will take the place of the State when it withers away? To the first question they can give no definite time. (Ibid. p 459)
Though the second question is more important than the first, Dr. Ambedkar feels, the Communists have no satisfactory answer to the question what would take the place of the State when it withers away. Will it be succeed by Anarchy? If so, he feels, the building up of the Communist State is an useless effort. If it cannot be sustained except by force and if it results in anarchy when the force holding it together is withdrawn what good is the Communist State. [Ibid. p.460]
He therefore avers that, the only thing which could sustain it after force is withdrawn is Religion. He observes:
"But to the Communists, Religion is anathema. Their hatred to Religion is so deep seated that they will not even discriminate between religions which are helpful to Communism and religions which are not. The Communists have carried their hatred of Christianity to Buddhism without waiting to examine the difference between the two." [Ibid. p. 460]
Charges against Christianity
Dr. Ambedkar discusses two charges against Christianity leveled by the Communists. Surprisingly, the same charges are leveled by Chinese Research Scholars in the same terminology. Ambedkar answers these charges as he observes:
"Their first charge against Christianity was that they made people other worldliness and made them suffer poverty in this world. As can be seen from quotations from Buddhism in the earlier part of this tract such a charge cannot be leveled against Buddhism."
Dr. Ambedkar then answers the second charge as follows:
"The second charge leveled by the Communists against Christianity cannot be leveled against Buddhism. This charge is summed up in the statement that Religion is the opium of the people. This charge is based upon the Sermon on the Mount which is to be found in the Bible. The Sermon on the Mount sublimates poverty and weakness. It promises heaven to the poor and the weak. There is no Sermon on the Mount to be found in the Buddha's teachings. His teaching is to acquire wealth." [Ibid. p.460]
He then gives the Buddha's Sermon on the subject to Anathapindika one of his disciples, wherein Buddha describes how wealth should be acquired justly and legitimately. [Ibid. p. 460]
Dr. Ambedkar concludes the discussion by observing:
"The Russians do not seem to be paying any attention to Buddhism as an ultimate aid to sustain Communism when force is withdrawn.
"The Russians are proud of their communism. But they forget that the wonder of all wonders is that the Buddha established Communism so far as the Sangha was concerned without dictatorship. It may be that it was a communism on a very small scale but it was communism without dictatorship, a miracle which Lenin failed to do.
"The Buddha's method was different. His method was to change the mind of man: to alter his disposition: so that whatever man does, he does it voluntarily without the use of force or compulsion. His main means to alter the disposition of men was his Dhamma and the constant preaching of his Dhamma. The Buddha's way not to force people to do what they did not like to do although it was good for them. His way was to alter the disposition of men so that they would do voluntarily what they would not otherwise to do.
"It has been claimed that the Communist Dictatorship in Russia has wonderful achievements to its credit. There can be no denial of it. That is why I say that a Russian Dictatorship would be good for all backward countries. But this his no argument for permanent Dictatorships. Humanity does not only want economic values, it also wants spiritual values to be retained. Permanent Dictatorship has paid no attention to spiritual values and does not seem to intend to. Carlyle called Political Economy a Pig Philosophy. Carlyle was of course wrong. For man needs material comforts. But the Communist Philosophy seems to be equally wrong for the aim of their philosophy seems to be fatten pigs as though men are no better than pigs. Man must grow materially as well as spiritually. Society has been aiming to lay a new foundation was summarized by the French Revolution in three words. Fraternity, Liberty and Equality. The French Revolution was welcomed because of this slogan. It failed to produce equality. We welcome the Russian Revolution because it aims to produce equality. But it cannot be too much emphasized that in producing equality society cannot afford to sacrifice fraternity or liberty. Equality will be of no value without fraternity or liberty. It seems that the three can coexist only if one follows the way of the Buddha. Communism can give one but not all. [Ibid. p. 462]
Tests of Religion
In his memorable treatise, "Buddha and future of His Religion", after comparing Buddhism with Hinduism, while comparing Buddhism with other non-hindu religions, Dr. Ambedkar concludes by enumerating the tests a religion must pass:
"(i) That society must have either the sanction of law or the sanction of morality to hold it together. Without either society is sure to go pieces. In all societies law plays a very small part. It is intended to keep the minority within the range of social discipline. The majority is left and has to be left to sustain its social life by the postulates and sanction of morality. Religion in the sense of morality, must therefore, remain the governing principle in every society.
(ii) That religion as defined in the first proposition must be in accord with science. Religion is bound to lose it respect and therefore become the subject of ridicule and thereby not merely lose its force as a governing principle of life but might in course of time disintegrated and lapse if it is not in accord with science. In other words, religion if it is to function, must be in accord with reason which is merely another name for science.
(iii) That religion as a code of social morality, must recognize the fundamental tenets of liberty, equality and fraternity. Unless a religion recognizes these three fundamental principles of social life religion will be doomed.
(iv) That religion must not sanctify or ennoble poverty. Renunciation of riches by those who have it may be a blessed state. But poverty can never be. To declare poverty to be a blessed state is to pervert religion, to perpetuate vice crime, to consent to make earth a living hell."
Dr. Ambedkar asks, which religion fulfills these requirements today, reminding that the days of the Mahatmas are gone and the world cannot have a new Religion. It will have to make its choice from existing religions. Some of the religions might satisfy one or two tests but Buddhism is the only religion satisfying all tests. He observes:
"So far as I know the only religion which satisfies all these tests is Buddhism. In other words Buddhism is the only religion which the world can have. If the new world - which be it realized is very different from the old - must have a religion - and the new world needs religion for more than the old world did - then it can only be religion of the Buddha." [Buddha and future of his religion", p. 9]
"Could the Buddha answer Karl Marx?"
Admitting that all this may sound very strange, because most of writers on Buddha have propagated the idea that the only thing Buddha taught was Ahimsa. It is true Buddha taught Ahimsa, he says, he does not want to minimize its importance, because it is a great doctrine and the world can not be saved without it. He further observes:
"What I wish to emphasize it is that Buddha taught many other things besides Ahimsa. He taught as a part of religion, social freedom, intellectual freedom, economic freedom and political freedom. He taught equality, equality not between man and man only but between man and woman. It would be difficult to find a religious teacher to compare with Buddha whose teachings embrace so many aspects of the social life of a people whose doctrines are so modern and whose main concern was to give salvation to man in his life on earth and not to promise it to him in heaven after he is dead." [Buddha and future of his religion", p. 10]
Dr. Ambedkar says many divergent views expressed about Buddha's teachings, including Samadhi, Vippasana, Esoterism etc. are because the authors are not students of Buddhism, but of history or anthropology. He asks "Did the Buddha have no social message?" If pressed for an answer, the Buddhist scholars admit that Buddha taught 1. Ahimsa and 2. Peace. But the real questions are seldom asked and replied. These are: Did the Buddha teach 1. Justice, 2. Love, 3. Liberty, 4. Equality, 5. Fraternity, and 6. "Could the Buddha answer Karl Marx?" He further avers that "My answer is that the Buddha has a social message. He answers all these questions. But they have been buried by modern authors." ["Buddha and His Dhamma", book III, part II, sec. 1. (p. 159)]
The Proof of Buddhism superseding Marxism
It is well known that His Holiness Pope John Paul II, does not have much love about Buddhism. Also John L. Allen Jr., recently reported in National Catholic Reporter, of Feb. 26, 1999, that the Cardinal Joseph Ratzinger, in 1997,
"had riled Buddhists when he called the religion an "autocratic spirituality" that seeks "transcendence without imposing concrete religious obligation." He also suggested that Buddhism would replace Marxism as the church's biggest foe by 2000."
If Buddhism is being replacing Marxism, by authorities like above, as per Laws of Contradictions by Mao himself, it shows a great future for Buddhism in World affairs. And Ambedkar's prophecy will come true sooner than later.
Bahujan Parties veiled communal-Casteist face of Congress and Certified it Secular !
In fact aware section of common masses have been realizing that Communal-Casteist Congress was never secular and is inseparable part of Sangh-Parivar. It has becoming increasingly clear that :-
1) It was hypocrite Mohandas Karamchand Gandhi of communal-casteist Congress who did not want independence of India if OBC, Dalit, Muslim Adivasi are placed equal with the Arya-Brahmins. Therefore he sat on hunger strike until death to compel Dr. B. R. Ambedkar to withdraw the separate electorate granted for Dalits by then British prime minister. Through Poona Pact he compelled Dalits to surrender separate electorate which was invaluable political weapon of Dalits that not only ensured their every protection but would have made the indigenous Bahujans ruler of their country through the following process :- 1) Because in separate electorate voters were only Dalits hence they would have elected staunch revolutionary Dalits. Though the separate electorates were few in number their voice could not have been denied as it being the voice of whole Dalits. 2) In addition to voting right in separate electorate, the Dalits also had right to vote in joint electorate. With this vote they would have elected those Non Arya-Brahmin candidates who are committed to Bahujan interest. This would have soon ousted the Arya-Brahmin rule from India.
After Poona pact, communal-casteist Congress with Arya-Brahmin votes elected their Dalit stooges who for their selfish interests helped Arya-Brahmins to exploit OBC, Dalit, Muslim, Adivasi indigenous masses in every respect. That is why communal-casteist Congress and its stooges are glorifying "Poona Pact' day as Dalit rights day which is nothing other that "stooge-rights day".
2) Under the leadership of Communal-casteist Congress handed over areas dominated by Dalits, Chakma andother militant communities where Muslims were in minority. These areas were Jassor, Khulana, Barishal, Faridpur, Dhaka and Maimansingh province. They were handed over to Pakistan to establish Arya-Brahmin political hegemony in west Bengal and punish Bengali Dalits who had elected Dr. B. R. Ambedkar on constituent assembly when communal-casteist Congress had sworn to keep him out of constituent assembly. In Chittagong hills 98% of Chakma believed in Buddhism through the ages. This was the only region devoid of Hindu or Muslim population. In spite of that the whole region was handed over to Pakistan by Arya-Brahminist rulers to see that Arya-Brahmin rule remain intact in West Bengal. Arya-Brahmins are still avenging Bengali refugees in worst possible satanic ways. For complete details please log on to our blog at http://sheetalmarkam.wordpress.com and please read "Arya-Brahmin Vengeance on Bengali-Tamil Dalits & Chakma Adivasi Indigenous Refugees"in " Arya-Brahmin vengeance" category of the blog.
3) It was communal-casteist Congress which to protect Arya-Brahmin rule partitioned motherland into India and Pakistan and unleashed communal carnage on indigenous masses to keep them divided in communal frenzy. This ensured that indigenous Muslims and non-Muslims who originally belong to Nag-Dravid community keep on killing each other, shall always remain deprived and will never unite to oust their common Arya-Brahmin enemy.
4) Dr. Ambedkar wanted to make provision of reservation for backward Muslims through Indian constitution. He tried to persuade Maulana Abul Kalam Azad in this regard. But Mr. Azad who was an upper caste Muslim leader of communal-casteist Congress accused Dr. Ambedkar that he was trying to divide Muslims and refused the offered reservation for backward Muslims.
5) Jawaharlal Nehru and his company wanted to create disturbances in Islam. They were successful in keeping provision of common civil code in article 45 which was brought to meet their intention of creating disturbances in Islam. No upper caste Muslim leaders opposed the provision.
6) It was Nehru the leader of Communal casteist Congress who had issued instructions that Muslims should not be appointed in military and other services. (Dalit Voice, 1-15 May2001) George Fernandez had revealed that Mrs. Gandhi the leader of communal-casteist Congress before the 1971 war in Bangla Desh had issued an order to chief ministers of Indian states that No Muslims be appointed in Army and on important posts. (Nav Bharat, 30 September 2003) Then home minister of Congress Mr. Govind Vallabh Pant had issued an order that Muslims should not be appointed in Army or their appointment should be kept minimum. The order issued by him is still effective because no government until now made it null and void. (Nav Bharat, 13 April 2006)
7) In year 1935 Arya-Brahmins were 3% in bureaucracy. The communal-casteist policies of Nehru and its communal-casteist Congress raised Arya-Brahmin strength in services from 3% to 70%. till 1989.(V.T. Rajshekar, Dialogue of the Bhudevtas)
It was communal-casteist congress which enforced in Indian constitution the provision of banning cow-slaughter through article 48 forgetting that cow-flesh is cheap and is eaten as food my Christians, Muslims as well as by Hindu castes. The number of cow-eaters is more among non-Muslims than the Muslims. Upper caste Muslims and upper caste Christians did not oppose the article.
9) It is communal-casteist Congress which has kept OBC away from their legitimate reservation. Communal-casteist Congress refused to appoint commission to determine OBC reservation. When Dr. Ambedkar resigned from government in protest of this and threatened to launch agitation, communal casteist Congress appointed Kaka Kalelkar Commission and did not implement its recommendations to give 52% reservations to OBC. Kaka Kalelkar himself a Brahmin and leader of communal-casteist Congress wrote in his personal letter to Nehru not to implement the recommendations of his commission. After decades Mandal commission was organized to decide OBC reservation. Again it was communal-casteist Congress which did not implement OBC reservation recommended by Mandal Commission.
10) It was communal-casteist Congress who to sidetrack the issue of implementation of Mandal commission recommendations to OBC engineered operation blue star and demolished golden temple of Sikhs in Amritsar. The whole country was kept charged with the communal frenzy in which OBC issue was completely sidetracked.
11) Communal-casteist Congress to sidetrack the issue of OBC reservation sent so called peace keeping force in Shri Lanka.
12) Communal casteist Congress to sidetrack the issue of OBC reservation had laid the foundation of demolition of Babri Mosque. Then deputy commissioner of Faizabad Mr. K. K. Nair issued an administrative proposal on 10th October 1949 to general administration that a Ram temple be build in Ayodhya. Few months after that stealthily a idol of Rama was installed in Babri Mosque and the very next day the mosque was locked and Muslims were prohibited from performing Namaz in Babri mosque. (In 1983 Indira Gandhi had took out Hindu Ekatmta Yatra.) In the regime of communal-casteist Congress Mr. Arun Nehru minister of communal-casteist Congress opened gates of Babari mosque for Hindus to offer prayers to Ram idol (installed earlier) implementing the order of a Brahmin judge Mr. Pande. While the Hindus were allowed prayers in mosque, Muslims were prevented from performing Namaz. Prime minister Rajeev Gandhi of communal-casteist Congress Performed Shilanyas in 1989 and had announced RamRajya. Communal casteist Congress let the Babri Mosque to be demolished. Mr. P. V. Narsingha Rao of communal-casteist Congress on TV happily watched Babri Mosque being demolished. The whole country was again thrown into communal carnages. Congress leaders actively helped in these carnages and genocides with the parties openly declared as communalists.
13) It was communal-casteist Congress which had created state sponsored genocides of Sikhs all over India and Delhi.
14) It is communal-casteist Congress which did not do anything to punish the culprits of Sikh carnages.
15) According to the Hitwada (6 November 2004) Arya-Brahminists of communal-casteist Congress riding Indian government gave 1.5 million dollar amount to then Punjab governor Mr. Surendra Nath so that in Punjab (in the name of Khalistani militants) and in Kashmir (in the name of Muslim terrorists) such terrorist activities should be executed which will make them unpopular and people will hate them. terrorist CAT force was formed which accomplished this task. It is alleged that Arya-Brahmins riding Indian government killed 115000 (One Lac fifteen thousand) Sikhs in Punjab since 1984, since 1947 killed 150000 Christians in Nagaland and since 1988 killed 43000 Muslims in Kashmir.
16) It is under the rule of communal-casteist Congress that Arya-Brahmins ensured that no killer of Dalits and Muslims be punished. Communal-casteist Congress never implemented decisions of Commissions such as Shrikrishna Commission to punish culprits of communal riots.
17) Forget about, common masses even the communal-casteist Congress did nothing to save family of its own member of parliament in genocide of Muslims in Gujarat. The sister of late Ahsan Jafari the member of parliament accused that when rioters were attacking their house, her brother on phone requested every leader and officer including Mrs. Sonia Gandhi to protect them from the rioters but no action was taken. (Nav Bharat, 15 December 2002) It is accused that workers and leaders of the communal-casteist Congress actively participated in the genocide of Muslims in Gujarat.
Congress has engineered genocides of Muslim all over India having mutual understanding with fascist Sangh-Parivar organizations. An Ex-chief minister of communal-casteist Congress has admitted in his autobiography that communal riot in Bhagalpur was engineered by then chief minister. But communal-casteist Congress took no action in this regard. (Lokmat Samachar, 3 August 2005) it was communal casteist Congress who advised president Abdul Kalam that using his special privileges he should not deliver to Nanawati Commission investigating Gujarat riots the copies of letters that then president of India K. R. Narayanan (Dalit) had written to then prime minister Mr. Atal Bihari Vajpeyi to take immediate measures to stop Gujarat riots. (Samrat, 25 September 2005)
18) It was Narsingha Rao, the prime minister of communal-casteist Congress government, in order to make reservation meaningless had started privatization of government units because in private industries there is no reservation. Thousands of reserved jobs were thus instantly abolished and Arya-Brahmin boys and girls occupied these jobs in privatized units. Communal-casteist Congress had intensified the policy of liberalization, globalization and privatization in the interest of Arya-Brahmins while making the life of Bahujans hellish.
19) It is communal-casteist Congress which is implementing policy of "Special Economic Zones" and uprooting millions of OBC, Dalit, Muslim, Adivasi Bahujans from their ancestral homes and making their life hellish. This is being done to ensure high posts for their Arya-Brahmin boys and girls in these SEZs which are given status analogous to "foreign territory' where they have every facility to loot the country and the workers without fear.
20) It is communal-casteist Congress which in collaboration with communal-fascist BJP is performing genocides and rapes of Adivasi through "Salva Judum" campaign of state sponsored private armed forces. Salva Judum is being launched with intention to extinct Adivasi from their ancestral land so that their land can be occupied by Multinational companies for mining precious minerals.
21) It was communal-casteist Congress which while its rule in Orissa, had ensured jobs for their Arya-Brahmin women by implementing women's reservation in Orissa without providing quota for OBC, Dalit, Muslim and Adivasi women in women's reservations. Communal-casteist Congress very well knew that because OBC, Dalit, Muslim and Adivasi women's quota is not decided hence they shall be at liberty to select their Arya-Brahmin women on jobs blaming OBC, Dalit, Muslim and Adivasi women "not suitable".
22) It is communal-casteist Congress in unison with fascist BJP and Arya-Brahmin fake communist leadership are yearning to implement women's reservation bill in parliament without ensuring Quota of OBC, Dalit, Muslim and Adivasi women because they want to grab entire seats for their Arya-Brahmin women.
23) Adivasi land bill had made obligatory for Kerala government to ensure return of the Adivasi land to Adivasi which was grabbed by non-adivasi. It was communal-casteist Congress which along with its Brahmin fake communist leadership of CPM and CPI ensured that the bill shall never be implemented in Kerala. They shamelessly kept on amending the bill and prevented Adivasi land to be handed over to the Adivasi masses.
24) It was communal casteist Congress who executed genocide of Adivasi in Muthanga forest. These Adivasis had made settlement at Muthanga barren land and made it their haven were demanding Congress government to fulfill their agreement with Adivasi leader C. K. Janu and allot them the land as per written agreement between them. Communal casteist Congress in unison with Brahmin fake communist leadership of CPI and CPM have been evicting Adivasi from their land and selling the land to the land Mafia. (for complete details please read our Hindi awareness book "Brahmanwad Ki Giraft Me Dam Todata Samyavadi Inkelab by Sheetam Markam pp. 480, price Rs. 150/- send MO to Mrs. Sujata Wasnik, 14, Thaware Colony, Nagpur – 440014 (India)).
25) It is communal-casteist Congress which took no action against the fake communist government of West Bengal which was perpetrators of genocides of Bengali Dalit refugees settled in Morichjhapi of Sunderban. This genocide of Dalits was greater than the alleged genocides committed by Hitler.
26) It is communal-casteist Congress which had done everything to protect the fascist government of West Bengal lead by Arya-Brahmin fake communist leadership which had executed state sponsored genocides, rapes and mutilation of genitals of OBC, Dalit, Muslim, Adivasi women in Nandigram.
27) It is the communal-casteist Congress which is compelling scavengers to carry human excreta on their head. Communal-casteist Congress, communal-fascist BJP and Arya-Brahmin fake communist leadership do not want abolition of this inhuman system as they want Valmiki community to remain below animal level.
28) To further make Valmiki community dependent upon Arya-Brahmins the communal casteist Congress in unison with communal-fascist BJP and Arya-Brahmin fake communist leadership privatized scavenging services. As a result Arya-Brahmin owned organizations such As Sulabh having contracts with state and local administrations construct Lavatories in public places and appoint scavengers at meager wages and earn fabulous profit. Communal-casteist Congress, communal-fascist BJP and Arya-Brahmin fake communist leadership could have formed societies of Valmiki community and could have given them contracts to build lavatories etc and run the whole sanitary services. But how can these Arya-Brahmins do that because their only intention is to transform Valmiki community below the status of filthy animals.
29) In the foreground of Jaipur high court a statue of Manu was inaugurated on 28 June 1989 in the presence of then chief minister of fascist communal-casteist Congress. According to Manu Brahmins own everything that exists in world and every property of non-Brahmins belong and Brahmins even the Brahmins can can execute massacres of non-Brahmins.
Above mentioned example are few among the thousands. They make it crystal clear that communal-casteist congress, communal-fascist BJP and Arya-Brahmin fake communist leadership are inseparable part of fascist Sangh-Parivar committed to reduce indigenous Bahujans below the level of filthy animals.
From the very begining a systematic, intensive propaganda is being carried out through OBC, Dalit, Muslim Adivasi stooge leaders, stooge Bahujan intellectuals and stooge journalists at national and international level to hide the Communal-Casteist and fascist face of Congress. Intensive attempts are being made to retain the illusion that Congress is secular party. Many Bahujan journalist have also under the influence of this illusion keep on asserting that Sonia Gandhi is secular and well-wisher of Bahujans while few elements in Congress such as Manmohan Singh are communal and anti-Bahujans. They have repeatedly made open appeals to Sonia Gandhi through their writings to check these anti-Bahujan Congressmen. This was made to create illusion that Sonia Gandhi is savior of Bahujans. This propaganda of so called Dalit-Bahujan journalists has helped to hide dirty fascist communal face of Communal-Casteist Congress.
Lalu Prasad Yadav, Mulayam Singh Yadav, Ramvilas Pasvan etc. have been allying with Communal-Casteist Congress and vehemently certified that Communal-Casteist Congress is secular and well-wisher of Bahujans. Mulayam Singh Yadav, Lalu Prasad Yadav, Ramvilas Pasvan have been repeatedly vouching to remain faithful soldiers of Sonia Gandhi the leader of communal-Casteist Congress. Even BSP did not lag behind in vouching Communal-Casteist Congress as secular party as it has been declaring its unconditional support to congress government at centre from outside. These supports created illusion that Communal-Casteist Congress is secular and well-wisher of Bahujans. Therefore unaware Bahujan section considered their worst enemy as their best friend and savior. This ensured that when Communal-Casteist Congress is in position to defeat fascist BJP the indigenous masses will vote Communal-Casteist Congress to prevent fascist BJP from coming to power.
Now when the communal-casteist Congress has captured the crown, BSP has again declared its unconditional support to Communal-Casteist Congress government from outside. This decision of BSP makes it clear that like other parties of OBC, Dalit, Muslim Adivasi BSP leaders also want to consider enemies of Bahujans as their friends because of their selfish interests. BSP founder Kanshiram used to call Communal-Casteist Congress and communal-fascist BJP as Snakes and Kobra. Kanshiram occasionally allied with them to benefit party and mission from their contradictions. While doing this he made it crystal-clear to his party workers and Dalit masses that these parties of Arya-Brahmin leadership are their worst enemies.
By certifying communal-casteist Congress as secular the parties of OBC, Dalit, Muslim and Adivasi have dug their own grave and are about to be pushed into this very grave they have dug for themselves.
Arya-Brahmin fake communist leadership ensured Anti-Congress Secular Votes go waste !
But above measures alone were not enough to ensure Arya-Brahminist crown. It also needed that anti-congress secular votes do not go to Parties of Bahujan leadership. Therefore, Arya-Brahmin fake communist leaders deliberately created a weak third front that will waste a significant number of anti-Congress secular votes. To ensure that the so called third front remains weak, name of Mayawati was brought into third front with the active support of BSP general Secretary Satish Mishra (Brahmin) only to keep Mulayam Singh Yadav out of the third front. In spite of their declaring BSP as part of third front Mayavati had no alliance with third front parties and she contested election single handedly. This makes it clear that her inclusion in third front was simply an illusion created to keep Mulayam out of third front in the interest of Arya-Brahmin crown. Mayavati also allowed this illusion to linger simply to prevent Mulayam Singh Yadav from joining third front and getting whatever little help the third front parties would have caused if he had joined the third front. She had also feared that inclusion of Mulayam may have paved a way for Lalu Prasad Yadav and Ramvilas Paswan to join the third front and become her formidable rival.
Arya-Brahmin fake communist leadership leading the so called third front supported the stooges and worst enemies of Bahujans having secular mask on their dirty face. For example, one Yashvant Manohar from Nagpur having a reputation of a Bahujan thinker and a literary personality was supported by the Arya-Brahmin fake communist leadership. Manohar turned to be a worst enemy of Bahujans as he made propaganda in support of Poona-pact asserting that Poona-Pact has ensured Dalit rights. This meant that communal and racist Mohandas Karamchand Gandhi who fasted to death and compelled Dr. Ambedkar to sign Poona Pact was savior of Dalits and Dr. Ambedkar who opposed Poona pact (and kept on repenting for signing Poona pact) was therefore enemy of Dalits. Arya-Brahminists have been supporting such traitors to glorify Poona pact. One of such traitors is Dr. Tulsiram who dance at the tune of the Arya-Brahminists in support of Poona pact. His one such article is published in Daily Lokmat Samachar (7 June 2009) which is run by a leader of communal-casteist Congress.
Arya-Brahmin fake communist leadership supported degraded Dalit-Bahujan candidates posing them secular and progressive to benefit Communal-Casteist Congress and bring Arya-Brahmin rule in India.
Indirect Support of Arya-Brahmin fake Maoist Leaders to Brahminist Organizations.
It is well established fact that when the exploiter class can not retain power through parliamentary fake democracy they shed their lamb's skin and show their true cruel wild face and impose dictatorship. Once the parliamentary fake democracy is abandoned, the exploiters come into their true face disillusioning vast number of toiling indigenous masses. Then the struggle reaches to higher level and leaders belonging to electioneering parties either have to 1) become inactive and live politically isolated life 2) become lackeys of exploiter class or 3) become revolutionary. Therefore the struggle becomes more bitter and straight forward.
Maoists would have facilitated the success of candidates who are sympathetic towards their struggle and have exerted pressure on these candidates to remain faithful with people. This would have reduced their oppression and misery to great extent. This would have soon resulted in abandonment of parliamentary fake democracy by the Arya-Brahmin exploiter class of India. But the Arya-Brahmin fake Maoist leadership have been spoiling this opportunity deliberately to save Brahminism by enforcing election boycott. This election boycott has caused anti-state terrorism votes to go waste and help the Arya-Brahmin fascist parties to again come to power. The repeated victory of the same oppressor Arya-Brahmin parties has put Maoists in a very precarious position strategically because these Arya-Brahminist parties are in position to ascertain that all the claims of Maoists are fake because "If through Salva Judum and other forms of state terrorism massacres, mass-rapes, mass lootings, devastations, etc. are made, democracy is abandoned and rulers have became tyrants then how people have repeatedly voted in favor of the same rulers ? " Maoist parties have no answer to this argument. Once the victory of the same Arya-Brahmin exploiter party is repeated they get license to unleash all forms of more intensive brutal attacks on the toiling indigenous masses.
Therefore victory of Brahminist parties in Naxal affected belts is solely due to Arya-Brahmin leadership of Maoist parties.
Arya-Brahminists are Enemy of Indigenous Bahujans
Bahujans should realize that the Congress, BJP, Communist etc. parties of Arya-Brahmin leadership have always opposed Mulniwasi rights in the interest of their Savarna community. Did not all the parties of Arya-Brahmin leadership in power delayed OBC reservation over half century ? They declared OBC reservation "in part", only when the liberalization, privatization and globalization could be implemented to finish the reservation. Why reservation in the judiciary is not implemented till this date ?, Why reservation quota is deliberately not filed ?, Why governments tolerated defying of Indian constitution and delivering anti Bahujan judgments by the Arya-Brahmin judiciary ? Arya-Brahmins loot us claiming our welfare. Claiming Dalit welfare they imposed Puna pact and created brigade of Dalit stooges and swallowed our rights one by one. In the name of development we Adiwasi are sent homeless and jobless; Claiming our emancipation through employment guarantee scheme existing facilities and subsidies are being removed in the pretext of creating fund for this scheme which is fraud to extract money for Arya-Brahmin industrialists. The scheme claims to give 100 days work @ 60/- rupees per day to one member of a family. If on the average each family has 5 members then each family member will get only three rupees twenty nine Paisa daily as a result of this scheme (60 X 100) / (5 X 365). Who can forget that America killed millions of people in Iraq, Afghanistan and other parts of the world claiming their liberation and welfare. Such are the shameless methods of Arya-Brahminits throughout the world.
Thousands of such questions lead us to only the conclusion that All parties of Brahmin leadership are enemies of Bahujan interest. We can only hate Arya-Brahmin leaders for whatever they have done to us. Only the open or disguised lackeys or persons with slave mentality can praise or sympathize Arya-Brahmin enemies.
Hoping Our welfare from Enemy is Futile
Is there any use in convincing the exploiters not to exploit ? How can you convince your exploiters to stop exploitation and give Bahujans their due share and rights ? They deny our Bahujan women the reservation in "Women's reservation bill " because they want all seats for their Arya-Brahmin women. They curse us vehemently of dividing women in castes and call themselves apostle of "women equality". If we demand reservation which is right of our community share, they will curse and call us "anti-equality", "disturbing communal harmony" and "dividing the country". On cunning pretexts such as "creamy layer", reservation is denied to well to do OBC, and the poor OBC candidates are denied calling them "not suitable". They will displace us from our century old homes and area which we love most. If we protest they will curse calling us "anti-development". They will demolish our little huts, destroy our life and praise themselves for cleansing dirt and converting city into Shanghai. They will provide cheap electricity, water, land and huge public fund to their Arya-Brahmin industrialists, allow them to loot banks and thus loot the middle class investors. If we object they will curse and call us "anti-industrial growth". They will abolish or reduce subsidies on essential items given from our own public money and transfer this amount to their Arya-Brahmin Industrialists. If we protest they will give us advice to "leave this begging attitude and be self-reliant".
How can we convince the exploiters not to exploit, not to deprive us from our rights and our legitimate share ? Have ever anybody in the word in the history of whole mankind has succeeded ?Nobody have succeed in convincing exploiters. Then why to engage in this futile attempt ? Why keep any hope in enemies ? Why not develop our strength to such height that the exploiter enemy has only alternative to concede our rights.
Why repeat futile unproductive neurotic actions ? Refute any activity which lead us to frustration and strengthen the oppressors. Treat enemies as enemies and friends as friends. When the Congress, BJP, communist etc., parties of Brahmin leadership are enemies of Bahujan interest then why to keep any hope from them ? Why to sympathize or praise their leaders ? Why to vote for enemy parties ? Why not analyze carefully every bait put forth by them ? Unless we do that we can not save ourselves from being cheated and treated as fools by the Arya-Brahmin oppressors. Let us not engage in any activity that does not lead to strengthen our struggle and weaken our enemies. If we have that determination then only we can free ourselves from exploitation. Therefore, consider class and community character of a person. Accordingly analyze his strength, limitations and his motives. If we do not break these fetters then our several generations would remain slaves in Manucracy which is great agony than dying as a lion.
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आरएसएस का भयंकर खेल,असम में हालात पंजाब और गुजरात से भी भयंकर! हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर असम के विभाजनपीड़ित हिंदुओं के लिए डिटेंशन कैंप,15 हजार हिंदुओं को असम छोड़ने का अल्टीमेटम! पलाश विश्वास
आरएसएस का भयंकर खेल,असम में हालात पंजाब और गुजरात से भी भयंकर!
हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर असम के विभाजनपीड़ित हिंदुओं के लिए डिटेंशन कैंप,15 हजार हिंदुओं को असम छोड़ने का अल्टीमेटम!
पलाश विश्वास
पूर्वी भारत के साथ पूर्वोत्तर भारत हिंदुत्व का नया वधस्थल बन रहा है।असम गुजरात के बाद हिंदुत्व की घोषित दूसरे चरण के भगवाकरण भूकंप का एपीसेंटर है,जो अपने तेज झटकों से बाकी देश में तबाही मचाने की तैयारी में हैं।
शरणार्थी समस्या दुनियाभर में अब सत्ता का सबसे खतरनाक खेल बन गया है।जाति,धर्म,रंग नस्ल के विविध आयाम के साथ उग्र दक्षिणपंथी फासिस्ट राजकाज और मजहबी सियासत से पूरी दुनिया का नक्शा शरणार्थी सैलाब से सरोबार है तो आइलान की लाश मृत मनुष्यता का ज्वलंत प्रतीक है और नस्ली घृणा तेलकुँओं की आग है।
तीसरा विश्वयुद्ध शुरु है और राष्ट्रों के भीतर बाहर बहुत कुछ टूट बिखर रहा है सोवियत संघ की तरह।ट्रंप की ताजपोशी के सात ग्लोबल हिंदुत्व की जायनी विश्व व्यवस्था में सोवियत संघ का इतिहास हिंदुत्व के नाम नस्ली गृहयुद्ध की उल्फाई आग भड़काकर वैदिकी हिंसा की तर्ज पर धर्म कर्म राजकाज के नाम राम के नाम दोहराने का बेहद राष्ट्रविरोधी खेल,मनुष्यता और प्रकृति के खिलाप खेल रहा है संघ परिवार और दांव पर लगा दी है एकबार फिर विभाजनपीड़ितों की जान माल जिंदगी और नागरिकता।
हमारे लिए यह बहुत मुश्किल समय है।बंगाल से बाहर देश भर में और सीमा के आर पार विभाजनपीड़ितों की दुनिया में हमारी जिंदगी गूंथी हुई है।हम अपनी ही जनता,अपने ही स्वजनों की व्यथा कथा को नजरअंदाज करके राजनीतिक विशुद्धता ,मत मतांतर और विचाधारा के बहाने शरणार्थी आंदोलन से अलग हो नहीं सकते।
अब तक चूंकि शरणार्थी और उनके नेता उम्मीद लगाये बैठे थे कि नागरिकता कानून बदलकर बंगाली हिंदू विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीनकर उन्हें विदेशी घुसपैठिया करार देकर खदेड़ने का अभियान चलाने वाली भाजपा फिर उनकी नागरिकता बहाल करेगी,हमने अपनी राय सार्वजनिक करके उनके आंदोलन की दिशा को प्रभावित करने से बचना चाहा है और नेतृत्व से मतभेद के बावजूद अपना मत सार्वजनिक नहीं किया है।लेकिन जब भी शरणार्थी आंदोलन के मंच से बोलने का मौका लगा है हमने हर बार उन्हें खुले शब्दों में शंग परिवार के खतरनाक खेल के बारे में चे चेतावनी जरुर दी है।
हमारे लोग असहाय हैं और सत्ता पर भरोसा का विकल्प उनके पास कुछ भी नहीं है।संघ परिवार पर उनके भरोसे या भारतीय बहुसंख्य जनता की हिंदुत्व में परंपरागत अटूट आस्था या लोक संस्कृति की वजह से हिंदुत्व के एजंडे के तहत इस्तेमाल की चीज बन जाने की उनकी नियति की वजह से हम उन्हें अपना स्वजन मानने से इंकार करने वाले क्रांतिकारी नहीं बन सकते। हम उनके विवेक पर भरोसा बनाये रखकर बदलाव की कोशिश में जरुर लगे हुए हैं।
अगर भाजपा की सरकार देश भर में नागरिकता ,आरक्षण, मातृभाषा से वंचित शरणार्थियों की नागरिकता और उनके हक हकूक को बहाल करती तो यह हमारे लिए राहत की बात होती।इसलिए हमने अब तक हर हाल में अपने को हाशिये पर रखते हुए शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं का समर्थन किया है।
अब जो हालात बन रहे हैं वे इतने भयंकर हैं और सर्वव्यापी तबाही का मंजर है कि उनसे शरणार्थी,विभाजनपीड़ित हिंदू और मुसलमान के अलावा देश के हर हिस्से में भारत के लोग और सीमापार के लोग भी संघ परिवार के इस खतरनाक खेल में मारे जायेंगे तो शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं को अपना बिना शर्त समर्थन जारी रखते हुए सच का सार्वजनिक खुलासा करना ही होगा।
हम यह नहीं जानते कि इस सार्वजनिक खुलासे के बाद हिंदुत्व की पहचान से नत्थी विभाजनपीड़ितों की राय हमारे बारे में कितनी बदलेगी।
फिरभी वक्त का तकाजा है और चूंकि अब शरणार्थियों और शरणार्थी नेताओं को पता चल जाना चाहिए कि उनके हक हकूक दिलाने और कम से कम उनकी नागरिकता बहाल करने में संघ परिवार की कोई दिलचस्पी नहीं है।उनका रवैया वही है जो बंगाल, पंजाब, कश्मीर और सिंध के विबादजन पीड़ितों के प्रति विभाजन से पहले,विभाजन के दौरान रहा है,यह खुलासा अनिवार्य है.इससे जिनकी भावनाओं को ठेस पहुंचने वाली है,वे हमें माफ करें।
गैर असमिया भारतीय नागरिकों के लिए असम मध्य एशिया के मंजर में तब्दील है और भारत विभाजन के शिकार शरणार्थियों के नस्ली कत्लेआम अब हिंदुत्व का एजंडा है।तो बाकी लोग बी इस नरसंहार संस्कृति से जिंदा बच जायेंगे ,ऐसे आसार बेहद कम हैं।अहमिया सत्ता वर्ग अपने अलावा असम में किसी को मूलनिवासी मानता नहीं है जबकि ग्यारहवीं सदी में म्यांमार से आने के बाद उनका हिंदुत्वकरण हुआ है।
असम और पूर्वोत्तर के मूलनिवासी आदिवासी भी इस अल्फाई आतंकवाद के निशाने पर हैं।गैरअसमिया भारत के हर राज्य के नागरिक अब असम में विदेशी घुसपैठिया है।केसरिया हो रहे भूगोल के हर हिस्से में अब हर दूसरा नागरिक अवांछित शत्रु है जैसा अमेरिका में ट्रंप के राजकाज में हो रहा है और यूरोपीय समुदाय के विखंडन के बाद इंग्लैंड समेत समूचे यूरोप के मध्य एशिया में तब्दील होने पर होते रहने का अंदेशा है।
मनुष्यता और प्रकृति,मौसम,जलवायु और पर्यावरण लहूलुहान हैं।
अस्सी के दशक में असम और त्रिपुरा में जो खून खराबा हुआ,आने वाले वक्त में उससे भयंकर खून खराबे का अंदेशा है।गुजरात और पंजाब से भी भयंकर हालात असम में अल्फाई संघ परिवार के राजकाज में बन रहे हैं।
हम तीसरे विश्वयुद्ध में फंस गये हैं और चप्पे चप्पे पर गृहयुद्ध है।इसी गृहयुद्ध का नजारा असम,बंगाल और सारा पूर्वोत्तर है।
हिंदुत्व के नाम मुसलमानों के खिलाफ निरंतर घृणा अभियान की आड़ में असम में साठ के दशक से लगातार यह हिंसा जारी है।राम के नाम सौगंध और सिख नरसंहार,गुजरात नरसंहार तो इस मुकाबले ताजा वारदात हैं।बाकी देश में हिंसा के बीड रह रहकर अंतराल है तो असम घटनाओं की घनघटा है और हिंसा की सिलसिला अंतहीन।वही असम अब संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा का भगवा नक्शा है।
ताजा खबर यह है कि जिन हिंदू बंगाल शरणार्थी वोट बैंक के एक मुश्त समर्थन से संघ परिवार असम में अल्फाई राजकाज चला रहा है,उसके अंतर्गत अल्फाई उग्रवादियों ने पंद्रह हजार बंगाली हिंदुओं को विदेशी घुसपैठिया बताकर उन्हें असम छोड़ने का अल्टीमेटम दिया है तो असम सरकार विदेशी घुसपैठिया होने के आरोप में हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर बंगाली हिंदू शरणार्थी परिवारों को बच्चों और स्त्रियों समेत थोक पैमाने पर डिटेंशन कैंप में बंद कर रही है।
बंगाल में जितने बंगाली हैं,उनसे काफी ज्यादा बंगाली भारतभर में छितराये हुए हैं।पूर्वीबंगाल के दलित और ओबीसी जन समुदायों में,जिनमें ज्यादातर बंगाल और भारतभर में आजादी से पहले हरिचांद ठाकुर,गुरुचांद ठाकुर,जोगेंद्र नाथ मंडल और बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक की अगुवाई में बहुजन आंदोलन का नेतृत्व सन्यासी विद्रोह,नील विद्रोह से लेकर तेभागा आंदोलन तक करने वाले नमोशूद्र समुदाय के लोग हैं।इन्होंने ही पूर्वी बंगाल से गुरुचांद ठाकुर के पोते प्रमथ नाथ ठाकुर के साथ डा.बीआर अंबेडकर को संविधान सभा में चुनकर भेजा था।
पूर्वी बंगाल की दलित और ओबीसी जनसंख्या को भारत विभाजन के जरिये बंगाल से खदेड़ दिया गया जो भारत भर में केंद्र और राज्यसराकरों द्वारा पुनर्वासित किये गये हैं।पाकिस्तान के बंटवारे के बाद बड़ी संख्या में जो हिंदू शरणार्थी बांग्लादेश में निरंतर अल्पसंख्यक उत्पीड़न और हिंदू होने की वजह से भारत समर्थक और आवामी लीग समर्थक माने जाने के कारण राजनीतिक अस्थिरता और उथल पुथल की वजह से भारत में आकर बसे,उनमें से ज्यादातर बंगाल से बाहर हैं,जिन्हें आज तक नागरिकता,आरक्षण,पुनर्वास से लेकर मातृभाषा का अधिकार भी नहीं मिले हैं।
अंडमान निकोबार से लेकर उत्तर,दक्षिण,मध्य,पश्चिम भारत के अलावा वे बहुत बड़ी तादाद में बांग्लादेश से सटे असम और त्रिपुरा में बस गये हैं।ये लोग ही हिंदुत्व के एजंडे के नस्ली नरसंहार के मुताबिक चांदमारी के निशाने पर हैं।
दूसरी ओर,शरणार्थी पूर्वी बंगाल के जनपदों की तरह किसी भी जनपद में एक साथ बसे नहीं है।एकमात्र त्रिपुरा को छोड़कर सर्वत्र उनकी संख्या भी इतनी नहीं है कि वे अपने एमएलए ,एमपी,मंत्री वगैरह चुन सके।शरणार्थी सत्तापक्ष के बंधुआ वोटबैंक हैं और इस अपराध के लिए उन्हें निहत्था मरने को छोड़ने की विचारधारा हमारी नही है।
जाहिर है कि असम,त्रिपुरा,दंडकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत महाराष्ट्र, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,ओड़ीशा और आंध्र के अलावा उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड में भारी संख्या में विभाजनपीड़ितों के पुनर्वास के बावजूद विभाजनपीड़ितों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं है।उनकी विधानसभाओं या संसद में कोई आवाज नहीं है।इसलिए वे सत्तापक्ष के सहारे जीने को अभ्यस्त है चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो।अब वे राराज्य में वानर सेना है और रामभरोसे हैं तो हम इनका क्या कर सकते हैं।
समझ लीजिये कि उन्हें बंधुआ बनाने की तकनीक कितनी भयानक है।उत्तराखंड,ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्यों में जहां किसी विधानसभा इलाके में बंगाली या सिख पंजाबी शरणार्थी बहुस्ंख्य है,उन विधानसभा क्षेत्रों को टुकड़ा टुकड़ा बांटकर उन्हें फिर अल्पमत बना दिया गया है।
कुल मिलाकर हलात यह है कि सत्तादल और स्थानीय जनता के समर्थन के बगैर कहीं भी विभाजनपीड़ितों के जिंदा रहने के हालात नहीं है।
नतीजतन हमेशा शरणार्थी जीतने वाली पार्टी के साथ अपने गहरे असुरक्षाबोध की वजह से मुसलमानों की तरह एकमुश्त वोट करते हैं। इसी वजह से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड में इसी वजह से हिंदू शरणार्थी संघ परिवार का वोटबैंक है।बंगाल में भी हालत वहीं बन रही है जो असम में बन चुकी है।
चूंकि पंजाब और बंगाल के विभाजन पीड़ितों में विभाजन के बाद से विभाजन के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराने की मानसिकता कभी बदली नहीं है तो हिंदू हितों की दलीलों और हिंदुत्व एजंडा की वजह से पंजाब के अकालियों की तरह बंगाल में भी शरणार्थियों का सुर से केसरियाकरण हो गया है।
बंगाल से बाहर हिंदू बंगाली शरणार्थी हांलाकि कांग्रेस की जीत के वक्त कांग्रेस के हक में वोट करते हैं,जैसे ऐसा मुसलमान भी करते हैं,लेकिन जनसंघ से लेकर भाजपा जमाने तक हवा बदलते ही वे हिंदुत्व के एजंडे के हक में खड़े हो जाते हैं।
असम में अपनी सुरक्षा के लिए पहले कांग्रेस फिर असम गण परिषद को वोट देते रहने के बाद इस बार पहली बार भारत की नागिकता की उम्मीद में नागरिकता वंचित हिंदू बंगाल शरणार्थियों ने एकमुश्त संघ परिवार को वोट देकर उनकी सत्ता सुनिश्चित की है।
हिंदुओं को नागरिकता देने के झूठे संघी वायदे के फेर में बंगाल में भी शरणार्थी और मतुआ वोट बैंक अब संघ परिवार के साथ हैं।यूपी और उत्तराखंड में कमोबेश समीकरण वही है।शरणार्थी वोटबैंक की वजह से उत्तराखंड की तराई में संघ परिवार को बढ़त है।यूपी में भी पीलीभीत ,बहराइच,खीरी जैसे जिलों में यही हालत है।
अब जबकि असम में संघ परिवार के अल्फाई राजकाज के निशाने पर बंगाली हिंदू शरणार्थी हैं,तो यूपी और उत्तराखंड के शरणार्थियों को आसन्न विधानसाभा चुनावों में वोट डालने से पहले जरुर सोचना चाहिए कि वे किस हिंदुत्व के एजंडे के हक में वोट डाल रहे हैं।आगे देशभर में संघ परिवार उनका क्या करनेवाले हैंं।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में भी संघी राजकाज के अंतर्गत बंगाली भगाओ अभियान चालू है तो उत्तराखंड में भी नयी नागरिकता कानून बनने से पहले उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार नें बंगाली शरणार्थियों को भारतीय नागरिक मानने से इंकार कर दिया था।
तब उत्तराखंड के पहाडो़ं और मैदान के सभी वर्गों,मीडिया और गैरभाजपाई दलों के समर्थन में बंगाली शरणार्थियों के आंदोलन की वजह से भाजपा सरकार को पीछे हटना पड़ा था।विडंबना यह है कि बंगाली शरणार्थी वह हादसा भूलकर फिर चुनावी मौसम में केसरिया खेमे में हैं।
इस पर तुर्रा यह किअसम सिर्फ बंगालियों और मुसलमानों के लिए ही नहीं,हिंदी भाषियों, बिहारियों, राजस्थानियों के साथ साथ असुरक्षित है।साठ के दशक में असम में बंगाली भगाओ दंगे हुए तो राजस्थानियों और हिंदी भाषियों के खिलाफ भी वहां दंगे होते रहे हैं।कब असम में किस समुदाय के खिलाफ दंगा होना है,इसका फैसला भी मजहबी सियासत करती है और अंजाम देने की जिम्मेदारी उल्फाई उग्रवाद की है।
साठ के दशक के दंगों के दौरान मेरे पिताजी पुलिनबाबू ने दंगापीड़ित असम के हर जिले में शरणार्थियों के साथ थे और उन्होंने असम छोड़ने से उन्हें रोकने में भी कामयाबी पायी।वे तभी से मानते रहे हैं कि असम में इस दंगाई सियासत के पीछे संघ परिवार है।वे मानते रहे हैं कि असम के विदेशी नागरिकों के खिलाफ अस्सी के दशक में आसु और अगप के आंदोलन में संघ परिवार की खास भूमिका रही है।तमाम नामी संघी स्वयंसेवक असम में दंगा भड़काने का काम करते रहे हैं।
अस्सी के दशक से ही पुलिनबाबू लगातार देशभर में शरणार्थियों को संघ परिवार के हिंदुत्व के इस एजंडा के खिलाप चेतावनी देते हुए उनकी नागरिकता छिनने की आशंका जताते रहे हैं।लेकिन शरणार्थी जन्मजात नागरिकता की खुशफहमी में उन्हें नजरअंदाज करते रहे।
जून,2001 में उनकी मृत्यु के तत्काल बाद उत्तराखंड राज्य यूपी से अलग हो गया और वहां पहली सरकार भाजपा की बनते ही 1952 से तराई को आबाद करके तराई में सिख और पंजाबी शरणार्थियों के साथ पुनर्वासित तमाम बंगाली विभाजनपीड़ित शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया और इसी के साथ केंद्र में बनी पहली हिंदुत्व की सरकार के गृहमंत्री लौह पुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी ने 2003 में विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत जन्मजात नागरिकता खारिज करते हुए देश भारत में बसाये गये बंगाली हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता छीन ली।
धोखाधड़ी की हद है कि 1955 के संशोधित कानून नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों में संसोधन करके हिंदुओ को नागरिकता देने की बात कही जा रही है। जबकि 1955 के कानून में शरणार्थियों की नागरिकता में कोई बाधा थी ही नहीं।
खासकर दंडकारण्य के खनिजबहुल इलाकों में आदिवासियों को सलवा जुड़ुमे के जरिये बेदखल करने के बाद वहां आदिवासियों के साथ बसाये गये शरणार्थियों की नागरिकता छीनकर पूरा दंडकारण्य देशी विदेशी पूंजी को सौंपने का चाकचौबंद इतंजाम नया नागरिकता कानून है,जो संग परिवार बदलने वाला नहीं है।इसलिए नया नागरिकता संशोधन विधेयक ऐसे बनाया गया हो जो संसद में पास होना असंभव है।लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक के जरिये संघ परिवार को हिंदुओं के ध्रूवीकरण का खतरनाक वीभत्स खेल सुरुकरने का मोका मिला है और असम है।
अब मजे की बात यह है कि वही संघ परिवार,वही भाजपा,वही केसरिया सरकार उसी संशोधित नागरिकता कानून में विशेष प्रावधान के तहत हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के वायदे के साथ असम और दूसरे राज्यों में मुसलमानों के खिलाफ दंगाई मजहबी सियासत में लगी है और बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भी खदेड़ने का इंतजाम कर रही हैतो इसे न मुसलमान समझ पा रहे हैं और न हिंदू,न असम के लोग और न यूपी बिहार वाले या देश के तमाम दूसरे नागरिक या राजनीतिक दल।यह भी एक निहायत लक्ष्यबेधक सर्जिकल स्ट्राइक है और नोटबंदी की तरह निशाने पर देश की सरहदों के भीतर देस की अपनी गरीब बेबस जनता है।
सिर्फ असम नहीं,महाराष्ट्र में भी भगवा केसरिया राजकाज के अंतर्गत बंगालियों के अलावा यूपी के भइयों और बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़काना संघ परिवार का हिंदुत्व है।यूपी बिहार के लोग असम और महाराष्ट्र दोनों जगह भगवा केसरिया बजरंगवलियों के निशाने पर हैं।लेकिन बंगाली शरणार्थियों की तरह यूपीवालों और बिहारवालों को भी संघ परिवार के हिंदुत्व के एजंडे से खास परहेज नहीं है।इसीलिए बेहिचक यूपी जीतने के लिए नोटबंदी हो गयी क्योंकि यूपीवालों को बुड़बक समझकर छप्पन इंच का सीना और चौड़ा है।ट्रंप की वजह से पिछवाड़ा भी मजबूत है।
संघ परिवार को तिरंगा से ऐतराज है और जन गण मन की जगह संघ परिवार वंदे मातरम् को ही भारतीयता का संगीत मानता है।संघ परिवार हिंदू राष्ट्र रामराज्य भारत का झंडा भगवा बनाने का शुरु से पक्षधर रहा है और वह हिंदुत्व का प्रतीक भगवा झंडा भी बताता रहा है ,जो भारतीय इतिहास में कहीं लहराता दिखा नहीं है।
इसीलिए राजकाज की सर्वोच्च प्राथमिकता इतिहास बनान नहीं,इतिहास बदलना है ताकि उनके धतकरम को भारतीयता साबित किया जा सके।
गौरतलब है कि तथागत गौतम बुद्ध की क्रांति के बाद ब्राह्मण धर्म के पहले पुनरुत्थान महाराष्ट्र में ब्राह्मण पेशवा राज का यह भगवा झंडा संघ परिवार का असल एजंडा है।वही पेशवाराज,जिसकी लुटेरी सेना ने बंगाल,ओड़ीशा और बिहार के साथ साथ यूपी में भी लूटपाट तबाही मचाई थी।
चंगेज खान और तैमूर का इतिहास बांचने वाले पेशवा राज को भारत का भविष्य बनाने चला है।चूंकि मनुस्मृति विधान संविधान है संघ परिवार का।
दरअसल किस्सा यह है कि असम में सत्ता हासिल करने के लिए असम में बसे हिंदू बंगाली विभाजनपीड़ितों का समर्थन लेने के लिए उन्हें भारतीय नागरिकता देने के वादे की वजह से भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह फंस गई है।
असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की अल्फाई पृष्ठभूमि जगजाहिर है वे सिरे से बंगाली हिंदुओं के खिलाफ रहे हैं।हमने शरणार्थी नेताओं को बार बार इसकी चेतावनी दी है।बंगाली वोट के लिए हिंदुओं को नागरिकता देने का वायदा करके बंगाली हिंदू शरणार्थियों का मसीहा बनने की कोशिश में सोनोवाल बुरी तरह उलझ गये है।उनके अल्फाई पृष्ठभूमि अब उनकी सत्ता के लिए चुनौती बन गयी है।
मूल रूप से असम में आने वाले पूर्वी बंगाल और बाद में बांग्लादेश से आये हिंदू बंगालियों को नागरिकता देने के झूठे मकसद से असम और पूर्वी भारत,पूर्वोत्तर भारत के साथ साथ बंगाल में भी पेशवाई भगवा लहराने के एजंडे के साथ तैयार फर्जी नागरिकता (संशोधन) विधेयक सत्तारुढ़ भाजपा के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है।
इस परिस्थिति से घनघोर उल्फाई सियासत और राजकाज के तेवर में असम के मुख्यमंत्री सोनोवाल दुधारी तलवार पर टहलने लगे हैं ।एक ही सुर में वे मूलनिवासी असमिया नागरिक और हिंदू बंगाली शरणार्थी हित में जब तब हुंकारा भर रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार और प्राशासन की तरफ से पूरे असम को हिटलर के यातनागृह में बदल रहे हैं।नतीजा वही है,जो जर्मनी में यहूदियों का हुआ था।
हम शरणार्थियों की आम सभाओं में भी इस बारे में चेताते रहे हैं कि बंगाली शरणार्थियों को संघ परिवार कभी हिंदू नहीं मानता रहा है क्योंकि वे सारे के सारे अछूत या पिछडे हैं जो बंगाल समेत देश भर में ब्राह्मण और सवर्ण जमींदारों के साथ साथ ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पेशवा को हरानेवाली महार सेना की तरह हर आदिवासी और किसान विद्रोह के लड़ाका रहे हैं और भूमि सुधार का एजंडा भी मतुआ आंदोलन का है तो तेभागा आंदोलन की ताकत भी ये ही थे।
इसके अलावा अविभाजित बंगाल में ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता वर्ग और जमींदारों, नबाव के खिलाफ अछूत, पिछड़े,आदिवासी और मुसलमान प्रजाजन एक साथ थे।
मुश्किल यह है कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी भारत विभाजन के लिए जिन्ना, गांधी और नेहरु को जिम्मेदार मानते हैं और हिंदू महासभा और संघ परिवार,एनसी चटर्जी और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका की चर्चा भी नहीं करते।
भारत विभाजन का इतिहास भी जमींदारी नजरिये से लिखा गया है।
हिंदू महासभा ने भारत विभाजन के लिए पूंर्वी बंगाल में सात सौ से ज्यादा बैठकें की थी।श्यामा प्रसाद मुखर्जी का तो यह भी कहना था कि भारत का विभाजन हो या न हो,बंगाल का विभाजन जरुर होगा क्योंकि हिंदू समाज के तलछंट अछूतों का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि अविभाजित बंगाल की तीनों सरकारें मुसलमानों के नेतृत्व में थीं,जिनमें बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्रनाथ मंडल के किरदार खास थे।
विडंबना है कि शिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन में अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल की युगलबंदी थी।जिस बंगाल ने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर को संविधान सभा के लिए निर्वाचित किया,भारत विभाजन के बाद पश्चिम बगाल और बाकी देश में छितरादिये गये बंगाली शरणार्थी बहुजनों में वे बाबासाहेब और जोगेंद्रनाथ मंडल खलनायक हैं।
नागरिकता संशोधन विधेयक पास करने के बाद सिर्फ हिंदुओं को नागरिकता देने के लिए उसी संशोधित नागरिकता कानून को 1955 का मूल नागरिकता कानून बताकर हिंदुओं के लिए नागरिकता के बहाने फिर संघ परिवार ने असम,बंगाल,त्रिपुरा और समूचे पूर्वी पूर्वोत्तर भारत में एक बार फिर हिंदू और मुसलमान विभाजनपीड़ितों का बंटवारा करके भविष्य में पूर्वी बंगाल की तर्ज पर मुस्लिम दलित गठबंधन के जरिये यूपी बिहार की तरह समाजिक बदलाव की संभावना में बारुदी सुरंग लगाने के साथ साथ बंगाल जीतने के मास्टर प्लान के साथ पूरब और पर्वोत्तर के दंगाई केसरियाकरण का हिंदुत्व का यह विध्वंसकारी एजंडा बनाया है।
अब हिंदुओं को नागरिकता देने के वायदे से उल्फाई बंगाली विरोधी तत्व सोनोवाल के खिलाफ हो गये हैं तो सरकारी गैरसरकारी दोनों तरीके से बंगाली हिंदू विभाजनपीड़ितों का असम में उत्पीड़न तेज होता जा रहा है।अब असम में विभाजनपीड़ितों के लिए बांग्लादेश या पाकिस्तान से भी खतरनाक माहौल है।
असम और बाकी देश में हिंदुत्व के बहाने हिंदू और मुसलमान विभाजनपीड़ितों में फर्क करके दोनों को नागरिकता से वंचित रखने की सियासत ने हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों का ध्रूवीकरण कर दिया है और यही ध्रूवीकरण संघ परिवार का बंगाल जीतने का मास्टर प्लान है तो यह भयंकर खूनी दंगाई सियासत उससे ज्यादा है,जिसके शिकार असम,त्रिपुरा और बाकी भारत में विभाजनपीड़ितों के साथ साथ रोजगार और आजीविका के लिए गृह प्रदेश से बाहर जाने को मजबूर भारतीय नागरिक उसी तरह होंगे जैसे नागरिकता कानून बदलने के बाद अभूतपूर्व रोजगार संकट की वजह से बंगाल के हर जिले से निकले मेहनतकश बंगाली भारतीय नागरिक और उनके साथ साथ यूपी बिहार के लोग होते रहे हैं और होंगे।
इसके विपरीत शरणार्थी और उनके नेता इस संकट से निबटने के लिए अब भी संघ परिवार के रहमोकरम के भरोसे हैं और देश भर में ये शरणार्थी ही संघ परिवार की बजरंगी पैदल सेना में दलितों और पिछड़े के साथ मुसलमानों के खिलाफ लामबंद हैं।
हम लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि संघ परिवार को हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देनी थी,तो संघ परिवार उनकी नागरिकता छीनता ही क्यों?
कांग्रेस और मुसलमानों को भारत विभाजन के दोषी मानने की मानसिकता की वजह से न नेता और न आम बंगाली शरणार्थी हमारी कोई दलील सुन रहे हैं।
हम पहले से आम सभाओं मे लगातार ट्रंप की ताजपोशी के बाद दुनियाभर में नस्ली नरसंहार अभियान के तहत शरणार्थियों के खिलाफ तेज होने वाले नस्ली हमलों की चेतावनी दी है।हमारी चेतावनी किसीको पंसद नहीं आयी।
चूंकि नाइन इलेविन के बाद अमेरिकी हितों के मुताबिक दुनियाभर में नागरिकता कानून बदला है और उसी सिलसिले में इजराइल और अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी के तहत अमेरिकी और विदेशी पूंजी के हित में अबाध बेदखली के लिए आधार योजना के तहत 1955 से नागरिकता कानून बदलकर जन्मजात नैसर्गिक नागरिकता का प्राऴधान खत्म किया गया है तो यह समझने वाली बात है कि डान डोनाल्ड ट्रंप की शरणार्थी और आप्रवासी विरोधी राजकाज और राजनय का असर बाकी दुनिया के हर हिस्से में और खासकर भारत में कितना और कैसा होना है।
जाहिर है कि राष्ट्रीयता का सवाल उलझने वाला है और क्षेत्रीय अस्मिता भारी पड़ने वाली है।शरणार्थियों से कहीं ज्यादा विस्थापित तो देश के अंदर है।आदिवासी भूगोल के सलवा जुडुम को छोड़ ही दें,बाकी भारत में हिमालय से लेकर समुंदर तक में विस्थापन का मंजर असल में शरणार्थी समस्या है और ट्रंप के रंगभेदी राजकाज के मुताबिक हिंदुत्व का एजंडा विशुद्ध नरसंहार संस्कृति है।खतरनाक बात यह है कि बहुसंख्यहिंदुओं की आस्था भी वही बन गयी है और जनादेश भी वही है।फासिज्म के राजकाज का लोकतंत्र और संविधान यही है।
सबसे खतरनाक है कि भारतीयता और राष्ट्रीय एकात्मकता की डंका पीटने वाले संघ परिवार का हिंदुत्व एजंडा क्षेत्रीय अस्मिता उग्रवाद के साथ नत्थी है।
जाहिर है कि असम और पूर्वोत्तर के उग्रतम क्षेत्रीयतावाद, पंजाब में अकाली राजनीति और महाराष्ट्र गुजरात में भगवा आतंकवाद,यूपी में फर्जी मुठभेड़ और छत्तीसगढ़ के सलवा जुड़ुम का रिमोट कंट्रोल नागपुर के संस्थागत मुख्यालय में है।
बहरहाल असम के ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) समेत कोई तीन दर्जन संगठन हिंदू बंगाली शरणार्तियों को नागरिकता देने का लगातार विरोध कर रहे हैं। दूसरी ओर,कोई 15 साल तक असम में सत्ता में रही कांग्रेस असम समझौते को लागू करने की मांग कर रही है। इसके तहत वर्ष 1971 से पहले असम आने वालों को ही नागरिकता देने का प्रावधान है।
अब ताजा नागरिकता संसोधन विधेयक में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं को भी नागरिकता देने का प्रावधान है। लेकिन इसका जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है। असम की राजनीति पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठ के इर्द-गिर्द घूमती रही है।इसी मुद्दे पर अस्सी के दशक में असम आंदोलन भी हो चुका है।जिसकी कमान बी संघपरिवार के हाथ में है।उसी आंदोलन की उपज सोनोवाल हैं।
बहरहाल हिंदू शरणार्थी अपनी नागरिकता के लिए जाहिरा तौर पर इस बिल का समर्थन कर रहे हैं।लेकिन शंघपरिवार इस बिल को लेकर कतई गंभीर नहीं है।बिल को लेकर उसने शतरंज की बाजी बिछा दी है और अब महाभारत है।
गौरतलब है कि जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए पेश विधेयक फिलहाल संसद की स्थायी समिति के पास विचारधीन है। प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से बिना किसी वैध कागजात के भाग कर आने वाले गैर-मुसलमान आप्रवासियों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। इसके दायरे में ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिनका पासपोर्ट या वीजा खत्म हो गया है। प्रस्तावित संशोधन के बाद अब उनको अवैध नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा।
अब असम की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अलावा ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम में सोनोवाल की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार की सहयोगी रही असम गण परिषद (अगप) के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत नागरिकता अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ मुखर हैं।
राज्य के साहित्यिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाते हुए अंदेशा जताया है कि इससे असम के स्थानीय लोगों पर पहचान का संकट पैदा हो जाएगा।
इसी पृष्ठभूमि में साठ दशक के बाद फिर बंगाली हिंदू शरणार्तियों को असम छोड़ने की उल्फाई मुहिम नये सिरे से शुरु है।
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Rohit Vemula phenomenon ontinues! JNU Student Najib still missing!Jadavpur Univarsity Santhal M.Phil student Sushil Madni is also Missing! Sardindu Uddipan, Dalit Solidarity network complaints Silence in the Hok KOLROB plus civil society Camp!
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সুশীল কোথায়?
একটি মাতালের মৃত্যুর পরে মোমবাতি জ্বলে এই শহরে! বিদ্বজ্জনেরা রাস্তায় নামেন। মাতালের স্বাধিকারের জন্য গলা ফাটায় !! মিছিল চলে রাজপথ জুড়ে !!
কিন্তু হায়!!
সুশীল মান্ডির নিরুদ্দেশ নিয়ে এই বিদ্বজ্জনেদের কোন সাড়া পাওয়া যায় না। কেননা সুশীল দলতি-বহুজন সমাজের মানুষ। একজন আদিবাসী। হতে পারে সে গবেষক। হতে পারে সে শ্রম এবং উৎপাদনের সাথে জড়িত বৃহত্তর মানুষের রক্তে বোনা ফসল। তাতে বাবুদের কি। তাতে এলিটদের কি। প্রভূদের ভজনা করে গণ্ডে পিণ্ডে উচ্ছিষ্ট ভোজন করতে পারলেই তাদের শান্তি। প্রভূদের সুখেই তাদের সুখ। প্রভূদের বিপদ মানে তাদের বিপদ।
সুশীল মান্ডি হুগলী জেলার ধনিয়াখালি থানার রোজিপুর গ্রামের সাঁওতাল সন্তান। পিতা শিবু মান্ডি একজন খেটে খাওয়া মজদুর। যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয় থেকে সিভিল ইঞ্জিনিয়ারিং পাশ করে বর্তমানে সে এই বিশ্ববিদ্যালয়েরই ভাষাতত্ত্ব বিভাগের একজন M. Phil Scholar. বিগত কয়েক বছর ধরে সে সামাজিক এবং রাজনৈতিক আন্দোলনের সক্রিয় কর্মী। যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয়ের হোককলরব এবং রোহিত ভেমুলার স্বাধিকার আন্দোলনে একেবারে সামনে থেকে নেতৃত্ব দিয়েছে সুশীল। দলতি-বহুজন ছাত্রছাত্রীদের নিয়ে তৈরি করেছে সংগঠন। পাশাপাশি সে এই বিশ্ববিদ্যালয়ের র্যারডিক্যাল গ্রুপেরও একজন সক্রিয় কর্মী।
গত ০২/০২/২০১৭ তারিখ থেকে যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্রাবাস থেকে সে নিখোঁজ হয়ে যায়। পরের দিন তার দাদা হারাধন মান্ডি যাদবপুর থানায় অভিযোগ করে জানান যে এই বিশ্ববিদ্যালয়ের এলিট সম্প্রদায়ের কিছু ছেলে মেয়ে তার ভাইয়ের চরিত্র হনন করার জন্য ফেসবুকে এমন কিছু পোষ্ট দেয় যা তার কাছে চরম অমর্যাদাকর। তিনি আরো জানান যে সুশীলের এই নিরুদ্দেশ হয়ে যাওয়ার পেছনে রয়েছে জাতি বিদ্বেষ, ঘৃণা এবং অবজ্ঞা।
বিশেষ সূত্র থেকে জানা যায় যে দীর্ঘদিন ধরে ক্যাম্পাসের মধ্যে ছাত্রীদের ব্যবহারের জন্য বাথরুমগুলো বন্ধ আছে। ছাত্রছাত্রীরা এ নিয়ে কর্তৃপক্ষকে একটি নোটিশ দেয়। বলা হয় নির্দিষ্ট দিন পর্যন্ত বাথরুমগুলি না খুললে তা ভেঙ্গে দেওয়া হবে। গত ১৬ই জানুয়ারি ছিল এই তালা ভাঙার দিন। এই ঘটনার পরে আম্বি রাজ নামে একটি মেয়ে তার বন্ধু নবোত্তমাকে জানায় যে আন্দোলনের সময় র্যা ডিক্যাল গ্রুপের একটি ছেলের কাছ থেকে সে হেনস্থার শিকার হয়েছে (she was groped by a member of Radical, time and again) এ নিয়ে সে ফেসবুকে একটি পোষ্টও করে। তার এই প্রথম পোষ্টে কোথাও Molestation কথাটি ব্যবহার করা হয় নি বা সুশীলের নামও ব্যবহার করা হয়নি। এই পোষ্টের পর র্যা ডিক্যালের জুবি সাহা এবং ইউএসডিএফ এর নবোত্তমাকে আলাপ আলোচনার মাধ্যমে বিষয়টি মিটিয়ে ফেলার জন্য দায়িত্ব দেওয়া হয়। দুজনেই একমত হয় যে পারস্পরিক আলোচনার মাধ্য দিয়ে যদি কেউ কোন ভুল করে থাকে তবে সে ক্ষমা চেয়ে নেবে। প্রকাশ থাকে যে আম্বি রাজ সুশীল মান্ডি এই ঘটনার জন্য দায়ী বলে নবোত্তমাকে জানায়। সুশীলের কাছে এই বিষয়ে জানতে চাইলে সে জানায় যে এই ঘটনার বিষয়ে সে কিছুই জানে না। তবুও অসচেতন ভাবে তার আচরণে যদি কারো খারাপ লাগে তবে সে ক্ষমা চাইবে। এ নিয়ে উভয় ছাত্র সংগঠনের মধ্যে একটি সভার আয়োজন করা হয় কিন্তু শর্ত রাখা হয় যে এই সভায় সুশীল উপস্থিত থাকবে না। এই সভায় আম্বি রাজ জানায় যে ঘটনার দিন সুশীল মান্ডি আম্বির কাছ থেকে সিগারেটের কাউন্টার নিয়েছে, তাকে improperly touch করেছে। র্যা ডিক্যাল গ্রুপ সুশীলের বক্তব্য শোনার দাবী রাখলেও তা মানা হয় নি। এর পরে ইউএসডিএফ থেকে একটি যৌথ পোষ্ট দিয়ে সুশীলকে অভিযুক্ত সাব্যস্ত করা হয় এবং আবার ফেসবুকে একটি পোস্ট দিয়ে সুশীলকে যৌন হেনস্থার জন্য দোষী ঘোষণা করা হয়।
এখানে বলে রাখা ভাল যে ক্যাম্পাসের মধ্যে এই যৌনহেনস্থা নিবারণের জন্য একটি Internal complain Committee এবং Sexual harassment Cell আছে। ইউএসডিএফ থেকে সেখানে অভিযোগ না জানিয়ে নিজেরাই বিচার করে সুশীলকে অভিযুক্ত সাব্যস্ত করেছে। ফেসবুকে একাধিক পোষ্ট দেওয়া হয় এবং সুশীলকে চরম ভাবে অপমান করা হয়। এই কান্ডে যারা জড়িত তারা হল,
১। সৌম্য মণ্ডল (বহিরাগত ছাত্র, ইউডিএসএফ এর সম্পাদক)
২। দিব্যকমল মিত্র(ইংরেজী পিজি-২)
৩।কৌস্তব মণ্ডল (এক্স সডুডেন্ট)
৪। অম্বুজা রাজ (ফিল্ম স্টাডিজ- পিজি-১)
৫। নবোত্তমা পাল (ইন্টারন্যাশনাল রিলেশন, পিজি-১)
তাকে এই ভাবে বলির পাঁঠা সাব্যস্ত করার পরে সুশীল ভয়ংকর ভাবে ভেঙ্গে পড়ে। নিজেকে গুটিয়ে নেয়। বন্ধুদের সাথে মেলামেশা বন্ধ করে দেয়। এই সময় ভাঙ্গড় নিয়ে তুমুল আন্দোলন চললেও তাতে সে অংশগ্রহণ করে না। কেমন যেন খালি হয়ে যায় তার বুক। এত লড়াই এত আত্তত্যাগ একেবারে ফেকাশে মনে হয়। মনে হয় দলিত হয়ে জন্মানোটাই একটি অভিশাপ। এই সমাজ, এই রাষ্ট্র ব্যবস্থায় একজন দলিতের সার্বিক বিকাশের কোন সম্ভাবনা নেই। মেকি সমাজ, মেকি বন্ধুত্ব, মেকি সব সাংগঠনিক স্বপন। এলিট মগজের মধ্যে শুধু ঘৃণা আর জাতপাত। এই সব বড় বড় ভাষণ আর গলাবাজি একজন দলিতের কোন কাজে লাগবে না।
এরপর গত ০২.০২.২০১৭ তারিখে কাউকে না জানিয়ে সে নিরুদ্দেশ হয়ে যায়। আজ ১০দিন হয়ে গেল ছেলেটির কোন খোঁজ নেই। পুলিশ প্রশাসন ঠুটো জগন্নাথ। বুদ্ধিজীবীরা ভরপেট উচ্ছিষ্ট খেয়ে নিদ্রামগ্ন !! একটি রাস্তায় খোলা আছে আমাদের সামনে। একেবারে শেষ দেখে ছাড়া। তিলে তিলে ঘৃণা এবং আত্তহননের চেয়ে সংগ্রামের মধ্য দিয়ে স্বাধিকার অর্জন করা।
রোহিত, নাজিব, সুশীলদের শপথ নিয়ে ভবিষ্যৎ প্রজন্মের জন্য বাসযোগ্য ভূমি তৈরি করা।
আসুন শপথ নিন।
নাজিব, সুশীলকে ফিরিয়ে আনা হোক আমাদের লক্ষ্য।
জয় ভীম।
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पश्चिम उत्तर प्रदेश में फूट गया नोटबंदी का बम! किसानों के गुस्से ने केसरिया मजहबी सियासत को शिकस्त दे दी,असर पूरे यूपी पर होना है।दलित मुसलमान एकता से बदलने लगी है फिजां तो मजहबी सियासत पस्त है। मुसलमानों के बेहिचक बसपा के साथ हो जाने से साइकिल के दोनों पहिये भी पंक्चर! पलाश विश्वास
पश्चिम उत्तर प्रदेश में फूट गया नोटबंदी का बम!
किसानों के गुस्से ने केसरिया मजहबी सियासत को शिकस्त दे दी,असर पूरे यूपी पर होना है।दलित मुसलमान एकता से बदलने लगी है फिजां तो मजहबी सियासत पस्त है।
मुसलमानों के बेहिचक बसपा के साथ हो जाने से साइकिल के दोनों पहिये भी पंक्चर!
पलाश विश्वास
खास खबर यह है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में नोटबंदी का बम फूट गया है। अजित संह की मौकापरस्ती की वजह से पहली बार पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों पर चौधरी चरण सिंह की विरासत का कोई असर नहीं हुआ है।यूपी में आज पहले चरण का मतदान खत्म हो गया है।पश्चिम उत्तर प्रदेश में आज 15 जिलों की 73 सीटों पर मतदान हुआ है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले चरण में 15 जिलों की कुल 73 सीटों पर आज छिटपुट घटनाओं के बीच औसतन करीब 64 प्रतिशत वोट पड़े।
खास बात यह है कि इसबार महिलाओं ने बढ़ चढ़कर जोश दिखाया जिसकी वजह से करीब 3 करोड़ लोगों ने वोट डाला है। पिछली बार 61 प्रतिशत मतदान हुआ था। 839 उम्मीदवारों की किस्मत EVM में आज बंद हो गई है।
यूपी से आ रही खबरों का लब्बोलुआब यही हैकि छप्पन इंच के सीने के लिए ऐन मौके पर राम की सौगंध खाकर राममंदिर निर्माण के संकल्प के बावजूद अबकी दफा फिर यूपी की जनता ने वानरसेना बनने से इंकार कर दिया है और किसानों के नरसंहार के ऩसरसंहार के चाकचौबंद इंतजाम की कीमत संघ परिवार को चुकाना ही होगा।
पश्चिम उत्तर प्रदेस में दंगाई सियासत के जरिये यूपी जीतने और नोटबंदी से यूपी जीतने का कारपोरेट हिंदुत्व एजंडा मतदान के पहले ही चरण में बुरीतरह फेल है और बढ़त दलित मुसल्मान एकता को है,जिसकी जरुरत पर बहुजन बुद्धिजीवी एचएल दुसाध ने हस्तक्षेप पर लगे अपने आलेख में खास जोर दिया है।
बिना किसी सोरगुल के मायावती ने नये सिरे से सोशल इंजीनियरिंग करके अखिलेश के अल्पसंख्यक उत्पीड़न,कांग्रेस क मौकापरस्ती और संघ परिवार की दंगाई सियासत को करारा जबाव दिया है।बामसेफ ने भी अलग पार्टी बनाकर लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद इसबार बाजपा को हराने वाले उम्मीदवार को जिताने की मुहिम चलाकर भाजपा के खिलाफ दलित मुसलमान गढबंधन फिर खड़ा करने में मददगार है।
अजित सिंह सत्ता के लिए सौदेबाजी के माहिर खिलाड़ी है तो अखिलेश के साथ कड़क मोलभाव में वे गच्चा खा गये।वैसे भी वे पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों के नेता अजित सिंह अब अब रहे नहीं है और न किसानों के हितों से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है।
इसके उलट,अजित सिंह ने चौधरी साहब की विरासत का जो गुड़ गोबर किया,उसकी वजह से उत्तर भारत के किसानों और खास तौर पर जाटों को चौधरी साहेब के अवसान के बाद भारी नुकसान उठाना पड़ा है।
मुजफ्फर नगर में संघ परिवार को खुल्ला खेलने देकर अजित सिंह ने जो भारी गलती की है,उसके लिए उन्हें पश्चिम उत्तर प्रदेश के हिंदू मुसलमान किसान कभी माफ नहीं करेंगे।भाजपा को हराने के लिए सपा के आत्मघाती मूसलपर्व की वजह से और कांग्रेस के दंगाई इतिहास की वजह से मुसलमानों ने बसपा को वोट देने का फैसला करके यूपी में केसरिया अश्वमेधी अभियान के सारे सिपाहसालारों को चित्त कर दिया है।बाकी यूपी में भी इसका असर होना है।
दूसरी तरफ, उत्तराखंड में भी भूमि माफिया से नत्थी भाजपा ने अपने तमाम पुराने नेताओं को किनारे लगाकर जैसे एक के बाद एक भ्रष्ट नेताओं को टिकट बांटे हैं,वहां भी पश्चिम उत्तर प्रदेश की तरह पांसा बदल जाये तो कोई अचरज की बात नहीं होगी।वैसे पश्चिम यूपी के वोट औरभाजपा विरोधी हवा का उत्तराखंड की तराई में भी असर होना है।
मुश्किल यह है कि उत्तराखंड जीतने में कांग्रेस की कोई दलचस्पी नहीं है।छोटा राज्य होने की वजह से कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए उत्तराखंड में खास दिलचस्पी नहीं है तो दसों दिशाओं में गहराते संकट के बादल की वजह से संघ परिवार कमसकम उत्तराखंड जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है।कांग्रेस के नेता खासकर हरदा के खासमखास वफादारलोग उन्हें हरामने में कोई कसर छोड़ नहीं रहे हैं।
गौरतलब है कि किसान सभा और वाम किसान आंदोलनों के दायरे से बाहर उत्तर भारत और बाकी देश में चौधरी चरण सिंह के किसान आंदोलन का असर अब इतिहास है।फिरभी उत्तर भारत के किसानों खासकर पंजाबियों,सिखों और जाट गुज्जरों और मुसलामनों में सामाजिक तानाबाना सत्तावर्ग की दंगाई मजहबी सियासत के बावजूद अब भी अटूट है।
खासकर आगरा से लेकर बरेली तक और मेरठ गाजियाबाद से लेकर हरियाणा और उत्तराखंड के हरिद्वार जिले तक किसानों में नाजुक बिरादाराना रिश्तेदारी रही है जाति धर्म नस्ल भाषा के आर पार,जिसपर मेऱठ,अलीगढ़,मुरादाबाद ,आगरा के दंगों ने और बाबरी विध्वंस के बाद पूरे उत्तर प्रदेश में दंगाई फिजां बने जाने का भी कोई असर नहीं हुआ था।
पिछले लोकसभा चुनाव से पहले मुजफ्फरनगरके देहात में दंगा भड़काकर किसानों और खासकर जाटों का जो केसरियाकरण किया संघ परिवार ने,उसके आधार पर यूपी में हिंदुत्व के नाम राममंदिर आंदोलन के बाद धार्मिक ध्रूवीकरण हो गया था और पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपना दल के साथ गंठबंधन के जरिये भाजपा को लोकसभा चुनाव में बसपा, कांग्रेस और सपा के सफाया करने में कामयाबी मिली है।अब सिरे से पांसा पलट गया है। संजोग से नोटबंदी का असर खेती पर जिस भयानक तरीके से हुआ और जाटों को आरक्षण के नाम जिस तरह धोखा केंद्र सरकार ने गुजरात के पटेलों और राजस्थान के गुज्जरों की तरह दिया,उससे हालात सिरे से बदल गये हैं।
मेरे पिताजी चौधरी साहेब के भारतीय किसान समाज के राष्ट्रीय कार्यकारिणी में थे,तब मैं अपने गांव के बगल में गांव हरिदासपुर में प्राइमरी स्कूल में था।तराई में चौधरी नेपाल सिंह 1958 के ढिमरी ब्लाक आंदोलन के दौरान पिताजी के कामरेड हुआ करते थे,जिनसे हमारे पारिवारिक संबंध बने हुए रहे हैं।
तराई के जाटों को हम शुरु से अपने परिजन पंजाबी,सिखों,पहाड़ियों,देशी और बुक्सा-थारु गावों के लोगों की तरह मानते रहे हैं।मुसलमान आबादी हमारे इलाके में उतनी नहीं रही है।फिर हमारे बचपन के दौरान साठ के दशक में विभाजन के जख्म सभी शरणार्थियों में इतने गहरे थे कि मुसलमान गांवों से रिश्ते बनने से पहले हम नैनीताल पढ़ने को निकल गये।
1984 से 1990 तक मैं बाहैसियत पेशेवर पत्रकार रहा हूं और बिजनौर में सविताबाबू का मायका है।तब से लेकर अब तक पश्चिम उत्तर प्रदेश से हमारा नाता टूटा नहीं है।टिकैत के किसान आंदोलन के बाद साबित हो गया है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान चाहें तो सारा राजनीतिक समीकरण की ऐसी तैसी कर दें। राजस्थान और हरियाणा के जाट नेतृत्व और उनकी ताकत भी हम जान रहे हैं।जाटों ने भाजपाको हराने की कसम खायी है तो संघ परिवार यूं समझो कि यूपी की सियासत से बाहर है।
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एक शोक मंतव्य अस्सी करोड़ में बिकी देशी ब्रांड एम्बेसडर के नाम फासिस्ट रेसिस्ट राजकाज के संरक्षण में बड़ी मछलियां चोटी मछलियों के खाने वाली हैं पलाश विश्वास
एक शोक मंतव्य अस्सी करोड़ में बिकी देशी ब्रांड एम्बेसडर के नाम
फासिस्ट रेसिस्ट राजकाज के संरक्षण में बड़ी मछलियां चोटी मछलियों के खाने वाली हैं
पलाश विश्वास
बीबीसी की खबर है और दिलोदिमाग लहूलुहान हैः
One of India's most iconic car brands has been sold by Hindustan Motors to the French manufacturer Peugeot for a nominal $12m (£9.6m), officials say. The Ambassador car used to be one of India's most prestigious vehicles beloved by government ministers.
बीबीसी हिंदी की खबर में इसकी वजह का खुलासा भी हो गया हैः
एक ज़माने में भारत में रुतबे और रसूख का पर्याय मानी जाने वाली एम्बेसडर कार का ब्रांड 80 करोड़ की मामूली कीमत पर बिक गया है. अधिकारियों ने बताया कि हिंदुस्तान मोटर्स ने फ्रांसीसी कंपनी पूजो के साथ ये सौदा किया है. एक वक्त था जब भारत में सरकारी लोगों की ये पसंदीदा कार हुआ करती थी, लेकिन 2014 के बाद से ही इसका उत्पादन बंद कर दिया गया.
खबरों के मुताबिक कभी नेताओं और नामी-गिरामी लोगों की शाही सवारी रही एंबेसडर कार के ब्रांड को हिंदुस्तान मोटर्सने बेच दिया है। यूरोप की दिग्गज ऑटो कंपनी प्यूजो ने इसे सिर्फ 80 करोड़ रुपये में खरीदा है। तीन साल पहले 2014 में एंबेसडर कार का प्रोडक्शन रोक दिया गया था। पिछले महीने पीसीए समूह ने भारतीय बाजार में प्रवेश करने के लिए सीके बिड़ला ग्रुप के साथ डील की थी, जिसके तहत शुरुआत में करीब 700 करोड़ रुपये का निवेश किया जाना है। इस रकम से तमिलनाडु में मैन्युफैक्चरिंग प्लांट लगाया जाएगा। इस प्लांट में हर साल 1 लाख वाहन बनाने की क्षमता होगी।
गौर करें,खबर के मुताबिक 2014 से एम्बेसडर कार का उत्पादन बंद हो गया है।
नोटबंदी के बाद यूपी चुनाव से बजट और राम के नाम, राम की सौगंध और राममंदिर के घटाटोप में अर्थव्यवस्था की सेहत समझने के लिए यह आर्थिक वारदात बेहद गौरतलब है।नोटबंदी की तिमाही में उत्पादन दर और विकास दर में गिरावट हुई है,जिससे झोला छाप बगुला भगत वित्तीय प्रबंधक और पालतू अर्थशास्त्री और मीडिया सिरे से इंकार करते हुए सुनहले दिनों के तिलिस्म में आम लोगों की जिंदगी को जलती हुई कब्रगाह में तब्दील करने का मुक्तबाजारी महोत्सव मना रहे हैं।
गरीबों की गरीबी दूर करने के बहाने राम के नाम फासिज्म का कोरबार की तर्ज पर गरीबी उन्मूलन और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की भगवा वैदिकी पेशवाराज मार्का नैतिकता की सुनामी की आड़ में देश और आम जनता की मिल्कियत देश के संसाधन बेचने की पूरी प्रक्रिया एम्बेसडर ब्रांड विदेशी हवाले करने से जगजाहिर है और बीबीसी की खबर में देश की नीलामी की जो तस्वीर चस्पां है,उसे अंध राष्ट्रवादी हिंदुत्व के नजरिये से देश पाना उतना आसान भी नहीं है।
बजट पेश करने के बाद सरकार ने जिस तरह से राशन कार्ड के साथ आधार कार्ड को नत्थी कर दिया है और जिसपर राजनीति फिर सिरे से खामोश है,जाहिर है कि पटरी से अर्थव्यवस्था उतर जाने और उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने से किसी की सेहत में कोई फर्क नहीं पड़ा है तो आम जनता को एम्बेसडर जैसे ब्रांड के विदेशी हाथों में जाने से कोई तकलीफ होगी नहीं।
गौरतलब है कि इस बीच सरकार ने सेबी के नए चेयरमैन का एलान कर दिया है। वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी अजय त्यागी को पांच साल के लिए सेबी का नया चेयरमैन बनाया है। अजय त्यागी 1 मार्च से मौजूदा सेबी चेयरमैन यू के सिन्हा की जगह लेंगे।सेबी जैसी नियामक संस्था के चेयरमैन पद की काबिलियत अगर संग की वफादारी है तो समझ लीजिये की देश की अर्थव्यवस्था नागपुर के हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक किन लोगों और किन चुनिंदा कंपनियों के हित में है और शेयर बाजार से नत्थी सारी बुनियादी सेवाओं को हासिल करने कैशलैस डिजिटल इंडिया में आम जनाता. कारोबार और इंडियािंकारपोरेशना का क्या हाल होना है।
खबरों के मुताबिक अजय त्यागी हिमाचल प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर हैं, जो वित्त मंत्रालय के इकोनॉमिक अफेयर्स डिपार्टमेंट में अतिरिक्त सचिव का कार्यभार संभाल रहे हैं। सेबी चीफ के पद की दौड़ में ऊर्जा सचिव पी के पुजारी और आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांता दास भी थे लेकिन त्यागी दोनों को पीछे छोड़कर चेयरमैन बनने में कामयाब रहे। इससे पहले यूके सिन्हा 18 फरवरी 2011 को सेबी के चेयरमैन बने थे, जिन्हें दो बार का सेवा विस्तार दिया गया था।
इसी बीच वित्त मंत्री ने कहा है कि प्रतिभूति बाजारों में बराबर बड़े घटनाक्रम देखने को मिलते रहते हैं और बाजार विनियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) अर्थव्यवस्थाकी जरूरत और और बाजार के हिसाब से एक पेशेवर संगठन के रूप में अपना विकास कर रहा है। वित्त मंत्री ने सेबी बोर्ड के सदस्यों और अधिकारियों के साथ बैठक में इस साल सल के बजट में बाजार संबंधी पहलों पर विचार विमर्श किया। हर साल बजट के ठीक बाद होने वाली इस परंपरागत बैठक में बजट प्रस्तावों के संदर्भ में पूंजी बाजार नियामक के भविष्य के एजेंडा पर विचार विमर्श किया गया।
फिर मीडिया का यह शगूफाःनोटबंदी के बाद भले ही भारत की आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार कुछ धीमी पड़ गई हो, लेकिन आने वाले अगले 5 साल में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अमेरिका के एक शीर्ष खुफिया थिंक टैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तान भारत की आर्थिक ताकत का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है, इसलिए वह संतुलन के दिखावे की कोशिश में दूसरे तरीकों की तलाश करेगा।
अंतरराष्ट्रीय कन्सल्टेंसी प्राइसवाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) ने भविष्यवाणी की है कि 2040 तक भारत अमेरिका को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाबन जाएगा। इसकी कीमत हमें कितनी चुकानी है,अपनी जमा पूंजी कमाई पर टैक्स लगने के बावजूद यह सोचने की फुरसत किसी को नहीं है।
दूसरी तरफ,नोटबंदी की कड़ी आलोचना करते हुए प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री स्टीव एच हांके ने आज कहा कि ऊंचे मूल्य के नोटों पर प्रतिबंध के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था नकदीरहित संकट में है। बाल्टीमोर, मैरीलैंड में जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ने ट्वीट किया, 'नोटबंदी हारने वालों के लिए है। नकदी को छोडऩा इसका जवाब नहीं है। भारतीय नकदी अर्थव्यवस्था नकदीरहित संकट में है।' हांके ने इससे पहले कहा था कि शुरुआत से ही नोटबंदी में खामियां रहीं अैर यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यह नहीं जानते कि भारत किस दिशा में जा रहा है। हांके ने कहा था कि भारत के पास मोदी की नोटबंदी के अनुरूप ढलने के लिए जरूरी ढांचा नहीं है। उन्हें इस बात का पता होना चाहिए।
पिछले 26 साल से देश बेचने का कारोबार इस अमेरिकी उपनिवेश में राजकाज है और आर्थिक सुधारों के नाम पर आम जनता का और खास तौर पर बहुजनों का कत्लेमाम है।आम जनता को अर्थशास्त्र नहीं आता और न अर्थव्यवस्था में उसकी दिलचस्पी है।
कारपोरेट देशी कंपनियों के मालिकान,शेयर होल्डरों और वित्तीय प्रबंधकों को क्या हो गया है कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कुछ चुनिंदा कंपनियों को दुनियाभर में अपना साम्राज्य बनाने के लिए राजकोष खुला है।बैंकों से लाखों करोड़ का कर्ज उनके डूबते कारोबार के लिए हैं और इसके अलावा सालाना लाखों का टैक्स माफ है।बाकी सबकी शामत है इस रामराज्य में।
हाल ये हैं कि तेल,गैस और पेट्रोलियम,संचार,ऊर्जा और विमान, जहाज, बंदरगाह,सड़क परिवहन, रेल और मेट्रो रेल,बैंकिंग और बीमा,निर्माण और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में चुनिंदा कपनियों को लाखों करोड़ की रियायतें,विदेशों में उनके अरबों का निवेश और एम्बेसडर ब्राड का सौदा सिर्फ अस्सी करोड़ में।
विनिवेश और निजीकरण के तहत सरकारी कंपनियां कौड़ियों के मोल बिकते देखने और रेलवे समेत सभी सेक्टरों में थोक पैमाने पर छंटनी का नजारा देखने और क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों के नेताओं की विदेश यात्राएं और पंचायत से लेकर संसद तक जन प्रतिनिधियों के करोड़पति और लखपति बनते देखने को अभ्यस्त आम जनता को अब भी अपने बैंक खातों में नोटवर्षा की तर्ज पर सुनहले दिनों का बेसब्री से इंतजार है और यूपी चुनाव से पहले गरीबी उन्मूलन के नारे के साथ बेइंतहा सरकारी खर्च कागद पर दिखाने के करतब से अर्थव्यवस्था के जोड़ घटाव करने के मूड में आम जनता नहीं है,जाहिर है।
दिवालियापन का आलम यह है कि कारपोरेट कंपनियों को यह नजर नहीं आ रहा है कि एम्बेसडर जैसे बेशकीमती हिंदुस्तानी ब्रांड को खत्म करने का इंतजाम 2014 में बिजनेस फ्रेंडली हिंदुत्व की सरकार ने कर दिया है तो आगे उद्योग और कारोबार का हाल किसानों मजदूरों से भी बुरा होना है।
नोटबंदी के बारे में हम पहले दिन से लिख रहे हैं,चाहे तो हस्तक्षेप पर नोटबंदी में लगे तमाम आलेख नये सिरे से पढ़कर देख लें कि नोटबंदी और डिजिटल कैशलैस इंडिया का मतलब नकदी पर चलने वाला खुदरा कारोबार और हाट बाजार खत्म है,किसानों की दस दिशा तबाही है,बेरोजगारी ,भुखमरी और मंदी है तो यह कारपोरेट एकाधिकार का चाकचौबंद इंतजाम है।
बड़ी मछलियां छोटी मछलियां को निगलकर और बड़ी हो जायेंगी।वे और बड़ी हो गयी कंपनियां फासिज्म के राजकाज के सहारे बड़ी कंपनियों को भी बख्शेंगी नहीं।
कारपोरेट लाबिइंग से कारपोरेट कंपनियों को पिछले छब्बीस साल में जो चूना लगता रहा है,उसका हिसाब जोड़ लें।
सरकारी संरक्षण में तेल और गैस में ओएनजीसी जैसे नवरत्न कंपनी और तमाम सरकारी गैरसरकारी तेल कंपनियों का बंटाधार करके जैसे कारपोरेट एकाधिकार कायम हुआ है,वही किस्सा अब बाकी हिंदुस्तानी कारपोरेट कंपननियों का भोगा हुआ यथार्थ बनकर सामने आने वाला है।
एम्बेसडर प्रकरण इस प्रक्रिया की शुरुआत है।वैसे भी कारपोरेट लाबिइंग की वजह से आटो सेक्टर में भारी संकट है।आगे आग दिवालिया बनते जाने की किसकी बारी है,यह सिर्फ नागपुर के मुख्यालय की मर्जी और मिजाज पर निर्भर है।
एम्बेसडर को हम बचपन से जान रहे हैं।जब हम नैनीताल में पढ़ रहे थे।पहाड़ों में रेल तो क्या साईकिलें तक दिखती नहीं थी।पहाड़ों में और तराई में तब साठ और सत्तर के दशक में परिवहन का मतलब केएमओ और जीएमओ की बसों,टाटा के ट्रकों के अलावा चार पहिया वाहनों के मामले में एम्बेसडर कारें और जीप हुआ करती थी।जीप और जोंगा तो सिरे से लापता है,लेकिन एम्बेसडर चल रहा था।
हिंदुस्तान मोटर्स का कोलकाता के नजदीक हिंद मोटर काऱखाना संकट में है और 2014 से एम्बेसडर का उत्पादन बंद है तो ब्रांड को विदेशी हाथों में महज अस्सी करोड़ के एवज में सौंपने से पहले बिजनेस फ्रेंडली सरकार के पास बहुत मौके थे एम्बेसडर बचाने के।
किंगफिशर और विजय माल्या या विदेशों में अरबों डालर और पौंड नोटबंदी के आपातकाल में भी निवेश करने वाली कंपनियों के हितों का ख्याल जितना है इस फासिज्म के राजकाज को,उसका तनिको हिस्सा अगर एम्बेसडर के लिए खर्च होता।
हम जब कुमायूं और गढवाल में पदयात्राें कर रहे थे तब कारों की सवारी का ख्वाब हम जाहिरा तौर पर नहीं देखते थे।लेकिन पेशेवर पत्रकारिता की वजह से 36 सालों में हमने कारों की सवारी खूब की है।मेरठ के दंगों के दौरान मारुति जिप्सी या झारखंड में ट्रेकर की सवारी भी खूब की है।लेकिन आधी रात के बाद दफ्तर से घर लौटना हो या कोयला कदानों में भूमिगत आग से घिरी धंसकती हुई जमीन पर दौड़ने की नौबत हो,एम्बेसडर कार हमारी पहली पसंद रही है जो जितने ड्राइवरों से हमारा ताल्लुकात हुआ है,उनके मुताबिक भारत की सड़कों पर सबसे बेहतरीन कार है।
बहरहाल अर्थव्यवस्थी की तबाही,बेरोजगारी और छंटनी के शिकार लोगों के लिए सुनहले दिन हाजिर है क्योंकि सरकार एक तरफ लोगों को नौकरियां दिलवाना चाहती है, तो दूसरी ओर छंटनी के शिकार लोगों को बेहतर मुआवजा मिले, इसकी भी कोशिश कर रही है। इसके लिए सरकार छंटनी से जुड़े कानून में बड़े बदलाव की तैयारी कर रही है। कानून का ये मसौदा अगर लागू होता है तो इससे करोड़ों कर्मचारियों को फायदा होगा।
न रोजगार सृजन की कोई सोच है और न नौकरी की सुरक्षा की कोई गारंटी है।श्रम मंत्रालय छंटनी से जुड़े कानून में संशोधन करने की तैयारी कर रहा है। जानकारी के मुताबिक श्रम मंत्रालय छंटनी की सूरत में कर्मचारियों को मिलने वाले मुआवजे को बढ़ा कर 3 गुना करने का प्रस्ताव भेजेगा।यह इसलिए है कि उत्पादन प्रमाली तहस नहस होने और एकाधिकार कारपोरेट वर्चस्व की वजह से भारी पैमाने पर छंटनी होनी है।यह नजारा खुदरा कारोबार खतम करने वाली ईटेलिंग कंपनियों के रवैये से जाहिर है तो आईटी सेक्र का नाभिनाल तो ट्रंप के एक्जीक्यूटिव आदेशों से जुडा़ है।
मसलन दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी स्नैपडील बड़ी छंटनी की तैयारी में है। सूत्रों के मुताबिक कंपनी अपने 30 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी कर सकती है। धीमी ग्रोथ और नई फंडिंग ना मिलने के कारण कंपनी लागत घटाने को मजबूर है। जिसके चलते करीब 1000 कर्मचारियों को निकाला जा सकता है। इसके अलावा कंपनी की लॉजिस्टिक डिवीजन से करीब 3000 स्थायी और 5000 कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए कर्मचारियों को निकाला जा सकता है। कंपनी ने छंटनी की प्रक्रिया शुरू कर दी है, और इसके लिए दो कंसल्टेंट नियुक्त किए गए हैं।
नोटबंदी के फर्जीवाड़े के हक में आंकडे़ भी सामने आ रहे हैं।मसलन नोटबंदी का उद्योगों पर कुछ असर दिसंबर में दिखा था और इसके बाद भी यह सरकार द्वारा आज जारी दो आंकड़ों में दिख रहा है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) की वृद्घि दर दिसंबर में 0.4 फीसदी रही जबकि नवंबर में इसमें 5.6 फीसदी की तेजी दर्ज की गई थी। इसी तरह कॉरपोरेट कर संग्रह अप्रैल से जनवरी के दौरान महज 2.9 फीसदी बढ़ा जबकि अप्रैल से दिसंबर तक इसमें 4.4 फीसदी की वृद्घि देखी गई थी।
उत्पाद शुल्क संग्रह की वृद्घि भी जनवरी में घटकर 26.3 फीसदी रही जबकि दिसंबर में यह 31.6 फीसदी थी। नोटबंदी के कारण विवेकाधीन खर्चों में कटौती होने से सेवा कर संग्रह में जनवरी के दौरान 9.4 फीसदी की वृद्घि देखी गई जबकि दिसंबर में इसमें 12.4 फीसदी की वृद्घि दर्ज की गई थी। हालांकि यह चकित करने वाला रहा कि नवंबर में शानदार वृद्घि दर्ज करने वाला आईआईपी में जनवरी के दौरान इतनी कमी क्यों रही। आईआईपी में 75.5 फीसदी भारांश वाले विनिर्माण क्षेत्र की वृद्घि दिसंबर में 2 फीसदी रही जबकि जनवरी में यह 5.6 फीसदी बढ़ा था। हालांकि अप्रैल से अक्टूबर में भी आईपीपी में उतनी तेजी नहीं आई थी। ऐसे में केवल विमुद्रीकरण ही आईआईपी में नरमी की वजह नहीं मानी जा सकती। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-जनवरी के दौरान कुल कर संग्रह 12.85 लाख करोड़ रुपये रही है जो इस वर्ष के बजट अनुमान का 76 फीसदी है।
इस खबर पर भी गौर करें कर्मचारी कि सरकार सरकारी कंपनियों की सूचीबद्धता में तेजी लाने के लिए नई व्यवस्था की योजना बना रही है। इसका मकसद एक विभाग से दूसरे विभाग के बीच लाल फीताशाही को खत्म करना और कंपनियों को सूचीबद्धता के लिए चिह्नित करने और उन्हें शेयर बाजार में उतरने के बीच का वक्त कम करना है। इस व्यवस्था को अंतिम मंजूरी देने के लिए मंत्रियोंं की अधिकार प्राप्त समिति को सौंपा जा सकता है, जैसा कि रणनीतिक बिक्री के मामले में होता है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 के अपने बजट भाषण में घोषणा की थी कि केंद्र सरकार सीपीएसई (केंद्र की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों) को शेयर बाजार मेंं समयबद्ध तरीके से सूचीबद्धता के लिए चिह्नित करने के लिए पुनरीक्षित व्यवस्था पेश करेगी। वरिष्ठ सरकारी सूत्रों ने कहा कि इस तरह की व्यवस्था पर अभी काम किया जाना बाकी है। उन्होंने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया में जमीनी काम किए जाने के बाद मंत्रियोंं की अधिकार प्राप्त समिति प्रस्तावित सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी की सूचीबद्धता पर अंतिम फैसला करेगी, जिसमेंं मर्चेंट बैंकर चुना जाना, रोड शो आदि शामिल है। इस तरह मंत्रियों की एक समिति सरकार के सामने एक वैकल्पिक व्यवस्था पेश करेगी, जो पहले से ही रणनीतिक बिक्री के लिए बनी हुई है।
कैबिनेट से पहली मंजूरी मिलने के बाद पीएसयू (ज्यादातर गैर सूचीबद्ध) का मूल्यांकन, दिलचस्पी लेने वाले खरीदारों की तलाश और कीमतें तक करने का काम किया जाएगा। उसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली, परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और जिस विभाग का पीएसयू है, उस विभाग के मंत्री मिलकर इस पर अंतिम फैसला करेंगे। यही समूह सूचीबद्धता के लिए पहले घोषित 5 सरकारी सामान्य बीमा कंपनियों, न्यू इंडिया एश्योरेंस, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस, ओरिएंटल इंश्योरेंस, नैशनल इंश्योरेंस और जरल इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन आफ इंडिया की सूचीबद्धता को अंतिम मंजूरी देगा। वरिष्ठ सरकारी सूत्रों ने कहा कि या तो जेटली गडकरी की जोड़ी या कोई मंत्रियोंं के नए अधिकार प्राप्त समूह को इस मामले की निगरानी व सरकारी कंपनियों की सूचीबद्धता की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।
अभी अगर एंप्लॉयर कर्मचारी को निकलता है तो उसे हर साल के लिए 15 दिन का वेतन मुआवजे के तौर पर देना होता है। मतलब यदि कंपनी में 4 साल काम किया है तो एम्प्लॉयर फिलहाल 2 महीने की तनख्वाह हर्जाने के तौर पर देता है। लेकिन नए प्रस्ताव के तहत यह मुआवजा 6 महीने का हो जाएगा। कैबिनेट की हरी झंडी मिलने के बाद इसे इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड के तहत संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में में पेश किया जा सकता है। संसद से पास होकर अगर यह ड्राफ्ट कानून की शक्ल अख्तियार करता है तो इससे तमाम इंडस्ट्रीज में काम कर रहे करोड़ों लोगों को फायदा पहुंचेगा।
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